Chapter 32 Gaban Novel By Munshi Premchand
Table of Contents
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रमानाथ की चाय की दुकान खुल तो गई, पर केवल रात को खुलती थी। दिन-भर बंद रहती थी। रात को भी अधिकतर देवीदीन ही दुकान पर बैठता,पर बिक्री अच्छी हो जाती थी। पहले ही दिन तीन रूपये के पैसे आए, दूसरे दिन से चार-पाँच रूपये का औसत पड़ने लगा। चाय इतनी स्वादिष्ट होती थी कि जो एक बार यहाँ चाय पी लेता फिर दूसरी दुकान पर न जाता। रमा ने मनोरंजन की भी कुछ सामग्री जमा कर दी। कुछ रूपये जमा हो गए, तो उसने एक सुंदर मेज़ ली। चिराग़ जलने के बाद साग-भाजी की बिक्री ज्यादा न होती थी। वह उन टोकरों को उठाकर अंदर रख देता और बरामदे में वह मेज़ लगा देता। उस पर ताश के सेट रख देता। दो दैनिक-पत्र भी मंगाने लगा। दुकान चल निकली। उन्हीं तीन-चार घंटों में छः-सात रूपये आ जाते थे और सब ख़र्च निकालकर तीन-चार रूपये बच रहते थे।
इन चार महीनों की तपस्या ने रमा की भोग-लालसा को और भी प्रचंड कर दिया था। जब तक हाथ में रूपये न थे, वह मजबूर था। रूपये आते ही सैर-सपाटे की धुन सवार हो गई। सिनेमा की याद भी आई। रोज़ के व्यवहार की मामूली चीजें, ज़िन्हें अब तक वह टालता आया था, अब अबाध रूप से आने लगीं। देवीदीन के लिए वह एक सुंदर रेशमी चादर लाया। जग्गो के सिर में पीड़ा होती रहती थी। एक दिन सुगंधित तेल की शीशियाँ लाकर उसे दे दीं। दोनों निहाल हो गए। अब बुढिया कभी अपने सिर पर बोझ लाती तो डांटता, ‘काकी, अब तो मैं भी चार पैसे कमाने लगा हूँ, अब तू क्यों जान देती है? अगर फिर कभी तेरे सिर पर टोकरी देखी तो कहे देता हूँ, दुकान उठाकर फेंक दूंगा। फिर मुझे जो सज़ा चाहे दे देना। बुढ़िया बेटे की डांट सुनकर गदगद हो जाती। मंडी से बोझ लाती तो पहले चुपके से देखती, रमा दुकान पर नहीं है। अगर वह बैठा होता, तो किसी द्दली को एक-दो पैसा देकर उसके सिर पर रख देती। वह न होता, तो लपकी हुई आती और जल्दी से बोझ उतारकर शांत बैठ जाती,जिससे रमा भांप न सके।
एक दिन ‘मनोरमा थियेटर’ में राधेश्याम का कोई नया ड्रामा होने वाला था। इस ड्रामे की बड़ी धूम थी। एक दिन पहले से ही लोग अपनी जगहें रक्षित करा रहे थे। रमा को भी अपनी जगह रक्षित करा लेने की धुन सवार हुई। सोचा, कहीं रात को टिकट न मिला, तो टापते रह जायेंगे। तमाशे की बड़ी तारीफ है। उस वक्त एक के दो देने पर भी जगह न मिलेगी। इसी उत्सुकता ने पुलिस के भय को भी पीछे डाल दिया। ऐसी आफत नहीं आई है कि घर से निकलते ही पुलिस पकड़ लेगी। दिन को न सही, रात को तो निकलता ही हूँ। पुलिस चाहती, तो क्या रात को न पकड़ लेती। फिर मेरा वह हुलिया भी नहीं रहा। पगड़ी चेहरा बदल देने के लिए काफी है। यों मन को समझाकर वह दस बजे घर से निकला। देवीदीन कहीं गया हुआ था। बुढ़िया ने पूछा,कहाँ जाते हो, बेटा- रमा ने कहा, ‘कहीं नहीं काकी, अभी आता हूँ।’
