चैप्टर 41 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 41 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 41 Gaban Novel By Munshi Premchand

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ठीक दस बजे जालपा और देवीदीन कचहरी पहुँच गये। दर्शकों की काफी भीड़ थी। ऊपर की गैलरी दर्शकों से भरी हुई थी। कितने ही आदमी बरामदों में और सामने के मैदान में खड़े थे। जालपा ऊपर गैलरी में जा बैठीब देवीदीन बरामदे में खड़ा हो गया।

इजलास पर जज साहब के एक तरफ अहलमद था और दूसरी तरफ पुलिस के कई कर्मचारी खड़े थे। सामने कठघरे के बाहर दोनों तरफ के वकील खड़े मुकदमा पेश होने का इंतज़ार कर रहे थे। मुलजिमों की संख्या पंद्रह से कम न थी। सब कठघरे के बग़ल में ज़मीन पर बैठे हुए थे। सभी के हाथों में हथकड़ियाँ थीं, पैरों में बेड़ियाँ। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई आपस में बातें कर रहा था। दो पंजे लड़ा रहे थे। दो में किसी विषय पर बहस हो रही थी। सभी प्रसन्नचित्त थे। घबराहट, निराशा या शोक का किसी के चेहरे पर चिन्ह भी न था।

ग्यारह बजते-बजते अभियोग की पेशी हुई। पहले जाब्ते की कुछ बातें हुई, फिर दो-एक पुलिस की शहादतें हुई। अंत में कोई तीन बजे रमानाथ गवाहों के कठघरे में लाया गया। दर्शकों में सनसनी-सी फैल गई। कोई तंबोली की दुकान से पान खाता हुआ भागा, किसी ने समाचार-पत्र को मरोड़कर जेब में रखा और सब इजलास के कमरे में जमा हो गये। जालपा भी संभलकर बारजे में खड़ी हो गई। वह चाहती थी कि एक बार रमा की आँखें उठ जातीं और वह उसे देख लेती, लेकिन रमा सिर झुकाये खड़ा था, मानो वह इधर-उधर देखते डर रहा हो, उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। कुछ सहमा हुआ, कुछ घबराया हुआ इस तरह खड़ा था, मानो उसे किसी ने बांध रखा है और भागने की कोई राह नहीं है। जालपा का कलेजा धक-धक कर रहा था, मानो उसके भाग्य का निर्णय हो रहा हो।

रमा का बयान शुरू हुआ। पहला ही वाक्य सुनकर जालपा सिहर उठी, दूसरे वाक्य ने उसकी त्योरियों पर बल डाल दिये, तीसरे वाक्य ने उसके चेहरे का रंग फीका कर दिया और चौथा वाक्य सुनते ही वह एक लंबी साँस खींचकर पीछे रखी हुई कुरसी पर टिक गई, मगर फिर दिल न माना। जंगले पर झुककर फिर उधर कान लगा दिये। वही पुलिस की सिखाई हुई शहादत थी, जिसका आशय वह देवीदीन के मुँह से सुन चुकी थी। अदालत में सन्नाटा छाया हुआ था। जालपा ने कई बार खांसा कि शायद अब भी रमा की आँखें ऊपर उठ जायें, लेकिन रमा का सिर और भी झुक गया। मालूम नहीं, उसने जालपा के खांसने की आवाज़ पहचान ली या आत्म-ग्लानि का भाव उदय हो गया। उसका स्वर भी कुछ धीमा हो गया।

एक महिला ने जो जालपा के साथ ही बैठी थी, नाक सिकोड़कर कहा, ‘जी चाहता है, इस दुष्ट को गोली मार दें। ऐसे-ऐसे स्वार्थी भी इस देश में पड़े हैं जो नौकरी या थोड़े-से धन के लोभ में निरपराधों के गले पर छुरी उधरने से भी नहीं हिचकते!’ जालपा ने कोई जवाब न दिया।

एक दूसरी महिला ने जो आँखों पर ऐनक लगाये हुए थी, ‘निराशा के भाव से कहा, ‘ इस अभागे देश का ईश्वर ही मालिक है। गवर्नरी तो लाला को कहीं नहीं मिल जाती! अधिक-से-अधिक कहीं क्लर्क हो जायेंगे। उसी के लिए अपनी आत्मा की हत्या कर रहे हैं। मालूम होता है, कोई मरभुखा, नीच आदमी है, पल्ले सिरे का कमीना और छिछोरा।’

तीसरी महिला ने ऐनक वाली देवी से मुस्कराकर पूछा, ‘ आदमी फैशनेबुल है और पढ़ा-लिखा भी मालूम होता है। भला, तुम इसे पा जाओ, तो क्या करो?’

ऐनकबाज़ देवी ने उद्दंडता से कहा, ‘नाक काट लूं! बस नकटा बनाकर छोड़ दूं।’

‘और जानती हो, मैं क्या करूं?’

‘नहीं! शायद गोली मार दोगी!’

‘ना! गोली न मारूं। सरे बाज़ार खड़ा करके पाँच सौ जूते लगवाऊं। चांद गंजी हो जाये!’

