चैप्टर 3 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 3 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 3 Manorama Novel By Munshi Premchand

Chapter 3 Manorama Novel By Munshi Premchand

 

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संध्या समय जब रेल गाड़ी बनारस से चली, तो यशोदा नंदन ने चक्रधर से कहा – “मैंने अहिल्या के विषय में आपसे झूठी बातें कही है। वह वास्तव में मेरी लड़की नहीं है। उसके माता-पिता का हमें कुछ पता नहीं।”

चक्रधर ने बड़ी-बड़ी आँखें करके कहा – “तो फिर आपके यहाँ कैसे आई?”

यशोदा – “विचित्र कथा है। पंद्रह वर्ष हुए, एक बार सूर्य ग्रहण लगा था। हमारी एक सेवा समिति थी। हम लोग उसी स्नान के अवसर पर यात्रियों की सेवा करने प्रयाग आये थे । वही हमें यह लड़की नाली में पड़ी रोती मिली। बहुत खोज की; पर उसके माँ-बाप का पता न लगा। विवश होकर उसे साथ ले लेते गये। चार-पांच वर्ष तक तो उसे अनाथालय में रखा; लेकिन जब कार्यकर्ताओं की फूट के कारण अनाथालय बंद हो गया, तो अपने ही घर में उसका पालन पोषण करने लगा। जन्म से न हो, पर संस्कारों से वह हमारी लड़की है। उसके कुलीन होने में भी संदेह नहीं। मैंने आपसे सारा वृत्तांत कह दिया। अब आपको अख्तियार है, उसे अपनायें या त्यागें। हाँ इतना कह सकता हूँ कि ऐसा रत्न आप फिर ना पायेंगे। मैं जानता हूँ कि आपके पिताजी को यह बात असह्य होगी, पर यह भी जानता हूँ कि वीरत्माये सत्कार्य विरोध की परवाह नहीं करती और अंत में उस पर विजय ही पाती है।

चक्रधर गहरे विचार में पड़ गये। एक तरफ अहिल्या का अनुपम सौंदर्य और उज्ज्वल चरित्र था, दूसरी ओर माता-पिता का विरोध और लोक निंदा का भय,  मन में तर्कसंग्रह होने लगा।

यशोदा नंदन ने उन्हें असमंजस में पड़े देख कर कहा  – “आप चिंतित दिख पड़ते हैं और चिंता की बात भी है; लेकिन जब आप जैसे शिक्षित और उदार पुरुष विरोध और भय के कारण कर्तव्य से मुँह मोड़ें, तो हमारा उद्धार हो चुका। आपके सामाजिक विचारों की स्वतंत्रता पर परिचय पाकर ही मैंने आपके ऊपर इस बालिका के उद्धार का भार रखा है और यदि आपने भी अपने कर्तव्य को ना समझा, तो मैं नहीं कह सकता, उस अबला की क्या दशा होगी।”

चक्रधर रूप लावण्य की ओर से तो आँखें बंद कर सकते थे, लेकिन उद्धार के भाव को दबाना उनके लिए असंभव था। वह स्वतंत्रता के उपासक थे और निर्भीकता स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है। दृढ़ भाव से बोले – “मेरी ओर से आप जरा शंका ना करें। मैं इतना भी भीरू नहीं हूँ कि ऐसे कामों में समाज निंदा से डरूं। माता पिता को प्रसन्न रखना मेरा धर्म है; लेकिन कर्तव्य और न्याय की हत्या करके नहीं। कर्तव्य के सामने माता-पिता की इच्छा का मूल्य नहीं है।”

यशोदा नंदन ने चक्रधर को गले लगाते हुए कहा – “भैया तुमसे ऐसी ही आशा थी।”

गाड़ी आगरे पहुँची, तो दिन निकल आया था। मुंशी यशोदा नंदन अभी कुलियों को पुकार ही रहे थे कि उनकी निगाह पुलिस के सिपाहियों पर पड़ी। चारों तरफ पहरा था। उन्होंने थानेदार से पूछा – “क्यों साहब, आ जा सखती क्यों है?”