रमा सड़क पर आया, तो उसका साहस हिम की भांति पिघलने लगा। उसे पग-पग पर शंका होती थी, कोई कांस्टेबल न आ रहा हो उसे विश्वास था कि पुलिस का एक-एक चौकीदार भी उसका हुलिया पहचानता है और उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही पहचान लेगा। इसलिए वह नीचे सिर झुकाए चल रहा था। सहसा उसे ख़याल आया, गुप्त पुलिस वाले सादे कपड़े पहने इधर-उधर घूमा करते हैं। कौन जाने, जो आदमी मेरे बग़ल में आ रहा है, कोई जासूस ही हो मेरी ओर ध्यान से देख रहा है। यों सिर झुकाकर चलने से ही तो नहीं उसे संदेह हो रहा है। यहाँ और सभी सामने ताक रहे हैं। कोई यों सिर झुकाकर नहीं चल रहा है। मोटरों की इस रेल-पेल में सिर झुकाकर चलना मौत को नेवता देना है। पार्क में कोई इस तरह चहलकदमी करे, तो कर सकता है। यहाँ तो सामने देखना चाहिए। लेकिन बग़ल वाला आदमी अभी तक मेरी ही तरफ ताक रहा है। है शायद कोई खुफिया हो। उसका साथ छोड़ने के लिए वह एक तंबोली की दुकान पर पान खाने लगा। वह आदमी आगे निकल गया। रमा ने आराम की लंबी सांस ली।
अब उसने सिर उठा लिया और दिल मज़बूत करके चलने लगा। इस वक्त ट्राम का भी कहीं पता न था, नहीं उसी पर बैठ लेता। थोड़ी ही दूर चला होगा कि तीन कांस्टेबल आते दिखाई दिए। रमा ने सड़क छोड़ दी और पटरी पर चलने लगा। ख्वामख्वाह सांप के बिल में उंगली डालना कौन-सी बहादुरी है। दुर्भाग्य की बात, तीनों कांस्टेबलों ने भी सड़क छोड़कर वही पटरी ले ली। मोटरों के आने-जाने से बार-बार इधर-उधर दौड़ना पड़ता था। रमा का कलेजा धक-धक करने लगा। दूसरी पटरी पर जाना तो संदेह को और भी बढ़ा देगा। कोई ऐसी गली भी नहीं जिसमें घुस जाऊं। अब तो सब बहुत समीप आ गये। क्या बात है, सब मेरी ही तरफ देख रहे हैं। मैंने बड़ी हिमाकत की कि यह पग्गड़ बांध लिया और बंधी भी कितनी बेतुकी। एक टीले-सा ऊपर उठ गया है। यह पगड़ी आज मुझे पकड़ावेगी। बांधी थी कि इससे सूरत बदल जायेगी। यह उल्टे और तमाशा बन गई। हाँ, तीनों मेरी ही ओर ताक रहे हैं। आपस में कुछ बातें भी कर रहे हैं। रमा को ऐसा जान पड़ा, पैरों में शक्ति नहीं है। शायद सब मन में मेरा हुलिया मिला रहे हैं। अब नहीं बच सकता, घर वालों को मेरे पकड़े जाने की ख़बर मिलेगी, तो कितने लज्जित होंगे। जालपा तो रो-रोकर प्राण ही दे देगी। पाँच साल से कम सज़ा न होगी। आज इस जीवन का अंत हो रहा है। इस कल्पना ने उसके ऊपर कुछ ऐसा आतंक जमाया कि उसके औसान जाते रहे। जब सिपाहियों का दल समीप आ गया, तो उसका चेहरा भय से कुछ ऐसा विकृत हो गया, उसकी आँखें कुछ ऐसी सशंक हो गई और अपने को उनकी आँखों से बचाने के लिए वह कुछ इस तरह दूसरे आदमियों की आड़ खोजने लगा कि मामूली आदमी को भी उस पर संदेह होना स्वाभाविक था, फिर पुलिस वालों की मंजी हुई आँखें क्यों चूकतीं।
एक ने अपने साथी से कहा, ‘यो मनई चोर न होय, तो तुमरी टांगन ते निकर जाईब कस चोरन की नाई ताकत है।’
दूसरा बोला, ‘कुछ संदेह तो हमऊ का हुय रहा है। फुरै कह पांडे, असली चोर है।’
तीसरा आदमी मुसलमान था, उसने रमानाथ को ललकारा, ‘ओ जी ओ पगड़ी, ज़रा इधर आना, तुम्हारा क्या नाम है?’
रमानाथ ने सीनाजोरी के भाव से कहा,’हमारा नाम पूछकर क्या करोगे? मैं क्या चोर हूँ?’
‘चोर नहीं, तुम साह हो, नाम क्यों नहीं बताते?’
रमा ने एक क्षण आगा-पीछा में पड़कर कहा, ‘हीरालाल।’
‘घर कहाँ है?’
‘घर!’
‘हाँ, घर ही पूछते हैं।’
‘शाहजहाँपुर।’
‘कौन मुहल्ला-‘
रमा शाहजहाँपुर न गया था, न कोई कल्पित नाम ही उसे याद आया कि बता दे। दुस्साहस के साथ बोला, ‘तुम तो मेरा हुलिया लिख रहे हो!’
