चैप्टर 34 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 34 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 34 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 34 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 1 | 2 | 3 | 4| 5 | | 7 8910111213141516171819202122 23 | 242526272829 | 3031323334 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51

Prev | Next | All Chapters

रूदन में कितना उल्लास, कितनी शांति, कितना बल है। जो कभी एकांत में बैठकर, किसी की स्मृति में, किसी के वियोग में, सिसक-सिसक और बिलखबिलख नहीं रोया, वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ों हंसियां न्योछावर हैं। उस मीठी वेदना का आनंद उन्हीं से पूछो,जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है। हंसी के बाद मन खिकै हो जाता है, आत्मा क्षुब्धा हो जाती है, मानो हम थक गए हों, पराभूत हो गए हों। रूदन के पश्चात एक नवीन स्फूर्ति, एक नवीन जीवन, एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है। जालपा के पास ‘प्रजा-मित्र’ कार्यालय का पत्र पहुंचा, तो उसे पढ़कर वह रो पड़ी। पत्र एक हाथ में लिये, दूसरे हाथ से चौखट पकड़े, वह खूब रोई। क्या सोचकर रोई, वह कौन कह सकता है। कदाचित अपने उपाय की इस आशातीत सफलता ने उसकी आत्मा को विह्नल कर दिया, आनंद की उस गहराई पर पहुँचा दिया जहाँ पानी है, या उस ऊँचाई पर जहां उष्णता हिम बन जाती है। आज छः महीने के बाद यह सुख-संवाद मिला। इतने दिनों वह छलमयी आशा और कठोर दुराशा का खिलौना बनी रही। आह! कितनी बार उसके मन में तरंग उठी कि इस जीवन का क्यों न अंत कर दूं! कहीं मैंने सचमुच प्राण त्याग दिए होते, तो उनके दर्शन भी न पाती! पर उनका हिया कितना कठोर है। छः महीने से वहाँ बैठे हैं, एक पत्र भी न लिखा, ख़बर तक नहीं ली। आख़िर यही न समझ लिया होगा कि बहुत होगा रो-रोकर मर जायेगी। उन्होंने मेरी परवाह ही कब की! दस-बीस रूपये तो आदमी यार-दोस्तों पर भी ख़र्च कर देता है। वह प्रेम नहीं है। प्रेम ह्रदय की वस्तु है, रूपये की नहीं। जब तक रमा का कुछ पता न था, जालपा सारा इलज़ाम अपने सिर रखती थी, पर आज उनका पता पाते ही उसका मन अकस्मात कठोर हो गया। तरह-तरह के शिकवे पैदा होने लगे। वहाँ क्या समझकर बैठे हैं? इसीलिए तो कि वह स्वाधीन हैं, आज़ाद हैं,किसी का दिया नहीं खाते।

इसी तरह मैं कहीं बिना कहे-सुने चली जाती, तो वह मेरे साथ किस तरह पेश आते? शायद तलवार लेकर गर्दन पर सवार हो जाते या ज़िन्दगी-भर मुँह न देखते। वहीं खड़े-खड़े जालपा ने मन-ही-मन शिकायतों का दफ्तर खोल दिया।

सहसा रमेश बाबू ने द्वार पर पुकारा, ‘गोपी, गोपी, ज़रा इधर आना।’

मुंशीजी ने अपने कमरे में पड़े-पड़े कराहकर कहा, ‘कौन है भाई, कमरे में आ जाओ। अरे! आप हैं रमेश बाबू! बाबूजी, मैं तो मरकर जिया हूं। बस यही समझिए कि नई ज़िन्दगी हुई। कोई आशा न थी। कोई आगे न कोई पीछे, दोनों लौंडे आवारा हैं, मैं मईं या जीऊं, उनसे मतलब नहीं। उनकी माँ को मेरी सूरत देखते डर लगता है। बस बेचारी बहू ने मेरी जान बचाई, वह न होती तो अब तक चल बसा होता।’

रमेश बाबू ने कृत्रिम संवेदना दिखाते हुए कहा, ‘आप इतने बीमार हो गए और मुझे ख़बर तक न हुई। मेरे यहाँ रहते आपको इतना कष्ट हुआ! बहू ने भी मुझे एक पुर्ज़ा न लिख दिया। छुट्टी लेनी पड़ी होगी?’

