चैप्टर 13 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 13 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 13 Gaban Novel By Munshi Premchand

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उस दिन से जालपा के पति-स्नेह में सेवा-भाव का उदय हुआ। वह स्नान करने जाता, तो उसे अपनी धोती चुनी हुई मिलती। आले पर तेल और साबुन भी रक्खा हुआ पाता। जब दफ्तर जाने लगता, तो जालपा उसके कपड़े लाकर सामने रख देती। पहले पान मांगने पर मिलते थे, अब ज़बरदस्ती खिलाए जाते थे। जालपा उसका रूख देखा करती। उसे कुछ कहने की जरूरत न थी। यहाँ तक कि जब वह भोजन करने बैठता, तो वह पंखा झला करती। पहले वह बड़ी अनिच्छा से भोजन बनाने जाती थी और उस पर भी बेगार-सी टालती थी। अब बड़े प्रेम से रसोई में जाती। चीजें अब भी वही बनती थीं, पर उनका स्वाद बढ़गया था। रमा को इस मधुर स्नेह के सामने वह दो गहने बहुत ही तुच्छ जंचते थे।

उधर जिस दिन रमा ने गंगू की दुकान से गहने ख़रीदे, उसी दिन दूसरे सर्राफों को भी उसके आभूषण-प्रेम की सूचना मिल गई। रमा जब उधर से निकलता, तो दोनों तरफ से दुकानदार उठ-उठकर उसे सलाम करते, ‘आइए बाबूजी, पान तो खाते जाइए। दो-एक चीज़ें हमारी दुकान से तो देखिये।’

रमा का आत्म-संयम उसकी साख को और भी बढ़ाता था। यहां तक कि एक दिन एक दलाल रमा के घर पर आ पहुँचा, और उसके नहीं-नहीं करने पर भी अपनी संदूकची खोल ही दी।

रमा ने उससे पीछा छुडाने के लिए कहा, ‘भाई, इस वक्त मुझे कुछ नहीं लेना है। क्यों अपना और मेरा समय नष्ट करोगे। दलाल ने बड़े विनीत भाव से कहा, ‘बाबूजी, देख तो लीजिए। पसंद आए तो लीजिएगा, नहीं तो न लीजिएगा। देख लेने में तो कोई हर्ज नहीं है। आखिर रईसों के पास न जायें, तो किसके पास जायें। औरों ने आपसे गहरी रकमें मारीं, हमारे भाग्य में भी बदा होगा, तो आपसे चार पैसा पा जायेंगे। बहूजी और माईजी को दिखा लीजिए! मेरा मन तो कहता है कि आज आप ही के हाथों बोहनी होगी।’

रमानाथ – ‘औरतों के पसंद की न कहो, चीज़ें अच्छी होंगी ही। पसंद आते क्या देर लगती है, लेकिन भाई, इस वक्त हाथ ख़ाली है।’

दलाल हँसकर बोला, ‘बाबूजी, बस ऐसी बात कह देते हैं कि वाह! आपका हुक्म हो जाय तो हज़ार-पांच सौ आपके ऊपर निछावर कर दें। हम लोग आदमी का मिज़ाज देखते हैं, बाबूजी! भगवान् ने चाहा तो आज मैं सौदा करके ही उठूंगा।’

दलाल ने संदूकची से दो चीज़ें निकालीं, एक तो नए फैशन का जडाऊ कंगन था और दूसरा कानों का रिंग दोनों ही चीजें अपूर्व थीं। ऐसी चमक थी मानो दीपक जल रहा हो दस बजे थे, दयानाथ दफ्तर जा चुके थे, वह भी भोजन करने जा रहा था। समय बिलकुल न था, लेकिन इन दोनों चीज़ों को देखकर उसे किसी बात की सुध ही न रही। दोनों केस लिये हुए घर में आया। उसके हाथ में केस देखते ही दोनों स्त्रियां टूट पड़ीं और उन चीज़ों को निकाल-निकालकर देखने लगीं। उनकी चमक-दमक ने उन्हें ऐसा मोहित कर लिया कि गुण-दोष की विवेचना करने की उनमें शक्ति ही न रही।

जागेश्वरी – ‘आजकल की चीज़ों के सामने तो पुरानी चीज़ें कुछ जंचती ही नहीं।

जालपा – ‘मुझे तो उन पुरानी चीज़ों को देखकर कै आने लगती है। न जाने उन दिनों औरतें कैसे पहनती थीं।’

रमा ने मुस्कराकर कहा,’तो दोनों चीज़ें पसंद हैं न?’