कांस्टेबल ने भभकी दी,’तुम्हारा हुलिया पहले से ही लिखा हुआ है! नाम झूठ बताया, सयनत झूठ बताई, मुहल्ला पूछा तो बगलें झांकने लगे। महीनों से तुम्हारी तलाश हो रही है, आज जाकर मिले हो चलो थाने पर।’ यह कहते हुए उसने रमानाथ का हाथ पकड़ लिया। रमा ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा करके कहा, ‘वारंट लाओ तब हम चलेंगे। क्या मुझे कोई देहाती समझ लिया है?’
कांस्टेबल ने एक सिपाही से कहा, ‘पकड़ लो जी इनका हाथ, वहीं थाने पर वारंट दिखाया जाएगा।’
शहरों में ऐसी घटनायें मदारियों के तमाशों से भी ज्यादा मनोरंजक होती हैं। सैकड़ों आदमी जमा हो गये। देवीदीन इसी समय अफीम लेकर लौटा आ रहा था, यह जमाव देखकर वह भी आ गया। देखा कि तीन कांस्टेबल रमानाथ को घसीटे लिये जा रहे हैं। आगे बढ़कर बोला, ‘हैं?हैं, जमादार! यह क्या करते हो? यह पंडितजी तो हमारे मिहमान हैं, कहाँ पकड़े लिये जाते हो?’
तीनों कांस्टेबल देवीदीन से परिचित थे। रूक गए। एक ने कहा, ‘तुम्हारे मिहमान हैं यह, कब से? ‘
देवीदीन ने मन में हिसाब लगाकर कहा, ‘चार महीने से कुछ बेशी हुए होंगे। मुझे प्रयाग में मिल गए थे। रहने वाले भी वहीं के हैं। मेरे साथ ही तो आए थे।’
मुसलमान सिपाही ने मन में प्रसन्न होकर कहा, ‘इनका नाम क्या है?’
देवीदीन ने सिटपिटाकर कहा, ‘नाम इन्होंने बताया न होगा? ‘
सिपाहियों का संदेह दृढ़ हो गया। पांडे ने आँखें निकालकर कहा, ‘जान परत है तुमहू मिले हौ, नांव काहे नाहीं बतावत हो इनका?’
देवीदीन ने आधारहीन साहस के भाव से कहा, ‘मुझसे रोब न जमाना पांडे, समझे! यहाँ धमकियों में नहीं आने के।’
मुसलमान सिपाही ने मानो मध्यस्थ बनकर कहा, ‘बूढ़े बाबा, तुम तो ख्वामख्वाह बिगड़ रहे हो, इनका नाम क्यों नहीं बतला देते?’
देवीदीन ने कातर नजरों से रमा की ओर देखकर कहा, ‘हम लोग तो रमानाथ कहते हैं। असली नाम यही है या कुछ और, यह हम नहीं जानते। ‘
पांडे ने आँखें निकालकर हथेली को सामने करके कहा, ‘बोलो पंडितजी, क्या नाम है तुम्हारा? रमानाथ या हीरालाल? या दोनों,एक घर का एक ससुराल का? ‘
तीसरे सिपाही ने दर्शकों को संबोधित करके कहा, ‘नांव है रमानाथ, बतावत है हीरालाल? सबूत हुय गवा।’ दर्शकों में कानाफूसी होने लगी। शुबहे की बात तो है।
‘साफ है, नाम और पता दोनों ग़लत बता दिया।’
एक मारवाड़ी सज्जन बोले, ‘उचक्को सो है।’
एक मौलवी साहब ने कहा, ‘कोई इश्तिहारी मुलज़िम है।’
जनता को अपने साथ देखकर सिपाहियों को और भी ज़ोर हो गया। रमा को भी अब उनके साथ चुपचाप चले जाने ही में अपनी कुशल दिखाई दी। इस तरह सिर झुका लिया, मानो उसे इसकी बिलकुल परवा नहीं है कि उस पर लाठी पड़ती है या तलवार। इतना अपमानित वह कभी न हुआ था। जेल की कठोरतम यातना भी इतनी ग्लानि न उत्पन्न करती। थोड़ी देर में पुलिस स्टेशन दिखाई दिया। दर्शकों की भीड़ बहुत कम हो गई थी। रमा ने एक बार उनकी ओर लज्जित आशा के भाव से ताका, देवीदीन का पता न था। रमा के मुँह से एक लंबी सांस निकल गई। इस विपत्ति में क्या यह सहारा भी हाथ से निकल गया?
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मुंशी प्रेमचंद के अन्य उन्पयास :
~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास
~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास
~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास