Chapter 5 Gaban Novel By Munshi Premchand
Table of Contents
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महाशय दयानाथ जितनी उमंगों से ब्याह करने गए थे, उतना ही हतोत्साह होकर लौटे। दीनदयाल ने खूब दिया, लेकिन वहाँ से जो कुछ मिला, वह सब नाच-तमाशे, नेगचार में खर्च हो गया। बार-बार अपनी भूल पर पछताते, क्यों दिखावे और तमाशे में इतने रूपये खर्च किए। इसकी जरूरत ही क्या थी, ज्यादा-से-ज्यादा लोग यही तो कहते- ‘महाशय बड़े कृपण हैं।‘ उतना सुन लेने में क्या हानि थी? मैंने गांव वालों को तमाशा दिखाने का ठेका तो नहीं लिया था। यह सब रमा का दुस्साहस है। उसी ने सारे खर्च बढ़ा-बढ़ाकर मेरा दिवाला निकाल दिया और सब तकाजे तो दस-पाँच दिन टल भी सकते थे, पर सर्राफ़ किसी तरह न मानता था। शादी के सातवें दिन उसे एक हजार रूपये देने का वादा था। सातवें दिन सर्राफ़ आया, मगर यहाँ रूपये कहाँ थे? दयानाथ में लल्लो-चप्पो की आदत न थी, मगर आज उन्होंने उसे चकमा देने की खूब कोशिश की। किस्त बांधकर सब रूपये छः महीने में अदा कर देने काa वादा किया। फिर तीन महीने पर आए, मगर सर्राफ़ भी एक ही घुटा हुआ आदमी था, उसी वक्त टला, जब दयानाथ ने तीसरे दिन बाकी रकम की चीजें लौटा देने का वादा किया और यह भी उसकी सज्जनता ही थी। वह तीसरा दिन भी आ गया, और अब दयानाथ को अपनी लाज रखने का कोई उपाय न सूझता था। कोई चलता हुआ आदमी शायद इतना व्यग्र न होता, हीले-हवाले करके महाजन को महीनों टालता रहता; लेकिन दयानाथ इस मामले में अनाड़ी थे।
जागेश्वरी ने आकर कहा – “भोजन कब से बना ठंडा हो रहा है। खाकर तब बैठो।“
दयानाथ ने इस तरह गर्दन उठाई, मानो सिर पर सैकड़ों मन का बोझ लदा हुआ है। बोले – “तुम लोग जाकर खा लो, मुझे भूख नहीं है।‘
जागेश्वरी – “भूख क्यों नहीं है, रात भी तो कुछ नहीं खाया था! इस तरह दाना-पानी छोड़ देने से महाजन के रूपये थोड़े ही अदा हो जाएंगे।“
दयानाथ – “मैं सोचता हूँ, उसे आज क्या जवाब दूंगा। मैं तो यह विवाह करके बुरा फंस गया। बहू कुछ गहने लौटा तो देगी।“
जागेश्वरी – “बहू का हाल तो सुन चुके, फिर भी उससे ऐसी आशा रखते हो। उसकी टेक है कि जब तक चंद्रहार न बन जायगा, कोई गहना ही न पहनूंगी। सारे गहने संदूक में बंद कर रखे हैं। बस, वही एक बिल्लौरी हार गले में डाले हुए है। बहुयें बहुत देखीं, पर ऐसी बहू न देखी थी। फिर कितना बुरा मालूम होता है कि कल की आई बहू, उससे गहने छीन लिए जायें।“
दयानाथ ने चिढ़कर कहा – “तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो, बुरा मालूम होता है, तो लाओ एक हजार निकालकर दे दो, महाजन को दे आऊं, देती हो? बुरा मुझे खुद मालूम होता है, लेकिन उपाय क्या है? गला कैसे छूटेगा?”
