चैप्टर 36 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 36 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 36 Gaban Novel By Munshi Premchand

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एक महीना गुज़र गया। गोपीनाथ पहले तो कई दिन कलकत्ता की सैर करता रहा, मगर चार-पाँच दिन में ही यहां से उसका जी ऐसा उचाट हुआ कि घर की रट लगानी शुरू की। आख़िर जालपा ने उसे लौटा देना ही अच्छा समझा, यहाँ तो वह छिप-छिप कर रोया करता था।

जालपा कई बार रमा के बंगले तक हो आई। वह जानती थी कि अभी रमा नहीं आए हैं। फिर भी वहाँ का एक चक्कर लगा आने में उसको एक विचित्र संतोष होता था। जालपा कुछ पढ़ते-पढ़ते या लेटे-लेटे थक जाती, तो एक क्षण के लिए खिड़की के सामने आ खड़ी होती थी। एक दिन शाम को वह खिड़की के सामने आई, तो सड़क पर मोटरों की एक कतार नज़र आई। कौतूहल हुआ, इतनी मोटरें कहाँ जा रही हैं! ग़ौर से देखने लगी। छः मोटरें थीं। उनमें पुलिस के अफसर बैठे हुए थे। एक में सब सिपाही थे। आख़िरी मोटर पर जब उसकी निगाह पड़ी तो, मानो उसके सारे शरीर में बिजली की लहर दौड़ गई। वह ऐसी तन्मय हुई कि खिड़की से जीने तक दौड़ी आई, मानो मोटर को रोक लेना चाहती हो, पर इसी एक पल में उसे मालूम हो गया कि मेरे नीचे उतरते-उतरते मोटरें निकल जाएंगी। वह फिर खिड़की के सामने आयी, रमा अब बिलकुल सामने आ गया था। उसकी आंखें खिड़की की ओर लगी हुई थीं। जालपा ने इशारे से कुछ कहना चाहा, पर संकोच ने रोक दिया। ऐसा मालूम हुआ कि रमा की मोटर कुछ धीमी हो गई है। देवीदीन की आवाज़ भी सुनाई दी, मगर मोटर रूकी नहीं। एक ही क्षण में वह आगे बढ़गई, पर रमा अब भी रह-रहकर खिड़की की ओर ताकता जाता था।

जालपा ने जीने पर आकर कहा, ‘दादा!’

देवीदीन ने सामने आकर कहा, ‘भैया आ गये! वह क्या मोटर जा रही है!’

यह कहता हुआ वह ऊपर आ गया। जालपा ने उत्सुकता को संकोच से दबाते हुए कहा, ‘तुमसे कुछ कहा?’

देवीदीन-‘और क्या कहते, खाली राम-राम की। मैंने कुशल पूछी। हाथ से दिलासा देते चले गये। तुमने देखा कि नहीं?’

जालपा ने सिर झुकाकर कहा,देखा क्यों नहीं? खिड़की पर ज़रा खड़ी थी।’

‘उन्होंने भी तुम्हें देखा होगा?’

‘खिड़की की ओर ताकते तो थे। ‘

‘बहुत चकराए होंगे कि यह कौन है!’

‘कुछ मालूम हुआ मुकदमा कब पेश होगा?’

‘कल ही तो।’

‘कल ही! इतनी जल्द, तब तो जो कुछ करना है आज ही करना होगा। किसी तरह मेरा ख़त उन्हें मिल जाता, तो काम बन जाता।’

देवीदीन ने इस तरह ताका मानो कह रहा है, तुम इस काम को जितना आसान समझती हो उतना आसान नहीं है।

जालपा ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा, ‘क्या तुम्हें संदेह है कि वह अपना बयान बदलने पर राज़ी होंगे?’

देवीदीन को अब इसे स्वीकार करने के सिवा और कोई उपाय न सूझा, बोला,हाँ, बहूजी, मुझे इसका बहुत अंदेशा है। और सच पूछो तो है भी जोखिम,अगर वह बयान बदल भी दें, तो पुलिस के पंजे से नहीं छूट सकते। वह कोई दूसरा इलज़ाम लगा कर उन्हें पकड़ लेगी और फिर नया मुकदमा चलावेगी।’

जालपा ने ऐसी नज़रों से देखा, मानो वह इस बात से ज़रा भी नहीं डरती। फिर बोली, ‘दादा, मैं उन्हें पुलिस के पंजे से बचाने का ठेका नहीं लेती। मैं केवल यह चाहती हूँ कि हो सके तो अपयश से उन्हें बचा लूं। उनके हाथों इतने घरों की बरबादी होते नहीं देख सकती। अगर वह सचमुच डकैतियों में शरीक होते, तब भी मैं यही चाहती कि वह अंत तक अपने साथियों के साथ रहें और जो सिर पर पड़े उसे ख़ुशी से झेलें। मैं यह कभी न पसंद करती कि वह दूसरों को दग़ा देकर मुख़बिर बन जायें, लेकिन यह मामला तो बिलकुल झूठ है। मैं यह किसी तरह नहीं बरदाश्त कर सकती कि वह अपने स्वार्थ के लिए झूठी गवाही दें। अगर उन्होंने ख़ुद अपना बयान न बदला, तो मैं अदालत में जाकर सारा कच्चा चित्ता खोल दूंगी, चाहे नतीजा कुछ भी हो वह हमेशा के लिए मुझे त्याग दें, मेरी सूरत न देखें, यह मंजूर है, पर यह नहीं हो सकता कि वह इतना बड़ा कलंक माथे पर लगावें। मैंने अपने पत्र में सब लिख दिया है। देवीदीन ने उसे आदर की दृष्टि से देखकर कहा, ‘तुम सब कर लोगी बहू, अब मुझे विश्वास हो गया। जब तुमने कलेजा इतना मजबूत कर लिया है, तो तुम सब कुछ कर सकती हो।’

‘तो यहाँ से नौ बजे चलें?’

‘हाँ, मैं तैयार हूँ।’

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मुंशी प्रेमचंद के अन्य उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

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