चैप्टर 6 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 6 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 6 Gaban Novel By Munshi Premchand

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रात के दस बज गए थे। जालपा खुली हुई छत पर लेटी हुई थी। जेठ की सुनहरी चाँदनी में सामने फैले हुए नगर के कलश, गुंबद और वृक्ष स्वप्न-चित्रों से लगते थे। जालपा की आँखे चंद्रमा की ओर लगी हुई थीं। उसे ऐसा मालूम हो रहा था, मैं चंद्रमा की ओर उड़ी जा रही हूँ। उसे अपनी नाक में खुश्की, आँखों में जलन और सिर में चक्कर मालूम हो रहा था। कोई बात ध्यान में आते ही भूल जाती, और बहुत याद करने पर भी याद न आती थी। एक बार घर की याद आ गई, रोने लगी। एक ही क्षण में सहेलियों की याद आ गई, हँसने लगी। सहसा रमानाथ हाथ में एक पोटली लिये, मुस्कराता हुआ आया और चारपाई पर बैठ गया।

जालपा ने उठकर पूछा – “पोटली में क्या है?”

रमानाथ – “बूझ जाओ तो जानूं।“

जालपा – “हँसी का गोलगप्पा है!” (यह कहकर हँसने लगी।)

रमानाथ – “मलतब?”

जालपा – “नींद की गठरी होगी!’

रमानाथ – “मलतब?”

जालपा – “तो प्रेम की पिटारी होगी!’

रमानाथ – “ठीक, आज मैं तुम्हें फूलों की देवी बनाऊंगा।“

जालपा खिल उठी। रमा ने बड़े अनुराग से उसे फूलों के गहने पहनाने शुरू किये। फूलों के शीतल कोमल स्पर्श से जालपा के कोमल शरीर में गुदगुदी-सी होने लगी। उन्हीं फूलों की भांति उसका एक-एक रोम प्रफुल्लित हो गया।

रमा ने मुस्कराकर कहा – “कुछ उपहार?’

जालपा ने कुछ उत्तर न दिया। इस वेश में पति की ओर ताकते हुए भी उसे संकोच हुआ। उसकी बड़ी इच्छा हुई कि ज़रा आईने में अपनी छवि देखे। सामने कमरे में लैंप जल रहा था, वह उठकर कमरे में गई और आईने के सामने खड़ी हो गई। नशे की तरंग में उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं सचमुच फूलों की देवी हूँ। उसने पानदान उठा लिया और बाहर आकर पान बनाने लगी। रमा को इस समय अपने कपट-व्यवहार पर बड़ी ग्लानि हो रही थी। जालपा ने कमरे से लौटकर प्रेमोल्लसित नज़रों से उसकी ओर देखा, तो उसने मुँह उधर लिया। उस सरल विश्वास से भरी हुई आँखों के सामने वह ताक न सका।

उसने सोचा – ‘मैं कितना बडा कायर हूँ। क्या मैं बाबूजी को साफ-साफ जवाब न दे सकता था? मैंने हामी ही क्यों भरी? क्या जालपा से घर की दशा साफ-साफ कह देना मेरा कर्तव्य न था?’

उसकी आँखें भर आई। जाकर मुंडेर के पास खड़ा हो गया। प्रणय के उस निर्मल प्रकाश में उसका मनोविकार किसी भंयकर जंतु की भांति घूरता हुआ जान पड़ता था। उसे अपने ऊपर इतनी घृणा हुई कि एक बार जी में आया, सारा कपट-व्यवहार खोल दूं, लेकिन संभल गया। कितना भयंकर परिणाम होगा। जालपा की नज़रों से फिर जाने की कल्पना ही उसके लिए असह्य थी।

जालपा ने प्रेम-सरस नज़रों से देखकर कहा – “मेरे दादाजी तुम्हें देखकर गए और अम्माजी से तुम्हारा बखान करने लगे, तो मैं सोचती थी कि तुम कैसे होगे। मेरे मन में तरह-तरह के चित्र आते थे।‘

रमानाथ ने एक लंबी सांस खींची। कुछ जवाब न दिया।

जालपा ने फिर कहा – “मेरी सखियाँ तुम्हें देखकर मुग्ध हो गई। शहजादी तो खिड़की के सामने से हटती ही न थी। तुमसे बातें करने की उसकी बड़ी इच्छा थी। जब तुम अंदर गए थे, तो उसी ने तुम्हें पान के बीड़े दिए थे, याद है?”

