Chapter 4 Gaban Novel By Munshi Premchand
Table of Contents
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नाटक उस वक्त पास होता है, जब रसिक समाज उसे पंसद कर लेता है। बरात का नाटक उस वक्त पास होता है, जब राह चलते आदमी उसे पंसद कर लेते हैं। नाटक की परीक्षा चार-पाँच घंटे तक होती रहती है, बरात की परीक्षा के लिए केवल इतने ही मिनटों का समय होता है। सारी सजावट, सारी दौड़-धूप और तैयारी का निबटारा पाँच मिनटों में हो जाता है। अगर सबके मुँह से वाह-वाह निकल गया, तो तमाशा पास नहीं तो! रूपया, मेहनत, फ़िक्र, सब अकारण। दयानाथ का तमाशा पास हो गया। शहर में वह तीसरे दर्जे में आता, गांव में अव्वल दर्जे में आया। कोई बाजों की धोंधों-पों-पों सुनकर मस्त हो रहा था, कोई मोटर को आँखें गाड़-गाड़कर देख रहा था। कुछ लोग फुलवारियों के तख्त देखकर लोट-लोट जाते थे। आतिशबाजी ही मनोरंजन का केंद्र थी। हवाइयाँ जब सकै से ऊपर जातीं और आकाश में लाल, हरे, नीले, पीले, कुमकुमे-से बिखर जाते, जब चर्खियाँ छूटतीं और उनमें नाचते हुए मोर निकल आते, तो लोग मंत्रमुग्ध-से हो जाते थे। वाह, क्या कारीगरी है! जालपा के लिए इन चीजों में लेशमात्र भी आकर्षण न था। हाँ, वह वर को एक आँख देखना चाहती थी, वह भी सबसे छिपाकर; पर उस भीड़-भाड़ में ऐसा अवसर कहाँ? द्वारचार के समय उसकी सखियाँ उसे छत पर खींच ले गई और उसने रमानाथ को देखा। उसका सारा विराग, सारी उदासीनता, सारी मनोव्यथा मानो छू-मंतर हो गई थी। मुँह पर हर्ष की लालिमा छा गई। अनुराग स्फूर्ति का भंडार है।
द्वारचार के बाद बरात जनवासे चली गई। भोजन की तैयारियाँ होने लगीं। किसी ने पूरियाँ खाई, किसी ने उपलों पर खिचड़ी पकाई। देहात के तमाशा देखने वालों के मनोरंजन के लिए नाच-गाना होने लगा। दस बजे सहसा फिर बाजे बजने लगे। मालूम हुआ कि चढ़ावा आ रहा है। बारात में हर एक रस्म डंके की चोट पर अदा होती है। दूल्हा कलेवा करने आ रहा है, बाजे बजने लगे। समधी मिलने आ रहा है, बाजे बजने लगे। चढ़ावा ज्यों-ही पहुँचा, घर में हलचल मच गई। स्त्री-पुरूष, बूढ़े-जवान, सब चढ़ावा देखने के लिए उत्सुक हो उठे। ज्योंही किश्तियाँ मंडप में पहुँची, लोग सब काम छोड़कर देखने दौड़े। आपस में धक्कम-धक्का होने लगा। मानकी प्यास से बेहाल हो रही थी, कंठ सूखा जाता था, चढ़ावा आते ही प्यास भाग गई। दीनदयाल मारे भूख-प्यास के निर्जीव-से पड़े थे, यह समाचार सुनते ही सचेत होकर दौड़े। मानकी एक-एक चीज़ को निकाल-निकालकर देखने और दिखाने लगी। वहाँ सभी इस कला के विशेषज्ञ थे। मदोऊ ने गहने बनवाये थे, औरतों ने पहने थे, सभी आलोचना करने लगे। चूहेदन्ती कितनी सुंदर है, कोई दस तोले की होगी वाह! साढ़े ग्यारह तोले से रत्ती-भर भी कम निकल