Chapter 10 Gaban Novel By Munshi Premchand
Table of Contents
Chapter 1 | 2 | 3 | 4| 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51
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महाशय दयानाथ को जब रमा के नौकर हो जाने का हाल मालूम हुआ, तो बहुत खुश हुए। विवाह होते ही वह इतनी जल्द चेतेगा, इसकी उन्हें आशा न थी। बोले – “जगह तो अच्छी है। ईमानदारी से काम करोगे, तो किसी अच्छे पद पर पहुँचजाओगे। मेरा यही उपदेश है कि पराये पैसे को हराम समझना।“
रमा के जी में आया कि साफ कह दूं – “अपना उपदेश आप अपने ही लिए रखिये, यह मेरे अनुकूल नहीं है।“ मगर इतना बेहया न था।
दयानाथ ने फिर कहा- “यह जगह तो तीस रूपये की थी, तुम्हें बीस ही रूपए मिले?”
रमानाथ – “नये आदमी को पूरा वेतन कैसे देते, शायद साल-छः महीने में बढ़ जाय। काम बहुत है।“
दयानाथ – “तुम जवान आदमी हो, काम से न घबड़ाना चाहिए।“
रमा ने दूसरे दिन नया सूट बनवाया और फैशन की कितनी ही चीज़ें खरीदीं। ससुराल से मिले हुए रूपये कुछ बच रहे थे। कुछ मित्रों से उधार ले लिए। वह साहबी ठाठ बनाकर सारे दफ्तर पर रोब जमाना चाहता था। कोई उससे वेतन तो पूछेगा नहीं, महाजन लोग उसका ठाठ-बाट देखकर सहम जायेंगे। वह जानता था, अच्छी आमदनी तभी हो सकती है, जब अच्छा ठाठ हो, सड़क के चौकीदार को एक पैसा काफ़ी मझा जाता है, लेकिन उसकी जगह सार्जंट हो, तो किसी की हिम्मत ही न पड़ेगी कि उसे एक पैसा दिखाये। फटेहाल भिखारी के लिए चुटकी बहुत समझी जाती है, लेकिन गेरूये रेशम धारण करने वाले बाबाजी को लजाते-लजाते भी एक रूपया देना ही पड़ता है। भेख और भीख में सनातन से मित्रता है।
तीसरे दिन रमा कोट-पैंट पहनकर और हैट लगाकर निकला, तो उसकी शान ही कुछ और हो गई। चपरासियों ने झुककर सलाम किए। रमेश बाबू से मिलकर जब वह अपने काम का चार्ज लेने आया, तो देखा एक बरामदे में फटी हुई मैली दरी पर एक मियां साहब संदूक पर रजिस्टर फैलाये बैठे हैं और व्यापारी लोग उन्हें चारों तरफ से घेरे खड़े हैं। सामने गाड़ियो, ठेलों और इक्कों का बाज़ार लगा हुआ है। सभी अपने-अपने काम की जल्दी मचा रहे हैं। कहीं लोगों में गाली-गलौज हो रही है, कहीं चपरासियों में हँसी-दिल्लगी। सारा काम बड़े ही अव्यवस्थित रूप से हो रहा है। उस फटी हुई दरी पर बैठना रमा को अपमानजनक जान पड़ा। वह सीधे रमेश बाबू से जाकर बोला – “क्या मुझे भी इसी मैली दरी पर बिठाना चाहते हैं? एक अच्छी-सी मेज़ और कई कुर्सियाँ भिजवाइये और चपरासियों को हुक्म दीजिये कि एक आदमी से ज्यादा मेरे सामने न आने पावे।“
रमेश बाबू ने मुस्कराकर मेज़ और कुर्सियाँ भिजवा दीं। रमा शान से कुर्सी पर बैठा, बूढ़े मुंशीजी उसकी उच्छृंखलता पर दिल में हँस थे। समझ गए, अभी नया जोश है, नई सनक है। चार्ज दे दिया। चार्ज में था ही क्या, केवल आज की आमदनी का हिसाब समझा देना था।किस पर किस हिसाब से चुंगी ली जाती है, इसकी छपी हुई तालिका मौजूद थी, रमा आधा घंटे में अपना काम समझ गया। बूढ़े मुंशीजी ने यद्यपि खुद ही यह जगह छोड़ी थी, पर इस वक्त जाते हुए उन्हें दुःख हो रहा था। इसी जगह वह तीस साल से बराबर बैठते चले आते थे। इसी जगह की बदलौत उन्होंने धन और यश दोनों ही कमाया था। उसे छोड़ते हुए क्यों न दुःख होता। चार्ज देकर जब वह विदा होने लगे, तो रमा उनके साथ जीने के नीचे तक गया।
