चैप्टर 46 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 46 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 46 Gaban Novel By Munshi Premchand

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रमा ज्यों-ज्यों ज़ोहरा के प्रेम-पाश में फंसता जाता था, पुलिस के अधिकारी वर्ग उसकी ओर से निश्शंक होते जाते थे। उसके ऊपर जो कैद लगाई गई थी, धीरे-धीरे ढीली होने लगी। यहाँ तक कि एक दिन डिप्टी साहब शाम को सैर करने चले, तो रमा को भी मोटर पर बिठा लिया। जब मोटर देवीदीन की दुकान के सामने से होकर निकली, तो रमा ने अपना सिर इस तरह भीतर खींच लिया कि किसी की नज़र न पड़ जाये। उसके मन में बड़ी उत्सुकता हुई कि जालपा है या चली गई, लेकिन वह अपना सिर बाहर न निकाल सका। मन में वह अब भी यही समझता था कि मैंने जो रास्ता पकड़ा है, वह कोई बहुत अच्छा रास्ता नहीं है, लेकिन यह जानते हुए भी वह उसे छोड़ना न चाहता था। देवीदीन को देखकर उसका मस्तक आप-ही-आप लज्जा से झुक जाता, वह किसी दलील से अपना पक्ष सिद्ध न कर सकता उसने सोचा, मेरे लिए सबसे उत्तम मार्ग यही है कि इनसे मिलना-जुलना छोड़ दूं। उस शहर में तीन प्राणियों को छोड़कर किसी चौथे आदमी से उसका परिचय न था, जिसकी आलोचना या तिरस्कार का उसे भय होता। मोटर इधर-उधर घूमती हुई हावड़ा-ब्रिज की तरफ चली जा रही थी, कि सहसा रमा ने एक स्त्री को सिर पर गंगा-जल का कलसा रक्खे घाटों के ऊपर आते देखा। उसके कपड़े बहुत मैले हो रहे थे और कृशांगी ऐसी थी कि कलसे के बोझ से उसकी गरदन दबी जाती थी। उसकी चाल कुछ-कुछ जालपा से मिलती हुई जान पड़ी। सोचा, जालपा यहाँ क्या करने आवेगी, मगर एक ही पल में कार और आगे बढ़ गई और रमा को उस स्त्री का मुंह दिखाई दिया। उसकी छाती धक-से हो गई। यह जालपा ही थी। उसने खिड़की के बगल में सिर छिपाकर गौर से देखा। बेशक जालपा थी, पर कितनी दुर्बल! मानो कोई वृद्धा, अनाथ हो न वह कांति थी, न वह लावण्य, न वह चंचलता, न वह गर्व, रमा ह्रदयहीन न था। उसकी आँखें सजल हो गई। जालपा इस दशा में और मेरे जीते जी! अवश्य देवीदीन ने उसे निकाल दिया होगा और वह टहलनी बनकर अपना निर्वाह कर रही होगी। नहीं, देवीदीन इतना बेमुरौवत नहीं है। जालपा ने ख़ुद उसके आश्रय में रहना स्वीकार न किया होगा। मानिनी तो है ही। कैसे मालूम हो, क्या बात है?मोटर दूर निकल आई थी। रमा की सारी चंचलता, सारी भोगलिप्सा गायब हो गई थी। मलिन वसना, दुखिनी जालपा की वह मूर्ति आंखों के सामने खड़ी थी।किससे कहे? क्या कहे? यहाँ कौन अपना है? जालपा का नाम ज़बान पर आ जाये, तो सब-के-सब चौंक पड़ें और फिर घर से निकलना बंद कर दें। ओह! जालपा के मुख पर शोक की कितनी गहरी छाया थी, आँखों में कितनी निराशा! आह, उन सिमटी हुई आँखों में जले हुए ह्रदय से निकलने वाली कितनी आहें सिर पीटती हुई मालूम होती थीं, मानो उन पर हँसी कभी आई ही नहीं, मानो वह कली बिना खिले ही मुरझा गई। कुछ देर के बाद ज़ोहरा आई, इठलाती, मुस्कराती, लचकती, पर रमा आज उससे भी कटा-कटा रहा।