जाए, तो कुछ हार जाऊं! यह शेरदहां तो देखो, क्या हाथ की सफाई है! जी चाहता है, कारीगर के हाथ चूम लें। यह भी बारह तोले से कम न होगा। वाह! कभी देखा भी है, सोलह तोले से कम निकल जाए, तो मुँह न दिखाऊं। हाँ, माल उतना चोखा नहीं है। यह कंगन तो देखो, बिलकुल पक्की जड़ाई है, कितना बारीक काम है कि आँख नहीं ठहरती! कैसा दमक रहा है। सच्चे नगीने हैं। झूठे नगीनों में यह आब कहाँ। चीज तो यह गुलूबंद है, कितने खूबसूरत फूल हैं! और उनके बीच के हीरे कैसे चमक रहे हैं! किसी बंगाली सुनार ने बनाया होगा। क्या बंगालियों ने कारीगरी का ठेका ले लिया है, हमारे देश में एक-से-एक कारीगर पड़े हुए हैं। बंगाली सुनार बेचारे उनकी क्या बराबरी करेंगे। इसी तरह एक-एक चीज की आलोचना होती रही। सहसा किसी ने कहा – “चंद्रहार नहीं है क्या!”
मानकी ने रोनी सूरत बनाकर कहा – “नहीं, चंद्रहार नहीं आया।“
एक महिला बोली – “अरे, चंद्रहार नहीं आया?”
दीनदयाल ने गंभीर भाव से कहा – “और सभी चीजें तो हैं, एक चंद्रहार ही तो नहीं है।“
उसी महिला ने मुँह बनाकर कहा – “चंद्रहार की बात ही और है!”
मानकी ने चढ़ाव को सामने से हटाकर कहा – “बेचारी के भाग में चंद्रहार लिखा ही नहीं है।“
इस गोलाकार जमघट के पीछे अंधेरे में आशा और आकांक्षा की मूर्ति-सी जालपा भी खड़ी थी और सब गहनों के नाम कान में आते थे, चंद्रहार का नाम न आता था। उसकी छाती धक-धक कर रही थी। चंद्रहार नहीं है क्या? शायद सबके नीचे हो इस तरह वह मन को समझाती रही। जब मालूम हो गया चंद्रहार नहीं है, तो उसके कलेजे पर चोट-सी लग गई। मालूम हुआ, देह में रक्त की बूंद भी नहीं है। मानो उसे मूर्च्छा आ जायगी। वह उन्माद की सी दशा में अपने कमरे में आई और फूट-फूटकर रोने लगी। वह लालसा जो आज सात वर्ष हुए, उसके ह्रदय में अंकुरित हुई थी, जो इस समय पुष्प और पल्लव से लदी खड़ी थी, उस पर वज्रपात हो गया। वह हरा-भरा लहलहाता हुआ पौधा जल गया?-केवल उसकी राख रह गई। आज ही के दिन पर तो उसकी समस्त आशाएं अवलंबित थीं। दुर्दैव ने आज वह अवलंब भी छीन लिया। उस निराशा के आवेश में उसका ऐसा जी चाहने लगा कि अपना मुँह नोच डाले। उसका वश चलता, तो वह चढ़ावे को उठाकर आग में फेंक देती। कमरे में एक आले पर शिव की मूर्ति रखी हुई थी। उसने उसे उठाकर ऐसा पटका कि उसकी आशाओं की भांति वह भी चूर-चूर हो गई। उसने निश्चय किया, मैं कोई आभूषण न पहनूंगी। आभूषण पहनने से होता ही क्या है। जो रूप-विहीन हों, वे अपने को गहने से सजाएं, मुझे तो ईश्वर ने यों ही सुंदरी बनाया है, मैं गहने न पहनकर भी बुरी न लगूंगी। सस्ती चीजें उठा लाए, जिसमें रूपये खर्च होते थे, उसका नाम ही न लिया। अगर गिनती ही गिनानी थी, तो इतने ही दामों में इसके दूने गहने आ जाते!
