चैप्टर 44 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 44 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 44 Gaban Novel By Munshi Premchand

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रमा आधी रात गए सोया, तो नौ बजे दिन तक नींद न खुली, वह स्वप्न देख रहा था,दिनेश को फांसी हो रही है। सहसा एक स्त्री तलवार लिये हुए फांसी की ओर दौड़ी और फांसी की रस्सी काट दी, चारों ओर हलचल मच गई। वह औरत जालपा थी। जालपा को लोग घेरकर पकड़ना चाहते थे, पर वह पकड़ में न आती थी। कोई उसके सामने जाने का साहस न कर सकता था । तब उसने एक छलांग मारकर रमा के ऊपर तलवार चलाई। रमा घबड़ाकर उठ बैठा, देखा तो दारोग़ा और इंस्पेक्टर कमरे में खड़े हैं, और डिप्टी साहब आरामकुर्सी पर लेटे हुए सिगार पी रहे हैं।

दारोग़ा ने कहा, ‘आज तो आप ख़ूब सोये बाबू साहब! कल कब लौटे थे। ?’

रमा ने एक कुर्सी पर बैठकर कहा, ‘ज़रा देर बाद लौट आया था। इस मुकदमे की अपील तो हाईकोर्ट में होगी न?’

इंस्पेक्टर, ‘अपील क्या होगी, ज़ाब्ते की पाबंदी होगी। आपने मुकदमे को इतना मज़बूत कर दिया है कि वह अब किसी के हिलाये हिल नहीं सकता। हलफ से कहता हूँ, आपने कमाल कर दिया। अब आप उधर से बेफिक्र हो जाइए। हाँ, अभी जब तक फैसला न हो जाये, यह मुनासिब होगा कि आपकी हिफ़ाज़त का ख़याल रखा जाये। इसलिए फिर पहरे का इंतज़ाम कर दिया गया है। इधर हाईकोर्ट से फैसला हुआ, उधार आपको जगह मिली।’

डिप्टी साहब ने सिगार का धुआं फेंक कर कहा, यह डी. ओ. कमिश्नर साहब ने आपको दिया है, जिसमें आपको कोई तरह की शक न हो । देखिए, यू. पी. के होम सेक्रेटरी के नाम है । आप वहाँ यह डी. ओ. दिखायेंगे, वह आपको कोई बहुत अच्छी जगह दे देगा। इंस्पेक्टर,कमिश्नर साहब आपसे बहुत ख़ुश हैं, हलफ़ से कहता हूँ। डिप्टी-बहुत ख़ुश हैं। वह यू. पी. को अलग डायरेक्ट भी चिटठी लिखेगा। तुम्हारा भाग्य खुल गया।’

यह कहते हुए उसने डी. ओ. रमा की तरफ बढ़ा दिया। रमा ने लिफाफा खोलकर देखा और एकाएक उसको फाड़कर पुर्जे-पुर्जे कर डाला, तीनों आदमी विस्मय से उसका मुँह ताकने लगे।

दारोग़ा ने कहा, ‘रात बहुत पी गए थे क्या? आपके हक में अच्छा न होगा!’

इंस्पेक्टर, ‘हलफ़ से कहता हूँ, कमिश्नर साहब को मालूम हो जायेगा, तो बहुत नाराज़ होंगे।’

डिप्टी, ‘इसका कुछ मतलब हमारे समझ में नहीं आया। इसका क्या मतलब है?’

रमानाथ – ‘इसका यह मतलब है कि मुझे इस डी. ओ. की ज़रूरत नहीं है और न मैं नौकरी चाहता हूँ। मैं आज ही यहाँ से चला जाऊंगा।’

डिप्टी – ‘जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जाये, तब तक आप कहीं नहीं जा सकते’

रमानाथ – ‘क्यों?’

डिप्टी – ‘कमिश्नर साहब का यह हुक्म है।’

रमानाथ – ‘मैं किसी का गुश्लाम नहीं हूँ।

इंस्पेक्टर – ‘बाबू रमानाथ, आप क्यों बना-बनाया खेल बिगाड़ रहे हैं? जो कुछ होना था, वह हो गया। दस-पाँच दिन में हाईकोर्ट से फैसले की तसदीक हो जायेगी, आपकी बेहतरी इसी में है कि जो सिला मिल रहा है, उसे ख़ुशी से लीजिये और आराम से ज़िन्दगी के दिन बसर कीजिये। ख़ुदा ने चाहा, तो एक दिन आप भी किसी ऊँचे  ओहदे पर पहुँचा जायेंगे। इससे क्या फायदा कि अफसरों को नाराज़ कीजिए और कैद की मुसीबतें झेलिये। हलफ़ से कहता हूँ, अफसरों की ज़रा-सी निगाह बदल जाये, तो आपका कहीं पता न लगे। हलफ़  से कहता हूँ, एक इशारे में आपको दस साल की सज़ा हो जाये। आप हैं किस ख़याल में? हम आपके साथ शरारत नहीं करना चाहते। हाँ, अगर आप हमें सख्ती करने पर मजबूर करेंगे, तो हमें सख्ती करनी पड़ेगी। जेल को आसान न समझियेगा। ख़ुदा दोज़ख में ले जाये, पर जेल की सज़ा न दे। मार-धाड़, गाली-गुतरि वह तो वहाँ की मामूली सज़ा है। चक्की में जोत दिया, तो मौत ही आ गई। हलफ़ से कहता हूँ, दोज़ख से बदतर है जेल!’

दारोग़ा – ‘यह बेचारे अपनी बेगम साहब से मज़ूर हैं, वह शायद इनके जान की गाहक हो रही हैं। उनसे इनकी कोर दबती है।’

इंस्पेक्टर, ‘क्या हुआ, कल तो वह हार दिया था न? फिर भी राज़ी नहीं हुई?’

रमा ने कोट की जेब से हार निकालकर मेज़ पर रख दिया और बोला, वह हार यह रखा हुआ है।

इंस्पेक्टर – ‘अच्छा, इसे उन्होंने नहीं कबूल किया।’

डिप्टी – ‘कोई प्राउड लेडी है।’

इंस्पेक्टर – ‘कुछ उनकी भी मिज़ाज़-पुरसी करने की ज़रूरत होगी।’

दारोग़ा – ‘यह तो बाबू साहब के रंग-ढंग और सलीके पर मुनहसर है। अगर आप ख्वाह-मा-ख्वाह हमें मज़बूर न करेंगे, तो हम आपके पीछे न पड़ेंगे।’

डिप्टी – ‘उस खटिक से भी मुचलका ले लेना चाहिये।’

रमानाथ के सामने एक नई समस्या आ खड़ी हुई, पहली से कहीं जटिल, कहीं भीषण। संभव था, वह अपने को कर्तव्य की वेदी पर बलिदान कर देता, दो-चार साल की सज़ा के लिए अपने को तैयार कर लेता। शायद इस समय उसने अपने आत्म-समर्पण का निश्चय कर लिया था, पर अपने साथ जालपा को भी संकट में डालने का साहस वह किसी तरह न कर सकता था। वह पुलिस के शिकंजे में कुछ इस तरह दब गया था कि अब उसे बेदाग निकल जाने का कोई मार्ग दिखाई न देता था। उसने देखा कि इस लडाई में मैं पेश नहीं पा सकता। पुलिस सर्वशक्तिमान है, वह मुझे जिस तरह चाहे दबा सकती है। उसके मिज़ाज़ की तेज़ी गायब हो गई। विवश होकर बोला, ‘आख़िर आप लोग मुझसे क्या चाहते हैं?’

इंस्पेक्टर ने दारोग़ा की ओर देखकर आँखें मारीं, मानो कह रहे हों, ‘आ गया पंजे में’, और बोले, ‘बस इतना ही कि आप हमारे मेहमान बने रहें, और मुकदमे के हाईकोर्ट में तय हो जाने के बाद यहाँ से रूख़सत हो जायें। क्योंकि उसके बाद हम आपकी हिफाज़त के ज़िम्मेदार न होंगे। अगर आप कोई सर्टिफिकेट लेना चाहेंगे, तो वह दे दी जायेगी, लेकिन उसे लेने या न लेने का आपको पूरा अख्तियार है। अगर आप होशियार हैं, तो उसे लेकर फायदा उठायेंगे, नहीं इधरउधर के धक्के खायेंगे। आपके ऊपर गुनाह बेलज्ज़त की मसल सादिक आयेगी। इसके सिवा हम आपसे और कुछ नहीं चाहते, हलफ़ से कहता हूँ, हर एक चीज़ जिसकी आपको ख्वाहिश हो, यहाँ हाज़िर कर दी जायेगी, लेकिन जब तक मुकदमा खत्म हो जाये, आप आज़ाद नहीं हो सकते।

रमानाथ ने दीनता के साथ पूछा, ‘सैर करने तो जा सकूंगा, या वह भी नहीं?’

इंस्पेक्टर ने सूत्र रूप से कहा, ‘जी नहीं!’

दारोग़ा ने उस सूत्र की व्याख्या की,  ‘आपको वह आज़ादी दी गई थी, पर आपने उसका बेजा इस्तेमाल किया, जब तक इसका इत्मीनान न हो जाये कि आप उसका जायज़ इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं, आप उस हक से महरूम रहेंगे।’

दरोग़ा ने इंस्पेक्टर की तरफ देखकर मानो इस व्याख्या की दाद देनी चाही,जो उन्हें सहर्ष मिल गई। तीनों अफसर रूख़सत हो गए और रमा एक सिगार जलाकर इस विकट परिस्थिति पर विचार करने लगा।

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