Chapter 8 Gaban Novel By Munshi Premchand
Table of Contents
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रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्यूनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी, पर थे बड़े रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते, तो सवेरा कर देते। दफ्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गई थी, दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलंब था। चाहते तो हज़ारों के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बडा स्नेह रखते थे। और कौन ऐसा निठल्ला था, जो
रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहाँ तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य, पर बिसात पर न बैठा रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिए। उसको पकड़कर बैठाया, पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा? बहू आई है, उसका मुँह देखेगा, उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढ़े के साथ शतरंज खेलेगा! कई बार जी में आया, उसे बुलवायें, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह गए। कहाँ जायें? सिनेमा ही देख आवें? किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था, पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवाय और कुछ न सूझा। कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में कदम रखा। रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुँचे और उसका हाथ पकड़कर बोले – “आइए, आइए, बाबू रमानाथ साहब बहादुर! तुम तो इस बुड्ढे को बिल्कुल ही गये। हाँ भाई, अब क्यों आओगे? प्रेमिका की रसीली बातों का आनंद यहाँ कहाँ? चोरी का कुछ पता चला?”
रमानाथ – “कुछ भी नहीं।‘
रमेश – “बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखाई, नहीं सौ-दो सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बड़ा दुःख हुआ होगा?”
रमानाथ – “कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रखा है? मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊं। बाबूजी सुनते नहीं।“
रमेश – ‘बाबूजी के पास क्या कोई खजाना रखा हुआ है? अभी चार-पाँच हज़ार खर्च किये हैं, फिर कहाँ से लाकर गहने बनवा दें? दस-बीस हज़ार रूपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या पचास रूपये होता ही क्या है?’
रमानाथ – “मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उड़ाते थे, नहीं तो बैठे-बैठाये इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा?”
रमेश ने ताक पर से मुहरे और बिसात उतारते हुए कहा – “आओ एक बाजी हो जाए, फिर इस मामले को सोचें, इसे जितना आसान समझ रहे हो, उतना आसान नहीं है। अच्छे-अच्छे धक्के खा रहे हैं।“
रमानाथ – “मेरा तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, मेरे होश ठिकाने नहीं होंगे।‘
रमेश बाबू ने शतरंज के मुहरे बिछाते हुए कहा – “आओ बैठो। एक बार तो खेल लो, फिर सोचें, क्या हो सकता है।‘
रमानाथ – ‘ज़रा भी जी नहीं चाहता, मैं जानता कि सिर मुड़ाते ही ओले पड़ेंगे, तो मैं विवाह के नज़दीक ही न जाता!”
रमेश – “अजी, दो-चार चालें चलो, तो आप-ही-आप जी लग जायगा। ज़रा अक्ल की गांठ तो खुले।“
बाज़ी शुरू हुई। कई मामूली चालों के बाद रमेश बाबू ने रमा का रूख पीट लिया।“
रमानाथ – “ओह, क्या गलती हुई!”
रमेश बाबू की आँखों में नशे की-सी लाली छाने लगी। शतरंज उनके लिए शराब से कम मादक न था। बोले — “बोहनी तो अच्छी हुई! तुम्हारे लिए मैं एक जगह सोच रहा हूँ। मगर वेतन बहुत कम है, केवल तीस रूपये। वह रंगी दाढ़ी वाले खां साहब नहीं हैं, उनसे काम नहीं होता। कई बार बचा चुका हूँ। सोचता था, जब तक किसी तरह काम चले, बने रहें। बाल-बच्चे वाले आदमी हैं। वह तो कई बार कह चुके हैं, मुझे छुट्टी दीजिए। तुम्हारे लायक तो वह जगह नहीं है, चाहो तो कर लो।“
यह कहते-कहते रमा का फीला मार लिया। रमा ने फीले को फिर उठाने की चेष्टा करके कहा – “आप मुझे बातों में लगाकर मेरे मुहरे उड़ाते जाते हैं, इसकी सनद नहीं, लाओ मेरा फीला।‘
रमेश – “देखो भाई, बेईमानी मत करो। मैंने तुम्हारा फीला जबरदस्ती तो नहीं उठाया। हाँ, तो तुम्हें वह जगह मंजूर है?”
