चैप्टर 25 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 25 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 25 Gaban Novel By Munshi Premchand

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अभी रमा मुँह-हाथ धो रहा था कि देवीदीन प्राइमर लेकर आ पहुँचा और बोला, ‘भैया, यह तुम्हारी अंग्रेजी बड़ी विकट है। एस.आई.आर. ‘सर’ होता है, तो पी.आई.टी. ‘पिट’ क्यों हो जाता है? बी.यू.टी. ‘बट’ है, लेकिन पी.यू.टी. ‘पुट’ क्यों होता है? तुम्हें भी बड़ी कठिन लगती होगी।
रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘पहले तो कठिन लगती थी, पर अब तो आसान मालूम होती है।’

देवीदीन – ‘जिस दिन पराइमर खतम होगी, महाबीरजी को सवा सेर लड्डू चढ़ाऊंगा। पराई-मर का मतलब है, पराई स्त्री मर जाये। मैं कहता हूँ, हमारीमर, पराई के मरने से हमें क्या सुख! तुम्हारे बाल-बच्चे तो हैं न भैया?’

रमा ने इस भाव से कहा, ‘मानो हैं, पर न होने के बराबर हैं,हाँ, हैं तो!’

‘कोई चिट्ठी-चपाती आई थी?’

‘ना!’

‘और न तुमने लिखी – ‘अरे! तीन महीने से कोई चिट्ठी ही नहीं भेजी? घबड़ाते न होंगे लोग?’

‘जब तक यहाँ कोई ठिकाना न लग जये, क्या पत्र लिखूं।’

‘अरे भले आदमी, इतना तो लिख दो कि मैं यहाँ कुशल से हूँ। घर से भाग आये थे, उन लोगों को कितनी चिंता हो रही होगी! माँ-बाप तो हैं न?’

‘हाँ, हैं तो।’

देवीदीन ने गिड़गिडाकर कहा, ‘तो भैया, आज ही चिट्ठी डाल दो, मेरी बात मानो।’

रमा ने अब तक अपना हाल छिपाया था। उसके मन में कितनी ही बार इच्छा हुई कि देवीदीन से कह दूं, पर बात होंठों तक आकर रूक जाती थी। वह देवीदीन के मुँह से आलोचना सुनना चाहता था। वह जानना चाहता था कि यह क्या सलाह देता है। इस समय देवीदीन के सद्भाव ने उसे पराभूत कर दिया।

बोला, ‘मैं घर से भाग आया हूँ, दादा!’

देवीदीन ने मूंछों में मुस्कराकर कहा, ‘यह तो मैं जानता हूँ, क्या बाप से लड़ाई हो गई?’

‘नहीं!’

‘माँ ने कुछ कहा होगा?’

‘यह भी नहीं!’

‘तो फिर घरवाली से ठन गई होगी। वह कहती होगी, मैं अलग रहूंगी, तुम कहते होगे मैं अपने माँ-बाप से अलग न रहूंगा। या गहने के लिए ज़िद करती होगी। नाक में दम कर दिया होगा। क्यों?’

रमा ने लज्जित होकर कहा, ‘कुछ ऐसी बात थी, दादा! वह तो गहनों की बहुत इच्छुक न थी, लेकिन पा जाती थी, तो प्रसन्न हो जाती थी, और मैं प्रेम की तरंग में आगा-पीछा कुछ न सोचता था।’

देवीदीन के मुँह से मानो आप-ही-आप निकल आया, ‘सरकारी रकम तो नहीं उड़ा दी?’

रमा को रोमांच हो आया। छाती धक-से हो गई। वह सरकारी रकम की बात उससे छिपाना चाहता था। देवीदीन के इस प्रश्न ने मानो उस पर छापा मार दिया। वह कुशल सैनिक की भांति अपनी सेना को घाटियों से, जासूसों की आँख बचाकर, निकाल ले जाना चाहता था, पर इस छापे ने उसकी सेना को अस्त- व्यस्त कर दिया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। वह एकाएक कुछ निश्चय न कर सका कि इसका क्या जवाब दूं।