खां साहब उसकी इस नम्रता से प्रसन्न हो गए। मुस्कराकर बोले – “हर एक बिल्टी पर एक आना बंधा हुआ है, खुली हुई बात है। लोग शौक से देते हैं। आप अमीर आदमी हैं, मगर रस्म न बिगाड़ियेगा। एक बार कोई रस्म टूट जाती है, तो उसका बंधना मुश्किल हो जाता है। इस एक आने में आधा चपरासियों का हक है। जो बड़े बाबू पहले थे, वह पच्चीस रूपये महीना लेते थे, मगर यह कुछ नहीं लेते।“
रमा ने अरूचि प्रकट करते हुए कहा – “गंदा काम है, मैं सफाई से काम करना चाहता हूँ।“
बूढ़े मियां ने हँसकर कहा – “अभी गंदा मालूम होता है, लेकिन फिर इसी में मज़ा आएगा।“
खां साहब को विदा करके रमा अपनी कुर्सी पर आ बैठा और एक चपरासी से बोला – “इन लोगों से कहो, बरामदे के नीचे चले जायें। एक-एक करके नंबरवार आवें, एक कागज पर सबके नाम नंबरवार लिख लिया करो।“
एक बनिया, जो दो घंटे से खड़ा था, खुश होकर बोला- “हाँ सरकार, यह बहुत अच्छा होगा।“
रमानाथ- ‘जो पहले आवे, उसका काम पहले होना चाहिए। बाकी लोग अपना नंबर आने तक बाहर रहें। यह नहीं कि सबसे पीछे वाले शोर मचाकर पहले आ जायें और पहले वाले खड़े मुँह ताकते रहें।’
कई व्यापारियों ने कहा–‘हाँ बाबूजी, यह इंतज़ाम हो जाए, तो बहुत अच्छा हो, भीड़ में बड़ी देर हो जाती है।’
इतना नियंत्रण रमा का रोब जमाने के लिए काफ़ी था। वणिक-समाज में आज ही उसके रंग-ढंग की आलोचना और प्रशंसा होने लगी। किसी बड़े कॉलेज के प्रोफसर को इतनी ख्याति उम्र भर में न मिलती। दो-चार दिन के अनुभव से ही रमा को सारे दांव-घात मालूम हो गये। ऐसी-ऐसी बातें सूझ गई, जो खां साहब को ख्वाब में भी न सूझी थीं। माल की तौल, गिनती और परख में इतनी धांधली थी, जिसकी कोई हद नहीं। जब इस धांधली से व्यापारी लोग सैकड़ों की रकम डकार जाते हैं, तो रमा बिल्टी पर एक आना लेकर ही क्यों संतुष्ट हो जाये, जिसमें आधा आना चपरासियों का है। माल की तौल और परख में दृढ़ता से नियमों का पालन करके वह धन और कीर्ति, दोनों ही कमा सकता है। यह अवसर वह क्यों छोड़ने लगा – विशेषकर जब बड़े बाबू उसके गहरे दोस्त थे।
रमेश बाबू इस नये रंग ईट की कार्य-पटुता पर मुग्ध हो गये। उसकी पीठ ठोंककर बोले–‘कायदे के अंदर रहो और जो चाहो करो। तुम पर आंच तक न आने पायेगी।’
रमा की आमदनी तेज़ी से बढ़ने लगी। आमदनी के साथ प्रभाव भी बढ़ा। सूखी कलम घिसने वाले दफ्तरके बाबुओं को जब सिगरेट, पान, चाय या जलपान की इच्छा होती, तो रमा के पास चले आते, उस बहती गंगा में सभी हाथ धो सकते थे। सारे दफ्तर में रमा की सराहना होने लगी। पैसे को तो वह ठीकरा समझता है! क्या दिल है कि वाह! और जैसा दिल है, वैसी ही ज़बान भी। मालूम होता है, नस-नस में शराफ़त भरी हुई है। बाबुओं का जब यह हाल था, तो चपरासियों और मुहर्रिरों का पूछना ही क्या? सब-के-सब रमा के बिना दामों गुलाम थे। उन गरीबों की आमदनी ही नहीं, प्रतिष्ठा भी खूब बढ़ गई थी। जहाँ गाड़ीवान तक फटकार दिया करते थे, वहाँ अब अच्छे-अच्छे की गर्दन पकड़कर नीचे ढकेल देते थे। रमानाथ की तूती बोलने लगी।