थानेदार – “आप लोगों ने जो काटे वह हैं, उन्हीं का फल है। शहर में फसाद हो गया है।”

इतने में समिति का एक सेवक दौड़ता हुआ आ पहुँचा। यशोदा नंदन आगे बढ़कर पूछा – “क्यों राधामोहन यह क्या मामला हो गया।”

राधा – “जिस दिन आप गए उसी दिन पंजाब से मौलवी दीन मोहम्मद साहब का आगमन हुआ। तभी तो मुसलमानों को कुर्बानी की धुन सवार है। इधर हिंदुओं की भी ज़िद है कि चाहे खून कर नदी बह जाये, पर कुर्बानी ना होने पायेगी। दोनों तरफ से तैयारियाँ हो रही है। हम लोग तो समझा कर हार गये।”

यशोदा नंदन ने पूछा – “ख्वाज़ा महमूद कुछ ना बोले।”

राधा – “उन्हीं के द्वार पर तो कुर्बानी होने जा रही है।”

यशोदा – “ख्वाजा महमूद के द्वार पर कुर्बानी होगी। इसके पहले या तो मेरी कुर्बानी हो जायेगी या ख्वाज़ा महमूद की। तांगे वाले को बुलाओ।”

राधा – “बहुत अच्छा होगी आप इस समय यहीं ठहर जाएं।”

यशोदा – “वाह वाह! शहर में आग लगी हुई है और तुम कहती हो कि मैं यही रह जाऊं। जो औरों पर बीतेगी, वही मुझ पर बीतेगी, इससे क्या भागना? तुम लोगों ने बड़ी भूल थी कि मुझे पहले से सूचना न दी।”

तीनों आदमी तांगे पर बैठ कर चले। सड़कों पर जवान चक्कर लगा रहे थे। मुसाफिरों की छड़ियाँ छीन ली जाती थी। दो-चार आदमी भी साथ में खड़े न होने पाते थे। दुकानें सब बंद थी, कुंजड़े भी शांत बेचते नजर ना आते थे। हाँ, गलियों में लोग जमा होकर बातें कर रहे थे।”

कुछ दूर तक तीनों आदमी मौन धारण किए बैठे रहे। चक्रधर शंकित होकर इधर-उधर ताक रहे थे। लेकिन यशोदा नंदन के मुख पर ग्लानि का गहरा चिन्ह दिखाई दे रहा था।

जब तांगा ख्वाज़ा महमूद के मकान के सामने पहुँचा, तो हजारे आदमियों का जमाव था। यद्यपि किसी के हाथ में लाठी डंडे ना थे; पर उनके मुँह ज़िहाद के जोश में तमतमाये हुये थे। यशोदा नंदन को देखते ही कई आदमी उनकी तरफ लपके; लेकिन जब उन्होंने जोर से कहा – “मैं तुम से लड़ने नहीं आया हूँ। कहाँ है ख्वाज़ा महमूद? मुमकिन हो तो जरा उन्हें बुला लो।” तो लोग हट गये।

जरा देर में एक लंबा सा आदमी गाढ़े की अचकन पहने आकर खड़ा हो गया। यही ख्वाज़ा महमूद थे।

यशोदा नंदन ने त्योरियाँ बदलकर कहा – “क्यों ख्वाज़ा साहब! आपको याद है इस मोहल्ला में कभी कुर्बानी हुई है?”

महमूद – “जी नहीं! जहाँ तक मेरा ख़याल है, यहाँ कभी कुर्बानी नहीं हुई।”

यशोदा – “तो फिर आप यहाँ कुर्बानी करने की नई रस्म क्यों निकाल रहे हैं?”