देवीदीन ने उसके मन का भाव भांपकर कहा, ‘प्रेम बड़ा बेढब होता है, भैया! बड़े-बडे चूक जाते हैं, तुम तो अभी ललड़के हो, ग़बन के हज़ारों मुकदमे हर साल होते हैं। तहकीकात की जाये, तो सबका कारण एक ही होगा, गहना। दस-बीस वारदात तो मैं आँखों देख चुका हूँ। यह रोग ही ऐसा है। औरत मुँह से तो यही कहे जाती है कि यह क्यों लाये, वह क्यों लाये, रूपये कहाँ से आवेंगे, लेकिन उसका मन आनंद से नाचने लगता है। यहीं एक डाक-बाबू रहते थे। बेचारे ने छुरी से गला काट लिया। एक दूसरे मियां साहब को मैं जानता हूँ, जिनको पाँच साल की सज़ा हो गई, जेल में मर गये। एक तीसरे पंडितजी को जानता हूँ, जिन्होंने अफ़ीम खाकर जान दे दी। बुरा रोग है। दूसरों को क्या कहूं, मैं ही तीन साल की सज़ा काट चुका हूँ। जवानी की बात है, जब इस बुढ़िया पर जोबन था, ताकती थी तो मानो कलेजे पर तीर चला देती थी। मैं डाकिया था। मनीआर्डर तकसीम किया करता था। यह कानों के झुमकों के लिए जान खा रही थी। कहती थी, सोने ही के लूंगी। इसका बाप चौधरी था। मेवे की दुकान थी। मिजाज बढ़ा हुआ था। मुझ पर प्रेम का नशा छाया हुआ था। अपनी आमदनी की डींगें मारता रहता था। कभी फूल के हार लाता, कभी मिठाई, कभी अतर-फुलेलब शहर का हलका था। जमाना अच्छा था। दुकानदारों से जो चीज़ मांग लेता, मिल जाती थी। आख़िर मैंने एक मनीआर्डर पर झूठे दस्तखत बनाकर रूपये उड़ा लिये। कुल तीस रूपये थे। झुमके लाकर इसे दिये। इतनी ख़ुश हुई, इतनी ख़ुश हुई, कि कुछ न पूछो, लेकिन एक ही महीने में चोरी पकड़ ली गई। तीन साल की सज़ा हो गई। सज़ा काटकर निकला तो यहाँ भाग आया। फिर कभी घर नहीं गया। यह मुँह कैसे दिखाता। हाँ, घर पत्र भेज दिया। बुढ़िया खबर पाते ही चली आई। यह सब कुछ हुआ, मगर गहनों से उसका पेट नहीं भरा। जब देखो, कुछ-न-कुछ बनता ही रहता है। एक चीज़ आज बनवाई, कल उसी को तुड़वाकर कोई दूसरी चीज़ बनवाई, यही तार चला जाता है। एक सोनार मिल गया है, मजूरी में साग-भाजी ले जाता है। मेरी तो सलाह है, घर पर एक ख़त लिख दो, लेकिन पुलिस तो तुम्हारी टोह में होगी। कहीं पता मिल गया, तो काम बिगड़ जायेगा। मैं न किसी से एक ख़त लिखाकर भेज दूं?’

रमा ने आग्रहपूर्वक कहा, ‘नहीं, दादा! दया करो। अनर्थ हो जायेगा। पुलिस से ज्यादा तो मुझे घरवालों का भय है।’

देवीदीन – ‘घर वाले खबर पाते ही आ जायेंगे। यह चर्चा ही न उठेगी। उनकी कोई चिंता नहीं। डर पुलिस ही का है।’

रमानाथ – ‘मैं सज़ा से बिल्कुल नहीं डरता। तुमसे कहा नहीं, एक दिन मुझे वाचनालय में जान-पहचान की एक स्त्री दिखाई दी। हमारे घर बहुत आती-जाती थी। मेरी स्त्री से बड़ी मित्रता थी। एक बड़े वकील की पत्नी है। उसे देखते ही मेरी नानी मर गई। ऐसा सिटपिटा गया कि उसकी ओर ताकने की हिम्मत न पड़ी। चुपके से उठकर पीछे के बरामदे में जा छिपा। अगर उस वक्त उससे दो-चार बातें कर लेता, तो घर का सारा समाचार मालूम हो जाता और मुझे यह विश्वास है कि वह इस मुलाकात की किसी से चर्चा भी न करती। मेरी पत्नी से भी न कहती, लेकिन मेरी हिम्मत ही न पड़ी। अब अगर मिलना भी चाहूं, तो नहीं मिल सकता। उसका पता-ठिकाना कुछ भी तो नहीं मालूम।

देवीदीन – ‘तो फिर उसी को क्यों नहीं एक चिट्ठी लिखते?’

रमानाथ – ‘चिटठी तो मुझसे न लिखी जायेगी।’

देवीदीन – ‘तो कब तक चिट्ठी न लिखोगे?’

रमानाथ – ‘देखा जायेगा।’

देवीदीन – ‘पुलिस तुम्हारी टोह में होगी।’

देवीदीन चिंता में डूब गया। रमा को भ्रम हुआ, शायद पुलिस का भय इसे चिंतित कर रहा है। बोला, ‘हाँ, इसकी शंका मुझे हमेशा बनी रहती है। तुम देखते हो, मैं दिन को बहुत कम घर से निकलता हूँ, लेकिन मैं तुम्हें अपने साथ नहीं घसीटना चाहता। मैं तो जाऊंगा ही, तुम्हें क्यों उलझन में डालूं। सोचता हूँ, कहीं और चला जाऊं, किसी ऐसे गाँव में जाकर रहूं, जहाँ पुलिस की गंध भी न हो।‘

देवीदीन ने गर्व से सिर उठाकर कहा, ‘मेरे बारे में तुम कुछ चिंता न करो भैया, यहाँ पुलिस से डरने वाले नहीं हैं। किसी परदेशी को अपने घर ठहराना पाप नहीं है। हमें क्या मालूम किसके पीछे पुलिस है? यह पुलिस का काम है, पुलिस जाने। मैं पुलिस का मुखबिर नहीं, जासूस नहीं, गोइंदा नहीं। तुम अपने को बचाए रहो, देखो भगवान क्या करते हैं। हाँ, कहीं बुढ़िया से न कह देना, नहीं तो उसके पेट में पानी न पचेगा।’

दोनों एक क्षण चुपचाप बैठे रहे। दोनों इस प्रसंग को इस समय बंद कर देना चाहते थे।

सहसा देवीदीन ने कहा, ‘क्यों भैया, कहो तो मैं तुम्हारे घर चला जाऊं। किसी को कानो-कान खबर न होगी। मैं इधर-उधर से सारा ब्यौरा पूछ आऊंगा। तुम्हारे पिता से मिलूंगा, तुम्हारी माता को समझाऊंगा, तुम्हारी घरवाली से बातचीत करूंगा। फिर जैसा उचित जान पड़े, वैसा करना।‘

रमा ने मन-ही-मन प्रसन्न होकर कहा, ‘लेकिन कैसे पूछोगे दादा, लोग कहेंगे न कि तुमसे इन बातों से क्या मतलब?’

देवीदीन ने ठट्ठा मारकर कहा, ‘भैया, इससे सहज तो कोई काम ही नहीं।’

एक जनेऊ गले में डाला और ब्राह्मण बन गये। फिर चाहे हाथ देखो, चाहे, कुंडली बांचो, चाहे सगुन विचारो, सब कुछ कर सकते हो बुढिया भिक्षा लेकर आवेगी। उसे देखते ही कहूंगा, माता तेरे को पुत्र के परदेश जाने का बड़ा कष्ट है, क्या तेरा कोई पुत्र विदेश गया है? इतना सुनते ही घर-भर के लोग आ जायेंगे। वह भी आवेगी। उसका हाथ देखूंगा। इन बातों में मैं पक्का हूँ भैया, तुम निश्चिंत रहो, कुछ कमा लाऊंगा, देख लेना। माघ-मेला भी होगा। स्नान करता आऊंगा।

रमा की आँखें मनोल्लास से चमक उठीं। उसका मन मधुर कल्पनाओं के संसार में जा पहुँचा। जालपा उसी वक्त रतन के पास दौड़ी जायेगी। दोनों भांति-भांति के प्रश्न करेंगी, क्यों बाबा, वह कहाँ गए हैं? अच्छी तरह हैं न? कब तक घर आवेंगे? कभी बाल-बच्चों की सुधि आती है उनको? वहाँ किसी कामिनी के माया-जाल में तो नहीं फंस गए? दोनों शहर का नाम भी पूछेंगी।
कहीं दादा ने सरकारी रूपये चुका दिए हों, तो मज़ा आ जाये। तब एक ही चिंता रहेगी।‘

देवीदीन बोला, ‘तो है न सलाह?’