मगर जालपा की अभिलाषायें अभी एक भी पूरी न हुई। नागपंचमी के दिन मुहल्ले की कई युवतियाँ जालपा के साथ कजली खेलने आई, मगर जालपा अपने कमरे के बाहर नहीं निकली। भादों में जन्माष्टमी का उत्सव आया। पड़ोस ही में एक सेठजी रहते थे, उनके यहाँ बड़ी धूमधाम से उत्सव मनाया जाता था। वहाँ से सास और बहू को बुलावा आया। जागेश्वरी गई, जालपा ने जाने से इंकार किया। इन तीन महीनों में उसने रमा से एक बार भी आभूषण की चर्चा न की, पर उसका यह एकांत-प्रेम, उसके आचरण से उत्तेजक था। इससे ज्यादा उत्तेजक वह पुराना सूची-पत्र था, जो एक दिन रमा कहीं से उठा लाया था। इसमें भांति-भांति के सुंदर आभूषणों के नमूने बने हुए थे। उनके मूल्य भी लिखे हुए थे। जालपा एकांत में इस सूची-पत्र को बड़े ध्यान से देखा करती। रमा को देखते ही वह सूची-पत्र छिपा लेती थी। इस हार्दिक कामना को प्रकट करके वह अपनी हँसी न उड़वाना चाहती थी।
रमा आधी रात के बाद लौटा, तो देखा, जालपा चारपाई पर पड़ी है। हँसकर बोला – “बड़ा अच्छा गाना हो रहा था। तुम नहीं गई; बड़ी गलती की।’
जालपा ने मुँह उधर कर लिया, कोई उत्तर न दिया।
रमा ने फिर कहा – ‘यहाँ अकेले पड़े-पड़े तुम्हारा जी घबराता रहा होगा!’
जालपा ने तीव्र स्वर में कहा – ‘तुम कहते हो, मैंने गलती की, मैं समझती हूँ, मैंने अच्छा किया। वहाँ किसके मुँह में कालिख लगती।’
जालपा ताना तो न देना चाहती थी, पर रमा की इन बातों ने उसे उत्तेजित कर दिया। रोष का एक कारण यह भी था कि उसे अकेली छोड़कर सारा घर उत्सव देखने चला गया। अगर उन लोगों के ह्रदय होता, तो क्या वहाँ जाने से इंकार न कर देते?
रमा ने लज्जित होकर कहा – ‘कालिख लगने की तो कोई बात न थी, सभी जानते हैं कि चोरी हो गई है, और इस ज़माने में दो-चार हज़ार के गहने बनवा लेना, मुँह का कौर नहीं है।’
चोरी का शब्द ज़बान पर लाते हुए, रमा का ह्रदय धड़क उठा। जालपा पति की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर रह गई। और कुछ बोलने से बात बढ़ जाने का भय था, पर रमा को उसकी दृष्टि से ऐसा भासित हुआ, मानो उसे चोरी का रहस्य मालूम है और वह केवल संकोच के कारण उसे खोलकर नहीं कह रही है। उसे उस स्वप्न की बात भी याद आई, जो जालपा ने चोरी की रात को देखा था। वह दृष्टि बाण के समान उसके ह्रदय को छेदने लगी; उसने सोचा, शायद मुझे भम्र हुआ। इस दृष्टि में रोष के सिवाय और कोई भाव नहीं है, मगर यह कुछ बोलती क्यों नहीं? चुप क्यों हो गई? उसका चुप हो जाना ही गजब था। अपने मन का संशय मिटाने और जालपा के मन की थाह लेने के लिए रमा ने मानो डुब्बी मारी – ‘यह कौन जानता था कि डोली से उतरते ही यह विपत्ति तुम्हारा स्वागत करेगी।’
जालपा आँखों में आँसू भरकर बोली – ‘तो मैं तुमसे गहनों के लिए रोती तो नहीं हूँ। भाग्य में जो लिखा था, वह हुआ। आगे भी वही होगा, जो लिखा है। जो औरतें गहने नहीं पहनतीं, क्या उनके दिन नहीं कटते?’
इस वाक्य ने रमा का संशय तो मिटा दिया, पर इसमें जो तीव्र वेदना छिपी हुई थी, वह उससे छिपी न रही। इन तीन महीनों में बहुत प्रयत्न करने पर भी वह सौ रूपये से अधिक संग्रह न कर सका था। बाबू लोगों के आदर-सत्कार में उसे बहुत-कुछ फलना पड़ता था; मगर बिना खिलाए-पिलाए काम भी तो न चल सकता था। सभी उसके दुश्मन हो जाते और उसे उखाड़ने की घातें सोचने लगते। मुफ्त का धन अकेले नहीं हजम होता, यह वह अच्छी तरह जानता था। वह स्वयं एक पैसा भी व्यर्थ खर्च न करता। चतुर व्यापारी की भांति वह जो कुछ खर्च करता था, वह केवल कमाने के लिए। आश्वासन देते हुए बोला–‘ईश्वर ने चाहा तो दो-एक महीने में कोई चीज़ बन जाएगी।’
जालपा – ‘मैं उन स्त्रियों में नहीं हूँ, जो गहनों पर जान देती हैं। हाँ, इस तरह किसी के घर आते-जाते शर्म आती ही है।’
रमा का चित्त ग्लानि से व्याकुल हो उठा। जालपा के एक-एक शब्द से निराशा टपक रही थी। इस अपार वेदना का कारण कौन था? क्या यह भी उसी का दोष न था कि इन तीन महीनों में उसने कभी गहनों की चर्चा नहीं की? जालपा यदि संकोच के कारण इसकी चर्चा न करती थी, तो रमा को उसके आँसू पोंछने के लिए, उसका मन रखने के लिए, क्या मौन के सिवा दूसरा उपाय न था? मुहल्ले में रोज़ ही एक-न-एक उत्सव होता रहता है, रोज़ ही पास-पड़ोस की औरतें मिलने आती हैं, बुलावे भी रोज आते ही रहते हैं, बेचारी जालपा कब तक इस प्रकार आत्मा का दमन करती रहेगी, अंदर-ही-अंदर कुढ़ती रहेगी। हँसने-बोलने को किसका जी नहीं चाहता, कौन कैदियों की तरह अकेला पड़ा रहना पसंद करता है? मेरे ही कारण तो इसे यह भीषण यातना सहनी पड़ रही है। उसने सोचा, क्या किसी सर्राफ़ से गहने उधार नहीं लिए जा सकते? कई बड़े सर्राफों से उसका परिचय था, लेकिन उनसे वह यह बात कैसे कहता? कहीं वे इंकार कर दें तो? या संभव है, बहाना करके टाल दें। उसने निश्चय किया कि अभी उधार लेना ठीक न होगा। कहीं वादे पर रूपये न दे सका, तो व्यर्थ में थुक्का-फजीहत होगी। लज्जित होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन और धैर्य से काम लेना चाहिए। सहसा उसके मन में आया, इस विषय में जालपा की राय लूं। देखूं वह क्या कहती है। अगर उसकी इच्छा हो तो किसी सर्राफ़ से वादे पर चीज़ें ले ली जाये, मैं इस अपमान और संकोच को सह लूंगा। जालपा को संतुष्ट करने के लिए कि उसके गहनों की उसे कितनी फ़िक्र है ! बोला – ‘तुमसे एक सलाह करना चाहता हूँ। पूछूं या न पूछूं।’
जालपा को नींद आ रही थी, आँखें बंद किए हुए बोली – ‘अब सोने दो भई, सवेरे उठना है।’
रमानाथ – ‘अगर तुम्हारी राय हो, तो किसी सर्राफ़ से वादे पर गहने बनवा लाऊं। इसमें कोई हर्ज़ है नहीं।’
जालपा की आँखें खुल गई। कितना कठोर प्रश्न था। किसी मेहमान से पूछना – ‘कहिए तो आपके लिए भोजन लाऊं, कितनी बड़ी अशिष्टता है। इसका तो यही आशय है कि हम मेहमान को खिलाना नहीं चाहते। रमा को चाहिए था कि चीजें लाकर जालपा के सामने रख देता। उसके बार-बार पूछने पर भी यही कहना चाहिए था कि दाम देकर लाया हूँ। तब वह अलबत्ता खुश होती। इस विषय में उसकी सलाह लेना, घाव पर नमक छिड़कना था। रमा की ओर अविश्वास की आँखों से देखकर बोली – ‘मैं तो गहनों के लिए इतनी उत्सुक नहीं हूँ।’
रमानाथ – ‘नहीं, यह बात नहीं, इसमें क्या हर्ज़ है कि किसी सर्राफ़ से चीजें ले लूं। धीरे-धीरे उसके रूपये चुका दूंगा।’
जालपा ने दृढ़ता से कहा – ‘नहीं, मेरे लिए कर्ज लेने की ज़रूरत नहीं। मैं वेश्या नहीं हूँ कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना रास्ता लूं। मुझे तुम्हारे साथ जीना और मरना है। अगर मुझे सारी उम्र बे-गहनों के रहना पड़े, तो भी मैं कुछ लेने को न कहूंगी। औरतें गहनों की इतनी भूखी नहीं होतीं। घर के प्राणियों को संकट में डालकर गहने पहनने वाली दूसरी होंगी। लेकिन तुमने तो पहले कहा था कि जगह बड़ी आमदनी की है, मुझे तो कोई विशेष बचत दिखाई नहीं देती।’
रमानाथ – ‘बचत तो जरूर होती और अच्छी होती, लेकिन जब अहलकारों के मारे बचने भी पाये। सब शैतान सिर पर सवार रहते हैं। मुझे पहले न मालूम था कि यहाँ इतने प्रेतों की पूजा करनी होगी।’
जालपा – ‘तो अभी कौन-सी जल्दी है, बनते रहेंगे धीरे-धीरे।’
रमानाथ – ‘खैर, तुम्हारी सलाह है, तो एक-आधा महीने और चुप रहता हूँ। मैं सबसे पहले कंगन बनवाऊंगा।’
जालपा ने गदगद होकर कहा – ‘तुम्हारे पास अभी इतने रूपये कहाँ होंगे?’
रमानाथ – ‘इसका उपाय तो मेरे पास है। तुम्हें कैसा कंगन पसंद है?’
जालपा अब अपने कृत्रिम संयम को न निभा सकी। आलमारी में से आभूषणों का सूची-पत्र निकालकर रमा को दिखाने लगी। इस समय वह इतनी तत्पर थी, मानो सोना लाकर रक्खा हुआ है, सुनार बैठा हुआ है, केवल डिज़ाइन ही पसंद करना बाकी है। उसने सूची के दो डिज़ाइन पसंद किए। दोनों वास्तव में बहुत ही सुंदर थे। पर रमा उनका मूल्य देखकर सन्नाटे में आ गया। एक- एक हज़ार का था, दूसरा आठ सौ का।
रमानाथ–‘ऐसी चीज़ें तो शायद यहाँ बन भी न सकें, मगर कल मैं ज़रा सर्राफ की सैर करूंगा।’
जालपा ने पुस्तक बंद करते हुए करूण स्वर में कहा- ‘इतने रूपये न जाने तुम्हारे पास कब तक होंगे? उंह, बनेंगे-बनेंगे, नहीं कौन कोई गहनों के बिना मरा जाता है।’
रमा को आज इसी उधेड़बुन में बडी रात तक नींद न आई। ये जड़ाऊ कंगन इन गोरी-गोरी कलाइयों पर कितने खिलेंगे। यह मोह-स्वप्न देखते-देखते उसे न जाने कब नींद आ गई।
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मुंशी प्रेमचंद के अन्य उन्पयास :
~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास
~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास
~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास