चैप्टर 33 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 33 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 33 Gaban Novel By Munshi Premchand

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पुलिस स्टेशन के दफ्तर में इस समय बड़ी मेज़ के सामने चार आदमी बैठे हुए थे। एक दारोग़ा थे, गोरे से, शौकीन, जिनकी बड़ी-बड़ी आँखों में कोमलता की झलक थी। उनकी बग़ल में नायब दारोग़ा थे। यह सिक्ख थे, बहुत हंसमुख, सजीवता के पुतले, गेहुंआं रंग, सुडौल, सुगठित शरीरब सिर पर केश था, हाथों में कड़ेऋ पर सिगार से परहेज न करते थे। मेज़ की दूसरी तरफ इंस्पेक्टर और डिप्टी सुपरिंटेंडेंट बैठे हुए थे। इंस्पेक्टर अधेड़, सांवला, लंबा आदमी था, कौड़ी की-सी आँखें, फूले हुए गाल और ठिगना कद, डिप्टी सुपरिटेंडेंट लंबा छरहरा जवान था, बहुत ही विचारशील और अल्पभाषी, इसकी लंबी नाक और ऊँचा मस्तक उसकी कुलीनता के साक्षी थे।

डिप्टी ने सिगार का एक कश लेकर कहा, ‘बाहरी गवाहों से काम नहीं चल सकेगा। इनमें से किसी को एप्रूवर बनना होगा। और कोई अल्टरनेटिव नहीं है।’

इंस्पेक्टर ने दारोग़ा की ओर देखकर कहा, ‘हम लोगों ने कोई बात उठा तो नहीं रक्खी, हलफ से कहता हूँ। सभी तरह के लालच देकर हार गए। सबों ने ऐसी गुट कर रक्खी है कि कोई टूटता ही नहीं। हमने बाहर के गवाहों को भी आजमाया, पर सब कानों पर हाथ रखते हैं।’

डिप्टी, ‘उस मारवाड़ी को फिर आजमाना होगा। उसके बाप को बुलाकर खूब धमकाइए। शायद इसका कुछ दबाव पड़े।’

इंस्पेक्टर-‘हलफ से कहता हूँ, आज सुबह से हम लोग यही कर रहे हैं। बेचारा बाप लड़के के पैरों पर गिरा, पर लड़का किसी तरह राज़ी नहीं होता।’

कुछ देर तक चारों आदमी विचारों में मग्न बैठे रहे। अंत में डिप्टी ने निराशा के भाव से कहा,मुकदमा नहीं चल सकता, मुफ्त का बदनामी हुआ। इंस्पेक्टर,एक हफ्ते की मुहलत और लीजिए, शायद कोई टूट जाये। यह निश्चय करके दोनों आदमी यहाँ से रवाना हुए। छोटे दारोग़ा भी उसके साथ ही चले गए। दारोग़ाजी ने हुक्का मंगवाया कि सहसा एक मुसलमान सिपाही ने आकर कहा, ‘दारोग़ाजी, लाइए कुछ इनाम दिलवाइए। एक मुलजिम को शुबहे पर गिरफ्तार किया है। इलाहाबाद का रहने वाला है, नाम है रमानाथ,पहले नाम और सयनत दोनों ग़लत बतलाई थीं। देवीदीन खटिक जो नुक्कड़ पर रहता है, उसी के घर ठहरा हुआ है। ज़रा डांट बताइएगा, तो सब कुछ उगल देगा।’

दारोग़ा-‘वही है न जिसके दोनों लड़के—‘

सिपाही-‘जी हाँ, वही है।’

इतने में रमानाथ भी दारोग़ा के सामने हाज़िर किया गया। दारोग़ा ने उसे सिर से पांव तक देखा, मानो मन में उसका हुलिया मिला रहे हों।

तब कठोर दृष्टि से देखकर बोले, ‘अच्छा, यह इलाहाबाद का रमानाथ है। खूब मिले भाई। छः महीने से परेशान कर रहे हो, कैसा साफ हुलिया है कि अंधा भी पहचान ले। यहाँ कब से आए हो?’ कांस्टेबल ने रमा को परामर्श दिया, ‘सब हाल सच-सच कह दो, तो तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जायेगी।’