जागेश्वरी – “बेटे का ब्याह किया है कि ठट्ठा है? शादी-ब्याह में सभी कर्ज़ लेते हैं, तुमने कोई नई बात नहीं की। खाने-पहनने के लिए कौन कर्ज लेता है। धर्मात्मा बनने का कुछ फल मिलना चाहिए या नहीं। तुम्हारे ही दर्जे पर सत्यदेव हैं, पक्का मकान खड़ाकर दिया, जमींदारी खरीद ली, बेटी के ब्याह में कुछ नहीं तो पाँच हज़ार तो खर्च किए ही होंगे।“
दयानाथ – “जभी दोनों लड़के भी तो चल दिये।“
जागेश्वरी – “मरना-जीना तो संसार की गति है, लेते हैं, वह भी मरते हैं,नहीं लेते, वह भी मरते हैं। अगर तुम चाहो तो छः महीने में सब रूपये चुका सकते हो।“
दयानाथ ने त्योरी चढ़ाकर कहा – “जो बात ज़िन्दगी भर नहीं की, वह अब आखिरी वक्त नहीं कर सकता। बहू से साफ-साफ कह दो, उससे पर्दा रखने की ज़रूरत ही क्या है, और पर्दा रह ही कितने दिन सकता है। आज नहीं तो कल सारा हाल मालूम ही हो जाएगा। बस तीन-चार चीजें लौटा दे, तो काम बन जाय। तुम उससे एक बार कहो तो।“
जागेश्वरी झुंझलाकर बोली – “उससे तुम्हीं कहो, मुझसे तो न कहा जायेगा।“
सहसा रमानाथ टेनिस-रैकेट लिये बाहर से आया। सफेद टेनिस शर्ट था, सफेद पतलून, कैनवस का जूता, गोरे रंग और सुंदर मुखाकृति पर इस पहनावे ने रईसों की शान पैदा कर दी थी। रूमाल में बेले के गजरे लिये हुए था। उससे सुगंध उड़ रही थी। माता-पिता की आँखें बचाकर वह जीने पर जाना चाहता था, कि जागेश्वरी ने टोका – “इन्हीं के तो सब कांटे बोये हुए हैं, इनसे क्यों नहीं सलाह लेते?” (रमा से) “तुमने नाच-तमाशे में बारह-तेरह सौ रूपये उड़ा दिये, बतलाओ सर्राफ़ को क्या जवाब दिया जाये – बड़ी मुश्किलों से कुछ गहने लौटाने पर राजी हुआ, मगर बहू से गहने मांगे कौन? यह सब तुम्हारी ही करतूत है।“
रमानाथ ने इस आक्षेप को अपने ऊपर से हटाते हुए कहा – “मैंने क्या खर्च किया। जो कुछ किया, बाबूजी ने किया। हाँ, जो कुछ मुझसे कहा गया, वह मैंने किया।“
रमानाथ के कथन में बहुत कुछ सत्य था। यदि दयानाथ की इच्छा न होती, तो रमा क्या कर सकता था? जो कुछ हुआ, उन्हीं की अनुमति से हुआ। रमानाथ पर इलज़ाम रखने से तो कोई समस्या हल न हो सकती थी।
बोले – “मैं तुम्हें इलज़ाम नहीं देता भाई। किया तो मैंने ही, मगर यह बला तो किसी तरह सिर से टालनी चाहिए। सर्राफ़ का तकाज़ा है। कल उसका आदमी आवेगा। उसे क्या जवाब दिया जाएगा? मेरी समझ में तो यही एक उपाय है कि उतने रूपये के गहने उसे लौटा दिए जायें। गहने लौटा देने में भी वह झंझट करेगा, लेकिन दस-बीस रूपये के लोभ में लौटाने पर राजी हो जायेगा। तुम्हारी क्या सलाह है?”
रमानाथ ने शरमाते हुए कहा – “मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ, मगर मैं इतना कह सकता हूँ कि इस प्रस्ताव को वह ख़ुशी से मंजूर न करेगी। अम्मा तो जानती हैं कि चढ़ावे में चंद्रहार न जाने से उसे कितना बुरा लगा था। प्रण कर लिया है, जब तक चंद्रहार न बन जायेगा, कोई गहना न पहनूंगी।‘
जागेश्वरी ने अपने पक्ष का समर्थन होते देख, ख़ुश होकर कहा – “यही तो मैं इनसे कह रही हूँ।“
रमानाथ – “रोना-धोना मच जायेगा और इसके साथ घर का पर्दा भी खुल जायेगा।‘
दयानाथ ने माथा सिकोड़कर कहा – “उससे पर्दा रखने की ज़रूरत ही क्या! अपनी यथार्थ स्थिति को वह जितनी ही जल्दी समझ ले, उतना ही अच्छा।“
रमानाथ ने जवानों के स्वभाव के अनुसार जालपा से खूब जीभ उड़ाई थी। खूब बढ़-बढ़कर बातें की थीं। जमींदारी है, उससे कई हजार का नफ़ा है। बैंक में रूपये हैं, उनका सूद आता है। जालपा से अब अगर गहने की बात कही गई, तो रमानाथ को वह पूरा लबाड़िया समझेगी।
बोला – “पर्दा तो एक दिन खुल ही जायेगा, पर इतनी जल्दी खोल देने का नतीजा यही होगा कि वह हमें नीच समझने लगेगी। शायद अपने घरवालों को भी लिख भेजे। चारों तरफ बदनामी होगी।“
दयानाथ – “हमने तो दीनदयाल से यह कभी न कहा था कि हम लखपति हैं।“
रमानाथ – “तो आपने यही कब कहा था कि हम उधार गहने लाये हैं और दो-चार दिन में लौटा देंगे! आखिर यह सारा स्वांग अपनी धाक बैठाने के लिए ही किया था या कुछ और?”
दयानाथ – “तो फिर किसी दूसरे बहाने से मांगना पड़ेगा। बिना मांगे काम नहीं चल सकता। कल या तो रूपये देने पड़ेंगे, या गहने लौटाने पड़ेंगे। और कोई राह नहीं।“
रमानाथ ने कोई जवाब न दिया।
जागेश्वरी बोली – “और कौन-सा बहाना किया जायगा। अगर कहा जाये, किसी को मंगनी देना है, तो शायद वह देगी नहीं। देगी भी, तो दो-चार दिन में लौटायेंगे कैसे?”
दयानाथ को एक उपाय सूझा। बोले – “अगर उन गहनों के बदले मुलम्मे के गहने दे दिए जायें?”
मगर तुरंत ही उन्हें ज्ञात हो गया कि यह लचर बात है, खुद ही उसका विरोध करते हुए कहा – “हाँ, बाद में मुलम्मा उड़ जायेगा, तो फिर लज्जित होना पड़ेगा। अक्ल कुछ काम नहीं करती। मुझे तो यही सूझता है, यह सारी स्थिति उसे समझा दी जाये। ज़रा देर के लिए उसे दु:ख तो ज़रूर होगा, लेकिन आगे के वास्ते रास्ता साफ़ हो जायेगा।“
संभव था, जैसा दयानाथ का विचार था, कि जालपा रो-धोकर शांत हो जायेगी, पर रमा की इसमें किरकिरी होती थी। फिर वह मुँह न दिखा सकेगा। जब वह उससे कहेगी, तुम्हारी जमींदारी क्या हुई। बैंक के रूपये क्या हुए, तो उसे क्या जवाब देगा।
विरक्त भाव से बोला – “इसमें बेइज्जती के सिवा और कुछ न होगा। आप क्या सर्राफ़ को दो-चार-छः महीने नहीं टाल सकते? आप देना चाहें, तो इतने दिनों में हजार-बारह सौ रूपये बड़ी आसानी से दे सकते हैं।“
दयानाथ ने पूछा – “कैसे ?”
रमानाथ – “उसी तरह जैसे आपके और भाई करते हैं!”
दयानाथ – “वह मुझसे नहीं हो सकता।“
तीनों कुछ देर तक मौन बैठे रहे। दयानाथ ने अपना फैसला सुना दिया। जागेश्वरी और रमा को यह फैसला मंजूर न था। इसलिए अब इस गुत्थी के सुलझाने का भार उन्हीं दोनों पर था। जागेश्वरी ने भी एक तरह से निश्चय कर लिया था। दयानाथ को झख मारकर अपना नियम तोड़ना पड़ेगा। यह कहाँ की नीति है कि हमारे ऊपर संकट पड़ा हुआ हो और हम अपने नियमों का राग अलापे जायें। रमानाथ बुरी तरह फंसा था। वह खूब जानता था कि पिताजी ने जो काम कभी नहीं किया, वह आज न करेंगे। उन्हें जालपा से गहने मांगने में कोई संकोच न होगा और यही वह न चाहता था। वह पछता रहा था कि मैंने क्यों जालपा से डींगें मारीं। अब अपने मुँह की लाली रखने का सारा भार उसी पर था। जालपा की अनुपम छबि ने पहले ही दिन उस पर मोहिनी डाल दी थी। वह अपने सौभाग्य पर फूला न समाता था। क्या यह घर ऐसी अनन्य सुंदरी के योग्य था? जालपा के पिता पाँच रूपये के नौकर थे, पर जालपा ने कभी अपने घर में झाड़ू न लगाई थी। कभी अपनी धोती न छांटी थी। अपना बिछावन न बिछाया था। यहाँ तक कि अपनी के धोती की खींच तक न सी थी। दयानाथ पचास रूपये पाते थे, पर यहाँ केवल चौका-बासन करने के लिए महरी थी। बाकी सारा काम अपने ही हाथों करना पड़ता था। जालपा शहर और देहात का फर्क क्या जाने? शहर में रहने का उसे कभी अवसर ही न पड़ा था। वह कई बार पति और सास से साश्चर्य पूछ चुकी थी, क्या यहाँ कोई नौकर नहीं है? जालपा के घर दूध-दही-घी की कमी नहीं थी। यहाँ बच्चों को भी दूध मयस्सर न था। इन सारे अभावों की पूर्ति के लिए रमानाथ के पास मीठी-मीठी बड़ी-बड़ी बातों के सिवा और क्या था? घर का किराया पाँच रूपया था, रमानाथ ने पंद्रह बतलाये थे। लड़कों की शिक्षा का खर्च मुश्किल से दस रूपये था, रमानाथ ने चालीस बतलाये थे। उस समय उसे इसकी ज़रा भी शंका न थी, कि एक दिन सारा भंडा फट जायगा। मिथ्या दूरदर्शी नहीं होता, लेकिन वह दिन इतनी जल्दी आयेगा, यह कौन जानता था। अगर उसने ये डींगें न मारी होतीं, तो जागेश्वरी की तरह वह भी सारा भार दयानाथ पर छोड़कर निश्चिंत हो जाता, लेकिन इस वक्त वह अपने ही बनाए हुए जाल में फंस गया था। कैसे निकले? उसने कितने ही उपाय सोचे, लेकिन कोई ऐसा न था, जो आगे चलकर उसे उलझनों में न डाल देता, दलदल में न फंसा देता। एकाएक उसे एक चाल सूझी। उसका दिल उछल पडा, पर इस बात को वह मुँह तक न ला सका, ओह! कितनी नीचता है? कितना कपट? कितनी निर्दयता? अपनी प्रेयसी के साथ ऐसी धूर्तता? उसके मन ने उसे धिक्कारा। अगर इस वक्त उसे कोई एक हजार रूपया दे देता, तो वह उसका उम्र भर के लिए गुलाम हो जाता।
दयानाथ ने पूछा – “कोई बात सूझी? मुझे तो कुछ नहीं सूझता।
“कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा। आप ही सोचिए, मुझे तो कुछ नहीं सूझता।“
“क्यों नहीं उससे दो-तीन गहने मांग लेते? तुम चाहो तो ले सकते हो, हमारे लिए मुश्किल है।“
“मुझे शर्म आती है।“
“तुम विचित्र आदमी हो, न खुद मांगोगे, न मुझे मांगने दोगे, तो आखिर यह नाव कैसे चलेगी? मैं एक बार नहीं, हजार बार कह चुका कि मुझसे कोई आशा मत रखो। मैं अपने आखिरी दिन जेल में नहीं काट सकता। इसमें शर्म की क्या बात है, मेरी समझ में नहीं आता। किसके जीवन में ऐसे कुअवसर नहीं आते? तुम्हीं अपनी माँ से पूछो।“
जागेश्वरी ने अनुमोदन किया – “मुझसे तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी चिंता में पड़ा रहे, मैं गहने पहने बैठी रहूं। नहीं तो आज मेरे पास भी गहने न होते? एक-एक करके सब निकल गये। विवाह में पाँच हजार से कम का चढ़ावा नहीं गया था, मगर पाँच ही साल में सब स्वाहा हो गया। तब से एक छल्ला बनवाना भी नसीब न हुआ।“
दयानाथ ज़ोर देकर बोले – “शर्म करने का यह अवसर नहीं है। इन्हें मांगना पड़ेगा!”
रमानाथ ने झेंपते हुए कहा – “मैं मांग तो नहीं सकता, कहिये उठा लाऊं।“
यह कहते-कहते लज्जा, क्षोभ और अपनी नीचता के ज्ञान से उसकी आँखें सजल हो गई।
दयानाथ ने भौंचक्ध होकर कहा – “उठा लाओगे, उससे छिपाकर?”
रमानाथ ने तीव्र कंठ से कहा – “और आप क्या समझ रहे हैं?”
दयानाथ ने माथे पर हाथ रख लिया, और एक क्षण के बाद आहत कंठ से बोले – “नहीं, मैं ऐसा न करने दूंगा। मैंने छल कभी नहीं किया, और न कभी करूंगा। वह भी अपनी बहू के साथ! छिः-छिः, जो काम सीधे से चल सकता है, उसके लिए यह फरेब। कहीं उसकी निगाह पड़ गई, तो समझते हो, वह तुम्हें दिल में क्या समझेगी? मांग लेना इससे कहीं अच्छा है।“
रमानाथ – “आपको इससे क्या मतलब? मुझसे चीज़ें ले लीजिएगा, मगर जब आप जानते थे, यह नौबत आएगी, तो इतने जेवर ले जाने की ज़रूरत ही क्या थी ? व्यर्थ की विपत्ति मोल ली। इससे कई लाख गुना अच्छा था कि आसानी से जितना ले जा सकते, उतना ही ले जाते। उस भोजन से क्या लाभ कि पेट में पीड़ा होने लगे? मैं तो समझ रहा था कि आपने कोई मार्ग निकाल लिया होगा। मुझे क्या मालूम था कि आप मेरे सिर यह मुसीबतों की टोकरी पटक देंगे। वरना मैं उन चीज़ों को कभी न ले जाने देता।“
दयानाथ कुछ लज्जित होकर बोले – “इतने पर भी चंद्रहार न होने से वहाँ हाय-तोबा मच गई।“
रमानाथ – “उस हाय-तौबा से हमारी क्या हानि हो सकती थी? जब इतना करने पर भी हाय-तौबा मच गई, तो मतलब भी तो न पूरा हुआ। उधर बदनामी हुई, इधर यह आफ़त सिर पर आई। मैं यह नहीं दिखाना चाहता कि हम इतने फटेहाल हैं। चोरी हो जाने पर तो सब्र करना ही पड़ेगा।“
दयानाथ चुप हो गये। उस आवेश में रमा ने उन्हें खूब खरी-खरी सुनाई और वह चुपचाप सुनते रहे। आखिर जब न सुना गया, तो उठकर पुस्तकालय चले गये। यह उनका नित्य का नियम था। जब तक दो-चार पत्र-पत्रिकायें न पढ़ लें, उन्हें खाना न हजम होता था। उसी सुरक्षित गढ़ी में पहुँचकर घर की चिंताओं और बाधाओं से उनकी जान बचती थी। रमा भी वहाँ से उठा, पर जालपा के पास न जाकर अपने कमरे में गया। उसका कोई कमरा अलग तो था नहीं, एक ही मर्दाना कमरा था, इसी में दयानाथ अपने दोस्तों से गप-शप करते, दोनों लङके पढ़ते और रमा मित्रों के साथ शतरंज खेलता। रमा कमरे में पहुँचा, तो दोनों लड़के ताश खेल रहे थे। गोपी का तेरहवां साल था, विश्वम्भर का नवां। दोनों रमा से थरथर कांपते थे। रमा खुद खूब ताश और शतरंज खेलता, पर भाइयों को खेलते देखकर हाथ में खुजली होने लगती थी। खुद चाहे दिनभर सैर-सपाटे किया करे, मगर क्या मजाल कि भाई कहीं घूमने निकल जायें। दयानाथ खुद लड़कों को कभी न मारते थे। अवसर मिलता, तो उनके साथ खेलते थे। उन्हें कनकौवे उड़ाते देखकर उनकी बाल-प्रकृति सजग हो जाती थी। दो-चार पेंच लड़ा देते। बच्चों के साथ कभी-कभी गुल्ली-डंडा भी खेलते थे। इसलिए लड़के जितना रमा से डरते, उतना ही पिता से प्रेम करते थे।
रमा को देखते ही लड़कों ने ताश को टाट के नीचे छिपा दिया और पढ़ने लगे। सिर झुकाये चपत की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर रमानाथ ने चपत नहीं लगाई, मोढ़े पर बैठकर गोपीनाथ से बोला – “तुमने भंग की दुकान देखी है न, नुक्कड़ पर?”
गोपीनाथ प्रसन्न होकर बोला – “हाँ, देखी क्यों नहीं?”
“जाकर चार पैसे का माजून ले लो, दौड़े हुए आना। हाँ, हलवाई की दुकान से आधा सेर मिठाई भी लेते आना। यह रूपया लो।“
कोई पंद्रह मिनट में रमा ये दोनों चीज़ें ले, जालपा के कमरे की ओर चला।
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