चैप्टर 19 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 19 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 19 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 19 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 1 | 2 | 3 | 4| 5 | | 7 8910111213141516171819202122 23 | 242526272829 | 3031323334 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51

Prev | Next | All Chapters

रमा शाम को दफ्तर से चलने लगा, तो रमेश बाबू दौड़े हुए आए और कल रूपये लाने की ताकीद की। रमा मन में झुंझला उठा। आप बड़े ईमानदार की दुम बने हैं! ढोंगिया कहीं का! अगर अपनी जरूरत आ पड़े, तो दूसरों के तलवे सहलाते गिरेंगे, पर मेरा काम है, तो आप आदर्शवादी बन बैठे। यह सब दिखाने के दांत हैं, मरते समय इसके प्राण भी जल्दी नहीं निकलेंगे! कुछ दूर चलकर उसने सोचा, एक बार फिर रतन के पास चलूं। और ऐसा कोई न था जिससे रूपये मिलने की आशा होती। वह जब उसके बंगले पर पहुँचा, तो वह अपने बगीचे में गोल चबूतरे पर बैठी हुई थी। उसके पास ही एक गुज़राती जौहरी बैठा संदूक से सुंदर आभूषण निकाल-निकालकर दिखा रहा था। रमा को देखकर वह बहुत ख़ुश हुई। ‘आइये बाबू साहब, देखिए सेठजी कैसी अच्छी-अच्छी चीजें लाए हैं। देखिए, हार कितना सुंदर है, इसके दाम बारह सौ रूपये बताते हैं।’

रमा ने हार को हाथ में लेकर देखा और कहा,हाँ, चीज़ तो अच्छी मालूम होती है!’

रतन – ‘दाम बहुत कहते हैं।’

जौहरी – ‘बाईजी, ऐसा हार अगर कोई दो हज़ार में ला दे, तो जो जुर्माना कहिए, दूं। बारह सौ मेरी लागत बैठ गई है।’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘ऐसा न कहिए सेठजी, जुर्माना देना पड़ जाएगा।’

जौहरी – ‘बाबू साहब, हार तो सौ रूपये में भी आ जाएगा और बिलकुल ऐसा ही। बल्कि चमक-दमक में इससे भी बढ़कर। मगर परखना चाहिए। मैंने ख़ुद ही आपसे मोल-तोल की बात नहीं की। मोल-तोल अनाड़ियों से किया जाता है। आपसे क्या मोल-तोल, हम लोग निरे रोजगारी नहीं हैं बाबू साहब, आदमी का मिज़ाज देखते हैं। श्रीमतीजी ने क्या अमीराना मिज़ाज दिखाया है कि वाह! ‘

रतन ने हार को लुब्ध नजरों से देखकर कहा, ‘कुछ तो कम कीजिए, सेठजी! आपने तो जैसे कसम खा ली! ‘

जौहरी – ‘कमी का नाम न लीजिए, हुजूर! यह चीज़ आपकी भेंट है।’

रतन – ‘अच्छा, अब एक बात बतला दीजिए, कम-से-कम इसका क्या लेंगे?’

जौहरी ने कुछ क्षुब्ध होकर कहा, ‘बारह सौ रूपये और बारह कौड़ियाँ होंगी, हुजूर, आप से कसम खाकर कहता हूँ, इसी शहर में पंद्रह सौ का बेचूंगा, और आपसे कह जाऊंगा, किसने लिया।’

यह कहते हुए जौहरी ने हार को रखने का केस निकाला। रतन को विश्वास हो गया, यह कुछ कम न करेगा। बालकों की भांति अधीर होकर बोली, ‘आप तो ऐसा समेटे लेते हैं कि हार को नजर लग जाएगी! ‘

जौहरी – ‘क्या करूं हुज़ूर! जब ऐसे दरबार में चीज़ की कदर नहीं होती,तो दुख होता ही है।’

रतन ने कमरे में जाकर रमा को बुलाया और बोली, ‘आप समझते हैं यह कुछ और उतरेगा?’

