चैप्टर 1 काली घटा : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 1 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 1 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda

Chapter 1 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda

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ड्योढ़ी के फाटक पर जैसे ही घोड़ों के टापों की ध्वनि सुनाई दी, माधुरी ने खिड़की खोलकर नीचे झांका। उसके पति आज शीघ्र लौट आए थे। वह झट से कमरे में बिखरे सामान को ढंग से सजाकर उसके स्वागत के लिए नीचे आ गई।

सूर्यास्त हो चुका था और अंधेरा धीरे-धीरे फैल रहा था। माधुरी ने अपनी दासी गंगा को लैंप जलाने को कहा और स्वयं नीचे आंगन में आ खड़ी हुई। वासुदेव ने अपने कंधे से बंदूक उतार कर नौकर के हाथ में दे दी और सामने खड़ी माधुरी को देखकर मुस्कुराने लगा। दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे ऊपर आ गये।

बाहर अभी पूर्ण अंधेरा न छाया था। कमरे में लैंप जलते देखकर वासुदेव ने पूछा, “अभी से उजाला कर दिया?”

“हूं.. आपके शीघ्र आ गए आज!” माधुरी ने मुस्कुराते हुए चंचलता से उत्तर दिया।

“पर यदि मैं दोपहर को ही लौट आता तो?”

“आप नहीं होते, तो घर में अंधेरा-अंधेरा सा लगता है, अकेले में खाने को दौड़ता है।”

“अकेले क्यों? गंगा है और नौकर-चाकर हैं और सबसे बढ़कर प्रकृति का साथ।”

“सब है…किंतु आपके बिना…” माधुरी ने पति की बात बीच में काट दी और उसका बड़ा कोट उतारने लगी।

वासुदेव कोट उतारकर पलंग पर लेट गया। माधुरी उसके पास जा बैठी और उसके बिखरे हुए बालों को उंगलियों से संवारते हुए बोली –

“आज दिन कैसा रहा?”

“बहुत बुरा…एक चिड़िया भी हाथ न लगी।”

“चलो अच्छा हुआ…पाप तो न चढ़ा।”

“पाप पुण्य की सीमायें इतनी छोटी…ऐसे तो नहीं चलता जीवन में।”

“तो कैसे चलता है?” माधुरी ने वासुदेव के गले में हाथ डालते हुए चंचलता से पूछा। वासुदेव ने मौन किंतु अर्थपूर्ण दृष्टि से उसकी उन्मादित आँखों में झांका और उसकी बांहें हटाकर पलंग से उठ बैठा। माधुरी ने फिर धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया और विनम्रता से बोली, “क्या हुआ?”

“कुछ नहीं…स्नान का प्रबंध करो…पानी रखवा दो।”

माधुरी ने उसका हाथ छोड़ दिया और मूर्ति सी बनी मौन उसे देखने लगी। वासुदेव मुस्कुराते हुए कपड़े बदलने भीतर कमरे में चला गया।

उसके चले जाने पर भी कुछ क्षण तो वह वहीं खड़ी एकटक शून्य में देखती रही और फिर सहसा गंगा को पानी रखने के लिए पुकार कर स्वयं उसके कपड़े तैयार करने लगी। न जाने क्यों कर कभी-कभार अपने प्रति यह उपेक्षा देखकर कांप सी जाती।

उनके विवाह को लगभग तीन वर्ष हो चुके थे और वह अभी तक भली प्रकार उसके मन की थाह न पास सकी थी। घर में और कोई भी न था, जिससे वह दो घड़ी मन की बात कह लेती, दिन-रात मन को दबाये पड़ी रहती थी…उसमें किस बात का अभाव था? वह युवती थी, सुंदर थी, शिक्षित थी, कुलीन परिवार से आई थी और उसके पिता के यहाँ धन की कमी भी न थी…शिष्ट समाज के सब नियमों से वह भलीभांति परिचित थी. फिर क्या था, जो उन्हें उससे यूं ही खिंचा रखता? यह प्रश्न उसके मस्तिष्क में कोलाहल मचा देते हैं, किंतु कोई उपाय..? वह सोच-सोच कर थक जाती और उसे कुछ न सूझता, कुछ समझ में आता।