रमा ने कोई जवाब न दिया।

जालपा – “अजी, वही जो रंग-रूप में सबसे अच्छी थी, जिसके गाल पर एक तिल था, तुमने उसकी ओर बड़े प्रेम से देखा था, बेचारी लाज के मारे गड़ गई थी। मुझसे कहने लगी, जीजा तो बड़े रसिक जान पड़ते हैं। सखियों ने उसे खूब चिढ़ाया, बेचारी रूआंसी हो गई। याद है?”

रमा ने मानो नदी में डूबते हुए कहा – “मुझे तो याद नहीं आता।“

जालपा – “अच्छा, अबकी चलोगे तो दिखा दूंगी। आज तुम बाज़ार की तरफ गए थे कि नहीं?”

रमा ने सिर झुकाकर कहा – “आज तो फुर्सत नहीं मिली।“

जालपा – “जाओ, मैं तुमसे न बोलूंगी! रोज हीले-हवाले करते हो अच्छा, कल ला दोगे न?”

रमानाथ का कलेजा मसोस उठा। यह चंद्रहार के लिए इतनी विकल हो रही है। इसे क्या मालूम कि दुर्भाग्य इसका सर्वस्व लूटने का सामान कर रहा है। जिस सरल बालिका पर उसे अपने प्राणों को न्योछावर करना चाहिए था, उसी का सर्वस्व अपहरण करने पर वह तुला हुआ है! वह इतना व्यग्र हुआ,कि जी में आया, कोठे से कूदकर प्राणों का अंत कर दे।

आधी रात बीत चुकी थी। चंद्रमा चोर की भांति एक वृक्ष की आड़ से झांक रहा था। जालपा पति के गले में हाथ डाले हुए निद्रा में मग्न थी। रमा मन में विकट संकल्प करके धीरे से उठा, पर निंद्रा की गोद में सोये हुए पुष्प प्रदीप ने उसे अस्थिर कर दिया। वह एक क्षण खड़ा मुग्ध नज़रों से जालपा के निंद्रा-विहसित मुख की ओर देखता रहा। कमरे में जाने का साहस न हुआ। फिर लेट गया।

जालपा ने चौंककर पूछा – “कहाँ जाते हो, क्या सवेरा हो गया?’

रमानाथ – “अभी तो बड़ी रात है।“

जालपा – ‘तो तुम बैठे क्यों हो?”

रमानाथ – ‘कुछ नहीं, ज़रा पानी पीने उठा था।“

जालपा ने प्रेमातुर होकर रमा के गले में बांहें डाल दीं और उसे सुलाकर कहा – “तुम इस तरह मुझ पर टोना करोगे, तो मैं भाग जाऊंगी। न जाने किस तरह ताकते हो, क्या करते हो, क्या मंत्र पढ़ते हो कि मेरा मन चंचल हो जाता है। बसंती सच कहती थी, पुरूषों की आँख में टोना होता है।“

रमा ने फटे हुए स्वर में कहा – “टोना नहीं कर रहा हूँ, आँखों की प्यास बुझा रहा हूँ।‘