रमानाथ – “वेतन तो तीस है।‘
रमेश – “हाँ, वेतन तो कम है, मगर शायद आगे चलकर बढ़ जाये। मेरी तो राय है, कर लो।“
रमानाथ – “अच्छी बात है, आपकी सलाह है, तो कर लूंगा।“
रमेश – “जगह आमदनी की है। मियां ने तो उसी जगह पर रहते हुए लड़कों को एम.ए., एल.एल. बी. करा लिया। दो कॉलेज में पढ़ते हैं। लड़कियों की शादियां अच्छे घरों में की। हाँ, ज़रा समझ-बूझकर काम करने की ज़रूरत है।“
रमानाथ – “आमदनी की मुझे परवाह नहीं, रिश्वत कोई अच्छी चीज़ तो है नहीं।“
रमेश – “बहुत खराब, मगर बाल-बच्चों वाले आदमी क्या करें? तीस रूपयों में गुज़र नहीं हो सकती। मैं अकेला आदमी हूँ। मेरे लिए डेढ़ सौ काफ़ी हैं। कुछ बचा भी लेता हूँ, लेकिन जिस घर में बहुत से आदमी हों, लड़कों की पढ़ाई हो, लड़कियों की शादियाँ हों, वह आदमी क्या कर सकता है? जब तक छोटे-छोटे आदमियों का वेतन इतना न हो जायेगा कि वह भलमनसी के साथ निर्वाह कर सकें, तब तक रिश्वत बंद न होगी। यही रोटी-दाल, घी-दूध तो वह भी खाते हैं। फिर एक को तीस रूपये और दूसरे को तीन सौ रूपये क्यों देते हो?”
रमा का फर्जी पिट गया, रमेश बाबू ने बड़े ज़ोर से कह-कहा मारा.
रमा ने रोष के साथ कहा – “अगर आप चुपचाप खेलते हैं, तो खेलिए, नहीं मैं जाता हूँ। मुझे बातों में लगाकर सारे मुहरे उड़ा लिये!’
रमेश – “अच्छा साहब, अब बोलूं, तो ज़बान पकड़ लीजिये। यह लीजिये, शह! तो तुम कल अर्जी दे दो। उम्मीद तो है, तुम्हें यह जगह मिल जायेगी, मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात-भर खेलना होगा।“
रमानाथ – “आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं।‘
रमेश – “अजी वह दिन गये, जब आप मुझे मात दिया करते थे। आजकल चंद्रमा बलवान हैं। क्या मजाल कि कोई मात दे सके। फिर शह!”
रमानाथ – “जी तो चाहता है, दूसरी बाज़ी मात देकर जाऊं, मगर देर होगी।‘
रमेश – “देर क्या होगी। अभी तो नौ बजे हैं। खेल लो, दिल का अरमान निकल जाये। यह शह और मात!”
रमानाथ – “अच्छा कल की रही। कल ललकार कर पाँच मातें न दी हों, तो कहियेगा।“
रमेश – “अजी जाओ भी, तुम मुझे क्या मात दोगे! हिम्मत हो, तो अभी सही!”
रमानाथ – ‘अच्छा आइये, आप भी क्या कहेंगे, मगर मैं पाँच बाज़ियों से कम न खेलूंगा!”
रमेश – “पाँच नहीं, तुम दस खेलो जी। रात तो अपनी है। तो चलो फिर खाना खा लें। तब निश्चिंत होकर बैठें। तुम्हारे घर कहलाए देता हहूँ कि आज यहीं सोयेंगे, इंतज़ार न करें।“
दोनों ने भोजन किया और फिर शतरंज पर बैठे, पहली बाज़ी में ग्यारह बज गये। रमेश बाबू की जीत रही। दूसरी बाजी भी उन्हीं के हाथ रही। तीसरी बाज़ी खत्म हुई, तो दो बज गये।
रमानाथ – ‘अब तो मुझे नींद आ रही है।‘
रमेश – ‘तो मुँह धो डालो, बरग रखी हुई है। मैं पाँच बाज़ियाँ खेले बगैर सोने न दूंगा।‘
रमेश बाबू को यह विश्वास हो रहा था कि आज मेरा सितारा बुलंद है। नहीं तो रमा को लगातार तीन मात देना आसान न था। वह समझ गए थे, इस वक्त चाहे जितनी बाज़ियाँ खेलूं, जीत मेरी ही होगी, मगर जब चौथी बाज़ी हार गए, तो यह विश्वास जाता रहा। उलटे यह भय हुआ कि कहीं लगातार हारता न जाऊं। बोले – “अब तो सोना चाहिए।‘
रमानाथ – “क्यों, पाँच बाजियाँ पूरी न कर लीजिए?’
रमेश – “कल दफ्तर भी तो जाना है।“
रमा ने अधिक आग्रह न किया। दोनों सोये।
रमा यों ही आठ बजे से पहले न उठता था, फिर आज तो तीन बजे सोया था। आज तो उसे दस बजे तक सोने का अधिकार था। रमेश नियमानुसार पाँच बजे उठ बैठे, स्नान किया, संध्या की, घूमने गये और आठ बजे लौटे, मगर रमा तब तक सोता ही रहा। आखिर जब साढ़े नौ बज गए, तो उन्होंने उसे जगाया।
रमा ने बिगड़कर कहा – “नाहक जगा दिया, कैसी मजे क़ी नींद आ रही थी।‘
रमेश – “अजी वह अर्जी देना है कि नहीं तुमको?’