रमानाथ – ‘कहाँ जायेंगे दादा, कष्ट होगा।’

‘माघ का स्नान भी तो करूंगा। कष्ट के बिना कहीं पुण्य होता है! मैं तो कहता हूँ, तुम भी चलो। मैं वहाँ सब रंग-ढंग देख लूंगा। अगर देखना कि मामला टिचन है, तो चैन से घर चले जाना। कोई खटका मालूम हो, तो मेरे साथ ही लौट आना।’

रमा ने हँसकर कहा, ‘कहाँ की बात करते हो, दादा! मैं यों कभी न जाऊंगा। स्टेशन पर उतरते ही कहीं पुलिस का सिपाही पकड़ ले, तो बस!’

देवीदीन ने गंभीर होकर कहा, ‘सिपाही क्या पकड़ लेगा, दिल्लगी है! मुझसे कहो, मैं प्रयागराज के थाने में ले जाकर खड़ा कर दूं। अगर कोई तिरछी आँखों से भी देख ले, तो मूंछ मुड़ा लूं! ऐसी बात भला! सैकड़ों खूनियों को जानता हूँ, जो यहाँ कलकत्ता में रहते हैं। पुलिस के अफसरों के साथ दावतें खाते हैं, पुलिस उन्हें जानती है, फिर भी उनका कुछ नहीं कर सकती! रूपये में बड़ा
बल है, भैया!’

रमा ने कुछ जवाब न दिया। उसके सामने यह नया प्रश्न आ खडा हुआ। जिन बातों को वह अनुभव न होने के कारण महाकष्ट-साकेय समझता था, उन्हें इस बूढ़े ने निर्मूल कर दिया, और बूढ़ा शेखीबाजों में नहीं है, वह मुँह से जो कहता है, उसे पूरा कर दिखाने की सामर्थ्य रखता है। उसने सोचा, तो क्या मैं सचमुच देवीदीन के साथ घर चला जाऊं?’ यहाँ कुछ रूपये मिल जाते, तो नये सूट बनवा लेता, फिर शान से जाता। वह उस अवसर की कल्पना करने लगा, जब वह नया सूट पहने हुए घर पहुँचेगा। उसे देखते ही गोपी और विश्वम्भर दौड़ेंगे, भैया आये, भैया आये! दादा निकल आयेंगे। अम्मा को पहले विश्वास न आयेगा, मगर जब दादा जाकर कहेंगे, हाँ, आ तो गए, तब वह रोती हुई द्वार की ओर चलेंगी। उसी वक्त मैं पहुँचकर उनके पैरों पर फिर पडूंगा। जालपा वहाँ न आयेगी। वह मान किए बैठी रहेगी। रमा ने मन-ही-मन वह वाक्य भी सोच लिए, जो वह जालपा को मनाने के लिए कहेगा। शायद रूपये की चर्चा ही न आये। इस विषय पर कुछ कहते हुए सभी को संकोच होगा। अपने प्रियजनों से जब कोई अपराध हो जाता है, तो हम उघाड़ कर उसे दुखी नहीं करते। चाहते हैं कि उस बात का उसे ध्यान ही न आये, उसके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि उसे हमारी ओर से ज़रा भी भ्रम न हो, वह भूलकर भी यह न समझे कि मेरी अपकीर्ति हो रही है।

देवीदीन ने पूछा, ‘क्या सोच रहे हो? चलोगे न?’

रमा ने दबी जबान से कहा, ‘तुम्हारी इतनी दया है, तो चलूंगा, मगर पहले तुम्हें मेरे घर जाकर पूरा-पूरा समाचार लाना पड़ेगा। अगर मेरा मन न भरा, तो मैं लौट आऊंगा।’

देवीदीन ने दृढ़ता से कहा, ‘मंजूर।’

रमा ने संकोच से आँखें नीची करके कहा, ‘एक बात और है?’

देवीदीन -‘ ‘क्या बात है? कहो।’

‘मुझे कुछ कपड़े बनवाने पड़ेंगे।’

‘बन जायेंगे।’

‘मैं घर पहुँचकर तुम्हारे रूपये दिला दूंगा।’

‘और मैं तुम्हारी गुरू-दक्षिणा भी वहीं दे दूंगा।’

‘गुरू-दक्षिणा भी मुझी को देनी पड़ेगी। मैंने तुम्हें चार हरफ अंग्रेज़ी पढ़ा दिये, तुम्हारा इससे कोई उपकार न होगा। तुमने मुझे पाठ पढ़ाए हैं, उन्हें मैं उम्र-भर नहीं भूल सकता। मुँह पर बड़ाई करना ख़ुशामद है, लेकिन दादा, मातापिता के बाद जितना प्रेम मुझे तुमसे है, उतना और किसी से नहीं। तुमने ऐसे गाढ़े समय मेरी बांह पकड़ी, जब मैं बीच धार में बहा जा रहा था। ईश्वर ही जाने, अब तक मेरी क्या गति हुई होती, किस घाट लगा होता!’

देवीदीन ने चुहल से कहा, ‘और जो कहीं तुम्हारे दादा ने मुझे घर में न घुसने दिया तो?’

रमा ने हँसकर कहा, ‘दादा तुम्हें अपना बड़ा भाई समझेंगे, तुम्हारी इतनी ख़ातिर करेंगे कि तुम ऊब जाओगे। जालपा तुम्हारे चरण धो-धो पियेगी, तुम्हारी इतनी सेवा करेगी कि जवान हो जाओगे।’

देवीदीन ने हँसकर कहा, ‘तब तो बुढ़िया डाह के मारे जल मरेगी। मानेगी नहीं, नहीं तो मेरा जी चाहता है कि हम दोनों यहाँ से अपना डेरा-डंडा लेकर चलते और वहीं अपनी सिरकी तानते। तुम लोगों के साथ ज़िंदगी के बाकी दिन आराम से कट जाते, मगर इस चुड़ैल से कलकत्ता न छोड़ा जायेगा। तो बात पक्की हो गई न?’

‘हाँ, पक्की ही है।’

‘दुकान खुले तो चलें, कपड़े लावें, आज ही सिलने को दे दें।’

देवीदीन के चले जाने के बाद रमा बड़ी देर तक आनंद-कल्पनाओं में मग्न बैठा रहा। जिन भावनाओं को उसने कभी मन में आश्रय न दिया था, जिनकी गहराई और विस्तार और उद्वेग से वह इतना भयभीत था कि उनमें फिसलकर डूब जाने के भय से चंचल मन को उधर भटकने भी न देता था, उसी अथाह और अछोर कल्पना-सागर में वह आज स्वच्छंद रूप से क्रीड़ा करने लगा। उसे अब एक नौका मिल गई थी। वह त्रिवेणी की सैर, वह अल्प्रेड पार्क की बहार, वह ख़ुसरो बाग़ का आनंद, वह मित्रों के जलसे, सब याद आ-आकर ह्रदय को गुदगुदाने लगे। रमेश उसे देखते ही गले लिपट जायेंगे। मित्रगण पूछेंगे, कहाँ गए थे, यार? ख़ूब सैर की? रतन उसकी ख़बर पाते ही दौड़ी आयेगी और पूछेगी, तुम कहाँ ठहरे थे, बाबूजी? मैंने सारा कलकत्ता छान मारा। फिर जालपा की मान-प्रतिमा सामने आ खड़ी हुई।

सहसा देवीदीन ने आकर कहा, ‘भैया, दस बज गए, चलो बाज़ार होते आवें।’

रमा ने चौंककर पूछा, ‘क्या दस बज गए?’

देवीदीन – ‘दस नहीं, ग्यारह का अमल होगा।’

रमा चलने को तैयार हुआ, लेकिन द्वार तक आकर रूक गया।

देवीदीन ने पूछा, ‘क्यों खड़े कैसे हो गए?’

‘तुम्हीं चले जाओ, मैं जाकर क्या करूंगा!’

‘क्या डर रहे हो?’

‘नहीं, डर नहीं रहा हूँ, मगर क्या फायदा?’

