चैप्टर 10 सूरज का सातवां घोड़ा : धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 10 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 10 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti

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छठवीं दोपहर

(क्रमागत)

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सत्ती की मृत्यु ने माणिक मुल्ला के कच्चे भावुक कवि हृदय पर बहुत गहरी छाप छोड़ी थी और नतीजा यह हुआ था कि उनकी कृतियों में मृत्यु के प्रतिध्वनि बार-बार सुनाई पड़ती थी।

इसी बीच में उनके भैया का तबादला हो गया और भाभी उनके साथ चली गई और घर माणिक की देखभाल में छोड़ दिया गया। माणिक को अकेले घर में बहुत डर लगता था और अक्सर लगता था जैसे वे कंकालों के सुनसान घर में छोड़ दिए गए हों। उन्हें पढ़ने का शौक था, पर अब पढ़ने में उनका चित्त भी नहीं लगता था। उनकी जेब भी भैया के जाने से बिल्कुल खाली हो गई थी और वह कोई ऐसी नौकरी ढूंढ रहे थे, जिसमें वे नौकरी के साथ साथ पढ़ाई भी कायम रख सके। इन सभी परिस्थितियों ने मिलकर उनके हृदय पर गहरी छाप छोड़ी थी और पता नहीं किस रहस्यमय अध्यात्मिक कारण से वे अपने को सत्ती की मृत्यु का जिम्मेदार समझने लगे थे। उनके मन की धीरे-धीरे यह हालत हो गई थी कि उन्हें मोहल्ला छोड़कर ऐसी जगहें अच्छी लगने लगी – जैसे दूर कहीं पर सुनसान पीपल तले की छांव, भयानक उजाड़ कब्रगाह, पुरानी मरघट, टीले और खड्ड आदि। उन्हें चांदनी में कफ़न दिखाई देने लगे और धूप में प्रेयसी की चिता की ज्वालायें।

तब तक हम लोगों की माणिक मुल्ला से इतनी घनिष्ठता नहीं हुई थी। अतः इस प्रकार की बैठक कि नहीं जमती थी और दिन भर भटकने के बाद माणिक मुल्ला अक्सर चायघरों में जाकर बैठा करते थे। चायघरों की चहल-पहल में थोड़ा सा मन बहल जाया करता था।

(लेकिन यह मैं बता दूं कि माणिक मुल्ला का यह ख़याल बिलकुल ग़लत था कि सत्ती की मृत्यु हो गई है। सत्ती सिर्फ बेहोश हो गई थी और उसी हालत में चमन ठाकुर उसे तांगे पर ले गए थे, क्योंकि बदनामी के डर से महेसर दलाल नहीं चाहते थे कि वे लोग एक क्षण भी मुहल्ले में रहे। पर सत्ती कहाँ थी, इसका पता बाद में माणिक को लगा।)

इधर माणिक ने यह निश्चय कर लिया था कि यदि उसकी वजह से सत्ती का जीवन नष्ट हुआ, तो वह भी हर तरह से अपना जीवन नष्ट करके ही मानेंगे। जैसे शरत के देवदास आदि ने किया था और इसलिए जीवन नष्ट करने के लिए जितने भी साधन थे, उन्होंने उन्हें वे काम में ला रहे थे। उनका स्वास्थ्य बुरी तरह गिर गया था, उनका स्वभाव बहुत असामाजिक, उच्छश्रृंखल और आत्मघाती हो गया था, पर उन्हें पूर्ण संतोष था क्योंकि वह सत्ती की मृत्यु का प्रायश्चित कर रहे थे। उनकी आत्मा को, उनके व्यक्तित्व को और उनकी प्रतिभा को पातक लगा हुआ था और पातक की अवस्था में और हो ही क्या सकता है।

अक्सर उनके मित्रों ने उन्हें समझाया कि आदमी में जीवन के प्रति अदम्य आस्था होनी चाहिए। मृत्यु से इस तरह का मोह तो केवल कायरता और विक्षिप्तता के लक्षण है और उनकी राह मुड़नी चाहिए, पर फिर वह सोचते कि अपने कर्तव्यपथ से विचलित हो रहे हैं और उनका कर्तव्य तो मृत्युपथ पर अदम्य साहस से अग्रसर होते रहना है। ऐसा विचार आते ही फिर कछुए की तरह अपने को समेटकर अंतर्मुख हो जाते। धीरे-धीरे उनकी स्थिति उस स्थितिप्रज्ञ की भांति हो गई, जिसे सुख-दुख, मित्र शत्रु, प्रकाश तिमिर, सच झूठ में कोई भेद नहीं मालूम पड़ता, जो समय और दिशा के बंधन से छुटकारा पाकर पृथ्वी पर बध्य जीवों के बीच में जीवनमुक्त आत्माओं की भांति विचरण करते हैं। सामाजिक जीवन उन्हें बार बार अपने शिकंजे में कसने का प्रयास करता था, पर वह प्रेम के अलावा सभी चीजों को निस्सार समझते थे, चाहे वह आर्थिक प्रश्न हो या राजनीतिक आंदोलन , मोतिहारी का अकाल हो या कोरिया की लड़ाई, शांति की अपील हो या सांस्कृतिक स्वाधीनता का घोषणा पत्र। केवल प्रेम सत्य है, प्रेम में जो रस है, रस जो ब्रह्म है – (रसो वै स: साथ देखिए बृहदारण्यक।)

और इस स्वयं स्वीकृति मरण स्थिति से यह हुआ कि उनके गीत में बेहद करुण, दर्द और निराशा आ गई और क्योंकि इस पीढ़ी के हर व्यक्ति के हृदय में कहीं न कहीं माणिक मुल्ला और देवदास दोनों का अंश है। अतः लोग झूम झूम उठते हैं । यद्यपि वे सब के सब ज्यादा चतुर थे, मृत्यु गीतों की प्रशंसा करने के बाद अपने अपने काम में लग जाते थे। पर माणिक मुल्ला ज़रूर ऐसा अनुभव करते थे, जैसे यह उजड़े हुए चकोर के टूटे पंख है, जो चांद के पास पहुँचते-पहुँचते टूट गए और गिर रहे हैं और हवा के हर हल्के झोंके के आगाज से पथ विचलित हो जाते हैं। सच तो यह है कि इनकी न कोई दिशा है न पथ, न लक्ष्य, न प्रयास और न ही कोई प्रगति, क्योंकि पतन को, नीचे गिरने को प्रगति तो नहीं कहते।

इसी समय माणिक मुल्ला से मैंने पूछा कि आखिर इस परिस्थिति से कभी आपका मन नहीं ऊबता था?

वे बोले (शब्द मेरे हैं तात्पर्य उनका) कि ऊबता क्यों नहीं था? अक्सर मैं ऊब जाता था, तो कुछ ऐसे ऐसे करतब करता था कि मैं भी चौंक उठता था और दूसरे भी चौंक उठते थे। जिनसे मैं अक्सर अपने को ही विश्वास दिलाया करता था कि मैं जीवित हूँ क्रियाशील हूँ। जैसे वह कुछ और रहा हूँ, कहते-कहते कर कुछ और गया। इसे संकीर्ण मन वाले लोग झूठ बोला या धोखा देना भी कह सकते हैं। पर यह सब केवल दूसरों को चौंकाना मात्र था, अपनी घबराहट से ऊबकर। तीखी बातें करना, हर मान्यता को उखाड़ फेंकने की कोशिश करना, यह सब मेरे मन की उस प्रवृत्ति से प्रेरित थी, जो मेरे अंदर की जड़ता और खोखलेपन का परिणाम थी।

लेकिन जब हम लोगों ने पूछा कि इसमें आखिर उन्हें संतोष का मिलता था, तो वह बोले, “मैं महसूस करता था कि मैं अन्य लोगों से कुछ अलग हूँ, मेरा व्यक्तित्व अनोखा है, अद्वितीय है और समाज मुझे समझ नहीं सकता। साधारण लोग अत्यंत साधारण है, मेरी प्रतिभा के स्तर से बहुत नीचे है, मैं उन्हें जिस तरह चाहूं बहका सकता हूँ। मुझे अपने व्यक्तित्व के प्रति एक अनावश्यक मोह, उसकी विकृतियों को भी प्रतिभा का तेज समझने का भ्रम और अपनी असामाजिकता को भी अपनी ईमानदारी समझने का अनावश्यक दंभ आ गया था। धीरे-धीरे मैं अपने ही को इतना प्यार करने लगा कि मेरे मन के चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें खड़ी हो गई और मैं से अपने अहंकार में बंदी हो गया। पर इसका नशा मुझ पर इतना तीखा था कि मैं कभी अपनी असली स्थिति पहचान नहीं पाया।

“तो आप इस मन:स्थिति से कैसे मुक्त हुए?”

“वास्तव में एक दिन बड़ी विचित्र परिस्थिति में यह रहस्य मुझ पर खुला कि सत्ती जीवित है और अब उसके मन में मेरे लिए प्रेम के स्थान पर गहरी घृणा है। इसका पता लगते ही मैंने सत्ती की मृत्यु को लेकर जो व्यर्थ का ताना बना अपने व्यक्तित्व के चारों बुन रखा था, वह छिन्न-भिन्न हो गया और मैं फिर एक स्वस्थ साधारण व्यक्ति की तरह हो गया।”

उसके बाद उन्होंने वह घटना बताई:

जिन चायघरों में भी जाते थे, उनके चारों ओर अक्सर भिखारी घूमा करते थे। वे चाय पीकर बाहर निकलते कि भिखारी उन्हें घेर लिया करते।

एक दिन उन्होंने एक नए भिखारी को देखा। एक छोटी सी लकड़ी की गाड़ी में वह बैठा था। उसका एक हाथ कटा था और एक औरत गोद में एक भी भिनकता हुआ बच्चा लिए गाड़ी खींचती चली आ रही थी। वह आकर पास खड़ी हो गई और पीले पीले दांत निकाल कर कुछ कहा कि माणिक ने आश्चर्य से देखा कि वह भिखारी तो है चमन ठाकुर और यह सत्ती है। माणिक को नजदीक से देखते ही सत्ती चौंक कर दो कदम पीछे हट गई और उसका हाथ कमर पर गया, शायद चाकू की तलाश में। पर चाकू न पाकर उसने फिर प्याला उठाया और खून की प्यासी दृष्टि से माणिक की ओर देखती हुई आगे बढ़ गई।

यह देखकर कि सत्ती जीवित है और बाल बच्चों सहित प्रसन्न है, माणिक के मन की सारी निराशा जाती रही और उन्हें नया जीवन मिल गया और कुछ दिनों बाद ही आरएमएस में तन्ना की जगह खाली हुई, तो कविता कहानी छोड़कर उन्होंने नौकरी भी कर ली और सुख से रहने लगे। (जैसे माणिक मुल्ला के अच्छे दिन लौटे, वैसे राम करे सबके लौटे।) इसी के कुछ दिनों बाद हम लोगों की माणिक मुल्ला से घनिष्ठ मित्रता हो गई और उनके यहाँ हम लोगों का अड्डा जमने लगा।

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