रमा ने प्रसन्नचित्त बनने की चेष्टा करके कहा, ‘अब तो आपके हाथ में हूँ, रियायत कीजिए या सख्ती कीजिए। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी में नौकर था। हिमाकत कहिए या बदनसीबी, चुंगी के चार सौ रूपये मुझसे ख़र्च हो गये। मैं वक्त पर रूपये जमा न कर सका। शर्म के मारे घर के आदमियों से कुछ न कहा, नहीं तो इतने रूपये इंतजाम हो जाना कोई मुश्किल न था। जब कुछ बस न चला, तो वहाँ से भागकर यहाँ चला आया। इसमें एक हर्फ भी ग़लत नहीं है।’

दारोग़ा ने गंभीर भाव से कहा, ‘मामला कुछ संगीन है,क्या कुछ शराब का चस्का पड़ गया था? ‘

‘मुझसे कसम ले लीजिए, जो कभी शराब मुँह से लगाई हो।’

कांस्टेबल ने विनोद करके कहा,मुहब्बत के बाज़ार में लुट गए होंगे, हुजूर।’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘मुझसे फाकेमस्तों का वहाँ कहाँ गुजर?’

दारोग़ा -‘तो क्या जुआ खेल डाला? या, बीवी के लिए जेवर बनवा डाले!’

रमा झेंपकर रह गया। अपराधी मुस्कराहट उसके मुख पर रो पड़ी।

दारोग़ा-‘अच्छी बात है, तुम्हें भी यहाँ खासे मोटे जेवर मिल जायेंगे!’

एकाएक बूढ़ा देवीदीन आकर खडाहो गया। दारोग़ा ने कठोर स्वर में कहा, ‘क्या काम है यहाँ?’

देवीदीन-‘हुजूर को सलाम करने चला आया। इन बेचारों पर दया की नज़र रहे हुजूर, बेचारे बडे सीधे आदमी हैं।’

दारोग़ा -‘बचा सरकारी मुलज़िम को घर में छिपाते हो, उस पर सिफारिश करने आए हो!’

देवीदीन-‘मैं क्या सिफारिस करूंगा हुजूर, दो कौड़ी का आदमी।’

दारोग़ा-‘जानता है, इन पर वारंट है, सरकारी रूपये ग़बन कर गए हैं।’

देवीदीन-‘हुजूर, भूल-चूक आदमी से ही तो होती है। जवानी की उम्र है ही, ख़र्च हो गए होंगे।

यह कहते हुए देवीदीन ने पांच गिन्नियाँ कमर से निकालकर मेज़ पर रख दीं।

दारोग़ा ने तड़पकर कहा, ‘यह क्या है?’

देवीदीन-‘कुछ नहीं है, हुजूर को पान खाने को।’

दारोग़ा -‘रिश्वत देना चाहता है! क्यों? कहो तो बचा, इसी इल्ज़ाम में भेज दूं।’

देवीदीन-‘भेज दीजिए सरकार। घरवाली लकड़ी-कफन की फिकर से छूट जायेगी। वहीं बैठा आपको दुआ दूंगा।’

दारोग़ा -‘अबे इन्हें छुड़ाना है, तो पचास गिन्नियाँ लाकर सामने रक्खो। जानते हो इनकी गिरफ्तारी पर पाँच सौ रूपये का इनाम है!’

देवीदीन-‘आप लोगों के लिए इतना इनाम हुजूर क्या है। यह ग़रीब परदेसी आदमी हैं, जब तक जियेंगे आपको याद करेंगे।’

दारोग़ा -‘बक-बक मत कर, यहाँ धरम कमाने नहीं आया हूँ।’

देवीदीन-‘बहुत तंग हूँ हुजूर। दुकानदारी तो नाम की है।’

कांस्टेबल-‘बुढ़िया से मांग जाके।’

देवीदीन-‘कमाने वाला तो मैं ही हूँ हुजूर, लड़कों का हाल जानते ही हो तन-पेट काटकर कुछ रूपये जमा कर रखे थे, सो अभी सातों-धाम किए चला आता हूँ। बहुत तंग हो गया हूँ।

दारोग़ा -‘तो अपनी गिन्नियाँ उठा ले। इसे बाहर निकाल दो जी।’

देवीदीन-‘आपका हुकुम है, तो लीजिए जाता हूँ। धक्का क्यों दिलवाइएगा।’

दारोग़ा -‘कांस्टेबल सेध्द इन्हें हिरासत में रखो। मुंशी से कहो इनका बयान लिख लें।’

देवीदीन के होंठ आवेश से कांप रहे थे। उसके चेहरे पर इतनी व्यग्रता रमा ने कभी नहीं देखी, जैसे कोई चिड़िया अपने घोंसले में कौवे को घुसते देखकर विह्नल हो गई हो वह एक मिनट तक थाने के द्वार पर खड़ा रहा, फिर पीछे गिरा और एक सिपाही से कुछ कहा, तब लपका हुआ सड़क पर चला गया, मगर एक ही पल में फिर लौटा और दारोग़ा से बोला, ‘हुजूर, दो घंटे की मुहलत न दीजिएगा?’

