चैप्टर 6 सूरज का सातवां घोड़ा : धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 6 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 6 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti

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तीसरी दोपहर

शीर्षक माणिक मुल्लाह ने नहीं बताया।

हम लोग सुबह सो कर उठे , तो देखा कि रात ही रात सहसा हवा बिल्कुल रुक गई है और इतनी उमस है कि सुबह 5:00 बजे भी हम लोग पसीने से तर थे । हम लोग उठकर खूब नहाए। मगर उमस इतनी भयानक थी कि कोई भी साधन काम ना आया। पता नहीं ऐसी उमस इस शहर के बाहर भी नहीं होती है या नहीं, पर यहां तो जिस दिन ऐसी उमस होती है उस दिन सभी काम रुक जाते हैं।सरकारी दफ्तर में क्लर्क काम नहीं कर पाते, सुपरिटेंडेंट बड़े बाबू को डांटते हैं , बड़े बाबू छोटे बाबू पर खीझ उतारते हैं , छोटे बाबू चपरासी से बदला निकालते हैं और चपरासी गालियां देते हुए पानी पिलाने वालों से, भिष्टियों से और मालियों से उलझ जाते हैं, दुकानदार माल न बेचकर ग्राहकों को फंसा देते हैं और रिक्शा वाले इतना किराया मांगते हैं कि सवारियां परेशान होकर रिक्शा न करें।

लेकिन इस उमस के बावजूद माणिक मुल्ला की कहानियां सुनने का लोभ हम लोगों से झूठ नहीं पाता था।अतः हम सब के सब नियत समय पर वही इकट्ठा हुए और मिलने पर सब में यही अभिवादन हुआ – आज बहुत उमस है।

“हां जी बहुत उमस है उफ्फ ओह!”

सिर्फ प्रकाश जब आया और उससे सब ने कहा कि आज बहुत उमस है, तो फलसफा झाड़ते हुए अफलातून की तरह मुंह बनाकर बोला ( मेरी इस झल्लाहट भरी टिप्पणी के लिए क्षमा करेंगे क्योंकि पिछले रात उसने मार्क्सवाद के सवाल पर मुझे नीचा दिखाया था और सच्चे संकीर्ण मार्क्सवादियों की तरह से झल्ला उठा था और मैंने तय कर लिया था कि वह सही बात भी करेगा तो मैं उसका विरोध करूंगा) बाहर हर प्रकाश बोला, “भाई जी उमस हम सभी की जिंदगी में छाई हुई है उसके सामने तो यह कुछ नहीं। हम सभी निम्न मध्यम श्रेणी के लोगों की जिंदगी में हवा का एक ताजा झोंका नहीं।चाहे दम को जाए पर पत्ता नहीं हिलता। धूप जिसे रोशनी देना चाहिए, हमें बुरी तरह झुलसा रही है। पर समझ में नहीं आता कि क्या करें। किसी ना किसी तरह नई और ताजी हवा के झोंके चलने चाहिए, चाहे झूठ के ही झोंके क्यों ना हो।”

प्रकाश की इस मूर्खता भरी  बात पर कोई कुछ नहीं बोला ।(मेरे झूठ के क्षमा करें क्योंकि माणिक ने इस बात की ताईद  की थी, पर मैंने वह कह दिया ना कि मैं अंदर ही अंदर चिढ़ गया हूं।)

खैर तो माणिक मुल्ला बोले, ” जब मैं प्रेम पर आर्थिक  प्रभाव की बात करता हूं , तो मेरा मतलब यह रहता है कि वास्तव में आर्थिक ढांचा हमारे मन पर इतना अजब सा प्रभाव डालता है कि मन की सारी भावनाएं उसे स्वाधीन नहीं हो पाती और हम जैसे लोग जो ना उच्च वर्ग के हैं , ना निम्न वर्ग के, उनके यहां रूढ़ियां, परंपराएं , मर्यादा भी ऐसी पुरानी और विषाक्त हैं कि कुल मिलाकर हम सभी पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हम यंत्र मात्र रह जाते हैं। हमारे अंदर उदार और ऊंचे सपने खत्म हो जाते हैं और एक अजब सी जड़ मूर्छता हम पर छा जाती है।”

प्रकाश ने जब इसका समर्थन किया तो मैंने इसका विरोध किया और कहा, ” लेकिन व्यक्ति को तो हर हालत में ईमानदार बना रहना चाहिए। यह नहीं कि टूटता फूटता चला जाए।”

तो माणिक मुल्ला बोले, “यह सच है, पर जब पूरी व्यवस्था में बेईमानी है, तो एक व्यक्ति की ईमानदारी इसी में है कि वह एक व्यवस्था द्वारा लादी की सारी नैतिक विकृति को भी आस्वीकार करें और उसके द्वारा आरोपित सारी झूठी मर्यादाओं को भी, क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। लेकिन हम यह विद्रोह नहीं कर पाते अतः नतीजा यह होता है कि जमुना की तरह हर परिस्थिति में समझौता करते जाते हैं।”

“लेकिन सभी तो जमुना नहीं होते।” मैंने फिर कहा।

“हां!लेकिन जो इस नैतिक विकृति से अपने को अलग रखकर भी इस तमाम व्यवस्था के विरुद्ध नहीं लड़ते, उनकी मर्यादा शीलता सिर्फ परिष्कृत कायरता होती है। संस्कारों का अंधानुकरण और ऐसे लोग भले आदमी कहलाए जाते हैं।उनकी तारीफ भी होती है, पर उनकी जिंदगी बेहद करुण और भयानक हो जाती है और सबसे बड़ा दुख यह है कि वह भी अपने जीवन का यह पहलू नहीं समझते और बैल की तरह चक्कर लगाते चले जाते हैं। मतलब मैं तुम्हें तन्ना की कहानी सुनाऊं। तन्ना याद है ना ! वही महेसर दलाल का लड़का।”

लोग व्यर्थ के वाद विवाद से ऊब गए थे, अतः माणिक मुल्ला ने कहानी सुनानी शुरू की –

अकस्मात ओंकार ने रोककर कहा, “इस कहानी का शीर्षक?”

माणिक मल्ला इस व्याघात से झल्ला उठे और बोले, “हटाओ जी मैं क्या किसी पत्रिका को कहानी भेज रहा हूं कि शीर्षक के झगड़े में पड़ूं। तुम लोग कहानी सुनने आए हो या शीर्षक सुनने?या मैं उन कहानी लेखकों में से हूं , जो आकर्षक विषय वस्तु के अभाव में आकर्षक शीर्षक देकर पत्रों में संपादकों और पाठकों का ध्यान खींचा करते हैं।”

यह देखकर कि माणिक मुल्ला ओंकार को डांट रहे हैं, हम लोगों ने भी ओंकार को डांटना शुरू कर दिया। यहां तक कि जब माणिक मुल्ला ने हम लोगों को डांटा, तो हम लोग चुप हुए और उन्होंने अपनी कहानी प्रारंभ की।

तन्ना के कोई भाई नहीं था, पर तीन बहने थी। उनमें से जो सबसे छोटी थी , उसी को जन्म देने के बाद उसकी मां गोलोग चली गई थी। रह गए पिताजी जो दलाल थे।चूंकि बच्चे छोटे थे, उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था, अतः तन्ना के पिता महेसर दलाल ने अपनी इच्छा जाहिर की कि किसी भले घर की कोई दबी – ढंकी सुशील कन्या मिल जाए, तो बच्चों का पालन पोषण हो जाए, वरना अब उन्हें क्या बुढ़ापे में कोई औरत का शौक चढ़ा है? राम राम! ऐसी बात सोचना भी नहीं चाहिए। उन्हें तो सिर्फ बच्चों की फिक्र है। वरना आपके बचे खुचे दिन राम के भजन में और गंगा स्नान में काट देने हैं। दही तन्ना की मां, सो तो देवी थी, स्वर्ग चली गई, महेसर दलाल पापी थे सो रह गए।बच्चों का मुंह देख कर कुछ भी नहीं करते, वरना हरिद्वार जाकर बाबा काली कमली वाले के भंडारे में दो जून भोजन करते और परलोक सुधारते।

लेकिन मोहल्ले भर की बड़ी बूढ़ी औरतें कोई ऐसी सुशील कन्या ना जुटा पाई , जो बच्चों का भरण पोषण कर सके । अंत में मजबूर होकर महेसर दलाल एक औरत को सेवा टहल और बच्चों के भरण-पोषण के लिए ले आए।

उस औरत ने आते ही पहले महेसर दलाल के आराम की सारी व्यवस्था की।उनका पलंग बिस्तर हुक्का चिलम ठीक किया, उसके बाद तीनों लड़कियों के चरित्र और मर्यादा की कड़ी जांच की और अंत में तन्ना की फिजूलखर्ची रोकने की पूरी कोशिश करने लगी। बाहर हाल उसने तमाम बिखरती हुई गृहस्थी को बड़ी सावधानी से संभाल लिया। अब उसमें अगर तन्ना और उनकी तीनों बहनों को कुछ कष्ट हुआ हो तो उसके लिए कोई क्या करें?

तन्ना की बड़ी बहन घर का काम का झाड़ू बुआ चौका बर्तन किया करती थी;मंझली बहन जिसके दोनों पांव की हड्डियां बचपन से ही खराब हो गई थी या तो कोने में बैठी रहती थी या आंगन भर में घिसल घिसाल कर सभी भाई बहनों को गालियां देती रहती थी, सबसे छोटी बहन पंचम बनिया के यहां से तंबाकू, चीनी, हल्दी, मिट्टी का तेल और मंडी से अदरक नींबू ,हरी मिर्च ,आलू और मूली वगैरह लाने में व्यस्त रहती थी। तन्ना सुबह उठकर पानी से सारा घर धोते थे, बांस में झाड़ू बांधकर घर भर का जाला पोछते थे, हुक्का भरते थे, इतने में स्कूल का वक्त हो जाता था। लेकिन खाना इतनी जल्दी कहां से बन सकता था, अतः बिना खाए ही स्कूल चले जाते थे। स्कूल से लौट कर आने पर उन्हें फिर शाम के लिए लकड़ी चीरनी पड़ती थी, बुरादे की अंगीठी भरनी पड़ती थी, दीया बत्ती करनी पड़ती थी, बुआ (उस औरत को सब बच्चे बुआ कहा करें, यह महेसर दलाल का हुक्म था।) का बदन भी अक्सर दबाना पड़ता था क्योंकि बिचारी काम करते-करते थक जाती थी और तब तब्बा चबूतरे के सामने लगी हुई मुंसिपलिटी की लालटेन के मंद मधुर प्रकाश में स्कूल का काम किया करते थे। घर में लालटेन एक ही थी और वह बुआ के कमरे में जलती बुझती रहती थी।

तन्ना का दिल कमजोर था। अतः तन्ना अक्सर मां की याद करके रोया करते थे और उन्हें रोता देखकर बड़ी और छोटी बहन भी रोने लगती थी और मंझली अपने दोनों टूटे पैर पटक कर उन्हें गालियां देने लगती थी और दूसरे दिन बुआ से या बाप से शिकायत कर देती थी और वह माथे में आलता बिंदी लगाते हुए रोती हुई कहती थी, “इन कम बख्तों को मेरा खाना पीना उठना बैठना, पहनना ओढ़ना अच्छा नहीं लगता। पानी पी पीकर कोसते रहते हैं। आखिर कौन सी तकलीफ है इन्हें?बड़े बड़े नवाब की लड़के ऐसे नहीं रहती जैसे तन्ना बाबू बुल्ला बना के, पाटी पार के छैल चिकनियों  की तरह घूमते हैं।”और उसके बाद महेसर दलाल को परिवार की मर्यादा कायम रखने के लिए तन्ना को बहुत मारना पड़ता था, यहां तक कि तन्ना की पीठ में नील उभर आती थी अब बुखार चढ़ जाता था और दोनों बहने डर के मारे उनके पास जा नहीं पाती और मंझली बहन मारे खुशी के आंगन घर में भी घुसलती फिरती थी और छोटी बहन से कहती थी, “खूब मार पड़ी। अरे अभी क्या? राम चाहे तो 1 दिन पैर टूटेंगे, कोई मुंह में दाना डालने वाला नहीं रह जाएगा। अरी चल! आज मेरी चोटी तो कर दे, आज खूब मार पड़ी है तन्ना को।”

