चैप्टर 48 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 48 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 48 Gaban Novel By Munshi Premchand

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दारोग़ा को भला कहां चैन? रमा के जाने के बाद एक घंटे तक उसका इंतज़ार करते रहे, फिर घोड़े पर सवार हुए और देवीदीन के घर जा पहुँचे, वहाँ मालूम हुआ कि रमा को यहाँ से गये आधा घंटे से ऊपर हो गया। फिर थाने लौटे। वहाँ रमा का अब तक पता न था। समझे देवीदीन ने धोखा दिया। कहीं उन्हें छिपा रक्खा होगा। सरपट साइकिल दौडाते हुए फिर देवीदीन के घर पहुँचे और धमकाना शुरू किया। देवीदीन ने कहा, ‘विश्वास न हो, घर की खाना-तलाशी ले लीजिये।‘

और क्या कीजियेगा। कोई बहुत बड़ा घर भी तो नहीं है। एक कोठरी नीचे है, एक ऊपर।

दारोग़ा ने साइकिल से उतरकर कहा, ‘तुम बतलाते क्यों नहीं, वह कहाँ गये?’

देवीदीन – ‘मुझे कुछ मालूम हो तब तो बताऊं साहब! यहाँ आये, अपनी घरवाली से तकरार की और चले गये।’

दारोग़ा – ‘वह कब इलाहाबाद जा रही हैं?’

देवीदीन –  ‘इलाहाबाद जाने की तो बाबूजी ने कोई बातचीत नहीं की। जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जायेगा, वह यहाँ से न जायेंगी।’

दारोग़ा – ‘मुझे तुम्हारी बातों का यकीन नहीं आता।’ यह कहते हुए दारोग़ा नीचे की कोठरी में घुस गए और हर एक चीज़ को ग़ौर से देखा। फिर ऊपर चढ़ गए। वहाँ तीन औरतों को देखकर चौंके, ज़ोहरा को शरारत सूझी, तो उसने लंबा-सा घूंघट निकाल लिया और अपने हाथ साड़ी में छिपा लिए। दारोग़ाजी को शक हुआ। शायद हजरत यह भेस बदले तो नहीं बैठे हैं!

देवीदीन से पूछा, ‘यह तीसरी औरत कौन है?’

देवीदीन ने कहा, ‘मैं नहीं जानता। कभी-कभी बहू से मिलने आ जाती है।’

दारोग़ा – ‘मुझी से उड़ते हो बचा! साड़ी पहनाकर मुलज़िम को छिपाना चाहते हो! इनमें कौन जालपा देवी हैं। उनसे कह दो, नीचे चली जाये। दूसरी औरत को यहीं रहने दो।’

जालपा हट गई, तो दारोग़ाजी ने ज़ोहरा के पास जाकर कहा, ‘क्यों हजरत, मुझसे यह चालें! क्या कहकर वहाँ से आये थे और यहाँ आकर मजे में आ गये। सारा गुस्सा हवा हो गया। अब यह भेस उतारिये और मेरे साथ चलिये, देर हो रही है।’

यह कहकर उन्होंने ज़ोहरा का घूंघट उठा दिया। ज़ोहरा ने ठहाका मारा। दारोग़ाजी मानो फिसलकर विस्मय-सागर में पड़े । बोले- ‘अरे, तुम हो ज़ोहरा! तुम यहाँ कहाँ?’

ज़ोहरा – ‘अपनी डयूटी बजा रही हूँ।’

‘और रमानाथ कहाँ गये? तुम्हें तो मालूम ही होगा?’

‘वह तो मेरे यहाँ आने के पहले ही चले गए थे। फिर मैं यहीं बैठ गई और जालपा देवी से बात करने लगी।’

‘अच्छा, ज़रा मेरे साथ आओ। उनका पता लगाना है।’

ज़ोहरा ने बनावटी कौतूहल से कहा, ‘क्या अभी तक बंगले पर नहीं पहुँचे?’

‘ना! न जाने कहां रह गये।’

रास्ते में दारोग़ा ने पूछा, ‘जालपा कब तक यहाँ से जायेगी?’

ज़ोहरा – ‘मैंने खूब पट्टी पढ़ाई है। उसके जाने की अब ज़रूरत नहीं है। शायद रास्ते पर आ जाये। रमानाथ ने बुरी तरह डांटा है। उनकी धमकियों से डर गई है।’

दारोग़ा – ‘तुम्हें यकीन है कि अब यह कोई शरारत न करेगी?’

ज़ोहरा – ‘हाँ, मेरा तो यही ख़याल है।’

दारोग़ा – ‘तो फिर यह कहाँ गया?’

ज़ोहरा – ‘कह नहीं सकती।’

दारोग़ा – ‘मुझे इसकी रिपोर्ट करनी होगी। इंस्पेक्टर साहब और डिप्टी साहब को इत्तला देना ज़रूरी है। ज्यादा पी तो नहीं गया था? ‘

ज़ोहरा – ‘पिये हुए तो थे।’

दारोग़ा – ‘तो कहीं फिर-गिरा पड़ा होगा। इसने बहुत दिक किया! तो मैं ज़रा उधर जाता हूँ। तुम्हें पहुँचा दूं, तुम्हारे घर तक।’

ज़ोहरा – ‘बड़ी इनायत होगी।’

दारोग़ा ने ज़ोहरा को मोटर साइकिल पर बिठा लिया और उसको ज़रा देर में घर के दरवाजे पर उतार दिया, मगर इतनी देर में मन चंचल हो गया। बोले, ‘अब तो जाने का जी नहीं चाहता, ज़ोहरा! चलो, आज कुछ गप-शप हो। बहुत दिन हुए, तुम्हारी करम की निगाह नहीं हुई।’

ज़ोहरा ने जीने के ऊपर एक कदम रखकर कहा, ‘जाकर पहले इंस्पेक्टर साहब से इत्तला तो कीजिए। यह गप-शप का मौका नहीं है।’
दारोग़ा ने मोटर साइकिल से उतरकर कहा, ‘नहीं, अब न जाऊंगा, ज़ोहरा! सुबह देखी जायेगी। मैं भी आता हूँ।’

ज़ोहरा – ‘आप मानते नहीं हैं। शायद डिप्टी साहिब आते हों। आज उन्होंने कहला भेजा था।’

दारोग़ा – ‘मुझे चकमा दे रही हो ज़ोहरा, देखो, इतनी बेवफाई अच्छी नहीं।’

ज़ोहरा ने ऊपर चढ़कर द्वार बंद कर लिया और ऊपर जाकर खिड़की से सिर निकालकर बोली, ‘आदाब अर्ज़।’

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~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

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