रमानाथ – ‘मेरी समझ में तो चीज़ एक हज़ार से ज्यादा की नहीं है।’

रतन – ‘उंह, होगा। मेरे पास तो छः सौ रूपये हैं। आप चार सौ रूपये का प्रबंध कर दें, तो ले लूं। यह इसी गाड़ी से काशी जा रहा है। उधार न मानेगा। वकील साहब किसी जलसे में गए हैं, नौ-दस बजे के पहले न लौटेंगे। मैं आपको कल रूपये लौटा दूंगी।’

रमा ने बड़े संकोच के साथ कहा, ‘विश्वास मानिए, मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ। मैं तो आपसे रूपये मांगने आया था। मुझे बड़ी सख्त जरूरत है। वह रूपये मुझे दे दीजिए, मैं आपके लिए कोई अच्छा-सा हार यहीं से ला दूंगा। मुझे विश्वास है, ऐसा हार सात-आठ सौ में मिल जायेगा। ‘

रतन – ‘चलिए, मैं आपकी बातों में नहीं आती। छः महीने में एक कंगन तो बनवा न सके, अब हार क्या लाएंगे! मैं यहां कई दुकानें देख चुकी हूँ, ऐसी चीज़ शायद ही कहीं निकले। और निकले भी, तो इसके ड्योढ़े दाम देने पड़ेंगे।’

रमानाथ – ‘तो इसे कल क्यों न बुलाइए, इसे सौदा बेचने की ग़रज़ होगी,तो आप ठहरेगा। ‘

रतन – ‘अच्छा कहिए, देखिए क्या कहता है।’

दोनों कमरे के बाहर निकले, रमा ने जौहरी से कहा, ‘तुम कल आठ बजे क्यों नहीं आते?’

जौहरी – ‘नहीं हुजूर, कल काशी में दो-चार बडे रईसों से मिलना है। आज के न जाने से बड़ी हानि हो जाएगी।’

रतन – ‘मेरे पास इस वक्त छः सौ रूपये हैं, आप हार दे जाइए, बाकी के रूपये काशी से लौटकर ले जाइएगा। ‘

जौहरी – ‘रूपये का तो कोई हर्ज़ न था, महीने-दो महीने में ले लेता, लेकिन हम परदेशी लोगों का क्या ठिकाना, आज यहाँ हैं, कल व्हाँ हैं, कौन जाने यहाँ फिर कब आना हो! आप इस वक्त एक हजार दे दें, दो सौ फिर दे दीजिएगा।’

रमानाथ – ‘तो सौदा न होगा।’

जौहरी – ‘इसका अख्तियार आपको है, मगर इतना कहे देता हूं कि ऐसा माल फिर न पाइएगा।’

रमानाथ – ‘रूपये होंगे तो माल बहुत मिल जायगा। ‘

जौहरी – ‘कभी-कभी दाम रहने पर भी अच्छा माल नहीं मिलता।’यह कहकर जौहरी ने फिर हार को केस में रक्खा और इस तरह संदूक समेटने लगा, मानो वह एक क्षण भी न रूकेगा।

रतन का रोयां-रोयां कान बना हुआ था, मानो कोई कैदी अपनी किस्मत का फैसला सुनने को खड़ा हो उसके ह्रदय की सारी ममता, ममता का सारा अनुराग, अनुराग की सारी अधीरता, उत्कंठा और चेष्टा उसी हार पर केंद्रित हो रही थी, मानो उसके प्राण उसी हार के दानों में जा छिपे थे, मानो उसके जन्मजन्मांतरों की संचित अभिलाषा उसी हार पर मंडरा रही थी। जौहरी को संदूक बंद करते देखकर वह जलविहीन मछली की भांति तड़पने लगी। कभी वह संदूक खोलती, कभी वह दराज खोलती, पर रूपये कहीं न मिले। सहसा मोटर की आवाज़ सुनकर रतन ने फाटक की ओर देखा। वकील साहब चले आ रहे थे। वकील साहब ने मोटर बरामदे के सामने रोक दी और चबूतरे की तरफ चले। रतन ने चबूतरे के नीचे उतरकर कहा, ‘आप तो नौ बजे आने को कह गए थे?’

