चैप्टर 38 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 38 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 38 Gaban Novel By Munshi Premchand

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वियोगियों के मिलन की रात बटोहियों के पड़ाव की रात है, जो बातों में कट जाती है। रमा और जालपा,दोनों ही को अपनी छः महीने की कथा कहनी थी। रमा ने अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपने कष्टों को ख़ूब बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया। जालपा ने अपनी कथा में कष्टों की चर्चा तक न आने दी। वह डरती थी इन्हें दुःख होगा, लेकिन रमा को उसे रूलाने में विशेष आनंद आ रहा था। वह क्यों भागा, किसलिए भागा, कैसे भागा, यह सारी गाथा उसने करूण शब्दों में कही और जालपा ने सिसक-सिसककर सुनी, वह अपनी बातों से उसे प्रभावित करना चाहता था। अब तक सभी बातों में उसे परास्त होना पड़ा था। जो बात उसे असूझ मालूम हुई, उसे जालपा ने चुटकियों में पूरा कर दिखाया। शतरंज वाली बात को वह ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर बयान कर सकता था, लेकिन वहाँ भी जालपा ही ने नीचा दिखाया। फिर उसकी कीर्ति-लालसा को इसके सिवा और क्या उपाय था कि अपने कष्टों की राई को पर्वत बनाकर दिखाये।

जालपा ने सिसककर कहा, ‘तुमने यह सारी आफतें झेंली, पर हमें एक पत्र तक न लिखा। क्यों लिखते, हमसे नाता ही क्या था! मुँह देखे की प्रीति थी! आँख ओट पहाड़ ओट।’

रमा ने हसरत से कहा, ‘यह बात नहीं थी जालपा, दिल पर जो कुछ गुज़रती थी दिल ही जानता है, लेकिन लिखने का मुँह भी तो हो जब मुँह छिपाकर घर से भागा, तो अपनी विपत्ति-कथा क्या लिखने बैठता! मैंने तो सोच लिया था, जब तक ख़ूब रूपये न कमा लूंगा, एक शब्द भी न लिखूंगा।’

जालपा ने आँसू-भरी आँखों में व्यंग्य भरकर कहा, ‘ठीक ही था, रूपये आदमी से ज्यादा प्यारे होते ही हैं! हम तो रूपये के यार हैं, तुम चाहे चोरी करो, डाका मारो, जाली नोट बनाओ, झूठी गवाही दो या भीख मांगो, किसी उपाय से रूपये लाओ। तुमने हमारे स्वभाव को कितना ठीक समझा है, कि वाह! गोसाई जी भी तो कह गए हैं,स्वारथ लाइ करहिं सब प्रीति।’

रमा ने झेंपते हुए कहा, ‘नहीं-नहीं प्रिये, यह बात न थी। मैं यही सोचता था कि इन फटे-हालों जाऊंगा कैसे। सच कहता हूँ, मुझे सबसे ज्यादा डर तुम्हीं से लगता था। सोचता था, तुम मुझे कितना कपटी, झूठा, कायर समझ रही होगी। शायद मेरे मन में यह भाव था कि रूपये की थैली देखकर तुम्हारा ह्रदय कुछ तो नर्म होगा।’

जालपा ने व्यथित कंठ से कहा, ‘मैं शायद उस थैली को हाथ से छूती भी नहीं। आज मालूम हो गया, तुम मुझे कितनी नीच, कितनी स्वार्थिनी,कितनी लोभिन समझते हो! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, सरासर मेरा दोष है। अगर मैं भली होती, तो आज यह दिन ही क्यों आता। जो पुरूष तीस-चालीस रूपये का नौकर हो, उसकी स्त्री अगर दो-चार रूपये रोज़ ख़र्च करे, हज़ार-दो हज़ार के गहने पहनने की नीयत रक्खे, तो वह अपनी और उसकी तबाही का सामान कर रही है। अगर तुमने मुझे इतना धनलोलुप समझा, तो कोई अन्याय नहीं किया। मगर एक बार जिस आग में जल चुकी, उसमें फिर न जलूंगी। इन महीनों में मैंने उन पापों का कुछ प्रायश्चित्त किया है और शेष जीवन के अंत समय तक करूंगी। यह मैं नहीं कहती कि भोग-विलास से मेरा जी भर गया, या गहने-कपड़े से मैं ऊब गई, या सैर-तमाशे से मुझे घृणा हो गई। यह सब अभिलाषायें ज्यों की त्यों हैं। अगर तुम अपने पुरूषार्थ से, अपने परिश्रम से, अपने सदुद्योग से उन्हें पूरा कर सको तो क्या कहना, लेकिन नीयत खोटी करके, आत्मा को कलुषित करके एक लाख भी लाओ, तो मैं उसे ठुकरा दूंगी। जिस वक्त मुझे मालूम हुआ कि तुम पुलिस के गवाह बन गए हो, मुझे इतना दुःख हुआ कि मैं उसी वक्त दादा को साथ लेकर तुम्हारे बंगले तक गई, मगर उसी दिन तुम बाहर चले गए थे और आज लौटे हो मैं इतने आदमियों का ख़ून अपनी गर्दन पर नहीं लेना चाहती। तुम अदालत में साफ-साफ कह दो कि मैंने पुलिस के चकमे में आकर गवाही दी थी, मेरा इस मुआमले से कोई संबंध नहीं है। रमा ने चिंतित होकर कहा, ‘जब से तुम्हारा ख़त मिला, तभी से मैं इस प्रश्न पर विचार कर रहा हूँ, लेकिन समझ में नहीं आता क्या करूं। एक बात कहकर मुकर जाने का साहस मुझमें नहीं है।’

‘बयान तो बदलना ही पड़ेगा।’

‘आख़िर कैसे? ‘

‘मुश्किल क्या है। जब तुम्हें मालूम हो गया कि म्युनिसिपैलिटी तुम्हारे ऊपर कोई मुकदमा नहीं चला सकती, तो फिर किस बात का डर?’

‘डर न हो, झेंप भी तो कोई चीज़ है। जिस मुँह से एक बात कही, उसी मुँह से मुकर जाऊं, यह तो मुझसे न होगा। फिर मुझे कोई अच्छी जगह मिल जाएगी। आराम से ज़िन्दगी बसर होगी। मुझमें गली-गली ठोकर खाने का बूता नहीं है।’

जालपा ने कोई जवाब न दिया। वह सोच रही थी, आदमी में स्वार्थ की मात्रा कितनी अधिक होती है। रमा ने फिर धृष्टता से कहा, ‘और कुछ मेरी ही गवाही पर तो सारा फैसला नहीं हुआ जाता। मैं बदल भी जाऊं, तो पुलिस कोई दूसरा आदमी खड़ा कर देगी। अपराधियों की जान तो किसी तरह नहीं बच सकती। हाँ, मैं मुफ्त में मारा जाऊंगा।’

जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा, ‘ कैसी बेशर्मी की बातें करते हो जी! क्या तुम इतने गए-बीते हो कि अपनी रोटियों के लिए दूसरों का गला काटो। मैं इसे नहीं सह सकती। मुझे मजदूरी करना, भूखों मर जाना मंजूर है, बड़ी-से-बड़ी विपत्ति जो संसार में है, वह सिर पर ले सकती हूँ, लेकिन किसी का बुरा करके स्वर्ग का राज भी नहीं ले सकती।’

रमा इस आदर्शवाद से चिढ़कर बोला, ‘ तो क्या तुम चाहती कि मैं यहाँ कुलीगीरी करूं? ‘

जालपा-‘नहीं, मैं यह नहीं चाहती, लेकिन अगर कुलीगीरी भी करनी पड़े तो वह ख़ून से तर रोटियाँ खाने से कहीं बढ़कर है।’

रमा ने शांत भाव से कहा, ‘ जालपा, तुम मुझे जितना नीच समझ रही हो, मैं उतना नीच नहीं हूँ। बुरी बात सभी को बुरी लगती है। इसका दुःख मुझे भी है कि मेरे हाथों इतने आदमियों का ख़ून हो रहा है, लेकिन परिस्थिति ने मुझे लाचार कर दिया है। मुझमें अब ठोकरें खाने की शक्ति नहीं है। न मैं पुलिस से रार मोल ले सकता हूं। दुनिया में सभी थोड़े ही आदर्श पर चलते हैं। मुझे क्यों उस ऊँचाई पर चढ़ाना चाहती हो, जहाँ पहुँचने की शक्ति मुझमें नहीं है।’