वह इसी क्रोध में भरी बैठी थी कि उसकी तीन सखियाँ आकर खड़ी हो गई। उन्होंने समझा था, जालपा को अभी चढ़ाव की कुछ खबर नहीं है। जालपा ने उन्हें देखते ही आँखें पोंछ डालीं और मुस्कराने लगी।
राधा मुस्कराकर बोली – “जालपा! मालूम होता है, तूने बड़ी तपस्या की थी, ऐसा चढ़ाव मैंने आज तक नहीं देखा था। अब तो तेरी सब साध पूरी हो गई।“
जालपा ने अपनी लंबी-लंबी पलकें उठाकर उसकी ओर ऐसे दीन-नज़र से देखा, मानो जीवन में अब उसके लिए कोई आशा नहीं है?
“हाँ बहन, सब साध पूरी हो गई।“ इन शब्दों में कितनी अपार मर्मान्तक वेदना भरी हुई थी, इसका अनुमान तीनों युवतियों में कोई भी न कर सकी। तीनों कौतूहल से उसकी ओर ताकने लगीं, मानो उसका आशय उनकी समझ में न आया हो।
बसंती ने कहा – “जी चाहता है, कारीगर के हाथ चूम लूं।“
शहजादी बोली – “चढ़ावा ऐसा ही होना चाहिए, कि देखने वाले भड़क उठें।“
बसंती – “तुम्हारी सास बड़ी चतुर जान पड़ती हैं, कोई चीज नहीं छोड़ी।“
जालपा ने मुँह उधरकर कहा – “ऐसा ही होगा।“
राधा – “और तो सब कुछ है, केवल चंद्रहार नहीं है।“
शहजादी – “एक चंद्रहार के न होने से क्या होता है बहन, उसकी जगह गुलूबंद तो है।“
जालपा ने वक्रोक्ति के भाव से कहा – “हाँ, देह में एक आँख के न होने से क्या होता है, और सब अंग होते ही हैं। आँखें हुई तो क्या, न हुई तो क्या!”
बालकों के मुँह से गंभीर बातें सुनकर जैसे हमें हँसी आ जाती है, उसी तरह जालपा के मुँह से यह लालसा से भरी हुई बातें सुनकर राधा और बसंती अपनी हँसी न रोक सकीं। हाँ, शहजादी को हँसी न आई। यह आभूषण लालसा उसके लिए हँसने की बात नहीं, रोने की बात थी।
कृत्रिम सहानुभूति दिखाती हुई बोली – “सब न जाने कहाँ के जंगली हैं कि और सब चीजें तो लाये, चंद्रहार न लाये, जो सब गहनों का राजा है। लाला अभी आते हैं तो पूछती हूँ कि तुमने यह कहाँ की रीति निकाली है? ऐसा अनर्थ भी कोई करता है।“
राधा और बसंती दिल में कांप रही थीं कि जालपा कहीं ताड़ न जाये। उनका बस चलता तो शहजादी का मुँह बंद कर देतीं, बार-बार उसे चुप रहने का इशारा कर रही थीं, मगर जालपा को शहजादी का यह व्यंग्य, संवेदना से परिपूर्ण जान पड़ा। सजल नेत्र होकर बोली –“क्या करोगी पूछकर बहन, जो होना था, सो हो गया!”