रमा अभी वहीं खड़ाथा। उसकी यह ममता देखकर रो पड़ा। बोला, ‘दादा, अब तुम हैरान न हो, मेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है, वह होने दो। मेरे भी यहाँ होते, तो इससे ज्यादा और क्या करते! मैं मरते दम तक तुम्हारा उपकार —‘

देवीदीन ने आँखें पोंछते हुए कहा, ‘कैसी बातें कर रहे हो, भैया! जब रूपये पर आई, तो देवीदीन पीछे हटने वाला आदमी नहीं है। इतने रूपये तो एक-एक दिन जुए में हार-जीत गया हूँ। अभी घर बेच दूं, तो दस हज़ार की मालियत है। क्या सिर पर लाद कर ले जाऊंगा। दारोग़ाजी, अभी भैया को हिरासत में न भेजो, मैं रूपये की गिकर करके थोड़ी देर में आता हूँ।’

देवीदीन चला गया तो दारोग़ाजी ने सह्रदयता से भरे स्वर में कहा, ‘है तो खुर्राट, मगर बड़ा नेक। तुमने इसे कौन-सी बूटी सुंघा दी?’

रमा ने कहा, ‘गरीबों पर सभी को रहम आता है।’

दारोग़ा ने मुस्कराकर कहा, ‘पुलिस को छोड़कर, इतना और कहिए। मुझे तो यकीन नहीं कि पचास गिन्नियाँ लावे।’

रमानाथ-‘अगर लाए भी तो उससे इतना बडा तावान नहीं दिलाना चाहता। आप मुझे शौक से हिरासत में ले लें।’

दारोग़ा -‘मुझे पाँच सौ के बदले साढ़े छः सौ मिल रहे हैं, क्यों छोड़ूं। तुम्हारी गिरफ्तारी का इनाम मेरे किसी दूसरे भाई को मिल जाये, तो क्या बुराई है।’

रमानाथ-‘जब मुझे चक्की पीसनी है, तो जितनी जल्द पीस लूं, उतना ही अच्छा। मैंने समझा था, मैं पुलिस की नज़रों से बचकर रह सकता हूँ। अब मालूम हुआ कि यह बेकली और आठों पहर पकड़ लिए जाने का ख़ौफ जेल से कम जानलेवा नहीं।’

दारोग़ाजी को एकाएक जैसे कोई भूली हुई बात याद आ गई। मेज़ के दराज़ से एक मिसल निकाली, उसके पन्ने इधर-उधर उल्टे, तब नम्रता से बोले,अगर मैं कोई ऐसी तरकीब बतलाऊं कि देवीदीन के रूपये भी बच जाये और तुम्हारे ऊपर भी आँच न आये, तो कैसा?’

रमा ने अविश्वास के भाव से कहा, ऐसी तरकीब कोई है, मुझे तो आशा नहीं।’

दारोग़ा-‘अभी साई के सौ खेल हैं। इसका इंतज़ाम मैं कर सकता हूँ। आपको महज़ एक मुकदमे में शहादत देनी पड़ेगी?’

रमानाथ-‘झूठी शहादत होगी।’

दारोग़ा-‘नहीं, बिलकुल सच्ची। बस समझ लो कि आदमी बन जाओगे। म्युनिसिपैलिटी के पंजे से तो छूट जाओगे, शायद सरकार परवरिश भी करे। यों अगर चालान हो गया, तो पाँच साल से कम की सज़ा न होगी। मान लो, इस वक्त देवी तुम्हें बचा भी ले, तो बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनायेगी। ज़िन्दगी ख़राब हो जायगी। तुम अपना नफा-नुकसान ख़ुद समझ लो। मैं ज़बरदस्ती नहीं करता।’

दारोग़ाजी ने डकैती का वृत्तांत कह सुनाया। रमा ऐसे कई मुकदमे समाचारपत्रों में पढ़ चुका था। संशय के भाव से बोला, ‘तो मुझे मुख़बिर बनना पड़ेगा और यह कहना पड़ेगा कि मैं भी इन डकैतियों में शरीक था। यह तो झूठी शहादत हुई।’

दारोग़ा-‘मुआमला बिलकुल सच्चा है। आप बेगुनाहों को न फंसायेंगे। वही लोग जेल जायेंगे, जिन्हें जाना चाहिए। फिर झूठ कहाँ रहा- डाकुओं के डर से यहाँ के लोग शहादत देने पर राज़ी नहीं होते। बस और कोई बात नहीं। यह मैं मानता हूँ कि आपको कुछ झूठ बोलना पड़ेगा, लेकिन आपकी ज़िन्दगी बनी जा रही है, इसके लिहाज़ से तो इतना झूठ कोई चीज़ नहीं। ख़ूब सोच लीजिये। शाम तक जवाब दीजयेगा।’

रमा के मन में बात बैठ गई। अगर एक बार झूठ बोलकर वह अपने पिछले कर्मों का प्रायश्चित्त कर सके और भविष्य भी सुधार ले, तो पूछना ही क्या जेल से तो बच जायेगा। इसमें बहुत आगा-पीछा की जरूरत ही न थी। हाँ, इसका निश्चय हो जाना चाहिए कि उस पर फिर म्युनिसिपैलिटी अभियोग न चलायेगी और उसे कोई जगह अच्छी मिल जायगी। वह जानता था, पुलिस की ग़रज़ है और वह मेरी कोई वाजिब शर्त अस्वीकार न करेगी। इस तरह बोला, मानो उसकी आत्मा धर्म और अधर्म के संकट में पड़ी हुई है, ‘मुझे यही डर है कि कहीं मेरी गवाही से बेगुनाह लोग न फंस जायें।’

दारोग़ा -‘इसका मैं आपको इत्मीनान दिलाता हूँ।’

रमानाथ-‘लेकिन कल को म्युनिसिपैलिटी मेरी गर्दन नापे तो मैं किसे पुकारूंगा?’

दारोग़ा -‘मजाल है, म्युनिसिपैलिटी चूं कर सके। गौजदारी के मुकदमे में मुददई तो सरकार ही होगी। जब सरकार आपको मुआफ कर देगी, तो मुकदमा कैसे चलायेगी। आपको तहरीरी मुआफीनामा दे दिया जायेगा, साहब।’

रमानाथ-‘और नौकरी?’

दारोग़ा -‘वह सरकार आप इंतज़ाम करेगी। ऐसे आदमियों को सरकार ख़ुद अपना दोस्त बनाए रखना चाहती है। अगर आपकी शहादत बढिया हुई और उस फ्री की जिरहों के जाल से आप निकल गए, तो फिर आप पारस हो जायेंगे!’ दारोग़ा ने उसी वक्त मोटर मंगवाई और रमा को साथ लेकर डिप्टी साहब से मिलने चल दिये। इतनी बडी कारगुज़ारी दिखाने में विलंब क्यों करते? डिप्टी से एकांत में ख़ूब ज़ीट उडाई। इस आदमी का यों पता लगाया। इसकी सूरत देखते ही भांप गया कि मगरूर है, बस गिरफ्तार ही तो कर लिया! बात सोलहों आने सच निकली। निगाह कहीं चूक सकती है! हुजूर, मुज़रिम की आँखें पहचानता हूँ। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी के रूपये ग़बन करके भागा है। इस मामले में शहादत देने को तैयार है। आदमी पढ़ा-लिखा, सूरत का शरीफ और ज़हीन है।’

डिप्टी ने संदिग्ध भाव से कहा, ‘हाँ, आदमी तो होशियार मालूम होता है।’

‘मगर मुआफीनामा लिये बग़ैर इसे हमारा एतबार न होगा। कहीं इसे यह शुबहा हुआ कि हम लोग इसके साथ कोई चाल चल रहे हैं, तो साफ निकल जायेगा।’

डिप्टी-‘यह तो होगा ही। गवर्नमेंट से इसके बारे में बातचीत करना होगा। आप टेलीफोन मिलाकर इलाहाबाद पुलिस से पूछिए कि इस आदमी पर कैसा मुकदमा है। यह सब तो गवर्नमेंट को बताना होगा। दारोग़ाजी ने टेलीफोन डाइरेक्टरी देखी, नंबर मिलाया और बातचीत शुरू हुई।

डिप्टी-‘क्या बोला?’

दारोग़ा -‘कहता है, यहाँ इस नाम के किसी आदमी पर मुकदमा नहीं है।’

डिप्टी-‘यह कैसा है भाई, कुछ समझ में नहीं आता। इसने नाम तो नहीं बदल दिया?’

दारोग़ा -‘कहता है, म्युनिसिपैलिटी में किसी ने रूपये ग़बन नहीं किए। कोई मामला नहीं है।’

डिप्टी-‘ये तो बडा ताज्जुब का बात है। आदमी बोलता है हम रूपया लेकर भागा, निसिपैलिटी बोलता है कोई रूपया ग़बन नहीं किया। यह आदमी पागल तो नहीं है?’

दारोग़ा -‘मेरी समझ में कोई बात नहीं आती, अगर कह दें कि तुम्हारे ऊपर कोई इल्ज़ाम नहीं है, तो फिर उसकी गर्द भी न मिलेगी।’

‘अच्छा, म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर से पूछिए।’

दारोग़ा ने फिर नंबर मिलाया। सवाल-जवाब होने लगा।

दारोग़ा -‘आपके यहाँ रमानाथ कोई क्लर्क था?’

जवाब, ‘जी हाँ, था।’

दारोग़ा -‘वह कुछ रूपये ग़बन करके भागा है?

जवाब,’नहीं। वह घर से भागा है, पर ग़बन नहीं किया। क्या वह आपके यहाँ है?’

दारोग़ा -‘जी हाँ, हमने उसे गिरफ्तार किया है। वह ख़ुद कहता है कि मैंने रूपये ग़बन किए। बात क्या है?’

जवाब, ‘पुलिस तो लाल बुझक्कड़ है। ज़रा दिमाग़ लड़ाइये।

दारोग़ा -‘यहाँ तो अक्ल काम नहीं करती।’

जवाब, ‘यहीं क्या, कहीं भी काम नहीं करती। सुनिए, रमानाथ ने मीज़ान लगाने में ग़लती की, डरकर भागा। बाद को मालूम हुआ कि तहबील में कोई कमी न थी। आई समझ में बात।’

डिप्टी-‘अब क्या करना होगा खां साहब, चिड़िया हाथ से निकल गया!’

दारोग़ा -‘निकल कैसे जाएगी हुजूर! रमानाथ से यह बात कही ही क्यों जाये? बस उसे किसी ऐसे आदमी से मिलने न दिया जाये, जो बाहर की ख़बरें पहुँचा सके। घरवालों को उसका पता अब लग जावेगा ही, कोई न कोई जरूर उसकी तलाश में आवेगा। किसी को न आने दें। तहरीर में कोई बात न लाई जाये। ज़बानी इत्मीनान दिला दिया जाये। कह दिया जाये, कमिश्नर साहब को मुआफीनामा के लिए रिपोर्ट की गई है। इंस्पेक्टर साहब से भी राय ले ली जाये। इधर तो यह लोग सुपरिंटेंडेंट से परामर्श कर रहे थे, उधर एक घंटे में देवीदीन लौटकर थाने आया तो कांस्टेबल ने कहा, ‘दारोग़ाजी तो साहब के पास गये।’

देवीदीन ने घबड़ाकर कहा, ‘तो बाबूजी को हिरासत में डाल दिया?’

कांस्टेबल, ‘नहीं, उन्हें भी साथ ले गये।’

देवीदीन ने सिर पीटकर कहा, ‘पुलिस वालों की बात का कोई भरोसा नहीं। कह गया कि एक घंटे में रूपये लेकर आता हूँ, मगर इतना भी सबर न हुआ। सरकार से पाँच ही सौ तो मिलेंगे। मैं छः सौ देने को तैयार हूँ। हाँ, सरकार में कारगुज़ारी हो जायेगी और क्या वहीं से उन्हें परागराज भेज देंगे। मुझसे भेटं भी न होगी। बुढ़िया रो-रोकर मर जायेगी। यह कहता हुआ देवीदीन वहीं ज़मीन पर बैठ गया।’

कांस्टेबल ने पूछा, ‘तो यहाँ कब तक बैठे रहोगे?’