मुंशी-‘छुट्टी के लिए दरख्वास्त तो भेज दी थी, मगर साहब मैंने डाक्टरी सर्टिफिकेट नहीं भेजी। सोलह रूपये किसके घर से लाता। एक दिन सिविल सर्जन के पास गया, मगर उन्होंने चिट्ठी लिखने से इनकार किया। आप तो जानते हैं वह बिना फीस लिये बात नहीं करते। मैं चला आया और दरख्वास्त भेज दी। मालूम नहीं मंजूर हुई या नहीं। यह तो डाक्टरों का हाल है। देख रहे हैं कि आदमी मर रहा है, पर बिना भेंट लिये कदम न उठावेंगे!’

रमेश बाबू ने चिंतित होकर कहा, ‘यह तो आपने बुरी ख़बर सुनाई, मगर आपकी छुट्टी नामंजूर हुई तो क्या होगा?’

मुंशीजी ने माथा ठोंकर कहा,’होगा क्या, घर बैठ रहूंगा। साहब पूछेंगे तो साफ कह दूंगा, मैं सर्जन के पास गया था, उसने छुट्टी नहीं दी। आख़िर इन्हें क्यों सरकार ने नौकर रक्खा है। महज़ कुर्सी की शोभा बढ़ाने के लिए? मुझे डिसमिस हो जाना मंज़ूर है, पर सर्टिफिकेट न दूंगा। लौंडे ग़ायब हैं। आपके लिए पान तक लाने वाला कोई नहीं। क्या करूं?’

रमेश ने मुस्कराकर कहा, ‘मेरे लिए आप तरददुद न करें। मैं आज पान खाने नहीं, भरपेट मिठाई खाने आया हूँ। (जालपा को पुकारकर) बहूजी,तुम्हारे लिए ख़ुशख़बरी लाया हूं। मिठाई मंगवा लो।’

जालपा ने पान की तश्तरी उनके सामने रखकर कहा, ‘पहले वह ख़बर सुनाइए। शायद आप जिस ख़बर को नई-नई समझ रहे हों, वह पुरानी हो गई हो’

रमेश-‘जी कहीं हो न! रमानाथ का पता चल गया। कलकत्ता में हैं।’

जालपा-‘मुझे पहले ही मालूम हो चुका है।’

मुंशीजी झपटकर उठ बैठे। उनका ज्वर मानो भागकर उत्सुकता की आड़ में जा छिपा, रमेश का हाथ पकड़कर बोले, ‘मालूम हो गया कलकत्ता में हैं?कोई ख़त आया था?’

रमेश-‘खत नहीं था, एक पुलिस इंक्वायरी थी। मैंने कह दिया, उन पर किसी तरह का इलज़ाम नहीं है। तुम्हें कैसे मालूम हुआ, बहूजी?’

जालपा ने अपनी स्कीम बयान की। ‘प्रजा-मित्र’ कार्यालय का पत्र भी दिखाया। पत्र के साथ रूपयों की एक रसीद थी जिस पर रमा का हस्ताक्षर था।

रमेश-‘दस्तख़त तो रमा बाबू का है, बिलकुल साफ धोखा हो ही नहीं सकता मान गया बहूजी तुम्हें! वाह, क्या हिकमत निकाली है! हम सबके कान काट लिए। किसी को न सूझी। अब जो सोचते हैं, तो मालूम होता है, कितनी आसान बात थी। किसी को जाना चाहिए जो बचा को पकड़कर घसीट लाए। यह बातचीत हो रही थी कि रतन आ पहुंची। जालपा उसे देखते ही वहाँ से निकली और उसके गले से लिपटकर बोली, ‘बहन कलकत्ता से पत्र आ गया। वहीं हैं।

‘रतन-‘मेरे सिर की कसम?’

जालपा-‘हाँ, सच कहती हूँ। ख़त देखो न!’

रतन-‘तो आज ही चली जाओ।’

जालपा-‘यही तो मैं भी सोच रही हूं। तुम चलोगी?’

रतन-‘चलने को तो मैं तैयार हूं, लेकिन अकेला घर किस पर छोड़ूं! बहन, मुझे मणिभूषण पर कुछ शुबहा होने लगा है। उसकी नीयत अच्छी नहीं मालूम होती। बैंक में बीस हज़ार रूपये से कम न थे। सब न जाने कहां उडा दिये। कहता है, क्रिया-कर्म में ख़र्च हो गये। हिसाब मांगती हूँ, तो आँखें दिखाता है। दफ्तर की कुंजी अपने पास रखे हुए है। मांगती हूँ, तो टाल जाता है। मेरे साथ कोई कानूनी चाल चल रहा है। डरती हूँ, मैं उधार जाऊं,इधर वह सब कुछ ले-देकर चलता बने। बंगले के गाहक आ रहे हैं। मैं भी सोचती हूँ, गाँव में जाकर शांति से पड़ी रहूं। बंगला बिक जायगा, तो नकद रूपये हाथ आ जायेंगे। मैं न रहूंगी,तो शायद ये रूपये मुझे देखने को भी न मिलें। गोपी को साथ लेकर आज ही चली जाओ। रूपये का इंतजाम मैं कर दूंगी।’

जालपा-‘गोपीनाथ तो शायद न जा सकें, दादा की दवा-दारू के लिए भी तो कोई चाहिए।

रतन-‘वह मैं कर दूंगी। मैं रोज़ सबेरे आ जाऊंगी और दवा देकर चली जाऊंगी। शाम को भी एक बार आ जाया करूंगी। ‘

जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘और दिन?भर उनके पास बैठा कौन रहेगा।’

रतन-‘मैं थोड़ी देर बैठी भी रहा करूंगी, मगर तुम आज ही जाओ। बेचारे वहां न जाने किस दशा में होंगे। तो यही तय रही न? ‘

रतन मुंशीजी के कमरे में गई, तो रमेश बाबू उठकर खड़े हो गए और बोले, ‘आइए देवीजी, रमा बाबू का पता चल गया! ‘

रतन-‘इसमें आधा श्रेय मेरा है।’

रमेश-‘आपकी सलाह से तो हुआ ही होगा। अब उन्हें यहाँ लाने की फिक्र करनी है।’

रतन-‘जालपा चली जायें और पकड़ लायें। गोपी को साथ लेती जावें, आपको इसमें कोई आपत्ति तो नहीं है, दादाजी?’

मुंशीजी को आपत्ति तो थी, उनका बस चलता तो इस अवसर पर दस-पांच आदमियों को और जमा कर लेते, फिर घर के आदमियों के चले जाने पर क्यों आपत्ति न होती, मगर समस्या ऐसी आ पड़ी थी कि कुछ बोल न सके। गोपी कलकत्ता की सैर का ऐसा अच्छा अवसर पाकर क्यों न ख़ुश होता। विशम्भर दिल में ऐंठकर रह गया। विधाता ने उसे छोटा न बनाया होता, तो आज उसकी यह हकतलफी न होती। गोपी ऐसे कहाँ के बड़े होशियार हैं, जहाँ जाते हैं कोई-न-कोई चीज़ खो आते हैं। हाँ, मुझसे बड़े हैं। इस दैवी विधान ने उसे मजबूर कर दिया। रात को नौ बजे जालपा चलने को तैयार हुई। सास-ससुर के चरणों पर सिर झुकाकर आशीर्वाद लिया, विशम्भर रो रहा था, उसे गले लगा कर प्यार किया और मोटर पर बैठी। रतन स्टेशन तक पहुँचाने के लिए आई थी। मोटर चली तो जालपा ने कहा, ‘बहन, कलकत्ता तो बहुत बड़ा शहर होगा। वहाँ कैसे पता चलेगा?’

रतन-‘पहले ‘प्रजा-मित्र’ के कार्यालय में जाना। वहाँ से पता चल जाएगा। गोपी बाबू तो हैं ही।’

जालपा-‘ठहरूंगी कहाँ?’