अपने पति का मन लुभाने के लिए वह नये ढंग सोचती, किंतु सब व्यर्थ। उनके बीच खाई बढ़ती ही जाती। उसने उसे पाटने के लाख प्रयत्न किए, पर सब व्यर्थ। यह उसके बस की बात न थी और अब तो विवश होकर उसने प्रयत्न करना भी छोड़ दिया था। वह उस नदी के समान थी, जो नदी की तरंगों के आश्रय पर हो – इधर लहर उठी तो इधर, उधर उठी तो उधर। यही विचित्र जीवन था – प्रेम था न घृणा –  न हर्ष था न विषाद। हल्की सी लग्न भी थी और खिंचाव की – इनके साथ-साथ निरंतर एक पीड़ा भी थी, मानो कोई सपने में पत्थर से सिर फोड़ ले और उस चोट में एक सुख अनुभव करें।

स्नान घर की चिटकनी खुलने का शब्द हुआ। वह चौंक कर संभली और मेज पर रखी चाय की ट्रे को देखने लगी, जो न जाने गंगा कब वहाँ रख गई थी। वासुदेव के पांव की आहट हुई और माधुरी ट्रे पर झुक कर चाय बनाने लगी। वह मौन और मलिन थी। वासुदेव ने कनखियों से उसे देखा और मुस्कुराते हुए सामने आ बैठा। माधुरी ने चाय का प्याला बनाया।

“यह माथे पर बल क्यों डाल रखे हैं?” वासुदेव ने प्याला थामते हुए नम्रतापूर्वक पूछा।

“आपको क्या?” उसने सावधानी से गर्दन झटकाते हुए उत्तर दिया और अपने लिए चाय का प्याला बनाने लगी।

“हमें नहीं तो और किसे?”

“मैं क्या जानू! आप तो शिकार करना जानते हैं केवल…घायल की गत को क्या जाने!”

“मधु!”

“हूं!”

“किसी को घायल करने में मुझे क्या चैन मिल सकता है?”

“मैं क्या जानू?”

“तो सुन लो! जितनी पीड़ा उसकी तड़प में होती है, उससे अधिक पीड़ा से मुझे व्याकुल कर जाती है।”

“तो छोड़ दीजिए शिकार खेलना।”

“नहीं…यह मेरे बस की बात नहीं।”

वासुदेव चाय पीकर चुप हो गया। माधुरी ने अधिक वाद-विवाद उचित न समझा और चुपचाप बैठी चाय पीती रही।

वासुदेव चाय पीकर अपने कमरे में चला गया। वह कुछ देर बैठी सोचती रही और फिर कपड़े बदलने लगी। वह सोचने लगी…यह तो उनकी प्रकृति है…उसे इतना गंभीर न होना चाहिए था…व्यर्थ वह बुरा मान जायें…उसने अपने अंतर को टटोला…अपने पति से उसे उत्तम प्रेम था।

सहसा मन में किसी तरंग ने अंगड़ाई ली और वह वासुदेव के कमरे में पहुँची। वह खड़ा अलमारी में से कोई पुस्तक ढूंढ रहा था। माधुरी दबे पांव उसके पीछे जा खड़ी हुई और जब बड़ी देर तक उसने मुड़कर न देखा, तो माधुरी ने रुमाल का तिकोन बनाया, उसके कान को छुआ। वह एकाएक कंपकंपा गया और कान को झटक कर पीछे मुड़कर माधुरी को देखने लगा। माधुरी अनायास हँसने लगी।

इस समय वह विशेष सुंदर दिखाई दे रही है। हल्के गुलाबी रंग की रेशमी साड़ी… संवरे हुए केश…निखरा हुआ आभामय मुख…वासुदेव को वह दिन याद आ गया, जब पहले-पहल दुल्हन बनके वह उसके घर आई थी। तब भी वह इतनी ही प्यारी थी। उसने मुस्कुराते हुए सिर से पांव तक उसे निहारा और हाथ से पकड़ी पुस्तक बंद करके अलमारी में रखने लगा।

माधुरी ने हाथ में पकड़ा हुआ गुलाब का फूल उसकी ओर बढ़ाया और उसे जुड़े में लगाने का संकेत किया। वासुदेव ने फूल टांकने को उसके कंधे पर रखा और दूसरे हाथ से उसका मुँह पलटा। फिर उसके जूड़े में फूल लगा दिया। माधुरी ने मुस्कुरा कर अपना मुँह उसके वक्ष पर रख दिया और बोली –

“चलिएगा?”