जालपा-‘पसंद क्यों नहीं हैं, अम्मांजी, तुम ले लो।’

जागेश्वरी ने अपनी मनोव्यथा छिपाने के लिए सिर झुका लिया। जिसका सारा जीवन गृहस्थी की चिंताओं में कट गया, वह आज क्या स्वप्न में भी इन गहनों के पहनने की आशा कर सकती थी! आह! उस दुखिया के जीवन की कोई साध ही न पूरी हुई। पति की आय ही कभी इतनी न हुई कि बाल-बच्चों के पालन-पोषण के उपरांत कुछ बचता। जब से घर की स्वामिनी हुई, तभी से मानो उसकी तपश्चर्या का आरंभ हुआ और सारी लालसाएं एक-एक करके धूल में मिल गई। उसने उन आभूषणों की ओर से आँखें हटा लीं। उनमें इतना आकर्षण था कि उनकी ओर ताकते हुए वह डरती थी। कहीं उसकी विरक्ति का परदा न खुल जाये। बोली,’मैं लेकर क्या करूंगी बेटी, मेरे पहनने-ओढ़ने के दिन तो निकल गए। कौन लाया है बेटा? क्या दाम हैं इनके?’

रमानाथ – ‘एक सर्राफ दिखाने लाया है, अभी दाम-आम नहीं पूछे, मगर ऊंचे दाम होंगे। लेना तो था ही नहीं, दाम पूछकर क्या करता ?’

जालपा – ‘लेना ही नहीं था, तो यहाँ लाए क्यों?’

जालपा ने यह शब्द इतने आवेश में आकर कहे कि रमा खिसिया गया। उनमें इतनी उत्तेजना, इतना तिरस्कार भरा हुआ था कि इन गहनों को लौटा ले जाने की उसकी हिम्मत न पड़ी। बोला,तो ले लूं?’

जालपा – ‘अम्मा लेने ही नहीं कहतीं तो लेकर क्या करोगे- क्या मुफ्त में दे रहा है?’

रमानाथ – ‘समझ लो मुफ्त ही मिलते हैं।’

जालपा – ‘सुनती हो अम्माजी, इनकी बातें। आप जाकर लौटा आइए। जब हाथ में रूपये होंगे, तो बहुत गहने मिलेंगे।’

जागेश्वरी ने मोहासक्त स्वर में कहा,’रूपये अभी तो नहीं मांगता?’

जालपा – ‘उधार भी देगा, तो सूद तो लगा ही लेगा?’

रमानाथ – ‘तो लौटा दूं- एक बात चटपट तय कर डालो। लेना हो, ले लो, न लेना हो, तो लौटा दो। मोह और दुविधा में न पड़ो…’

जालपा को यह स्पष्ट बातचीत इस समय बहुत कठोर लगी। रमा के मुंह से उसे ऐसी आशा न थी। इंकार करना उसका काम था, रमा को लेने के लिए आग्रह करना चाहिए था। जागेश्वरी की ओर लालायित नजरों से देखकर बोली,’लौटा दो। रात-दिन के तकाज़े कौन सहेगा।’

वह केसों को बंद करने ही वाली थी कि जागेश्वरी ने कंगन उठाकर पहन लिया, मानो एक क्षण-भर पहनने से ही उसकी साध पूरी हो जायगी। फिर मन में इस ओछेपन पर लज्जित होकर वह उसे उतारना ही चाहती थी कि रमा ने कहा, ‘अब तुमने पहन लिया है अम्मां, तो पहने रहो मैं तुम्हें भेंट करता हूं।’