ज़ोहरा ने पूछा, ‘आज किसी की याद आ रही है क्या?’ यह कहते हुए उसने अपनी गोल नर्म मक्खन-सी बांह उसकी गर्दन में डालकर उसे अपनी ओर खींचा। रमा ने अपनी तरफ़ ज़रा भी ज़ोर न किया। उसके ह्रदय पर अपना मस्तक रख दिया, मानो अब यही उसका आश्रय है। ज़ोहरा ने कोमलता में डूबे हुए स्वर में पूछा, ‘सच बताओ, आज इतने उदास क्यों हो? क्या मुझसे किसी बात पर नाराज़ हो?’

रमा ने आवेश से कांपते हुए स्वर में कहा, ‘नहीं ज़ोहरा -‘ तुमने मुझ अभागे पर जितनी दया की है, उसके लिए मैं हमेशा तुम्हारा एहसानमंद रहूंगा। तुमने उस वक्त मुझे संभाला, जब मेरे जीवन की टूटी हुई किश्ती गोते खा रही थी, वे दिन मेरी ज़िन्दगी के सबसे मुबारक दिन हैं और उनकी स्मृति को मैं अपने दिल में बराबर पूजता रहूंगा। मगर अभागों को मुसीबत बार-बार अपनी तरफ खींचती है! प्रेम का बंधन भी उन्हें उस तरफ खिंच जाने से नहीं रोक सकता | मैंने जालपा को जिस सूरत में देखा है, वह मेरे दिल को भालों की तरह छेद रहा है। वह आज फटे-मैले कपड़े पहने, सिर पर गंगा-जल का कलसा लिये जा रही थी। उसे इस हालत में देखकर मेरा दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया। मुझे अपनी ज़िन्दगी में कभी इतना रंज न हुआ था। ज़ोहरा – ‘कुछ नहीं कह सकता, उस पर क्या बीत रही है।’

ज़ोहरा ने पूछा, ‘वह तो उस बुड्ढे मालदार खटिक के घर पर थी?’

रमानाथ-‘हाँ थी तो, पर नहीं कह सकता, क्यों वहाँ से चली गई। इंस्पेक्टर साहब मेरे साथ थे। उनके सामने मैं उससे कुछ पूछ तक न सका। मैं जानता हूँ, वह मुझे देखकर मुँह उधर लेती और शायद मुझे जलील समझती, मगर कम-से-कम मुझे इतना तो मालूम हो जाता कि वह इस वक्त इस दशा में क्यों है। हरा, तुम मुझे चाहे दिल में जो कुछ समझ रही हो, लेकिन मैं इस ख़याल में मगन हूँ कि तुम्हें मुझसे प्रेम है। और प्रेम करने वालों से हम कम-से-कम हमदर्दी की आशा करते हैं, यहाँ एक भी ऐसा आदमी नहीं, जिससे मैं अपने दिल का कुछ हाल कह सकूं, तुम भी मुझे रास्ते पर लाने ही के लिए भेजी गई थीं, मगर तुम्हें मुझ पर दया आई। शायद तुमने गिरे हुए आदमी पर ठोकर मारना मुनासिब न समझा, अगर आज हम और तुम किसी वजह से रूठ जाओ, तो क्या कल तुम मुझे मुसीबत में देखकर मेरे साथ ज़रा भी हमदर्दी न करोगी? क्या मुझे भूखों मरते देखकर मेरे साथ उससे कुछ भी ज्यादा सलूक न करोगी, जो आदमी कुत्तों के साथ करता है? मुझे तो ऐसी आशा नहीं। जहाँ एक बार प्रेम ने वास किया हो, वहाँ उदासीनता और विराग चाहे पैदा हो जाये, हिंसा का भाव नहीं पैदा हो सकता। क्या तुम मेरे साथ ज़रा भी हमदर्दी न करोगी ज़ोहरा? तुम अगर चाहो, तो जालपा का पूरा पता लगा सकती हो, वह कहाँ है, क्या करती है, मेरी तरफ़ से उसके दिल में क्या ख़याल है, घर क्यों नहीं जाती, यहाँ कब तक रहना चाहती है? अगर तुम किसी तरह जालपा को प्रयाग जाने पर राज़ी कर सको ज़ोहरा – ‘तो मैं उम्र-भर तुम्हारी गुलामी करूंगा। इस हालत में मैं उसे नहीं देख सकता। शायद आज ही रात को मैं यहाँ से भाग जाऊं। मुझ पर क्या गुज़रेगी, इसका मुझे ज़रा भी भय नहीं हैं। मैं बहादुर नहीं हूँ, बहुत ही कमज़ोर आदमी हूँ। हमेशा ख़तरे के सामने मेरा हौसला पस्त हो जाता है, लेकिन मेरी बेगैरती भी यह चोट नहीं सह सकती।’

ज़ोहरा वेश्या थी, उसको अच्छे-बुरे सभी तरह के आदमियों से साबिका पड़ चुका था। उसकी आँखों में आदमियों की परख थी। उसको इस परदेशी युवक में और अन्य व्यक्तियों में एक बड़ा फ़र्क  दिखाई देता था ।पहले वह यहाँ भी पैसे की गुलाम बनकर आई थी, लेकिन दो-चार दिन के बाद ही उसका मन रमा की ओर आकर्षित होने लगा। प्रौढ़ा स्त्रियाँ अनुराग की अवहेलना नहीं कर सकतीं। रमा में और सब दोष हों, पर अनुराग था। इस जीवन में ज़ोहरा को यह पहला आदमी ऐसा मिला था, जिसने उसके सामने अपना ह्रदय खोलकर रख दिया, जिसने उससे कोई परदा न रखा। ऐसे अनुराग रत्न को वह खोना नहीं चाहती थी। उसकी बात सुनकर उसे ज़रा भी ईर्ष्या न हुई, बल्कि उसके मन में एक स्वार्थमय सहानुभूति उत्पन्न हुई। इस युवक को, जो प्रेम के विषय में इतना सरल था, वह प्रसन्न करके हमेशा के लिए अपना गुलाम बना सकती थी। उसे जालपा से कोई शंका न थी। जालपा कितनी ही रूपवती क्यों न हो, ज़ोहरा अपने कला-कौशल से, अपने हाव-भाव से उसका रंग फीका कर सकती थी। इसके पहले उसने कई महान सुंदरी खत्रानियों को रूलाकर छोड़ दिया था , फिर जालपा किस गिनती में थी। ज़ोहरा ने उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘तो इसके लिए तुम क्यों इतना रंज करते हो, प्यारे! ज़ोहरा तुम्हारे लिए सब कुछ करने को तैयार है। मैं कल ही जालपा का पता लगाऊंगी और वह यहाँ रहना चाहेगी, तो उसके आराम के सब सामान कर दूंगी। जाना चाहेगी, तो रेल पर भेज दूंगी।’

रमा ने बडी दीनता से कहा, ‘एक बार मैं उससे मिल लेता, तो मेरे दिल का बोझ उतर जाता।’

ज़ोहरा चिंतित होकर बोली, ‘यह तो मुश्किल है प्यारे! तुम्हें यहाँ से कौन जाने देगा?’

रमानाथ – ‘कोई तदबीर बताओ।’

ज़ोहरा – ‘मैं उसे पार्क में खड़ी कर आऊंगी। तुम डिप्टी साहब के साथ वहाँ जाना और किसी बहाने से उससे मिल लेना। इसके सिवा तो मुझे और कुछ नहीं सूझता।

रमा अभी कुछ कहना ही चाहता था कि दारोग़ाजी ने पुकारा, ‘मुझे भी खिलवत में आने की इजाज़त है?’