“कहाँ?”

“झील के किनारे तनिक घूमने को।”

“अब तो अंधेरा हो रहा है।”

“तो क्या हुआ, आकाश पर चांद भी तो है।”

वासुदेव निरुत्तर हो गया। दोनों छिटकी हुई दूधिया चांदनी में झील के किनारे टहल रहे थे। झील पर स्थिर जल चांदनी में शीशे की चादर प्रतीत हो रहा था। उनके जीवन के कितने दिन और कितनी रातें इस झील के साथ संबंधित थीं, किंतु उसे ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह समय स्वप्न में ही व्यतीत हो गया हो। वह आज भी वैसे ही अतृप्त थी, जैसी वह प्रथम दिन थी। उसके मन में आज भी आकांक्षाओं की ज्वाला धधक रही थी और वह निरंतर अपनी भावनाओं का गला घोंट रही थी।

“यह झील…यह छोटा सा मकान…यह हरा-भरा गांव…नगर की हलचल से दूर एक एकांत स्वर्ग का कोना…यह सब कुछ होते हुए भी वह  नरक़ की अग्नि में जल रही है। उसने अपना सर्वस्य पति पर निछावर कर दिया और एक वह है कि उसकी भावनाओं से अनभिज्ञ, प्रेम से परे  जाने किस संसार में विचरता है, क्यों? क्यों?”

चलते-चलते वे रुक गए और हरी-हरी दूब पर कुछ देर के लिए बैठ गये। दोनों पति-पत्नी थे, किन्तु अपरिचित से। दोनों एक-दूसरे से कुछ कहना चाहते, पर कह ना पाते। बैठे रहे…बैठे रहे….पर जब बहुत देर तक माधुरी के मुँह से कोई शब्द न निकला, तो वासुदेव ने मौन तोड़ा –

“आज इतनी चुप क्यों हो?”

“मेरा बोलना आपको अच्छा जो नहीं लगता।”

“ऐसी बात तो नहीं। जो मन ने हो, उसे कह देना ही भला।”

“एक बात पूछूं?”

“पूछो!”

“हमारे ब्याह को कितना समय हो गया है?”

“लगभग तीन वर्ष।”

“किंतु मुझे तो यह लगता है, मानो मैं ब्याही ही नहीं गई।”

“माधुरी!” वासुदेव जैसे भांप गया हो कि वह किस आशय से कह रही हो।

“जी?”

“कहा ना मैंने प्रेम एक ऐसी भावना है, जिसमें अतृप्ति का होना उसकी दीर्घायु का प्रतीक है।”

“किंतु दुनिया वालों का मुँह कैसे बंद किया जा सकता है?”

“क्या कहते हैं वह?”

“यह कि तुम्हारे पति तुमसे प्रेम नहीं करते।”

वासुदेव बेचैन होकर उठ बैठा।

“लोग यह भी कहते हैं कि तुम संतानहीन रहोगी।” माधुरी ने अपनी बात चालू रखी।

वासुदेव ने तीखी दृष्टि से उसे देखा।

“एक ने तो यहाँ तक कह दिया…” माधुरी ने कुछ रुककर कहा। इतना कहते-कहते उसके आवाज कुछ रूंध गई।

“क्या?” माथे पर पसीना पोंछते हुए वासुदेव ने पूछा।

“कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे पति…” कहते-कहत उसके होंठ थरथराने लगे, मानो वह अपने पति का कोई भयानक रहस्य प्रकट करने वाली हो। वासुदेव चौकस होकर उसकी आवाज की कंपन को भांपने लगा। माधुरी ने रुकते-रुकते बात पूरी की – “तुम्हारे पति किसी और से प्यार करते हैं।”

माधुरी ने वाक्य पूरा इया और वासुदेव के प्राण लौट आये। घबराहट दूर हुई। सिर को हाथ से दबाते हुए आँखों नीची किए बोला – “तुम क्या सोचती हो?”