महमूद – “इसलिए कि कुर्बानी करना हमारा हक है। अब तक हम आपके जज़्बात का ध्यान करते थे, अपने माने हुए हक को भूल गये थे। लेकिन जब आप लोग अपने हकों के सामने हमारे जज़्बात की परवाह नहीं करते, तो कोई वजह नहीं कि हम अपने हकों के सामने आपके जज़्बात की परवाह करें।”

यशोदा – “इसके माने है कि कल आप हमारे द्वारे पर हमारे मंदिरों के सामने कुर्बानी करें और हम चुपचाप देखा करें? आप यहाँ हर्गिज़ कुर्बानी नहीं कर सकते और करेंगे तो इसकी जिम्मेदारी आपके सिर होगी।”

यह कहकर यशोदा नंदन फिर तांगे पर बैठे। दस-पाँच आदमियों ने तांगे को रोकना चाहा; पर कोचवान ने घोड़ा तेज कर दिया। जब तांगा यशोदा नंदन के द्वार पर पहुंचा, तो वहाँ हजारों आदमी खड़े थे। उन्हें देखते ही चारों तरफ हलचल मच गई। लोगों ने चारों तरफ से घेर लिया।

यशोदा नंदन टांगे से उतर पड़े और ललकार कर बोले – “भाइयों आप जानते हैं, इस मोहल्ले में आज तक कभी कुर्बानी नहीं हुई। अगर आज हम यहाँ कुर्बानी करने देंगे, तो कौन कह सकता है कि कल को हमारे मंदिर के सामने गौ हत्या ना होगी।”

कोई आवाज से एक साथ आई – “हम मर मिटेंगे, पर यहाँ कुर्बानी ना होने देंगे।”

आदमियों को उत्तेजित करके यशोदा नंदन आगे बढ़े और जनता ‘महावीर ‘ और ‘श्री रामचंद्र की जय’ ध्वनि से वायुमंडल को कंपायमान करती हुई उनके पीछे चली। उधर मुसलमानों ने भी डंडे संभाले। करीब था कि दोनों में मुठभेड़ हो जाये कि एकाएक चक्रधर आगे बढ़कर यशोदा नंदन के सामने खड़े हो गये और विनीत किंतु दृढ़ भाव से बोले – “आप अगर उधर जाते हैं, तो मेरी छाती पर पांव रखकर जाइये। मेरे देख ते यह अनर्थ ना होने पायेगा।”

यशोदा नंदन ने चिढ़कर कहा  – “हट जाओ! अगर क्षण भी देर हुई, तो फिर पछताने के सिवा और कुछ हाथ ना आयेगा।”

चक्रधर – “मित्रों जरा विचार से काम लो।”

कई आवाजें – “विचार से काम लेना कायरों का काम है।”

चक्रधर – “तो फिर जाइये; लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको अपने एक भाई का खून करना पड़ेगा।”

सहसा एक पत्थर किसी तरफ से आ कर चंद्रधर के सिर पर लगा। खून की धारा बह निकली, लेकिन चक्रधर अपनी जगह से हिले नहीं। सिर थामकर बोले – “अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शांत होती है, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है।”

यशोदा नंदन गरज कर बोले – “यह कौन पत्थर फेंक रहा है? अगर वह बड़ा वीर है, तो  क्यों नहीं आगे आकर अपनी वीरता दिखाता। पीछे खड़ा पत्थर क्यों फेंकता है?”

एक आवाज – “धर्म द्रोहियों को मारना अधर्म नहीं है।”

यशोदा नंदन – “जिसे तुम धर्म का द्रोही समझते हो, वह तुमसे कहीं सच्चा हिंदू है।”

एक आवाज – “सच्चे हिंदू वही तो होते हैं, तो मौके पर बगले झांकने लगे और शहर छोड़ कर दो-चार दिन के लिए खिसक जाये।”

यशोदा नंदन – “आप लोग सुन रहे हैं, मैं सच्चा हिंदू नहीं हूँ। मैं मौका पाकर ब गले झांकने लगता हूँ और जान बचाने के लिए शहर से भाग जाता हूँ। ऐसा आदमी आपका मंत्री बनने की योग्य नहीं है। आप उस आदमी को अपना मंत्री बनाये, जिसे आप सच्चा हिंदू समझते हो।”

“यह कहते हुए मुंशी यशोदा नंदन घर की तरफ चले। कई आदमियों ने उन्हें रोकना चाहा, लेकिन उन्होंने एक न मानी। उनके जाते ही यहाँ आपस में तू-तू मैं-मैं होने लगी।

चक्रधर ने जब देखा कि इधर से अब कोई शंका नहीं है, तो वह लपककर मुसलमानों के सामने आ पहुँचे और उच्च स्वर में बोले – “हज़रत मैं अर्ज़ करने की इजाजत चाहता हूँ।”

एक आदमी- ” सुनो सुनो यही तो अभी हिंदुओं के सामने खड़ा था।”

चक्रधर – “अगर इस गाय की कुर्बानी करना आप अपना मज़हबी फ़र्ज़ समझते हो , तो शौक से कीजिये, लेकिन क्या यह लाज़मी है कि इसी जगह कुर्बानी की जाये। इस्लाम में हमेशा दूसरों के जज़्बात का एहतराम किया है। अगर आप हिंदू जज्बात का लिहाज़ करके किसी दूसरी जगह कुर्बानी करें, तो यकीनन इस्लाम के वकार में फ़र्क ना आयेगा।”

एक मौलवी ने जोर देकर कहा – “ऐसी मीठी-मीठी बातें हमें बहुत सुनी है। कुर्बानी यहीं होंगी।”

ख्वाज़ा महमूद बड़े गौर से चक्रधर की बातें सुन रहे थे, मौलवी साहब की उद्दंडता पर चिढ़कर बोले – “क्या शरीयत का हुक्म है कि कुर्बानी यहीं हो? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती?”

मौलवी साहब ने ख्वाज़ा महमूद की तरफ आविश्वास की दृष्टि से देख कर कहा – “मज़हब के मामले में उलमा के सिवा और किसी को दखल देने का मजाज नहीं है।”

ख्वाज़ा – “बुरा ना मानियेगा, मौलवी साहब! अगर दस सिपाही यहाँ आकर खड़े हो जायें, तो बगले झांकने लगियेगा।”

मौलवी – “भाइयों आप लोग ख्वाज़ा साहब की ज्यादती देख रहे हैं। आप ही फैसला कीजिये कि दोनों मामलात में उलमा का फैसला वाजिब है या उमरा का।”

एक मोटे ताजे, दढियल आदमी ने कहा – “आप बिस्मिल्लाह कीजिये। उमरा को दीन से कोई सरोकार नहीं।”

यह सुनते ही एक आदमी बड़ा सा छुरा लेकर निकल पड़ा और कई आदमी गाय के सींग पकड़ने लगे। गाय अब तक तो चुपचाप खड़ी थी, छुरा देखकर छटपटाने लगी। चक्रधर यह दृश्य देखकर तिलमिला उठे। उन्होंने तेजी से लपककर गाय की गर्दन पकड़ ली और बोले – “आज इस गौ के साथ एक इंसान की भी कुर्बानी करनी पड़ेगी।”

सभी आदमी चकित हो-होकर चक्रधर की ओर देखने लगे। मौलवी ने क्रोधित होकर कहा – “कलाम पाक की कसम हट जाओ। वरना गज़ब हो जायेगा।”

चक्रधर – “हो जाने दीजिये। ख़ुदा की यही मर्ज़ी है कि आज गाय के साथ मेरी भी कुर्बानी हो।”

ख्वाज़ा – “कसम ख़ुदा की, तुम जैसा दिलेर आदमी नहीं देखा। तुम कलमा क्यों नहीं पढ़ लेते?”

चक्रधर – “मैं एक ख़ुदा का कायल हूँ। वही सारे ज़हान का खालिक और मालिक है। फिर और किस पर ईमान लाऊं।”

ख्वाज़ा – “वल्लाह, तब तो तुम सच्चे मुसलमान हो। हमारे साथ खाने पीने से परहेज़ तो नहीं करते?”

चक्रधर – “ज़रूर करता हूँ, उसी तरह जैसे किसी ब्राह्मण के साथ खाने से परहेज करता हूँ, अगर वह पाक साफ ना हो।”

ख्वाज़ा – “काश तुम जैसा समझदार तुम्हारे और भाई भी होते। मगर यहाँ तो लोग हमें मलिच्छ कहते हैं। यहाँ तक कि हमें कुत्तों से भी नजिस समझते हैं। वल्लाह, आप से मिलकर दिल खुश हो गया। अब कुछ कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कामों में इत्तेफाक हो जाये। मैं आपको यकीन दिलाता हूँकि कुर्बानी ना होगी।”

ख्वाज़ा महमूद ने चक्रधर को गले लगाकर रुखसत किया। इधर उसी वक्त गाय की पगहिया खोल दी गई। वह जान लेकर भागी और लोग भी इस नौजवान की हिम्मत और जवां मर्दी की तारीफ करते हुए चले।

चक्रधर को आते देख यशोदा नंदन अपने कमरे से निकल आये और उन्हें छाती से लगाते हुए बोले – “भैया आज तुम्हारा धैर्य और साहस देखकर मैं दंग रह गया। तुम्हें देख कर मुझे अपने ऊपर लज्जा आ रही है। तुमने आज हमारी लाज रख ली।”

उन्हें कमरे में बिठाकर यशोदा नंदन घर में जाकर अपनी स्त्री वागीश्वरी से कहा – “आज मेरे एक दोस्त की दावत करनी होगी। भोजन खूब दिल लगाकर बनाना। अहिल्या, आज तुम्हारी पाक परीक्षा होगी।”

अहिल्या – “कौन आदमी था दादा, जिसने मुसलमानों के हाथों गौ रक्षा की?”

यशोदा – “वही तो मेरे दोस्त हैं, जिनकी दावत करने को कह रहा हूँ। यहाँ सैर करने आये हैं।”

अहिल्या (वागीश्वरी से) – “अम्मा जरा उन्हें अंदर बुला लेना, तो दर्शन करेंगे।”

पड़ोस में डॉक्टर रहते थे। यशोदा नंदन ने उन्हें बुलाकर घाव पर पट्टी बंधवा दी। धीरे-धीरे सारा मोहल्ला जमा हो गया। कई श्रद्धालु जनों ने तो चक्रधर के चरण छुए।

भोजन के बाद ज्यों ही लोग चौके से उठे, अहिल्या ने कमरे की सफाई की। इन कामों से फ़ुर्सत पाकर वह एकांत में बैठकर फूलों की माला गूंथने लगी। मन में सोचती थी, ना जाने कौन है, स्वभाव कितना सरल है? लजाने में तो औरतों से भी बड़े हुए हैं। खाना खा चुके, पर सिर न उठाया। देखने में ब्राह्मण मालूम होते हैं। चेहरा देखकर तो कोई नहीं कह सकता कि इतने साहसी होंगे।

सहसा वागीश्वरी ने आकर कहा – “बेटी दोनों आदमी आ रहे हैं। साड़ी तो बदल लो।“

अहिल्या “उंह” करके रह गई। उसकी छाती में धड़कन होने लगी। एक क्षण में यशोदा नंदन जी चक्रधर को लिए हुए कमरे में आये। वागीश्वरी और अहिल्या दोनों खड़ी हो गई। यशोदा नंदन ने चक्रधर को कालीन पर बैठा दिया और खुद बाहर चले गए। वागीश्वरी पंखा झलने लगी। लेकिन अहिल्या मूर्ति की भांति खड़ी रही।

चक्रवर्ती की निगाहों से अहिल्या को देखा। ऐसा मालूम हुआ मानो कोमल, स्निग्ध, सुगंमय प्रकाश की लहर सी आँखों में समा गई।