‘मैं अकेले जाकर क्या करूंगा! मुझे क्या मालूम, तुम्हें कौन कपड़ा पसंद है। चलकर अपनी पसंद से ले लो। वहीं दरजी को दे देंगे।’

‘तुम जैसा कपड़ा चाहे ले लेना। मुझे सब पंसद है।’

‘तुम्हें डर किस बात का है? पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी। कोई तुम्हारी तरफ ताकेगा भी नहीं।

‘मैं डर नहीं रहा हूँ दादा, जाने की इच्छा नहीं है।’

‘डर नहीं रहे हो, तो क्या कर रहे हो कह रहा हूँ कि कोई तुम्हें कुछ न कहेगा, इसका मेरा जिम्मा, मुदा तुम्हारी जान निकली जाती है!’

देवीदीन ने बहुत समझाया, आश्वासन दिया, पर रमा जाने पर राज़ी न हुआ। वह डरने से कितना ही इंकार करे, पर उसकी हिम्मत घर से बाहर निकलने की न पड़ती थी। वह सोचता था, अगर किसी सिपाही ने पकड़ लिया, तो देवीदीन क्या कर लेगा। माना सिपाही से इसका परिचय भी हो, तो यह आवश्यक नहीं कि वह सरकारी मामले में मौी का निर्वाह करे। यह मिकैत-ख़ुशामद करके रह जाएगा, जाएगी मेरे सिरब कहीं पकडा जाऊं, तो प्रयाग के बदले जेल जाना पड़े। आखिर देवीदीन लाचार होकर अकेला ही गया।

देवीदीन घंटे-भर में लौटा, तो देखा, रमा छत पर टहल रहा है। बोला, ‘कुछ खबर है, कै बज गए? बारह का अमल है। आज रोटी न बनाओगे क्या?घर जाने की ख़ुशी में खाना-पीना छोड़ दोगे?’

रमा ने झेंपकर कहा, ‘बना लूंगा दादा, जल्दी क्या है।’

‘यह देखो, नमूने लाया हूँ, इनमें जौन-सा पसंद करो, ले लूं।

यह कह कर देवीदीन ने ऊनी और रेशमी कपड़ों के सैकड़ों नमूने निकालकर रख दिए। पांच-छः रूपये गज से कम का कोई कपड़ा था। रमा ने नमूनों को उलट-पलटकर देखा और बोला, ‘इतने महंगे कपड़े क्यों लाए, दादा? और सस्ते न थे?’

‘सस्ते थे, मुदा विलायती थे।’

‘तुम विलायती कपड़े नहीं पहनते?’

‘इधर बीस साल से तो नहीं लिए, उधर की बात नहीं कहता। कुछ बेसी दाम लग जाता है, पर रूपया तो देस ही में रह जाता है।’

रमा ने लजाते हुए कहा, ‘तुम नियम के बडे पक्के हो दादा! ‘

देवीदीन की मुद्रा सहसा तेजवान हो गई। उसकी बुझी हुई आँखें चमक उठीं। देह की नसें तन गई। अकड़कर बोला, जिस देश में रहते हैं, जिसका अन्न-जल खाते हैं, उसके लिए इतना भी न करें तो जीने को धिक्कार है। दो जवान बेटे इसी स्वदेशी की भेंट कर चुका हूँ,भैया! ऐसे-ऐसे पट्ठे थे, कि तुमसे क्या कहें। दोनों बिदेसी कपड़ों की दुकान पर तैनात थे। क्या मजाल थी कोई गाहक दुकान पर आ जाय। हाथ जोड़कर, घिघियाकर, धमकाकर, लजवाकर सबको उधर लेते थे। बजाजे में सियार लोटने लगे। सबों ने जाकर कमिसनर से फरियाद की। सुनकर आग हो गया। बीस गौजी गोरे भेजे कि अभी जाकर बज़ार से पहरे उठा दो। गोरों ने दोनों भाइयों से कहा, यहाँ से चले जाव, मुदा वह अपनी जगह से जौ-भर न हिले। भीड़ लग गई। गोरे उन पर घोड़े चढ़ा लाते थे, पर दोनों चट्टान की तरह डटे खड़े थे। आख़िर जब इस तरह कुछ बस न चला, तो सबों ने डंडों से पीटना सुई किया। दोनों वीर डंडे खाते थे, पर जगह से न हिलते थे। जब बड़ा भाई गिर पड़ा, तो छोटा उसकी जगह पर आ खड़ा हुआ। अगर दोनों अपने डंडे संभाल लेते, तो भैया उन बीसों को मार भगाते। लेकिन हाथ उठाना तो बड़ी बात है, सिर तक न उठाया। अन्त में छोटा भी वहीं गिर पड़ा। दोनों को लोगों ने उठाकर अस्पताल भेजा। उसी रात को दोनों सिधार गए। तुम्हारे चरन छूकर कहता हों भैया, उस बखत ऐसा जान पड़ता था कि मेरी छाती गज-भर की हो गई है, पांव ज़मीन पर न पड़ते थे, यही उमंग आती थी कि भगवान ने औरों को पहले न उठा लिया होता, तो इस समय उन्हें भी भेज देता। जब अर्थी चली है, तो एक लाख आदमी साथ थे। बेटों को गंगा में सौंपकर मैं सीधे बजाजे पहुँचा और उसी जगह खड़ा हुआ, जहाँ दोनों बीरों की लाश गिरी थी। गाहक के नाम चिड़िये का पूत तक न दिखाई दिया। आठ दिन वहाँ से हिला तक नहीं। बस भोर के समय आधा घंटे के लिए घर आता था और नहा-धोकर कुछ जलपान करके चला जाता था। नवें दिन दुकानदारों ने कसम खाई कि विलायती कपड़े अब न मंगावेंगे। तब पहरे उठा लिए गए। तब से बिदेसी दियासलाई तक घर में नहीं लाया।‘

रमा ने सच्चे दिल से कहा, ‘दादा, तुम सच्चे वीर हो, और वे दोनों लड़के भी सच्चे योद्धा थे। तुम्हारे दर्शनों से आँखें पवित्र होती हैं।’

देवीदीन ने इस भाव से देखा, मानो इस बड़ाई को वह बिल्कुल  अतिशयोक्ति नहीं समझता। शहीदों की शान से बोला, ‘इन बड़े-बड़े आदमियों के किए कुछ न होगा। इन्हें बस रोना आता है, छोकरियों की भांति बिसूरने के सिवा इनसे और कुछ नहीं हो सकता। बड़े-बड़े देश-भगतों को बिना बिलायती सराब के चैन नहीं आता। उनके घर में जाकर देखो, तो एक भी देसी चीज़ न मिलेगी।

दिखाने को दस-बीस कुरते गाढ़े के बनवा लिए, घर का और सब सामान बिलायती है। सब-के-सब भोग-बिलास में अंधे हो रहे हैं, छोटे भी और बड़े भी। उस पर दावा यह है कि देस का उद्धार करेंगे। अरे तुम क्या देस का उद्धार करोगे। पहले अपना उद्धार तो कर लो। गरीबों को लूटकर बिलायत का घर भरना तुम्हारा काम है। इसीलिए तुम्हारा इस देस में जनम हुआ है। हाँ, रोये जाव, बिलायती सराबें उड़ाओ, बिलायती मोटरें दौड़ाओ, बिलायती मुरब्बे और अचार चक्खो, बिलायती बरतनों में खाओ, बिलायती दवाइयाँ पियो, पर देस के नाम को रोये जाव। मुदा इस रोने से कुछ न होगा। रोने से माँ दूध पिलाती है, सेर अपना सिकार नहीं छोड़ता। रोओ उसके सामने, जिसमें दया और धरम हो। तुम धमकाकर ही क्या कर लोगे? जिस धमकी में कुछ दम नहीं है, उस धमकी की परवाह कौन करता है। एक बार यहाँ एक बड़ा भारी जलसा हुआ। एक साहब बहादुर खड़े होकर खूब उछले-कूदे, जब वह नीचे आये, तब मैंने उनसे पूछा, साहब, सच बताओ, जब तुम सुराज का नाम लेते हो, तो उसका कौनसा रूप तुम्हारी आँखों के सामने आता है? तुम भी बड़ी-बड़ी तलब लोगे, तुम भी अंगरेज़ों की तरह बंगलों में रहोगे, पहाड़ों की हवा खाओगे, अंगरेज़ी ठाठ बनाए घूमोगे, इस सुराज से देस का क्या कल्यान होगा। तुम्हारी और तुम्हारे भाईबंदों की ज़िंदगी भले आराम और ठाठ से गुज़रे, पर देस का तो कोई भला न होगा। बस, बगलें झांकने लगे। तुम दिन में पाँच बेर खाना चाहते हो, और वह भी बढ़िया माल, ग़रीब किसान को एक जून सूखा चबेना भी नहीं मिलता। उसी का रक्त चूसकर तो सरकार तुम्हें हुप्रे देती है। तुम्हारा ध्यान कभी उनकी ओर जाता है? अभी तुम्हारा राज नहीं है,तब तो तुम भोग-बिलास पर इतना मरते हो, जब तुम्हारा राज हो जायगा, तब तो तुम ग़रीबों को पीसकर पी जाओगे। रमा भद्र-समाज पर यह आक्षेप न सुन सका। आख़िर वह भी तो भद्रसमाज का ही एक अंग था। बोला, ‘यह बात तो नहीं है दादा, कि पढ़े-लिखे लोग किसानों का ध्यान नहीं करते। उनमें से कितने ही ख़ुद किसान थे, या हैं। उन्हें अगर विश्वास हो जाय कि हमारे कष्ट उठाने से किसानों का कोई उपकार होगा और जो बचत होगी, वह किसानों के लिए ख़र्च की जायगी, तो वह ख़ुशी से कम वेतन पर काम करेंगे, लेकिन जब वह देखते हैं कि बचत दूसरे हड़प जाते हैं, तो वह सोचते हैं, अगर दूसरों को ही खाना है, तो हम क्यों न खायें।’