इन हालातों में जमुना की मां ने तन्ना को बहुत सहारा दिया। उनके यहां पूजा पाठ अक्सर होता रहता था और उसमें वे पांच बंदर और पांच कुंवारी कन्याओं को खिलाया करती थी। बंदरों में तन्ना और कन्याओं में उनकी बहनों को आमंत्रण मिल ता था और जाते समय बुआ साफ-साफ कह देती थी कि दूसरों के घर जाकर नदीदो की तरह नहीं खाना चाहिए, आधी पूडियां बचा कर ले आनी चाहिए। वे लोग यही करते और चूंकि पुडी खाने से मेदा खराब हो जाता है , अतः बेचारी बुआ पूडिया  अपने लिए रख कर  रोटी बच्चों को खिला देती।

तन्ना को अक्सर किसी न किसी बहाने जमुना बुला लेती थी और अपने सामने तन्ना को बिठाकर खाना खिलाती थी।तन्ना खाते जाते और रोते जाते क्योंकि यद्यपि जमुना उनसे छोटी थी, पर पता नहीं क्यों उसे देखते ही तन्ना को अपनी मां की याद आ जाती थी और तन्ना को रोते देखकर जमुना के मन में भी ममता जाग पड़ती थी और जमुना घंटों बैठकर उनसे सुख दुख की बातें करती रहती।होते होते या हो गया कितना के लिए कोई ना था तो जमुना थी और जमुना को 24 घंटे अगर किसी की चिंता थी तो तन्ना की। अब इसी को आप प्रेम कह ले या कुछ और!

जमुना की मां से बात छुपी नहीं रही क्योंकि अपनी उम्र में वह भी जमुना ही रही होंगी और उन्होंने बुलाकर जमुना को बहुत समझाया और कहा कि तन्ना वैसे बहुत अच्छा लड़का है , पर नीच गोत्र का है और अपने खानदान से अभी तक अपने से ऊंचे गोत्र में ही ब्याह हुआ है।पर जब जमुना बहुत रो ई और उसने 3 दिन खाना नहीं खाया , तो उसकी मां ने आधे पर तोड़कर लेने का निर्णय लिया यानी  उन्होंने कहा कि तन्ना घर जमाई बनना पसंद करें तो इस प्रस्ताव पर विचार किया जा सकता है।

पर जैसा पहले कहा जा चुका है कि तन्ना थे ईमानदार आदमी और उन्होंने साफ कह दिया कि पिता कुछ भी हो आखिर का पिता है। उनकी सेवा करना उनका धर्म है। वे  घर जमाई जैसी बात कभी नहीं सोच सकते। इस पर जमुना के घर में काफी संग्राम मचा, पर अंत में जीत जमुना की मां की रही कि जब दहेज होगा , तब ब्याह करेंगे । नहीं तो, लड़की कुंवारी रहेगी।  रास्ता नहीं सूझेगा, तो लड़की पीपल से ब्याह देंगे पर नीचे गोत्र वालों को नहीं देंगे।