जागेश्वरी की आँखें सजल हो गई। जो लालसा आज तक न पूरी हो सकी, वह आज रमा की मातृ-भक्ति से पूरी हो रही थी, लेकिन क्या वह अपने प्रिय पुत्र पर ऋण का इतना भारी बोझ रख देगी ?अभी वह बेचारा बालक है, उसकी सामर्थ्य ही क्या है? न जाने रूपये जल्द हाथ आयें या देर में। दाम भी तो नहीं मालूम। अगर ऊंचे दामों का हुआ, तो बेचारा देगा कहां से- उसे कितने तकाज़े सहने पड़ेंगे और कितना लज्जित होना पड़ेगा। कातर स्वर में बोली, ‘नहीं बेटा, मैंने यों ही पहन लिया था। ले जाओ, लौटा दो।’

माता का उदास मुख देखकर रमा का ह्रदय मातृ-प्रेम से हिल उठा। क्या ऋण के भय से वह अपनी त्यागमूर्ति माता की इतनी सेवा भी न कर सकेगा?माता के प्रति उसका कुछ कर्तव्य भी तो है? बोला,रूपये बहुत मिल जाएंगे अम्मां, तुम इसकी चिंता मत करो। जागेश्वरी ने बहू की ओर देखा। मानो कह रही थी कि रमा मुझ पर कितना अत्याचार कर रहा है। जालपा उदासीन भाव से बैठी थी। कदाचित उसे भय हो रहा था कि माताजी यह कंगन ले न लें। मेरा कंगन पहन लेना बहू को अच्छा नहीं लगा, इसमें जागेश्वरी को संदेह नहीं रहा। उसने तुरंत कंगन उतार डाला, और जालपा की ओर बढ़ाकर बोली,’मैं अपनी ओर से तुम्हें भेंट करती हूं, मुझे जो कुछ पहनना-ओढ़ना था, ओढ़-पहन चुकी। अब ज़रा तुम पहनो, देखूं,’

जालपा को इसमें ज़रा भी संदेह न था कि माताजी के पास रूपये की कमी नहीं। वह समझी, शायद आज वह पसीज गई हैं और कंगन के रूपए दे देंगी। एक क्षण पहले उसने समझा था कि रूपये रमा को देने पड़ेंगे, इसीलिए इच्छा रहने पर भी वह उसे लौटा देना चाहती थी। जब माताजी उसका दाम चुका रही थीं, तो वह क्यों इंकार करती, मगर ऊपरी मन से बोली,’ रूपये न हों, तो रहने दीजिए अम्माजी, अभी कौन जल्दी है?’

रमा ने कुछ चिढ़कर कहा,’तो तुम यह कंगन ले रही हो?’

जालपा – ‘अम्माजी नहीं मानतीं, तो मैं क्या करूं?

रमानाथ – ‘और ये रिंग, इन्हें भी क्यों नहीं रख लेतीं?’

जालपा – ‘जाकर दाम तो पूछ आओ।

रमा ने अधीर होकर कहा,’तुम इन चीज़ों को ले जाओ, तुम्हें दाम से क्या मतलब!’

रमा ने बाहर आकर दलाल से दाम पूछा तो सन्नाटे में आ गया। कंगन सात सौ के थे, और रिंग डेढ़ सौ के, उसका अनुमान था कि कंगन अधिकसे-अधिक तीन सौ के होंगे और रिंग चालीस-पचास रूपये के, पछताए कि पहले ही दाम क्यों न पूछ लिए, नहीं तो इन चीज़ों को घर में ले जाने की नौबत ही क्यों आती? उधारते हुए शर्म आती थी, मगर कुछ भी हो, उधारना तो पड़ेगा ही। इतना बडा बोझ वह सिर पर नहीं ले सकता दलाल से बोला, ‘बड़े दाम हैं भाई, मैंने तो तीन-चार सौ के भीतर ही आंका था।’