दोनों फिर सोये, एक उल्लास में डूबी हुई, दूसरा चिंता में मग्न।
तीन घंटे और गुजर गए। द्वादशी के चाँद ने अपना विश्व-दीपक बुझा दिया। प्रभात की शीतल-समीर प्रकृति को मद के प्याले पिलाती फिरती थी। आधी रात तक जागने वाला बाज़ार भी सो गया। केवल रमा अभी तक जाग रहा था। मन में भांति-भांति के तर्क-वितर्क उठने के कारण वह बार-बार उठता था और फिर लेट जाता था। आखिर जब चार बजने की आवाज़ कान में आई, तो घबराकर उठ बैठा और कमरे में जा पहुँचा। गहनों का संदूकचा आलमारी में रखा हुआ था, रमा ने उसे उठा लिया, और थर-थर कांपता हुआ नीचे उतर गया। इस घबराहट में उसे इतना अवकाश न मिला कि वह कुछ गहने छांटकर निकाल लेता। दयानाथ नीचे बरामदे में सो रहे थे। रमा ने उन्हें धीरे-से जगाया, उन्होंने हकबकाकर पूछा – “कौन?”

रमा ने होंठ पर उंगली रखकर कहा – ‘मैं हूँ। यह संदूकची लाया हूँ। रख लीजिए।“

दयानाथ सावधन होकर बैठ गए। अभी तक केवल उनकी आँखें जागी थीं, अब चेतना भी जागृत हो गई। रमा ने जिस वक्त उनसे गहने उठा लाने की बात कही थी, उन्होंने समझा था कि यह आवेश में ऐसा कह रहा है। उन्हें इसका विश्वास न आया था कि रमा जो कुछ कह रहा है, उसे भी पूरा कर दिखाएगा। इन कमीनी चालों से वह अलग ही रहना चाहते थे। ऐसे कुत्सित कार्य में पुत्र से साठ-गांठ करना उनकी अंतरात्मा को किसी तरह स्वीकार न था। पूछा – ‘इसे क्यों उठा लाये?’

रमा ने धृष्टता से कहा – ‘आप ही का तो हुक्म था।“

दयानाथ – “झूठ कहते हो!”

रमानाथ – “तो क्या फिर रख आऊं?”

रमा के इस प्रश्न ने दयानाथ को घोर संकट में डाल दिया। झेंपते हुए बोले – “अब क्या रख आओगे, कहीं देख ले, तो गजब ही हो जाये। वही काम करोगे, जिसमें जग-हँसाई हो। खड़े क्या हो, संदूकची मेरे बडे संदूक में रख आओ और जाकर लेट रहो। कहीं जाग पड़े, तो बस!’

बरामदे के पीछे दयानाथ का कमरा था। उसमें एक देवदार का पुराना संदूक रखा था। रमा ने संदूकची उसके अंदर रख दी और बड़ी फुर्ती से ऊपर चला गया। छत पर पहुँचकर उसने आहट ली, जालपा पिछले पहर की सुखद निंद्रा में मग्न थी।
रमा ज्यों-ही चारपाई पर बैठा, जालपा चौंक पड़ी और उससे चिमट गई।

रमा ने पूछा – “क्या है, तुम चौंक क्यों पड़ीं?”

जालपा ने इधर-उधर प्रसन्न नज़रों से ताककर कहा – “कुछ नहीं, एक स्वप्न देख रही थी। तुम बैठे क्यों हो, कितनी रात है अभी?’

रमा ने लेटते हुए कहा – “सवेरा हो रहा है, क्या स्वप्न देखती थीं?”

जालपा – “जैसे कोई चोर मेरे गहनों की संदूकची उठाये लिये जाता हो।“

रमा का ह्रदय इतने जोर से धक-धक करने लगा, मानो उस पर हथौड़े पड़ रहे हैं। खून सर्द हो गया। परंतु संदेह हुआ, कहीं इसने मुझे देख तो नहीं लिया। वह ज़ोर से चिल्ला पडा – “चोर! चोर!”

नीचे बरामदे में दयानाथ भी चिल्ला उठे – “चोर! चोर!”

जालपा घबड़ाकर उठी। दौड़ी हुई कमरे में गई, झटके से आलमारी खोली। संदूकची वहाँ न थी? मूर्छित होकर गिर पड़ी।

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