Chapter 2 Gaban Novel By Munshi Premchand
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मुंशी दीनदयाल की जान-पहचान के आदमियों में एक महाशय दयानाथ थे, बड़े ही सज्जन और सह्रदय कचहरी में नौकर थे और पचास रूपये वेतन पाते थे। दीनदयाल अदालत के कीड़े थे। दयानाथ को उनसे सैकड़ों ही बार काम पड़ चुका था। चाहते, तो हजारों वसूल करते, पर कभी एक पैसे के भी रवादार नहीं हुए थे। दीनदयाल के साथ ही उनका यह सलूक न था?-यह उनका स्वभाव था। यह बात भी न थी कि वह बहुत ऊँचे आदर्श के आदमी हों, पर रिश्वत को हराम समझते थे। शायद इसलिए कि वह अपनी आँखों से इस तरह के दृश्य देख चुके थे। किसी को जेल जाते देखा था, किसी को संतान से हाथ धोते, किसी को दुर्व्यसनों के पंजे में फंसते। ऐसी उन्हें कोई मिसाल न मिलती थी, जिसने रिश्वत लेकर चैन किया हो, उनकी यह दृढ़ धारणा हो गई थी कि हराम की कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी न भूलते इस जमाने में पचास रुपये की भुगुत ही क्या पाँच आदमियों का पालन बड़ी मुश्किल से होता था। लड़के अच्छे कपड़ों को तरसते, स्त्री गहनों को तरसती, पर दयानाथ विचलित न होते थे। बड़ा लड़का दो ही महीने तक कालेज में रहने के बाद पढ़ना छोड़ बैठा।
पिता ने साफ कह दिया – “मैं तुम्हारी डिग्री के लिए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता। पढ़ना चाहते हो, तो अपने पुरूषार्थ से पढ़ो। बहुतों ने किया है, तुम भी कर सकते हो।“
लेकिन रमानाथ में इतनी लगन न थी। इधर दो साल से वह बिल्कुल बेकार था। शतरंज खेलता, सैर-सपाटे करता और माँ और छोटे भाइयों पर रोब जमाता। दोस्तों की बदौलत शौक पूरा होता रहता था। किसी का चेस्टर मांग लिया और शाम को हवा खाने निकल गए। किसी का पंप-शू पहन लिया, किसी की घड़ी कलाई पर बांध ली। कभी बनारसी फैशन में निकले, कभी लखनवी फैशन में दस मित्रों ने एक-एक कपड़ा बनवा लिया, तो दस सूट बदलने का उपाय हो गया। सहकारिता का यह बिल्कुल नया उपयोग था। इसी युवक को दीनदयाल ने जालपा के लिए पसंद किया। दयानाथ शादी नहीं करना चाहते थे। उनके पास न रूपये थे और न एक नये परिवार का भार उठाने की हिम्मत, पर जागेश्वरी ने त्रिया-हठ से काम लिया और इस शक्ति के सामने पुरूष को झुकना पड़ा।
जागेश्वरी बरसों से पुत्रवधू के लिए तड़प रही थी। जो उसके सामने बहुयें बनकर आई, वे आज पोते खिला रही हैं, फिर उस दुखिया को कैसे धैर्य होता? वह कुछ-कुछ निराश हो चली थी। ईश्वर से मनाती थी कि कहीं से बात आये। दीनदयाल ने संदेश भेजा, तो उसको आँखें-सी मिल गई। अगर कहीं यह शिकार हाथ से निकल गया, तो फिर न जाने कितने दिनों और राह देखनी पड़े। कोई यहाँ क्यों आने लगा? न धन ही है, न जायदाद। लड़के पर कौन रीझता है? लोग तो धन देखते हैं, इसलिए उसने इस अवसर पर सारी शक्ति लगा दी और उसकी विजय हुई।
दयानाथ ने कहा- “भाई, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मुझमें समाई नहीं है। जो आदमी अपने पेट की फिक्र नहीं कर सकता, उसका विवाह करना मुझे तो अधर्म-सा मालूम होता है। फिर रूपये की भी तो फिक्र है। एक हजार तो टीमटाम के लिए चाहिए, जोड़े और गहनों के लिए अलग।“ (कानों पर हाथ रखकर) – “ना बाबा! यह बोझ मेरे मान का नहीं।“
जागेश्वरी पर इन दलीलों का कोई असर न हुआ, बोली – “वह भी तो कुछ देगा”
“मैं उससे मांगने तो जाऊंगा नहीं।“
“तुम्हारे मांगने की जरूरत ही न पड़ेगी। वह खुद ही देंगे। लड़की के ब्याह में पैसे का मुँह कोई नहीं देखता। हाँ, मकदूर चाहिए, सो दीनदयाल पोढ़े आदमी हैं। और फिर यही एक संतान है; बचाकर रखेंगे, तो किसके लिए?’
दयानाथ को अब कोई बात न सूझी, केवल यही कहा – “वह चाहे लाख दे दें, चाहे एक न दें, मैं न कहूंगा कि दो, न कहूंगा कि मत दो। कर्ज मैं लेना नहीं चाहता, और लूं, तो दूंगा किसके घर से?”
जागेश्वरी ने इस बाधा को मानो हवा में उड़ाकर कहा – “मुझे तो विश्वास है कि वह टीके में एक हजार से कम न देंगे। तुम्हारे टीमटाम के लिए इतना बहुत है। गहनों का प्रबंध किसी सर्राफ से कर लेना। टीके में एक हजार देंगे, तो क्या द्वार पर एक हजार भी न देंगे. वही रूपये सर्राफ को दे देना। दो-चार सौ बाकी रहे, वह धीरे-धीरे चुक जायेंगे। बच्चा के लिए कोई न कोई द्वार खुलेगा ही।“
दयानाथ ने उपेक्षा-भाव से कहा – “खुल चुका, जिसे शतरंज और सैर-सपाटे से फुर्सत न मिले, उसे सभी द्वार बंद मिलेंगे।“
जागेश्वरी को अपने विवाह की बात याद आई। दयानाथ भी तो गुलछर्रे उड़ाते थे, लेकिन उसके आते ही उन्हें चार पैसे कमाने की फिक्र कैसी सिर पर सवार हो गई थी। साल-भर भी न बीतने पाया था कि नौकर हो गए।
बोली – “बहू आ जाएगी, तो उसकी आँखें भी खुलेंगी, देख लेना। अपनी बात याद करो। जब तक गले में जुआ नहीं पड़ा है, तभी तक यह कुलेलें हैं। जुआ पड़ा और सारा नशा हिरन हुआ। निकम्मों को राह पर लाने का इससे बढ़कर और कोई उपाय ही नहीं।“
जब दयानाथ परास्त हो जाते थे, तो अख़बार पढ़ने लगते थे। अपनी हार को छिपाने का उनके पास यही संकेत था।
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