रमानाथ – “आप दे दीजिएगा।“
रमेश- “और जो कहीं साहब ने बुलाया, तो मैं ही चला जाऊंगा?”
रमानाथ – “ऊंह, जो चाहे कीजिएगा, मैं तो सोता हूँ।‘
रमा फिर लेट गया और रमेश ने भोजन किया, कपड़े पहने और दफ्तर चलने को तैयार हुए। उसी वक्त रमानाथ हड़बड़ाकर उठा और आँखें मलता हुआ बोला- “मैं भी चलूंगा।‘
रमेश- “अरे मुँह-हाथ तो धो ले, भले आदमी!’
रमानाथ- “आप तो चले जा रहे हैं।‘
रमेश- “नहीं, अभी पंद्रह-बीस मिनट तक रूक सकता हूँ, तैयार हो जाओ।‘
रमानाथ- “मैं तैयार हूँ। वहाँ से लौटकर घर भोजन करूंगा।“
रमेश – “कहता तो हूँ, अभी आधा घंटे तक रूका हुआ हूँ।‘
रमा ने एक मिनट में मुँह धोया, पाँच मिनट में भोजन किया और चटपट रमेश के साथ दफ्तर चला।
रास्ते में रमेश ने मुस्कराकर कहा- “घर क्या बहाना करोगे, कुछ सोच रखा है?’
रमानाथ – “कह दूंगा, रमेश बाबू ने आने नहीं दिया।‘
रमेश- “मुझे गालियाँ दिलाओगे और क्या फिर कभी न आने पाओगे।‘
रमानाथ – “ऐसा स्त्री-भक्त नहीं हूँ। हाँ, यह तो बताइए, मुझे अर्ज़ी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा?”
रमेश – “और क्या तुम समझते हो, घर बैठे जगह मिल जायेगी? महीनों दौड़ना पड़ेगा, महीनों! बीसियों सिफारिशें लानी पड़ेंगी। सुबह-शाम हाज़िरी देनी पड़ेगी। क्या नौकरी मिलना आसान है?”
रमानाथ – ‘तो मैं ऐसी नौकरी से बाज़ आया। मुझे तो अर्ज़ी लेकर जाते ही शर्म आती है। खुशामदें कौन करेगा? पहले मुझे क्लर्कों पर बड़ी हँसी आती थी, मगर वही बला मेरे सिर पड़ी। साहब डांट-वांट तो न बतायेंगे?”
रमेश – “बुरी तरह डांटता है, लोग उसके सामने जाते हुए कांपते हैं।‘
रमानाथ – “तो फिर मैं घर जाता हूँ। यह सब मुझसे न बर्दाश्त होगा।“
रमेश – “पहले सब ऐसे ही घबराते हैं, मगर सहते-सहते आदत पड़ जाती है। तुम्हारा दिल धड़क रहा होगा कि न जाने कैसी बीतेगी। जब मैं नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम्र मेरी भी थी, और शादी हुए तीन ही महीने हुए थे। जिस दिन मेरी पेशी होने वाली थी, ऐसा घबराया हुआ था, मानो फांसी पाने जा रहा हूं; मगर तुम्हें डरने का कोई कारण नहीं है। मैं सब ठीक कर दूंगा।“
रमानाथ – “आपको तो बीस-बाईस साल नौकरी करते हो गए होंगे!”
रमेश – “पूरे पच्चीस हो गए, साहब! बीस बरस तो स्त्री का देहांत हुए हो गए। दस रूपये पर नौकर हुआ था!”
रमानाथ – “आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की – तब तो आपकी उम्र पच्चीस से ज्यादा न रही होगी।“
रमेश ने हँसकर कहा – “बरफी खाने के बाद गुड़ खाने को किसका जी चाहता है? महल का सुख भोगने के बाद झोंपड़ा किसे अच्छा लगता है? प्रेम आत्मा को तृप्त कर देता है। तुम तो मुझे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूँ, इस विधुर-जीवन में मैंने किसी स्त्री की ओर आँख तक नहीं उठाई। कितनी ही सुंदरियां देखीं, कई बार लोगों ने विवाह के लिए घेरा भी, लेकिन कभी इच्छा ही न हुई। उस प्रेम की मधुर स्मृतियों में मेरे लिए प्रेम का सजीव आनंद भरा हुआ है।“
यों बातें करते हुए, दोनों आदमी दफ्तर पहुँच गये।
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