रतन-‘कई धर्मशाले हैं। नहीं होटल में ठहर जाना। देखो रूपये की जरूरत पड़े, तो मुझे तार देना। कोई-न कोई इंतज़ाम करके भेजूंगी। बाबूजी आ जायें,तो मेरा बड़ा उपकार हो, यह मणिभूषण मुझे तबाह कर देगा।’

जालपा-‘होटल वाले बदमाश तो न होंगे? ‘

रतन-‘कोई ज़रा भी शरारत करे, तो ठोकर मारना। बस, कुछ पूछना मत, ठोकर जमाकर तब बात करना। (कमर से एक छुरी निकालकर) इसे अपने पास रख लो। कमर में छिपाए रखना। मैं जब कभी बाहर निकलती हूँ, तो इसे अपने पास रख लेती हूँ। इससे दिल बड़ा मज़बूत रहता है। जो मर्द किसी स्त्री को छेड़ता है, उसे समझ लो कि पल्ले सिरे का कायर, नीच और लंपट है। तुम्हारी छुरी की चमक और तुम्हारे तेवर देखकर ही उसकी ईह गष्ना हो जायगी। सीधा दुम दबाकर भागेगा, लेकिन अगर ऐसा मौका आ ही पड़े जब तुम्हें छुरी से काम लेने के लिए मजबूर हो जाना पड़े, तो ज़रा भी मत झिझकना। छुरी लेकर पिल पड़ना। इसकी बिलकुल फिक्र मत करना कि क्या होगा, क्या न होगा। जो कुछ होना होगा, हो जायेगा।’

जालपा ने छुरी ले ली, पर कुछ बोली नहीं। उसका दिल भारी हो रहा था। इतनी बातें सोचने और पूछने की थीं कि उनके विचार से ही उसका दिल बैठा जाता था।

स्टेशन आ गया। द्दलियों ने असबाब उतारा, गोपी टिकट लाया। जालपा पत्थर की मूर्ति की भांति प्लेटफार्म पर खड़ी रही, मानो चेतना शून्य हो गई हो किसी बडी परीक्षा के पहले हम मौन हो जाते हैं। हमारी सारी शक्तियाँ उस संग्राम की तैयारी में लग जाती हैं। रतन ने गोपी से कहा, ‘होशियार रहना।’

गोपी इधर कई महीनों से कसरत करता था। चलता तो मुडढे और छाती को देखा करता। देखने वालों को तो वह ज्यों का त्यों मालूम होता है, पर अपनी नज़र में वह कुछ और हो गया था। शायद उसे आश्चर्य होता था कि उसे आते देखकर क्यों लोग रास्ते से नहीं हट जाते, क्यों उसके डील-डौल से भयभीत नहीं हो जाते। अकड़कर बोला, ‘किसी ने ज़रा चीं-चपड़ की तो तोड़ दूंगा।’

रतन मुस्कराई, ‘यह तो मुझे मालूम है। सो मत जाना।’

गोपी, ‘पलक तक तो झपकेगी नहीं। मजाल है नींद आ जाये।’

गाड़ी आ गई। गोपी ने एक डिब्बे में घुसकर कब्जा जमाया। जालपा की आँखों में आँसू भरे हुए थे। बोली, बहन, ‘आशीर्वाद दो कि उन्हें लेकर कुशल से लौट आऊं।’

इस समय उसका दुर्बल मन कोई आश्रय, कोई सहारा, कोई बल ढूंढ रहा था और आशीर्वाद और प्रार्थना के सिवा वह बल उसे कौन प्रदान करता। यही बल और शांति का वह अक्षय भंडार है जो किसी को निराश नहीं करता, जो सबकी बांह पकड़ता है, सबका बड़ा पार लगाता है। इंजन ने सीटी दी। दोनों सहेलियाँ गले मिलीं। जालपा गाड़ी में जा बैठी।

रतन ने कहा, ‘जाते ही जाते ख़त भेजना।’ जालपा ने सिर हिलाया।

‘अगर मेरी जरूरत मालूम हो, तो तुरंत लिखना। मैं सब कुछ छोड़कर चली आऊंगी।’

जालपा ने सिर हिला दिया।

‘रास्ते में रोना मत।’ जालपा हँस पड़ी। गाड़ी चल दी।

Prev | Next | All Chapters

Chapter 1 | 2 | 3 | 4| 5 | | 7 8910111213141516171819202122 23 | 242526272829 | 3031323334 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51

मुंशी प्रेमचंद के अन्य उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

Leave a Comment