दलाल का नाम चरनदास था। बोला,दाम में एक कौड़ी फरक पड़ जाय सरकार, तो मुँह न दिखाऊं। धनीराम की कोठी का तो माल है, आप चलकर पूछ लें। दमड़ी रूपये की दलाली अलबत्ता मेरी है, आपकी मरज़ी हो दीजिए या न दीजिए।’

रमानाथ – ‘तो भाई इन दामों की चीजें तो इस वक्त हमें नहीं लेनी हैं।’

चरनदास – ‘ऐसी बात न कहिए, बाबूजी! आपके लिए इतने रूपये कौन बडी बात है। दो महीने भी माल चल जाय तो उसके दूने हाथ आ जायंगे। आपसे बढ़कर कौन शौकीन होगा। यह सब रईसों के ही पसंद की चीज़ें हैं। गंवार लोग इनकी कद्र क्या जानें।’

रमानाथ – ‘साढ़े आठ सौ बहुत होते हैं भई!’

चरनदास – ‘रूपयों का मुँह न देखिए बाबूजी, जब बहूजी पहनकर बैठेंगी, तो एक निगाह में सारे रूपये तर जायंगे।’

रमा को विश्वास था कि जालपा गहनों का यह मूल्य सुनकर आप ही बिचक जायगी। दलाल से और ज्यादा बातचीत न की। अंदर जाकर बड़े ज़ोर से हँसा और बोला, ‘आपने इस कंगन का क्या दाम समझा था, मांजी?’

जागेश्वरी कोई जवाब देकर बेवकूफ न बनना चाहती थी,इन जडाऊ चीज़ों में नाप-तौल का तो कुछ हिसाब रहता नहीं जितने में तै हो जाय, वही ठीक है।

रमानाथ – ‘अच्छा, तुम बताओ जालपा, इस कंगन का कितना दाम आंकती हो? ‘

जालपा – ‘छः सौ से कम का नहीं।’

रमा का सारा खेल बिगड़ गया। दाम का भय दिखाकर रमा ने जालपा को डरा देना चाहा था, मगर छः और सात में बहुत थोडा ही अंतर था। और संभव है चरनदास इतने ही पर राज़ी हो जाय। कुछ झेंपकर बोला,कच्चे नगीने नहीं हैं।’

जालपा – ‘कुछ भी हो, छः सौ से ज्यादा का नहीं।’

रमानाथ-‘और रिंग का? ‘

जालपा – ‘अधिक से अधिक सौ रूपये! ‘

रमानाथ – ‘यहाँ भी चूकीं, डेढ़सौ मांगता है।’

जालपा – ‘जट्टू है कोई, हमें इन दामों लेना ही नहीं।

रमा की चाल उल्टी पड़ी, जालपा को इन चीज़ों के मूल्य के विषय में बहुत धोखा न हुआ था। आख़िर रमा की आर्थिक दशा तो उससे छिपी न थी, फिर वह सात सौ रूपये की चीजों के लिए मुंह खोले बैठी थी। रमा को क्या मालूम था कि जालपा कुछ और ही समझकर कंगन पर लहराई थी। अब तो गला छूटने का एक ही उपाय था और वह यह कि दलाल छः सौ पर राज़ी न हो बोला, ‘वह साढ़े आठ से कौड़ी कम न लेगा।’

जालपा – ‘तो लौटा दो।’

रमानाथ – ‘मुझे तो लौटाते शर्म आती है। अम्मां, ज़रा आप ही दालान में चलकर कह दें, हमें सात सौ से ज्यादा नहीं देना है। देना होता तो दे दो, नहीं चले जाओ।’

जागेश्वरी – ‘हाँ रे, क्यों नहीं, उस दलाल से मैं बातें करने जाऊं! ‘

जालपा – ‘तुम्हीं क्यों नहीं कह देते, इसमें तो कोई शर्म की बात नहीं।’