शहजादी – “तुम पूछने को कहती हो, मैं रूलाकर छोड़ूंगी। मेरे चढ़ाव पर कंगन नहीं आया था, उस वक्त मन ऐसा खट्टा हुआ कि सारे गहनों पर लात मार दूं। जब तक कंगन न बन गए, मैं नींद भर सोई नहीं।“
राधा – “तो क्या तुम जानती हो, जालपा का चंद्रहार न बनेगा।“
शहजादी – “बनेगा तब बनेगा, इस अवसर पर तो नहीं बना। दस-पाँच की चीज़ तो है नहीं, कि जब चाहा बनवा लिया, सैकड़ों का खर्च है, फिर कारीगर तो हमेशा अच्छे नहीं मिलते।“
जालपा का भग्न ह्रदय शहजादी की इन बातों से मानो जी उठा, वह रूंधे कंठ से बोली – “यही तो मैं भी सोचती हूँ बहन, जब आज न मिला, तो फिर क्या मिलेगा!”
राधा और बसंती मन-ही-मन शहजादी को कोस रही थीं, और थप्पड़ दिखा-दिखाकर धमका रही थीं, पर शहजादी को इस वक्त तमाशे का मजा आ रहा था। बोली – “नहीं, यह बात नहीं है जल्ली; आग्रह करने से सब कुछ हो सकता है, सास-ससुर को बार-बार याद दिलाती रहना। बहनोईजी से दो-चार दिन रूठे रहने से भी बहुत कुछ काम निकल सकता है। बस यही समझ लो कि घरवाले चैन न लेने पायें, यह बात हरदम उनके ध्यान में रहे। उन्हें मालूम हो जाय कि बिना चंद्रहार बनवाये कुशल नहीं। तुम ज़रा भी ढीली पड़ीं और काम बिगड़ा।“
राधा ने हँसी को रोकते हुए कहा – “इनसे न बने, तो तुम्हें बुला लें, क्यों – अब उठोगी कि सारी रात उपदेश ही करती रहोगी!”
शहजादी – “चलती हूँ, ऐसी क्या भागड़ पड़ी है। हाँ, खूब याद आई, क्यों जल्ली, तेरी अम्मांजी के पास बडा अच्छा चंद्रहार है। तुझे न देंगी।“
जालपा ने एक लंबी सांस लेकर कहा – “क्या कहूं बहन, मुझे तो आशा नहीं है।“
शहजादी – “एक बार कहकर देखो तो, अब उनके कौन पहनने-ओढ़ने के दिन बैठे हैं।“
जालपा – “मुझसे तो न कहा जाएगा।“
शहजादी – “मैं कह दूंगी।“
जालपा – “नहीं-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ। मैं ज़रा उनके मातृस्नेह की परीक्षा लेना चाहती हूँ।“
बसंती ने शहजादी का हाथ पकड़कर कहा – “अब उठेगी भी कि यहाँ सारी रात उपदेश ही देती रहेगी।“
शहजादी उठी, पर जालपा रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली –“नहीं, अभी बैठो बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।“
शहजादी – “जब यह दोनों चुड़ैलें बैठने भी दें। मैं तो तुम्हें गुर सिखाती हूँ और यह दोनों मुझ पर झल्लाती हैं। सुन नहीं रही हो, मैं भी विष की गांठ हूँ।“
बसंती – “विष की गांठ तो तू है ही।“
शहजादी – “तुम भी तो ससुराल से सालभर बाद आई हो, कौन-कौन-सी नई चीजें बनवा लाई।“
बसंती – “और तुमने तीन साल में क्या बनवा लिया।“
शहजादी – “मेरी बात छोड़ो, मेरा खसम तो मेरी बात ही नहीं पूछता।“
राधा – “प्रेम के सामने गहनों का कोई मूल्य नहीं।“
शहजादी- “तो सूखा प्रेम तुम्हीं को गले।“
इतने में मानकी ने आकर कहा – “तुम तीनों यहाँ बैठी क्या कर रही हो, चलो वहाँ लोग खाना खाने आ रहे हैं।“
तीनों युवतियाँ चली गई। जालपा माता के गले में चंद्रहार की शोभा देखकर मन-ही-मन सोचने लगी?-गहनों से इनका जी अब तक नहीं भरा।
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मुंशी प्रेमचंद के अन्य उन्पयास :
~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास
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~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास