Chapter 4 Manorama Novel By Munshi Premchand
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मुंशी वज्रधर रेल के मुसाफिरों में थे जो पहले तो गाड़ी में खड़े होने की जगह मांगते हैं, फिर बैठने की फिक्र करने लगते हैं और अंत में सोने की तैयारी कर देते हैं। चक्रधर एक बड़ी रियासत के दीवान की लड़की को पढ़ाये और वह इस स्वर्ण संयोग से लाभ ना उठायें! यह क्यों कर हो सकता था? दीवान साहब को सलाम करने आने जाने लगे। बातें करने में तो निपुण थे ही, दो ही चार मुलाकातों में उनका सिक्का जम गया। इस परिचय ने शीघ्र ही मित्रता का रूप धारण किया। एक दिन दीवान साहब के साथ में रानी जगदीशपुर के दरबार में जा पहुँचे और ऐसी लच्छेदार बातें की, अपने तहसीलदारी की ऐसी जीट उड़ाई कि रानी मुग्ध हो गई। सोचा इस आदमी को रख लूं तो इलाके की आमदनी बढ़ जाये। ठाकुर साहब से सलाह की। यहाँ तो पहले ही से सारी बातें सदी बधी थी। ठाकुर साहब ने रंग और चोखा कर दिया। दूसरी ही सलामी में मुंशी जी को पच्चीस रूपये मासिक की तहसील दारी मिल गई। मुँह मांगी मुराद पूरी हुई। सवारी के लिए घोड़ा भी मिल गया। सोने में सुहागा हो गया।
अब मुंशी जी की पाँचों अंगुली घी में थी। जहाँ महीने में एक बार भी महफिल न जमने पाती थीं, वहाँ अब भी तीसों दिन जमघट होने लगा। इतने बड़े अहलकार के लिए शराब की क्या कमी? कभी इलाके पर चुपके से दस बीस बोतलें खिंचला लेते, कभी शहर के किसी कलवार पर दो चार जमा कर दो चार बोतल ऐंठ लेते। बिना हर फिटकरी रंग चोखा हो जाता था। एक कहार नौकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो चार कुर्सियाँ उठवा लाये। उनके हौसले बहुत ऊँचे ना थे, केवल एक भले आदमी की भांति जीवन व्यतीत करना चाहते थे। इस नौकरी ने उनके हौसले को बहुत कुछ पूरा कर दिया; लेकिन यह जानते थे किस नौकरी का कोई ठिकाना नहीं। रईसों का मिजाज एक सा नहीं रहता। मान लिया रानी साहिबा के साथ निभ ही गई, तो कै दिन। राजा साहब आते ही पुराने नौकरी को निकाल बाहर करेंगे। जब दीवान साहब ही ना रहेंगे तो मेरी क्या हस्ती! इसलिए उन्होंने पहले ही से नए राजा साहब के यहाँ आना जाना शुरू कर दिया था। इनका नाम ठाकुर विशाल सिंह था। रानी साहिबा के चचेरे देवर होते थे। उनके दादा दो भाई थे। बड़े भाई रियासत के मालिक थे। उन्हीं के वंशजों ने दो पीढ़ियों तक राज्य का आनंद भोगा था। अब रानी के नि:संतान होने के कारण विशाल सिंह के भाग्य उदय हुए थे। दो चार गाँव, जो उनके दादा को गुजारे के लिए मिले थे, उन्हीं का रेहन-बय करके इन लोगों ने पचास वर्ष काट दिए थे, यहाँ तक कि विशाल सिंह के पास इतनी भी संपत्ति ना थी कि गुजर-बसर के लिए काफ़ी होती है। उस पर कुल मर्यादा का पालन करना आवश्यक था। महारानी के पट्टी दार थे और इस हैसियत निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर चाकर घोड़ा गाड़ी सभी कुछ रखना पड़ता था। अभी तक परंपरा की नकल होती चली आती थी। दशहरे के दिन उत्सव जरूर मनाया जाता, जन्माष्टमी के दिन जरूर धूमधाम होती।
प्रातः काल था। माघ की ठंड पड़ रही थी। मुंशी जी ने गर्म पानी से स्नान किया, कपड़े पहने। बाहर घोड़ा तैयार था। उस पर बैठे और शिवपुर चले।
जबर ठाकुर साहब के मकान पर पहुँचे, तो ठाकुर साहब धूप में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे।
मुंशी जी ने मोढ़े पर बैठे हुए कहा – “सब कुशल आनंद है ना?”
ठाकुर – “जी हाँ! ईश्वर की दया है। कहिए दरबार के क्या समाचार है?”
मुंशी जी ने मुस्कुरा कर कहा – “सब वही पुरानी बातें हैं। डॉक्टरों पौ बाहर हैं।रोज जगदीशपुर से सोलह कहार पालकी उठाने के लिए बेगार पकड़ कर लाते हैं। वैद्य जी को लाना ले जाना उनका काम है।”
ठाकुर – “अंधेरे और कुछ नहीं? यह महा-अन्याय है, बेचारी प्रजा तबाह हुई जाती है।आप देखेंगे कि मैं इस प्रथा को क्यों कर जड़ से उठा देता हूँ।”
मुंशी – “आप से लोगों को बड़ी बड़ी आशाएं हैं। चमारों पर भी यही आफत है। दस-बारह चमार रोज साइसी करने के लिए पकड़ बुलाए जाते हैं। सुना है, इलाके भर के चमारों ने पंचायत की है कि जो साईसी करें उसका हुक्का पानी बंद कर दिया जाए। अब या तो चमारों को इलाका छोड़ना पड़ेगा या दीवान साहब को साइस नौकर रखने पड़ेंगे।”
ठाकुर – “चमारों को इलाके से निकालना दिल्लगी नहीं है। यह लोग समझते हैं कि अभी वही दुनिया है जो बाबा आदम के जमाने में थी। इस देश में ना जाने कब यह प्रथा मिटेगी। मैं रियासत कायापलट कर दूंगा। सुल्तानपुरी आये दिन इलाके में तूफान मचाती रहती है। मैं पुलिस को वहां कदम रखने दूंगा।”
मुंशी – “सड़कें इतनी खराब हो गई है कि इक्के गाड़ी का गुजर ही नहीं हो सकता।”
ठाकुर – ‘सड़कों को दुरुस्त करना मेरा पहला काम होगा। मोटर सर्विस जारी कर दूंगा। जिसमें मुसाफिरों को स्टेशन से जगदीशपुर जाने में सुविधा हो। इलाके में लाखों बीघे ईख बोई जाती है। मेरा इरादा है कि एक शक्कर की मिल खोल दूं। शेखी नहीं मारता, इलाके में एक बार रामराज्य स्थापित कर दूंगा। आपने किसी महाजन को ठीक किया?”
मुंशी – “हाँ कई आदमी से मिला था और वे बड़ी खुशी से रुपए देने के लिए तैयार है, केवल यही चाहते हैं कि जमानत के तौर पर कोई गांव लिख दिया जाये।”
ठाकुर – “तो जाने दीजिये। अगर कोई मेरे विश्वास तो रुपए दे, तो दे। लेकिन रियासत की इंच भर भी जमीन रेहन नहीं कर सकता। मुझे पहले ही मालूम था कि इस शर्त पर कोई महाजन रुपए देने पर राजी ना होगा। यह बला के चघड़ होते हैं। मुझे तो इनके नाम से चिढ़ है। मेरा बस चले, तो आज इन सबों को तोप पर उड़ा दूं। इन्हीं के हाथों आज मेरी यह दुर्गति है। इन नर पिशाचों ने सारा रक्त चूस लिया। पिताजी ने केवल पाँच हजार लिए थे, जिनके पचास हजार हो गए और मेरे तीन गांव, जो इस वक्त दो लाख के सस्ते थे, नीलाम हो गए।पिताजी का मुझे यह अंतिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना । इसी शोक में उन्होंने देह त्याग दी।”
यहाँ अब यह बातें हो ही रही थी कि जनान खाने में से कलह शब्द आने लगे। मालूम होता था कई स्त्रियों में संग्राम छिड़ा हुआ है। ठाकुर साहब यह कर्कश शब्द सुनते ही विकल हो गये, उनके माथे पर बल पड़ गये। मुख तेज हीन हो गया। यही उनके जीवन की सबसे दारुण व्यथा थी। यही कांटा था, जो नित्य उनके हृदय में खटका करता था। उनकी बड़ी स्त्री का नाम वसुमति था। वह अत्यंत गर्वशीला थी; नाक पर मक्खी भी न बैठने देती।वह अपनी सहपत्नियों पर उसी तरह शासन करना चाहती थी, जैसे कोई सास अपनी बहुओं पर करती है।