‘उस पर तुम्हें ज़रा भी दया नहीं आयेगी?’

यह कुछ कम दया है? उसकी पूरी सज़ा तो यह है कि किसी ऊँची पहाड़ी से ढकेल दिया जाये! अगर यह महाशय अमेरीका में होते, तो ज़िन्दा जला दिये जाते!’

एक वृद्धा ने इन युवतियों का तिरस्कार करके कहा, ‘ क्यों व्यर्थ में मुँह ख़राब करती हो? वह घृणा के योग्य नहीं, दया के योग्य है। देखती नहीं हो, उसका चेहरा कैसा पीला हो गया है, जैसे कोई उसका गला दबाये हुए हो, अपनी माँ या बहन को देख ले, तो ज़रूर रो पड़े। आदमी दिल का बुरा नहीं है। पुलिस ने धमकाकर उसे सीधा किया है। मालूम होता है, एक-एक शब्द उसके ह्रदय को चीर-चीरकर निकल रहा हो।’

ऐनक वाली महिला ने व्यंग्य किया, ‘ जब अपने पांव कांटा चुभता है, तब आह निकलती है? ‘

जालपा अब वहाँ न ठहर सकी। एक-एक बात चिंगारी की तरह उसके दिल पर आग के गोले डाले देती थी। ऐसा जी चाहता था कि इसी वक्त उठकर कह दे, ‘यह महाशय बिल्कुल झूठ बोल रहे हैं, सरासर झूठ, और इसी वक्त इसका सबूत दे दे। वह इस आवेश को पूरे बल से दबाये हुए थी। उसका मन अपनी कायरता पर उसे धिक्कार रहा था। क्यों वह इसी वक्त सारा वृत्तांत नहीं कह सुनाती। पुलिस उसकी दुश्मन हो जायेगी, हो जाये। कुछ तो अदालत को खयाल होगा। कौन जाने, इन ग़रीबों की जान बच जाये! जनता को तो मालूम हो जायेगा कि यह झूठी शहादत है। उसके मुँह से एक बार आवाज़ निकलते-निकलते रह गई। परिणाम के भय ने उसकी ज़बान पकड़ ली। आख़िर उसने वहाँ से उठकर चले आने ही में कुशल समझी।

देवीदीन उसे उतरते देखकर बरामदे में चला आया और दया से सने हुए स्वर में बोला, ‘क्या घर चलती हो, बहूजी?’

जालपा ने आँसुओं के वेग को रोककर कहा, ‘हाँ, यहाँ अब नहीं बैठा जाता।’

हाते के बाहर निकलकर देवीदीन ने जालपा को सांत्वना देने के इरादे से कहा, ‘पुलिस ने जिसे एक बार बूटी सुंघा दी, उस पर किसी दूसरी चीज़ का असर नहीं हो सकता।’

जालपा ने घृणा-भाव से कहा, ‘यह सब कायरों के लिए है।’

कुछ दूर दोनों चुपचाप चलते रहे। सहसा जालपा ने कहा, ‘क्यों दादा, अब और तो कहीं अपील न होगी? कैदियों का यहीं फैसला हो जायेगा।।’

देवीदीन इस प्रश्न का आशय समझ गया। बोला, ‘नहीं, हाईकोर्ट में अपील हो सकती है।’

फिर कुछ दूर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। जालपा एक वृक्ष की छांह में खड़ी हो गई और बोली, ‘दादा, मेरा जी चाहता है, आज जज साहब से मिलकर सारा हाल कह दूं। शुरू से जो कुछ हुआ, सब कह सुनाऊं। मैं सबूत दे दूंगी, तब तो मानेंगे?’

देवीदीन ने आँखें गाड़कर कहा, ‘जज साहब से!’

जालपा ने उसकी आँखों से आँखें मिलाकर कहा, ‘हाँ!’

देवीदीन ने दुविधा में पड़कर कहा, ‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता, बहूजी! हाकिम का वास्ता न जाने चित पड़े या पट।’

जालपा बोली, ‘क्या पुलिस वालों से यह नहीं कह सकता कि तुम्हारा गवाह बनाया हुआ है?’

‘कह तो सकता है।’

‘तो आज मैं उससे मिलूं। मिल तो लेता है?’

‘चलो, दरियार्ति करेंगे, लेकिन मामला जोखिम है।’

‘क्या जोखिम है, बताओ।’

‘भैया पर कहीं झूठी गवाही का इल्ज़ाम लगाकर सज़ा कर दे तो?’

‘तो कुछ नहीं। जो जैसा करे, वैसा भोगे।’

देवीदीन ने जालपा की इस निर्ममता पर चकित होकर कहा, ‘एक दूसरा खटका है। सबसे बड़ा डर उसी का है।’

जालपा ने उद्यत भाव से पूछा,’वह क्या?’

देवीदीन-‘पुलिस वाले बड़े कायर होते हैं। किसी का अपमान कर डालना तो इनकी दिल्लगी है। जज साहब पुलिस कमिश्नर को बुलाकर यह सब हाल कहेंगे ज़रूर। कमिश्नर सोचेंगे कि यह औरत सारा खेल बिगाड़ रही है। इसी को गिरफ्तार कर लो। जज अंग्रेज होता, तो निडर होकर पुलिस की तौहीन करता। हमारे भाई तो ऐसे मुकदमों में चूं करते डरते हैं कि कहीं हमारे ही ऊपर न बगावत का इल्ज़ाम लग जाये। यही बात है। जज साहब पुलिस कमिश्नर से ज़रूर कह सुनावेंगे। फिर यह तो न होगा कि मुकदमा उठा लिया जाये। यही होगा कि कलई न खुलने पावे। कौन जाने तुम्हीं को गिरफ्तार कर लें। कभी-कभी जब गवाह बदलने लगता है, या कलई खोलने पर उताई हो जाता है, तो पुलिस वाले उसके घर वालों को दबाते हैं। इनकी माया अपरंपार है।

जालपा सहम उठी। अपनी गिरफ्तारी का उसे भय न था, लेकिन कहीं पुलिस वाले रमा पर अत्याचार न करें। इस भय ने उसे कातर कर दिया। उसे इस समय ऐसी थकान मालूम हुई मानो सैकड़ों कोस की मंज़िल मारकर आई हो उसका सारा सत्साहस बर्फ के समान पिघल गया।

कुछ दूर आगे चलने के बाद उसने देवीदीन से पूछा, ‘अब तो उनसे मुलाकात न हो सकेगी?’

देवीदीन ने पूछा, ‘भैया से?’

‘हाँ’

‘किसी तरह नहीं। पहरा और कड़ा कर दिया गया होगा। चाहे उस बंगले को ही छोड़ दिया हो और अब उनसे मुलाकात हो भी गई, तो क्या फ़ायदा! अब किसी तरह अपना बयान नहीं बदल सकते। दरोगहलगी में फंस जायेंगे।’

कुछ दूर और चलकर जालपा ने कहा, ‘मैं सोचती हूँ, घर चली जाऊं। यहाँ रहकर अब क्या करूंगी।’

देवीदीन ने करूणा भरी हुई आँखों से उसे देखकर कहा, ‘नहीं बहू, अभी मैं न जाने दूंगा। तुम्हारे बिना अब हमारा यहाँ पल-भर भी जी न लगेगा। बुढिया तो रो-रोकर प्राण ही दे देगी। अभी यहाँ रहो, देखो क्या फैसला होता है। भैया को मैं इतना कच्चे दिल का आदमी नहीं समझता था। तुम लोगों की बिरादरी में सभी सरकारी नौकरी पर जान देते हैं। मुझे तो कोई सौ रूपया भी तलब दे, तो नौकरी न करूं। अपने रोजगार की बात ही दूसरी है। इसमें आदमी कभी थकता ही नहीं। नौकरी में जहाँ पाँच से छः घंटे हुए कि देह टूटने लगी, जम्हाइयाँ आने लगीं।’

रास्ते में और कोई बातचीत न हुई। जालपा का मन अपनी हार मानने के लिए किसी तरह राज़ी न होता था। वह परास्त होकर भी दर्शक की भांति यह अभिनय देखने से संतुष्ट न हो सकती थी। वह उस अभिनय में सम्मिलित होने और अपना पार्ट खेलने के लिए विवश हो रही थी। क्या एक बार फिर रमा से मुलाकात न होगी? उसके ह्रदय में उन जलते हुए शब्दों का एक सागर उमड़ रहा था, जो वह उससे कहना चाहती थी। उसे रमा पर ज़रा भी दया न आती थी, उससे रत्ती-भर सहानुभूति न होती थी। वह उससे कहना चाहती थी, ‘ तुम्हारा धन और वैभव तुम्हें मुबारक हो, जालपा उसे पैरों से ठुकराती है। तुम्हारे ख़ून से रंगे हुए हाथों के स्पर्श से मेरी देह में छाले पड़ जायेंगे। जिसने धन और पद के लिए अपनी आत्मा बेच दी, उसे मैं मनुष्य नहीं समझती। तुम मनुष्य नहीं हो, तुम पशु भी नहीं, तुम कायर हो! कायर!’जालपा का मुखमंडल तेजमय हो गया। गर्व से उसकी गर्दन तन गई। यह शायद समझते होंगे, जालपा जिस वक्त मुझे झब्बेदार पगड़ी बांध घोड़े पर सवार देखेगी, फली न समायेगी। जालपा इतनी नीच नहीं है। तुम घोड़े पर नहीं, आसमान में उड़ो, मेरी आँखों में हत्यारे हो, पूरे हत्यारे, जिसने अपनी जान बचाने के लिए इतने आदमियों की गर्दन पर छुरी चलाई! मैंने चलते-चलते समझाया था, उसका कुछ असर न हुआ! ओह, तुम इतने धन-लोलुप हो, इतने लोभी! कोई हर्ज़ नहीं। जालपा अपने पालन और रक्षा के लिए तुम्हारी मुहताज नहीं।’ इन्हीं संतप्त भावनाओं में डूबी हुई जालपा घर पहुँची।

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