वकील, ‘वहाँ काम ही पूरा न हुआ, बैठकर क्या करता! कोई दिल से तो काम करना नहीं चाहता, सब मुफ्त में नाम कमाना चाहते हैं। यह क्या कोई जौहरी है? ‘

जौहरी ने उठकर सलाम किया।

वकील साहब रतन से बोले, ‘क्यों, तुमने कोई चीज़ पसंद की ?’

रतन – ‘हाँ, एक हार पसंद किया है, बारह सौ रूपये मांगते हैं। ‘

वकील, ‘बस! और कोई चीज़ पसंद करो। तुम्हारे पास सिर की कोई अच्छी चीज़ नहीं है।’

रतन – ‘इस वक्त मैं यही एक हार लूंगी। आजकल सिर की चीज़ें कौन पहनता है।’

वकील – ‘लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी। नहीं तो कभी दूसरों को पहने देख लिया, तो कहोगी, मेरे पास होता, तो मैं भी पहनती।’

वकील साहब को रतन से पति का-सा प्रेम नहीं, पिता का-सा स्नेह था। जैसे कोई स्नेही पिता मेले में लड़कों से पूछ-पूछकर खिलौने लेता है, वह भी रतन से पूछ-पूछकर खिलौने लेते थे। उसके कहने भर की देर थी। उनके पास उसे प्रसन्न करने के लिए धन के सिवा और चीज़ ही क्या थी। उन्हें अपने जीवन में एक आधार की जरूरत थी,सदेह आधार की, जिसके सहारे वह इस जीर्ण दशा में भी जीवन? संग्राम में खड़े रह सकें, जैसे किसी उपासक को प्रतिमा की जरूरत होती है। बिना प्रतिमा के वह किस पर फल चढ़ाए, किसे गंगा-जल से नहलाए, किसे स्वादिष्ट चीज़ों का भोग लगाए। इसी भांति वकील साहब को भी पत्नी की जरूरत थी। रतन उनके लिए सदेह कल्पना मात्र थी जिससे उनकी आत्मिक पिपासा शांत होती थी। कदाचित रतन के बिना उनका जीवन उतना ही सूना होता, जितना आँखों के बिना मुख।

रतन ने केस में से हार निकालकर वकील साहब को दिखाया और बोली, ‘इसके बारह सौ रूपये मांगते हैं।’

वकील साहब की निगाह में रूपये का मूल्य आनंददायिनी शक्ति थी। अगर हार रतन को पसंद है, तो उन्हें इसकी परवाह न थी कि इसके क्या दाम देने पड़ेंगे। उन्होंने चेक निकालकर जौहरी की तरफ देखा और पूछा, ‘सच-सच बोलो, कितना लिखूं!’

जौहरी ने हार को उलट-पलटकर देखा और हिचकते हुए बोला, ‘साढ़े ग्यारह सौ कर दीजिए।।’ वकील साहब ने चेक लिखकर उसको दिया, और वह सलाम करके चलता हुआ। रतन का मुख इस समय वसंत की प्राकृतिक शोभा की भांति विहसित था। ऐसा गर्व, ऐसा उल्लास उसके मुख पर कभी न दिखाई दिया था। मानो उसे संसार की संपत्ति मिल गई है। हार को गले में लटकाए वह अंदर चली गई। वकील साहब के आचार-विचार में नई और पुरानी प्रथाओं का विचित्र मेल था। भोजन वह अभी तक किसी ब्राह्मण के हाथ का भी न खाते थे। आज रतन उनके लिए अच्छी-अच्छी चीजें बनाने गई, अपनी कृतज्ञता को वह कैसे ज़ाहिर करे।

रमा कुछ देर तक तो बैठा वकील साहब का योरप-गौरव-गान सुनता रहा, अंत को निराश होकर चल दिया।

Prev | Next | All Chapters

Chapter 1 | 2 | 3 | 4| 5 | | 7 8910111213141516171819202122 23 | 242526272829 | 3031323334 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51

मुंशी प्रेमचंद के अन्य उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

Leave a Comment