दूसरी स्त्री का नाम राम प्रिया था। वह रानी जगदीशपुर की रानी की सगी बहन थी। दया और विनय की मूर्ति, बड़ी विचारशील और वाक्य मधुर; जितना कोमल अंग था उतना ही कोमल हृदय भी था। घर में इस तरह रहती थी, मानो थी ही नहीं। उन्हें पुस्तकों से विशेष रूचि थी, हरदम कुछ ना कुछ पढ़ा लिखा करती थीं। सबसे अलग विलग रहती थीं; ना किसी के लेने में, ना देने में, ना किसी से बैर ना फ्रेम।
तीसरे स्त्री का नाम रोहिणी था।ठाकुर साहब उनके प्रति पर विशेष प्रेम था और वह भी प्राणपय से उनकी सेवा करती थी। हमें प्रेम की मात्रा अधिक थी या माया की, इसका निर्णय करना कठिन था। उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहब अपनी सौतों से बातचीत भी करें। वसुमति कर्कशा होने पर भी मलिन हृदय न थी; जो कुछ मन में होता, वही मुख में। रोहिणी द्वेष को पालती थी, जैसे चिड़िया अपने अंडे को सेती है।
ठाकुर साहब ने अंदर जाकर वसुमति से कहा – “तुम घर में रहने दोगी या नहीं। जरा भी शर्म लिहाज नहीं । जब देखो संग्राम छिड़ा रहता है। सुनते सुनते कलेजे में नासूर पड़ गए।”
वसुमति – “कर्म तो तुमने किए हैं। भोगेगा कौन?”
ठाकुर – “तो जहर दे दो। जला-जला कर मारने से क्या फायदा?”
वसुमति – “क्या वह महारानी लड़ने के लिए कम थी कि तुम उसका पक्ष लेकर आ दौड़े?”
रोहिणी – “आप चाहती हैं कि मैं कान पकड़कर उठाऊं या बैठाऊं, तो यहाँ कुछ आपके गाँव में नहीं बसी हूँ।”
ठाकुर – “आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?”
रोहिणी – “वही हुई, जो रोज होती है। मैंने हिरिया से कहा, ज़रा मेरे सिर में तेल डाल दे। मालकिन ने उसे तेल डालते हुए देखा, तो आग हो गई म तलवार खींचे हुए आ पहुंची और उसका हाथ पकड़ कर खींच ले गई। आज आप निश्चय कर दीजिए कि हिरिया उन्हीं की लौंडी है या मेरी भी।”
वसुमति – “वह क्या निश्चय करेंगे, निश्चय मैं करूंगी। हिरिया मेरे साथ मेरे नैहर से आई है और मेरी लौंडी है। किसी दूसरे का उस पर कोई दवा नहीं है।”
रोहिणी – “सुना आपने हिरिया पर किसी का दावा नहीं है । वह अकेली उन्हीं की लौंडी है।”
ठाकुर – “हिरिया इस घर में रहेगी, तो उसे सबका काम करना पड़ेगा।”
वसुमति वह सुनकर जल उठी। नागिन की भांति फुफकार कर बोली – “इस वक्त तो आप ने चहेती रानी की ऐसी डिग्री कर दी, मानो यह उसी का राज्य है। ऐसे ही न्याय शेर होते, तो संतान का मुँह देखने को ना तरसते।”
ठाकुर साहब को यह शब्द बाण से लगे। कुछ जवाब ना दिया। बाहर आकर कई मिनट तक मर्माहत दशा में बैठे रहे। वसुमति इतनी मुँहफट है, यह उन्हें आज मालूम हुआ। ताना ही देना था, तो और कोई लगती हुई बात कह देती। या तो कठोर से कठोर आघात है जो वह कर सकती थी। ऐसी स्त्री का मुँह ना देखना चाहिए।
सहसा उन्हें एक बात सूझी। मुंशी जी से बोले – “यदि आप यहाँ के किसी विद्वान ज्योतिषी से परिचित हो, तो कृपा करके उन्हें मेरे यहां भेज दीजिएगा। मुझे एक विषय में उनसे कुछ पूछना है।”
मुंशी – “आज ही लीजिए यहाँ एक से बढ़कर एक ज्योतिषी पड़े हुए हैं। आप मुझे कोई गैर ना समझिये। जब जिस काम की इच्छा हो, मुझे कहला भेजिये। सिर के बल दौड़ा आऊंगा। मैं तो जैसे महारानी को समझता हूँ, वैसे ही आपको भी समझता हूँ।”
ठाकुर – “मुझे आपसे ऐसी ही आशा है। जरा रानी साहिबा का कुशल समाचार जल्दी-जल्दी भेजियेगा। वहाँ आपके सिवा मेरा कोई नहीं है। आपके ऊपर मेरा भरोसा है। जरा देखियेगा, कोई चीज इधर उधर ना होने पाये। यार लोग नोच-खसोट ना शुरू कर दें।”
मुंशी – “आप इससे निश्चिंत रहें। मैं देखभाल करता रहूंगा।”
ठाकुर – “हो सके, तो जरा यह भी पता लगाइएगा कि रानी ने कहाँ-कहाँ से कितने रुपए खर्च किये हैं।”
मुंशी – “समझ गया! यह तो सहज ही में मालूम हो सकता है।”
ठाकुर – “जरा इसका भी तो पता लगाइएगा कि आजकल उनका भोजन कौन बनाता है?”
वज्रधर ने ठाकुर साहब के मन का भाव ताड़कर दृढ़ता से कहा – “महाराज! क्षमा कीजियेगा! मैं आपका सेवक हूँ, पर रानी जी का भी सेवक हूँ। उनका शत्रु नहीं हूँ। आप और वह दोनों सिंह और सिंहनी की भांति लड़ सकते हैं। मैं गीदड़ की भांति अपने स्वार्थ के लिए बीच में कूदना अपमानजनक समझता हूँ। मैं वहाँ तक तो सहर्ष आपकी सेवा कर सकता हूँ, जहाँ तक रानी जी अहित न हो। मैं तो दोनों ही द्वारों का भिक्षुक हूँ।”
ठाकुर साहब दिल में शर्माये, पर इसके साथ मुंशी जी पर उनका विश्वास और भी दृढ़ हो गया। बात बनाते हुए बोले, “नहीं नहीं! मेरा मतलब आपने गलत समझा। छी छी मैं इतना नीच नहीं।”
ठाकुर साहब से बात तो बनाई, पर उन्हें ज्ञात हो गया कि बात बनी नहीं। अपनी झेंप को मिटाने को वह समाचार पत्र देखने लगे।
इतने में ही रिया ने आकर मुंशी जी से कहा – “बाबा मालकिन ने कहा है कि आप जाने लगे तो मुझसे मिल लीजियेगा।”
ठाकुर साहब ने गरजकर कहा – “ऐसी क्या बात है, जिसको कहने की इतनी जल्दी है। इन बेचारों को देर हो रही है। कुछ निठल्ले थोड़े ही है कि बैठे-बैठे औरतों का रोना सुना करें। जा अंदर बैठ!”
यह कहकर ठाकुर साहब उठ खड़े हुये, मानो मुंशी जी को विदा कर रहे हैं। वह वसुमति को उनसे बातें करने का अवसर न देना चाहते थे। मुंशी जी को भी अब विवश होकर विदा मांगनी पड़ी।
मुंशी जी यहां से चले, तो उनके मन में यह शंका समाई हुई थी कि ठाकुर साहब कहीं मुझसे नाराज तो नहीं हो गये। हाँ इतना संतोष था कि मैंने कोई बुरा काम नहीं किया। इस विचार से मुंशी जी और अकड़ तक घोड़े पर बैठ गए। वह इतने खुश थे, मानो हवा में उड़ रहे हो। उनकी आत्मा कभी इतनी गौरवान्वित ना हुई थी। चिंताओं को कभी उन्होंने इतना तुच्छ न समझा था।
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