“कभी-कभी इसे सच समझने लगती हूँ।”

“कैसे?”

“नदी किनारे लाकर आपने अतृप्त करना चाहा।”

“ओह!” वासुदेव ने आँख ऊपर उठाई।

“वरना यह उपेक्षा…यह मौन…सुना है, आपने विवाह घर वालों के विवश करने पर किया।”

“यह तुमसे किसने कहा?” वासुदेव ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा।

“आपकी बड़ी बहन ने। कहती थी कि कदाचित यही कारण मुझसे आपके रूखे व्यवहार का है।”

“माधुरी कुछ ऐसी विवशतायें भी होती है, जिन्हें ज़बान तक नहीं लाया जा सकता।”

“वह कौन सी ऐसी बात है, जो कि आप मुझसे नहीं कह सकते।”

“समय आने पर कह दूंगा।” वह यह कहकर उठा और झील के किनारे टहलने लगा। माधुरी भी उसके साथ-साथ कदम-से-कदम मिलाकर बढ़ने लगी। वह सोचने लगी – उसके पति का मन भी इस झील के समान गहरा है कि प्रयत्न करने पर भी उसकी थाह नहीं पा सकती।

वासुदेव अपने में खोया धीरे-धीरे बढ़ता रहा। उसे पता भी नहीं चला कि माधुरी कब पीछे रह गई और वापस लौट गई। माधुरी की बातों ने आज उसे असाधारण बेचैन कर दिया था।

एकाएक उसे कुछ विचार आया और वह रुक गया। उससे मुड़कर देख, माधुरी वहाँ न थी। फैली हुई चांदनी में दूर तक उसने दृष्टि दौड़ाई, पर वह कहीं न थी। न जाने कब से अलग होकर लौट गई।

जब वह लौटा, तो माधुरी अपने शयनगृह में पलंग पर औंधी लेटी सिसकियाँ ले लेकर रो रही थी । वासुदेव ने उसे देखा और सावधानी से अपना कोट उतारते हुए गंगा को पुकारा। माधुरी उसका स्वर सुनकर और सिमटकर गठरी सी बन गई। उसके रोने का धीमा स्वर निरंतर सुनाई पड़ रहा था। गंगा भीतर आई, तो वासुदेव ने खाना लगाने को कहा। गंगा लौट गई और वह माधुरी के समीप आ ठहरा। वासुदेव दुविधा में पड़ गया, उसे कैसे और क्यों कर चुप कराये। फिर धीरे-धीरे अपने हाथों से उसकी पीठ सहलाने लगा और बोला – “माधुरी आओ खाना खा लो।”

माधुरी मौन रही और औंधी लेटी रही। वासुदेव ने फिर उसे उठने को कहा, परंतु से कोई उत्तर ना मिला। इतने में गंगा के आने की आहट हुई बोली – “सरकार, खाना लगा दिया है।”

“रहने दो गंगा। मुझे भूख नहीं है।” कुछ क्षण रुककर वासुदेव ने कहा और उठकर दूसरे कमरे में चला गया।

माधुरी ने वासुदेव को यह कहते सुना, फिर उसके पांव की आहट सुनी, जो कि उसके कमरे को छोड़कर जाने की सूचना दे रही थी। उसने सिर उठाया और अपने पति को जाते देखा। वह उसे रोकना चाहती थी, पर अब तीर छूट चुका था। जैसे ही उसने दूसरे कमरे के किवाड़ बंद होने का शब्द सुना, वह फिर जोर-जोर से रोने लगी।

गंगा ने उसे यूं निढाल होते देखा, तो उसके निकट आ गई। धीरे से वह माधुरी को उठाने का प्रयत्न करने लगी। माधुरी बहुत पीड़ित थी। गंगा का सहारा मिलते ही उसकी गोद में सिर रखकर फूट-फूट कर रोने लगी और अशांत मन का सारा गुबार यूं धोने लगी।

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