दोनों संभल बैठे और द्वार खोल दिया। दारोग़ाजी मुस्कराते हुए आये और ज़ोहरा की बग़ल में बैठकर बोले, ‘यहाँ आज सन्नाटा कैसा! क्या आज खजाना खाली है? ज़ोहरा – ‘आज अपने दस्ते-हिनाई से एक जाम भर कर दो।’

रमानाथ – ‘ भाईजान नाराज़ न होना।’

रमा ने कुछ तुर्श होकर कहा, ‘इस वक्त तो रहने दीजिये, दारोग़ाजी, आप तो पिए हुए नजर आते हैं।’

दारोग़ा ने ज़ोहरा का हाथ पकड़कर कहा, ‘बस, एक जाम ज़ोहरा और एक बात और आज मेरी मेहमानी कबूल करो!’

रमा ने तेवर बदलकर कहा, ‘दारोग़ाजी, आप इस वक्त यहाँ से जायें। मैं यह गवारा नहीं कर सकता।‘ दारोग़ा ने नशीली आँखों से देखकर कहा, ‘क्या आपने पट्टा लिखा लिया है?’

रमा ने कड़ककर कहा, ‘जी हाँ, मैंने पट्टा लिखा लिया है!’

दारोग़ा – ‘तो आपका पट्टा खारिज़!’

रमानाथ – ‘मैं कहता हूँ, यहाँ से चले जाइये।’

दारोग़ा -‘अच्छा! अब तो मेंढकी को भी जुकाम पैदा हुआ! क्यों न हो, चलो ज़ोहरा! इन्हें यहाँ बकने दो।’

यह कहते हुए उन्होंने जोहरा का हाथ पकड़कर उठाया। रमा ने उनके हाथ को झटका देकर कहा, ‘मैं कह चुका, आप यहाँ से चले जायें। ज़ोहरा इस वक्त नहीं जा सकती। अगर वह गई, तो मैं उसका और आपका-दोनों का ख़ून पी जाऊंगा। ज़ोहरा मेरी है, और जब तक मैं हूँ, कोई उसकी तरफ आँख नहीं उठा सकता।’

यह कहते हुए उसने दारोग़ा साहब का हाथ पकड़कर दरवाज़े के बाहर निकाल दिया और दरवाज़ा ज़ोर से बंद करके सिटकनी लगा दी। दारोग़ाजी बलिष्ठ आदमी थे, लेकिन इस वक्त नशे ने उन्हें दुर्बल बना दिया था। बाहर बरामदे में खड़े होकर वह गालियाँ बकने और द्वार पर ठोकर मारने लगे।

रमा ने कहा, ‘कहो तो जाकर बचा को बरामदे के नीचे ढकेल दूं। शैतान का बच्चा!’

ज़ोहरा – ‘बकने दो, आप ही चला जायेगा।’

रमानाथ – ‘चला गया।’

ज़ोहरा ने मगन होकर कहा, ‘तुमने बहुत अच्छा किया, सूअर को निकाल बाहर किया। मुझे ले जाकर दिक करता। क्या तुम सचमुच उसे मारते?’

रमानाथ – ‘मैं उसकी जान लेकर छोड़ता। मैं उस वक्त अपने आपे में न था। न जाने मुझमें उस वक्त कहाँ से इतनी ताकत आ गई थी।’

ज़ोहरा – ‘और जो वह कल से मुझे न आने दे तो?’

रमानाथ – ‘कौन, अगर इस बीच में उसने ज़रा भी भांजी मारी, तो गोली मार दूंगा। वह देखो, ताक पर पिस्तौल रखा हुआ है। तुम अब मेरी हो,ज़ोहरा! मैंने अपना सब कुछ तुम्हारे कदमों पर निसार कर दिया और तुम्हारा सब कुछ पाकर ही मैं संतुष्ट हो सकता हूँ। तुम मेरी हो, मैं तुम्हारा हूँ। किसी तीसरी औरत या मर्द को हमारे बीच में आने का मजाज़ नहीं है, जब तक मैं मर न जाऊं।’

ज़ोहरा की आँखें चमक रही थीं, उसने रमा की गरदन में हाथ डालकर कहा, ‘ऐसी बात मुँह से न निकालो, प्यारे!’

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~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

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