जब यह बात महेसर दलाल तक पहुंची, तो उनका खून उबल उठा और उन्होंने पूछा, “कहां है तन्ना? मालूम हुआ है कि मैच देखने गया है तो उन्होंने चीख मारकर कहा ताकि जमुना के घर तक सुनाई दे – “आने दो आज हरामजादे को। खाल न उधेड़  दी तो नाम नहीं।लकड़ी के ठूंठ को साड़ी पहना कर नौबत भिजवा कर ले आऊंगा, पर उनके यहां मैं लड़के का ब्याह करूंगा जिनके यहां…!”और उसके बाद उनके यहां का जो वर्णन महेसर दलाल ने किया उसे जाने ही दीजिए।बहरहाल  बुआ ने 3 दिन तक खाना नहीं दिया और महे सर दलाल ने इतना मारा कि मुंह से खून निकल आया और तीसरे दिन भूख से व्याकुल तन्ना छत पर गया , तो जमुना की मां ने उन्हें देखते ही झट से खिड़की बंद कर ली। जमुना छज्जे पर धोती सुखा रही थी , क्षण भर इनकी  ओर देखती रही, फिर चुपचाप बिना धोती सुखाए नीचे उतर गई। तन्ना चुपचाप थोड़ी देर उदास खड़े रहे, फिर आंखों में आंसू भरे नीचे उतर आए और समझ गए कि उनका जमुना पर जो भी अधिकार था वह खत्म हो गया।और जैसा कहां जा चुका है कि वे ईमानदार आदमी थे अतः उन्होंने कभी इधर का रुख भी ना किया।हालांकि उधर देखते ही उनकी आंखों में आंसू छलक जाते थे और लगता था जैसे गले में कोई चीज फस रही हो, सीने में कोई सूजा चला रहा हो। धीरे-धीरे तन्ना का मन भी पढ़ने से उचट गया और वह एफ ए के पहले साल में ही फेल हो गए।

महेसर दलाल ने उन्हें फिर खूब मारा । उनकी मंझली बहन खुश होकर अपने लुंज पुंज पैर पटकने लगी और हालांकि तन्ना खूब रोए और दबी जबान इसका विरोध भी किया, पर महेसर दलाल ने उनका पढ़ना लिखना चुराकर उन्हें आर एम एस में भर्ती करा दिया और वह स्टेशन पर डाक का काम करने लगे । उसी समय महेसर दलाल की निगाह में एक लड़की  (यहां पर मैं यह साफ-साफ कह दूं कि या तो कहानी की विषय वस्तु के कारण हो या उस दिन की सर्वग्राही उमस के कारण, लेकिन उस दिन माणिक मुल्ला की कथा शैली में वह चटपटा पन नहीं था , जो पिछली दो कहानियों में था । अजब ढंग से नीरस शैली में वे विवरण देते चले जा रहे थे और हम लोग भी किसी तरह ध्यान लगाने की कोशिश कर रहे थे।  उमस बहुत थी। कहानी में भी कमरे में भी)

है तो उसी समय महेसर दलाल की निगाह में एक लड़की आई जिसके बाप मर चुके थे। मां की अकेली संतान थी। मां की उम्र चाहे कुछ रही हो पर देखकर यह कहना कठिन था, मां बेटी में कौन 19 से कौन 20। कठिनाई एक थी, लड़की इंटर के इम्तिहान में बैठ रही थी हालांकि उम्र में तन्ना से बहुत छोटी थी। लेकिन मुसीबत यह थी कि उस रूपवती विधवा के पास जमीन जायदाद काफी थी। ना कोई देवर था ना कोई लड़का। अतः उसकी सहायता और रक्षा के ख्याल से तन्ना को इंटरमीडिएट पास बताकर महेसर दलाल ने उसकी लड़की से तन्ना की बात पक्की कर ली । मगर इस शर्त  के साथ की शादी तब होगी, जब महेसर दलाल अपनी लड़की को निपटा लेंगे और तब तक लड़की पढ़ेगी नहीं।

चूंकि लड़की की ओर से भी सारा इंतज़ाम महेसर दलाल को करना था, अतः ग्यारह-बारह बजे रात तक लौट पाते थे और कभी-कभी रात को भी वहीं रह जाना पड़ता था, क्योंकि लड़ाई चल रही थी और ब्लैकआउट रहता था। लड़की का घर उसी मोहल्ले की एक दूसरी बस्ती में था, जिसमें दोनों तरफ फाटक लगे थे, जो ब्लैकआउट में नौ बजते ही बंद हो जाते थे।

बुआ ने इसका विरोध किया और नतीजा यह हुआ कि महेसर दलाल ने साफ-साफ कह दिया कि उसके घर में रहने से मोहल्ले में चारों तरफ चार आदमी चार तरह की बातें करते हैं। महेसर दलाल ठहरे इज्जतदार आदमी, उन्हें बेटे-बेटियों का ब्याह निपटाना है और वे यह ढोल कब तक अपने गले बांधे रहेंगे। अंत में हुआ यह कि बुआ जैसी हँसती-इठलाती हुई आई थी, वैसे ही रोती-कलपती अपनी गठरी-मठरी बांधकर चली गई और बाद में मालूम हुआ कि तन्ना की माँ के तमाम जेवर और कपड़े, जो बहन की शादी के लिए रखे हुए थे, गायब हैं।

इसने तन्ना पर एक भयानक भार लाद दिया। महेसर दलाल का उन दिनों अजब हाल था। मोहल्ले में यह बात फैली हुई थी कि महेसर दलाल जो कुछ करते हैं, वह एक साबुन बेचने वाली लड़की को दे आते हैं। तन्ना को घर का भी सारा खर्च चलाना पड़ता था, ब्याह की तैयारी भी करनी पड़ती थी। दोपहर को ए.आर.पी में काम करते थे। रात को आर.एम.एस में और नतीजा यह हुआ कि उनकी आँखें धंस गई, पीठ झुक गई, रंग झुलस गया और आँखों के आगे काले धब्बे उड़ने होने लगे।

जैसे-तैसे करके बहन की शादी निबटी। शादी में जमुना आई थी, पर तन्ना से बोली नहीं। एक दलान में दोनों मिले तो चुपचाप बैठे रहे। जमुना नाखून से फर्श खोदती रही, तन्ना तिनके से दांत खोदते रहे। यों जमुना बहुत सुंदर निकल आई थी और गुजराती जुड़ा बांधने लगी थी। लेकिन यह कहा जा चुका है कि तन्ना ईमानदार आदमी थे। तन्ना का फलदान चढ़ा, तो वह और भी सज-धज के आई और उसने तन्ना से एक सवाल पूछा, “भाभी क्या बहुत सुंदर है तन्ना?”

“हाँ!” तन्ना ने सहज भाव से जवाब दिया, तो रूंधते गले से बोली, “मुझसे भी!”

तन्ना कुछ नहीं बोले, घबराकर बाहर चले आये और सुबह के लिए लकड़ी चीरने लगे।

तन्ना की शादी के बाद जमुना ने भाभी से काफ़ी हेलमेल बढ़ा लिया। रोज सुबह-शाम आती, तन्ना से बात भी ना करती। भाभी बहुत पढ़ी लिखी थी, तन्ना से भी ज्यादा और थोड़ी घमंडी भी थी। बहुत जल्दी मैके चली गई, तो एक दिन जमुना आई और तन्ना से ऐसी-ऐसी बातें करने लगी, जैसे उसने कभी नहीं की थी, तो तन्ना ने उसके पांव छूकर उसे समझाया कि जमुना तुम कैसी बातें करती हो? तो जमुना कुछ देर रोती रही और फिर फुफकारती हुई चली गई।

उन्हीं दिनों मोहल्ले में एक अजब सी घटना हुई। जिस साबुन वाली लड़की का नाम महेसर दलाल के साथ लिया जाता था, वह एक दिन मरी हुई पाई गई। उसकी लाश भी गायब कर दी गई और महेश्वर दलाल पुलिस के डर के मारे जाकर समधियाने में रहने लगे।

तन्ना की ज़िन्दगी अजब सी थी। पत्नी ज्यादा पढ़ी थी, ज्यादा धनी घर की थी, ज्यादा रूपवती थी, हमेशा ताने दिया करती थी। मंझली बहन घिसल-घिसल कर गालियाँ देती रहती थी, “राम करे दोनों पांव में कीड़े पड़े।” अफसर ने उनको निकम्मा करार दिया था और उन्हें ऐसी ड्यूटी दे दी थी कि हफ्ते में चार दिन और चार रातें रेल के सफर में भी बीतती थी और बाकी दिन हेड क्वार्टर में डांट खाते खाते। उनकी फाइल में बहुत शिकायतें लिख गई थी। उन्हीं दिनों उनके यहाँ यूनियन बनी और वे ईमानदार होने के नाते उससे अलग रहे, नतीजा यह हुआ कि अफसर भी नाराज और साथी भी।

