Chapter 7 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti
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अनाध्याय
बेहद उमस! मन की गहरी से गहरी पर्त में एक अजीब सी बेचैनी, नींद आ भी रही है और नहीं भी आ रही है। नीम की डाली ख़ामोश हैं। बिजली के प्रकाश में उनकी छायायें मकानों, खपरैलों, बारजों और गलियों में सहमी खड़ी है।
मेरे अर्थ सुप्त मन में असंबध्य विचारों का सिलसिला।
स्वर्ग का फाटक। रूप, रेखा, रंग, आकार कुछ नहीं, जैसा अनुमान कर लें। अतियथार्थवादी कवितायें, जिनका अर्थ कुछ नहीं, जैसा अनुमान कर लें। फाटक पर रामधन बाहर बैठा है। अंदर जमुना श्वेतवसना, शांत, गंभीर। उसकी विश्रृंखल वासना, उसका वैधतव, पुरइन के पत्तों पर पड़ी ओस की तरह बिखर चुका है। वह वैसी ही है, जैसी तन्ना को प्रथम बार मिली थी।
फाटक पर घोड़े की नालें जड़ी हैं। एक, दो, असंख्य दूर-दूर क्षितिज से एक पतला धुएं की रेखा सा रास्ता चला आ रहा है। रास्ता रह-रहकर कांप उठता है, जैसे तार का पुल।
बादलों में एक टॉर्च जल उठती है। राह पर तन्ना चले आ रहे हैं। आगे-आगे तन्ना, कटे पांव से घिसलते हुए, पीछे-पीछे उनकी दो कटी तांगे लड़खड़ाती चली आ रही है। टांगों पर आर.एम.एस. के रजिस्टर लदे हैं।
फाटक पर पांव रुक जाते हैं। फाटक खुल जाते हैं। तन्ना फाइल उठाकर अंदर चले जाते हैं। दोनों पांव बाहर छूट जाते हैं। बिस्तुईया की कटी हुई पूंछ की तरह छटपटाते हैं।
कोई बच्चा रो रहा है। वह तन्ना का बच्चा है। दबे हुए स्वर – यूनियन, एस.एम.आर., एम.आर.एस., आर.एम.एस., यूनियन। दोनों कटे पांव वापस चल पड़ते हैं। धुएं का रास्ता तार के पुल की तरह का कांपता है।
दूर किसी स्टेशन से कोई डाक गाड़ी छूटती है।
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