देवीदीन ने मानो कोड़े की काट से आहत होकर कहा,’अब तो दारोग़ाजी से दो-दो बातें करके ही जाऊंगा। चाहे जेहल ही जाना पड़े, पर फटकारूंगा जरूर, बुरी तरह फटकारूंगा। आख़िर उनके भी तो बाल-बच्चे होंगे! क्या भगवान से ज़रा भी नहीं डरते! तुमने बाबूजी को जाती बार देखा था?बहुत रंजीदा थे? ‘

कांस्टेबल, ‘रंजीदा तो नहीं थे, ख़ासी तरह हँस रहे थे। दोनों जने मोटर में बैठकर गए हैं।’

देवीदीन ने अविश्वास के भाव से कहा, ‘हंस क्या रहे होंगे बेचारे। मुँह से चाहे हँस लें, दिल तो रोता ही होगा। ‘

 

देवीदीन को यहाँ बैठे एक घंटा भी न हुआ था कि सहसा जग्गो आ खड़ी हुई। देवीदीन को द्वार पर बैठे देखकर बोली, ‘तुम यहाँ क्या करने लगे? भैया कहाँ हैं?’

देवीदीन ने मर्माहत होकर कहा, ‘भैया को ले गए सुपरीडंट के पास, न जाने भेंट होती है कि ऊपर ही ऊपर परागराज भेज दिए जाते हैं। ‘

जग्गो-‘दारोग़ाजी भी बड़े वो हैं। कहाँ तो कहा था कि इतना लेंगे, कहाँ लेकर चल दिए!’

देवीदीन-‘इसीलिए तो बैठा हूँ कि आवें तो दो-दो बातें कर लूं।’

जग्गो-‘हाँ, फटकारना जरूर,जो अपनी बात का नहीं, वह अपने बाप का क्या होगा। मैं तो खरी कहूंगी। मेरा क्या कर लेंगे!’

देवीदीन-‘दुकान पर कौन है?’

जग्गो-‘बंद कर आई हूँ। अभी बेचारे ने कुछ खाया भी नहीं। सबेरे से वैसे ही हैं। चूल्हे में जाये, वह तमासाब उसी के टिकट लेने तो जाते थे। न घर से निकलते, तो काहे को यह बला सिर पड़ती।

देवीदीन-‘जो उधार ही से पराग भेज दिया तो?’

जग्गो-‘तो चिट्ठी तो आवेगी ही। चलकर वहीं देख आवेंगे?’

देवीदीन-‘(आँखों में आँसू भरकर) सज़ा हो जायेगी?

जग्गो-‘रूपया जमा कर देंगे तब काहे को होगी। सरकार अपने रूपये ही तो लेगी?

देवीदीन-‘नहीं पगली, ऐसा नहीं होता। चोर माल लौटा दे तो वह छोड़ थोड़े ही दिया जायेगा।’

जग्गो ने परिस्थिति की कठोरता अनुभव करके कहा, ‘दारोग़ाजी, ‘

वह अभी बात भी पूरी न करने पाई थी कि दारोग़ाजी की मोटर सामने आ पहुँची। इंस्पेक्टर साहब भी थे। रमा इन दोनों को देखते ही मोटर से उतरकर आया और प्रसन्न मुख से बोला, ‘तुम यहाँ देर से बैठे हो क्या दादा? आओ, कमरे में चलो। अम्मा, तुम कब आई?’

दारोग़ाजी ने विनोद करके कहा, ‘कहो चौधारी, लाये रूपये?’

देवीदीन-‘जब कह गया कि मैं थोड़ी देर में आता हूँ, तो आपको मेरी राह देख लेनी चाहिए थी। चलिए, अपने रूपये लीजिये।’

दारोग़ा -‘खोदकर निकाले होंगे?’