जालपा ने तीक्ष्ण स्वर में कहा, ‘ जिस आदमी में हत्या करने की शक्ति हो, उसमें हत्या न करने की शक्ति का न होना अचंभे की बात है। जिसमें दौड़ने की शक्ति हो, उसमें खड़े रहने की शक्ति न हो इसे कौन मानेगा। जब हम कोई काम करने की इच्छा करते हैं, तो शक्ति आप ही आप आ जाती है। तुम यह निश्चय कर लो कि तुम्हें बयान बदलना है, बस और बातें आप आ जायेंगी।’

रमा सिर झुकाये हुए सुनता रहा।

जालपा ने और आवेश में आकर कहा, ‘अगर तुम्हें यह पाप की खेती करनी है, तो मुझे आज ही यहाँ से विदा कर दो। मैं मुँह में कालिख लगाकर यहाँ से चली जाऊंगी और फिर तुम्हें दिक करने न आऊंगी। तुम आनंद से रहना। मैं अपना पेट मेहनत-मजूरी करके भर लूंगी। अभी प्रायश्चित्त पूरा नहीं हुआ है, इसीलिए यह दुर्बलता हमारे पीछे पड़ी हुई है। मैं देख रही हूँ, यह हमारा सर्वनाश करके छोड़ेगी।’
रमा के दिल पर कुछ चोट लगी। सिर खुजलाकर बोला, ‘ चाहता तो मैं भी हूं कि किसी तरह इस मुसीबत से जान बचे।’

‘तो बचाते क्यों नहीं। अगर तुम्हें कहते शर्म आती हो, तो मैं चलूं। यही अच्छा होगा। मैं भी चली चलूंगी और तुम्हारे सुपरिटेंडंट साहब से सारा वृत्तांत साफ- साफ कह दूंगी।’

रमा का सारा पसोपेश गायब हो गया। अपनी इतनी दुर्गति वह न कराना चाहता था कि उसकी स्त्री जाकर उसकी वकालत करे। बोला, ‘तुम्हारे चलने की जरूरत नहीं है जालपा, मैं उन लोगों को समझा दूंगा। ‘

जालपा ने ज़ोर देकर कहा, ‘साफ बताओ, अपना बयान बदलोगे या नहीं? ‘

रमा ने मानो कोने में दबकर कहा,कहता तो हूँ, बदल दूंगा। ‘

‘मेरे कहने से या अपने दिल से?’

‘तुम्हारे कहने से नहीं, अपने दिल से मुझे ख़ुद ही ऐसी बातों से घृणा है। सिर्फ ज़रा हिचक थी, वह तुमने निकाल दी।’

फिर और बातें होने लगीं। कैसे पता चला कि रमा ने रूपये उडा दिए हैं? रूपये अदा कैसे हो गये? और लोगों को ग़बन की ख़बर हुई या घर ही में दबकर रह गई?रतन पर क्या गुज़री- गोपी क्यों इतनी जल्द चला गया? दोनों कुछ पढ़ रहे हैं या उसी तरह आवारा फिरा करते हैं?आख़िर में अम्मां और दादा का ज़िक्र आया। फिर जीवन के मनसूबे बांधो जाने लगे। जालपा ने कहा, ‘घर चलकर रतन से थोड़ी-सी ज़मीन ले लें और आनंद से खेती-बारी करें।’

रमा ने कहा, ‘कहीं उससे अच्छा है कि यहाँ चाय की दुकान खोलें।’ इस पर दोनों में मुबाहसा हुआ। आख़िर रमा को हार माननी पड़ी। यहाँ रहकर वह घर की देखभाल न कर सकता था, भाइयों को शिक्षा न दे सकता था और न मातापिता की सेवा-सत्कार कर सकता था। आख़िर घरवालों के प्रति भी तो उसका कुछ कर्तव्य है। रमा निरूत्तर हो गया।

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