देवीदीन – ‘तो सुराज मिलने पर दस-दस, पांच-पांच हज़ार के अफसर नहीं रहेंगे? वकीलों की लूट नहीं रहेगी? पुलिस की लूट बंद हो जायेगी?’

एक क्षण के लिए रमा सिटपिटा गया। इस विषय में उसने ख़ुद कभी विचार न किया था, मगर तुरंत ही उसे जवाब सूझ गया। बोला, ‘दादा, तब तो सभी काम बहुमत से होगा। अगर बहुमत कहेगा कि कर्मचारियों के वेतन घटा दिए जायें, तो घट जायेंगे। देहातों के संगठनों के लिए भी बहुमत जितने रूपये मांगेगा, मिल जायेंगे। कुंजी बहुमत के हाथ में रहेगी, और अभी दस-पाँच बरस चाहे न हो, लेकिन आगे चलकर बहुमत किसानों और मजूरों ही का हो जायेगा। देवीदीन ने मुस्कराकर कहा, ‘भैया, तुम भी इन बातों को समझते हो, यही मैंने भी सोचा था। भगवान करे, कुछ दिन और जिऊं। मेरा पहला सवाल यह होगा कि बिलायती चीज़ों पर दुगुना महसूल लगाया जाये और मोटरों पर चौगुना। अच्छा अब भोजन बनाओ। सांझ को चलकर कपड़े दरजी को दे देंगे। मैं भी जब तक खा लूं।’

शाम को देवीदीन ने आकर कहा, ‘चलो भैया, अब तो अंधेरा हो गया।’

रमा सिर पर हाथ धरे बैठा हुआ था। मुख पर उदासी छाई हुई थी। बोला, ‘दादा, मैं घर न जाऊंगा।’

देवीदीन ने चकित होकर पूछा, ‘क्यों क्या बात हुई?’

रमा की आँखें सजल हो गई। बोला, ‘कौ सा मुँह लेकर जाऊं, दादा! मुझे तो डूब मरना चाहिए था।’

यह कहते-कहते वह खुलकर रो पड़ा। वह वेदना जो अब तक मूर्छित पड़ी थी, शीतल जल के यह छींटे पाकर सचेत हो गई और उसके क्रंदन ने रमा के सारे अस्तित्व को जैसे छेद डाला। इसी क्रंदन के भय से वह उसे छेड़ता न था, उसे सचेत करने की चेष्टा न करता था। संयत विस्मृति से उसे अचेत ही रखना चाहता था, मानो कोई दुद्यखिनी माता अपने बालक को इसलिए जगाते डरती हो कि वह तुरंत खाने को मांगने लगेगा।

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