वागीश्वरी ने मिठाई की तशतरी सामने रखते हुए कहा – “कुछ जलपान कर लो भैया! तुम्हें कुछ खाना भी तो नहीं खाया। तुम जैसे वीरों को सवा सेर से कम ना खाना चाहिए। धन्य है वह माता, जिसने ऐसे बालक को जन्म दिया। अहिल्या, जरा गिलास में पानी तो ला। भैया, जब तुम मुसलमानों के सामने अकेले खड़े थे, तो यह ईश्वर से तुम्हारी कुशल मना रही थी। जाने कितनी मनोतियाँ कर डाली। कहाँ है वह माला जो तूने गूंथी थी? अब पहनाती क्यों नहीं!”

अहिल्या ने लजाते हुए कांपते हाथों से माला चक्रधर के गले में डाल दी और आहिस्ता से बोली – “क्या सिर  में ज्यादा चोट आई?”

चक्रधर – “नहीं तो! बाबूजी ने ख्वामखाह पट्टी बंधवा दी।”

चक्रधर मिठाइयाँ खाने लगे। इतने में महरी ने आकर कहा – “बड़ी बहू जी! मेरे लाला को रात से खांसी आ रही है। कोई दवाई दे दो।”

वागीश्वरी दवा देने चली गई। अहिल्या अकेली रह गई, तो चक्रधर ने उसकी ओर देखकर कहा – “आपको मेरे कारण बड़ा कष्ट हुआ। मैं तो इस उपहार के योग्य ना था।”

अहिल्या – “यह उपहार नहीं , भक्त की भेंट है।”

वागीश्वरी ने आकर मुस्कुराते हुए कहा – “भैया तुमने तो आधी मिठाईयाँ भी नहीं खाई। क्या इसे देखकर भूख प्यास बंद हो गई। यह मोहिनी है, जरा इसे सचेत रहना।”

अहिल्या – “अम्मा तुम छोटे बड़े किसी का लिहाज नहीं करती।”

चक्रधर वहाँ कोई घंटे भर तक बैठे रहे। वागीश्वरी ने उनके घर का सारा वृतांत पूछा – “कै भाई हैं, कै बहिनें, पिताजी क्या करते हैं, बहनों का विवाह हुआ या नहीं?”

चक्रधर को उनके व्यवहार में इतना मातृस्नेह भरा मालूम होता था, मानो से पुराना परिचय है। चार बजते-बजते ख्वाज़ा महमूद के आने की खबर पाकर चक्रधर बाहर चले आये। और भी कितने ही आदमी मिलने आये थे। शाम तक उन लोगों से बातें होती रही। निश्चय हुआ कि एक पंचायत बनाई जाये और आपस के झगड़े उसी के द्वारा तय हुआ करें। चक्रधर को भी लोगों ने उस पंचायत का एक मेंबर बनाया। रात को जब अहिल्या और वागीश्वरी छत पर लेटी, तो वागीश्वरी ने पूछा – “अहिल्या सो गई क्या?”

अहिल्या – “नहीं अम्मा जाग तो रही हूँ।”

वागीश्वरी – “हाँ आज तुझे क्यों नींद आयेगी? इनसे ब्याह करेगी? तुम्हारे बापूजी तुमसे मिलाने ही के लिए इन्हें काशी से लाये हैं। इनके पास और कुछ हो या ना हो हृदय अवश्य है। ऐसा हृदय, जो बहुत कम लोगों के हिस्से में आता है। ऐसा स्वामी पाकर तुम्हारा जीवन सफल हो जायेगा।”

अहिल्या ने डबडबाई हुई आँखों से वागीश्वरी को देखा, पर मुँह से कुछ ना बोली। कृतज्ञता शब्दों में आकर शिष्टाचार का रूप धारण कर लेती है। उसका मौलिक रूप वही है, जो आँखों से बाहर निकलते हुए कांपता और लजाता है।

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