देवीदीन-‘आपके अकबाल से हज़ार-पाँच सौ अभी ऊपर ही निकल सकते हैं। ज़मीन खोदने की जरूरत नहीं पड़ी। चलो भैया, बुढिया कब से खड़ी है। मैं रूपये चुकाकर आता हूँ। यह तो इंस्पेक्टर साहब थे न? पहले इसी थाने में थे।’

दारोग़ा -‘तो भाई, अपने रूपये ले जाकर उसी हांड़ी में रख दो। अफसरों की सलाह हुई कि इन्हें छोड़ना न चाहिए। मेरे बस की बात नहीं है।’

इंस्पेक्टर साहब तो पहले ही दफ्तर में चले गए थे। ये तीनों आदमी बातें करते उसके बग़ल वाले कमरे में गये। देवीदीन ने दारोग़ा की बात सुनी,तो भौंहें तिरछी हो गई। बोला, दारोग़ाजी, मरदों की एक बात होती है, मैं तो यही जानता हूँ। मैं रूपये आपके हुक्म से लाया हूँ। आपको अपना कौल पूरा करना पड़ेगा। कहके मुकर जाना नीचों का काम है।’

इतने कठोर शब्द सुनकर दारोग़ाजी को भन्ना जाना चाहिए था, पर उन्होंने ज़रा भी बुरा न माना। हँसते हुए बोले,भई अब चाहे, नीच कहो, चाहे दग़ाबाज़ कहो, पर हम इन्हें छोड़ नहीं सकते। ऐसे शिकार रोज़ नहीं मिलते। कौल के पीछे अपनी तरक्की नहीं छोड़ सकता दारोग़ा के हँसने पर देवीदीन और भी तेज़ हुआ, ‘तो आपने कहा किस मुँह से था? ‘

दारोग़ा -‘कहा तो इसी मुँह से था, लेकिन मुँह हमेशा एक-सा तो नहीं रहता। इसी मुँह से जिसे गाली देता हूँ, उसकी इसी मुँह से तारीफ भी करता हूँ।’

देवीदीन-‘(तिनककर) यह मूंछें मुड़वा डालिये।’

दारोग़ा -‘मुझे बड़ी ख़ुशी से मंजूर है। नीयत तो मेरी पहले ही थी, पर शर्म के मारे न मुड़वाता था। अब तुमने दिल मज़बूत कर दिया।’

देवीदीन-‘हँसिये मत दारोग़ाजी, आप हँसते हैं और मेरा ख़ून जला जाता है। मुझे चाहे जेहल ही क्यों न हो जाये, लेकिन मैं कप्तान साहब से जरूर कह दूंगा। हूं तो टके का आदमी पर आपके अकबाल से बडे अफसरों तक पहुँच है।’

दारोग़ा -‘अरे, यार तो क्या सचमुच कप्तान साहब से मेरी शिकायत कर दोगे?’

देवीदीन ने समझा कि धमकी कारगर हुई। अकड़कर बोला, ‘आप जब किसी की नहीं सुनते, बात कहकर मुकर जाते हैं, तो दूसरे भी अपने-सी करेंगे ही। मेम साहब तो रोज़ ही दुकान पर आती हैं।’

दारोग़ा -‘कौन, देवी? अगर तुमने साहब या मेम साहब से मेरी कुछ शिकायत की, तो कसम खाकर कहता हूँ, कि घर खुदवाकर फेंक दूंगा!’

देवीदीन-‘जिस दिन मेरा घर खुदेगा, उस दिन यह पगड़ी और चपरास भी न रहेगी, हुजूर।’

दारोग़ा -‘अच्छा तो मारो हाथ पर हाथ, हमारी तुम्हारी दो-दो चोटें हो जाये,यही सही।’

देवीदीन-‘पछताओगे सरकार, कहे देता हूँ पछताओगे।’

रमा अब जब्त न कर सका। अब तक वह देवीदीन के बिगड़ने का तमाशा देखने के लिए भीगी बिल्ली बना खड़ा था। कहकहा मारकर बोला, ‘दादा,दारोग़ाजी तुम्हें चिढ़ा रहे हैं। हम लोगों में ऐसी सलाह हो गई है कि मैं बिना कुछ लिए-दिए ही छूट जाऊंगा, ऊपर से नौकरी भी मिल जायेगी। साहब ने पक्का वादा किया है। मुझे अब यहीं रहना होगा।’

देवीदीन ने रास्ता भटके हुए आदमी की भांति कहा, ‘कैसी बात है भैया, क्या कहते हो! क्या पुलिस वालों के चकमे में आ गये? इसमें कोई न कोई चाल जरूर छिपी होगी।’

रमा ने इत्मीनान के साथ कहा, ‘और बात नहीं, एक मुकदमे में शहादत देनी पड़ेगी।’

देवीदीन ने संशय से सिर हिलाकर कहा, ‘झूठा मुकदमा होगा?’

रमानाथ-‘नहीं दादा, बिलकुल सच्चा मामला है। मैंने पहले ही पूछ लिया है।’

देवीदीन की शंका शांत न हुई। बोला, ‘मैं इस बारे में और कुछ नहीं कह सकता भैया, ज़रा सोच-समझकर काम करना। अगर मेरे रूपयों को डरते हो,तो यही समझ लो कि देवीदीन ने अगर रूपयों की परवा की होती, तो आज लखपति होता। इन्हीं हाथों से सौ-सौ रूपये रोज़ कमाए और सब-के-सब उड़ा दिए हैं। किस मुकदमे में सहादत देनी है? कुछ मालूम हुआ?’

दारोग़ाजी ने रमा को जवाब देने का अवसर न देकर कहा, ‘वही डकैतियों वाला मुआमला है, जिसमें कई ग़रीब आदमियों की जान गई थी। इन डाकुओं ने सूबे-भर में हंगामा मचा रक्खा था। उनके डर के मारे कोई आदमी गवाही देने पर राज़ी नहीं होता।’

देवीदीन ने उपेक्षा के भाव से कहा, ‘अच्छा तो यह मुख़बिर बन गये? यह बात है। इसमें तो जो पुलिस सिखायेगी, वही तुम्हें कहना पड़ेगा, भैया! मैं छोटी समझ का आदमी हूँ, इन बातों का मर्म क्या जानूं, पर मुझसे मुख़बिर बनने को कहा जाता, तो मैं न बनता, चाहे कोई लाख रूपया देता। बाहर के आदमी को क्या मालूम, कौन अपराधी है, कौन बेकसूर है। दो-चार अपराधियों के साथ दो-चार बेकसूर भी जरूर ही होंगे।’

दारोग़ा -‘हरगिज़ नहीं। जितने आदमी पकड़े गए हैं, सब पक्के डाकू हैं।’

देवीदीन-‘यह तो आप कहते हैं न, हमें क्या मालूम।’

दारोग़ा -‘हम लोग बेगुनाहों को फंसाएंगे ही क्यों? यह तो सोचो।’

देवीदीन-‘यह सब भुगते बैठा हूँ, दारोग़ाजी! इससे तो यही अच्छा है कि आप इनका चालान कर दें। साल-दो साल का जेहल ही तो होगा। एक अधरम के दंड से बचने के लिए बेगुनाहों का ख़ून तो सिर पर न चढ़ेगा! ‘

रमा ने भीरूता से कहा, ‘मैंने ख़ूब सोच लिया है दादा, सब काग़ज़ देख लिए हैं, इसमें कोई बेगुनाह नहीं है।’

देवीदीन ने उदास होकर कहा,’होगा भाई! जान भी तो प्यारी होती है!’यह कहकर वह पीछे घूम पड़ा। अपने मनोभावों को इससे स्पष्ट रूप से वह प्रकट न कर सकता था। एकाएक उसे एक बात याद आ गई। मुड़कर बोला, ‘तुम्हें कुछ रूपये देता जाऊं।’

रमा ने खिसियाकर कहा, ‘क्या जरूरत है?’

दारोग़ा -‘आज से इन्हें यहीं रहना पड़ेगा।’

देवीदीन ने कर्कश स्वर में कहा,’हाँ हुजूर, इतना जानता हूँ। इनकी दावत होगी, बंगला रहने को मिलेगा, नौकर मिलेंगे, मोटर मिलेगी। यह सब जानता हूँ। कोई बाहर का आदमी इनसे मिलने न पावेगा, न यह अकेले आ-जा सकेंगे, यह सब देख चुका हूँ।’

यह कहता हुआ देवीदीन तेज़ी से कदम उठाता हुआ चल दिया, मानो वहाँ उसका दम घुट रहा हो दारोग़ा ने उसे पुकारा, पर उसने फिरकर न देखा। उसके मुख पर पराभूत वेदना छाई हुई थी।

जग्गो ने पूछा, ‘भैया नहीं आ रहे हैं?’

देवीदीन ने सड़क की ओर ताकते हुए कहा, ‘भैया अब नहीं आवेंगे। जब अपने ही अपने न हुए तो बेगाने तो बेगाने हैं ही!’ वह चला गया।

बुढ़िया भी पीछे-पीछे भुनभुनाती चली।

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