रमानाथ – ‘मुझसे साफ जवाब न देते बनेगा। दुनिया-भर की ख़ुशामद करेगा। चुनी चुना,आप बडे आदमी हैं, रईस हैं, राजा हैं। आपके लिए डेढ़सौ क्या चीज़ है। मैं उसकी बातों में आ जाऊंगा। ‘

जालपा – ‘अच्छा, चलो मैं ही कहे देती हूँ।’

रमानाथ – ‘वाह, फिर तो सब काम ही बन गया।

रमा पीछे दुबक गया। जालपा दालान में आकर बोली, ‘ज़रा यहाँआना जी, ओ सर्राफ! लूटने आए हो, या माल बेचने आए हो! ‘

चरनदास बरामदे से उठकर द्वार पर आया और बोला, ‘क्या हुक्म है, सरकार।

जालपा – ‘माल बेचने आते हो, या जटने आते हो? सात सौ रूपये कंगन के मांगते हो? ‘

चरनदास – ‘सात सौ तो उसकी कारीगरी के दाम हैं, हूजूर! ‘

जालपा – ‘अच्छा तो जो उस पर सात सौ निछावर कर दे, उसके पास ले जाओ। रिंग के डेढ़ सौ कहते हो, लूट है क्या? मैं तो दोनों चीज़ों के सात सौ से अधिक न दूंगी।

चरनदास – ‘बहूजी, आप तो अंधेर करती हैं। कहां साढ़े आठ सौ और कहाँ सात सौ? ‘

जालपा – ‘तुम्हारी खुशी, अपनी चीज़ ले जाओ।’

चरनदास – ‘इतने बड़े दरबार में आकर चीज़ लौटा ले जाऊं?’ आप यों ही पहनें। दस-पांच रूपये की बात होती, तो आपकी ज़बान ने उधरता। आपसे झूठ नहीं कहता बहूजी, इन चीज़ों पर पैसा रूपया नगद है। उसी एक पैसे में दुकान का भाड़ा, बका-खाता, दस्तूरी, दलाली सब समझिए। एक बात ऐसी समझकर कहिए कि हमें भी चार पैसे मिल जायें। सवेरे-सवेरे लौटना न पड़े।

जालपा – ‘कह दिए, वही सात सौ।’

चरनदास ने ऐसा मुँह बनाया, मानो वह किसी धर्म-संकट में पड़ गया है। फिर बोला – ‘सरकार, है तो घाटा ही, पर आपकी बात नहीं टालते बनती। रूपये कब मिलेंगे?’

जालपा – ‘जल्दी ही मिल जायेंगे।’

जालपा अंदर जाकर बोली – ‘आख़िर दिया कि नहीं सात सौ में डेढ़ सौ साफ उड़ायें लिए जाता था। मुझे पछतावा हो रहा है कि कुछ और कम क्यों न कहा। वे लोग इस तरह गाहकों को लूटते हैं।’

रमा इतना भारी बोझ लेते घबरा रहा था, लेकिन परिस्थिति ने कुछ ऐसा रंग पकड़ा कि बोझ उस पर लद ही गया। जालपा तो ख़ुशी की उमंग में दोनों चीजें लिये ऊपर चली गई, पर रमा सिर झुकाए चिंता में डूबा खडाथा। जालपा ने उसकी दशा जानकर भी इन चीज़ों को क्यों ठुकरा नहीं दिया, क्यों ज़ोर देकर नहीं कहा -‘ मैं न लूंगी, क्यों दुविधा में पड़ी रही। साढ़े पांच सौ भी चुकाना मुश्किल था, इतने और कहाँ से आयेंगे।’

असल में ग़लती मेरी ही है। मुझे दलाल को दरवाजे से ही दुत्कार देना चाहिए था। लेकिन उसने मन को समझाया। यह अपने ही पापों का तो प्रायश्चित है। फिर आदमी इसीलिए तो कमाता है। रोटियों के लाले थोड़े ही थे? भोजन करके जब रमा ऊपर कपड़े पहनने गया, तो जालपा आईने के सामने खड़ी कानों में रिंग पहन रही थी। उसे देखते ही बोली – ‘आज किसी अच्छे का मुँह देखकर उठी थी। दो चीज़ें मुफ्त हाथ आ गई।’

रमा ने विस्मय से पूछा, ‘मुफ्त क्यों? रूपये न देने पड़ेंगे? ‘

जालपा-‘रूपये तो अम्मांजी देंगी? ‘

रमानाथ – ‘क्या कुछ कहती थीं? ‘

जालपा – ‘उन्होंने मुझे भेंट दिए हैं, तो रूपये कौन देगा? ‘

रमा ने उसके भोलेपन पर मुस्कराकर कहा, यही समझकर तुमने यह चीज़ें ले लीं ? अम्मा को देना होता तो उसी वक्त दे देती, जब गहने चोरी गए थे। क्या उनके पास रूपये न थे?’

जालपा असमंजस में पड़कर बोली, तो मुझे क्या मालूम था। अब भी तो लौटा सकते हो कह देना, जिसके लिए लिया था, उसे पसंद नहीं आया। यह कहकर उसने तुरंत कानों से रिंग निकाल लिए। कंगन भी उतार डाले और दोनों चीजें केस में रखकर उसकी तरफ इस तरह बढ़ाई, जैसे कोई बिल्ली चूहे से खेल रही हो, वह चूहे को अपनी पकड़ से बाहर नहीं होने देती। उसे छोड़कर भी नहीं छोड़ती। हाथों को फैलाने का साहस नहीं होता था। क्या उसके ह्रदय की भी यही दशा न थी? उसके मुख पर हवाइयां उड़ रही थीं। क्यों वह रमा की ओर न देखकर भूमि की ओर देख रही थी? क्यों सिर ऊपर न उठाती थी? किसी संकट से बच जाने में जो हार्दिक आनंद होता है, वह कहाँ था? उसकी दशा ठीक उस माता की-सी थी, जो अपने बालक को विदेश जाने की अनुमति दे रही हो वही विवशता, वही कातरता, वही ममता इस समय जालपा के मुख पर उदय हो रही थी। रमा उसके हाथ से केसों को ले सके, इतना कडा संयम उसमें न था। उसे तकाज़े सहना, लज्जित होना, मुँह छिपाए फिरना, चिंता की आग में जलना, सब कुछ सहना मंजूर था। ऐसा काम करना नामंजूर था जिससे जालपा का दिल टूट जाए, वह अपने को अभागिन समझने लगे। उसका सारा ज्ञान, सारी चेष्टा, सारा विवेक इस आघात का विरोध करने लगा। प्रेम और परिस्थितियों के संघर्ष में प्रेम ने विजय पाई।

उसने मुस्कराकर कहा, ‘रहने दो, अब ले लिया है, तो क्या लौटायें। अम्माजी भी हँसेंगी।

जालपा ने बनावटी कांपते हुए कंठ से कहा,अपनी चादर देखकर ही पांव फैलाना चाहिए। एक नई विपत्ति मोल लेने की क्या जरूरत है! रमा ने मानो जल में डूबते हुए कहा, ईश्वर मालिक है। और तुरंत नीचे चला गया। हम क्षणिक मोह और संकोच में पड़कर अपने जीवन के सुख और शांति का कैसे होम कर देते हैं! अगर जालपा मोह के इस झोंके में अपने को स्थिर रख सकती, अगर रमा संकोच के आगे सिर न झुका देता, दोनों के ह्रदय में प्रेम का सच्चा प्रकाश होता, तो वे पथ-भ्रष्ट होकर सर्वनाश की ओर न जाते। ग्यारह बज गए थे। दफ्तर के लिए देर हो रही थी, पर रमा इस तरह जा रहा था, जैसे कोई अपने प्रिय बंधु की दाह-क्रिया करके लौट रहा हो।

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मुंशी प्रेमचंद के अन्य उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

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