इस बीच जमुना का ब्याह हो गया। महेसर दलाल गुजर गये। पहला बच्चा होने में पत्नी मरते-मरते बची और बचने के बाद तन्ना से जंगली छिपकली से भी ज्यादा नफ़रत करने लगी। छोटी बहन ब्याह के काबिल हो गई और तन्ना सिर्फ इतना कर पाये कि सूख कांटा हो गये। कनपटियों के बाल सफेद हो गये, झुककर चलने लगे, दिल का दौरा पड़ने लगा, आँख से पानी आने लगा और मेदा इतना कमजोर हो गया कि एक कौर भी हज़म नहीं होता था।

डाक ले जाते हुए एक बार रेल में नीमसार जाती हुई तीर्थ यात्रिणी जमुना मिली। जमुना बड़ी ममता से पास आकर बैठ गई। उसके बच्चे ने मामा को प्रणाम किया। जमुना ने दोनों को खाना दिया। कौर तोड़ते हुए तन्ना की आँख में आँसू आ गये। जमुना ने कहा भी कि कोठी है, तांगा है, खुली आबोहवा है। आकर कुछ दिन रहो, तंदुरुस्ती संभल जायेगी, पर बेचारे तन्ना! नैतिकता और ईमानदारी बड़ी चीज होती है।

लेकिन उस सफ़र से जो तन्ना लौटे, तो फिर पड़ ही गये। महीनों बुखार आया, रोग के बारे में डॉक्टरों की मुख्तलिफ़ राय थी। कोई हड्डी का बुखार बताता था, तो कोई खून की कमी, तो कोई टीबी भी बता रहा था। घर का यह हाल कि एक पैसा पास नहीं, पत्नी का सारा जेवर लेकर सास अपने घर चली गई, छोटी बहन रोया करे, मंझली घिसल-घिसल कर कहे, “अभी क्या? अभी तो कीड़े पड़ेंगे।”

होते-होते जब नौबत यहाँ तक पहुँची कि उन्हें दफ्तर से खारिज कर दिया गया। घर में फांके होने लगे, तो उनकी सास आकर अपनी लड़की को लिवा ले गई और बोली, “जब कमर में बूता नहीं था, तो भांवरें क्यों फिराई थी और फिर यूनियन-फूनियन के गुंडे आवारे आकर घर में हुड़दंग मचाते रहते हैं। तन्ना की बहनें उनके सामने चाहे निकलें, चाहे नाचे गाये, उनकी लड़की यह पेशा नहीं कर सकती।“

इधर यूनियन उनकी नौकरी के लिए लड़ रही थी और जगह बहाल हो गये, तो लोगों ने सलाह दी, दो हफ्ते के लिए चले जायें। बाकी लोग उनका काम करा दिया करेंगे और उसके बाद छुट्टी ले लेंगे।

उनका तन हड्डी का ढांचा भर रह गया था। चलते हुए आप नजदीक से पसलियों की खड़खड़ाहट तक सुन सकते थे। किसी तरह हिम्मत बांध कर गये। अफसर लोग चिढ़े हुए थे। मेल ट्रेन पर रात की ड्यूटी लगा दी और वह भी एन होली के दिन। रंग में भीगते हुए भी थर-थर कांपते हुए स्टेशन गये। सारा बदन जल रहा था। काम तो साथियों ने मिलकर कर दिया, वे चुपचाप पड़े रहे। डिब्बे में अंदर सीलन थी। बदन टूट रहा था, नसें ढीली पड़ गई थी। सुबह हुई। टुंडला आया। थोड़ी-थोड़ी धूप निकल आई थी। वे जाकर दरवाजे के पास खड़े हो गये। गाड़ी चल दी। पांव थर-थर कांप रहे थे। सहसा इंजन के पानी की टंकी की झूलती हुई बाल्टी इनकी कनपटी में लगी और फिर इन्हें होश नहीं रहा।

आँख खुली, तो टुंडला के रेलवे अस्पताल में थे। दोनों पांव नहीं थे। आस-पास कोई नहीं था। बेहद दर्द था। खून इतना निकल चुका था कि आंख से कुछ ठीक दिखाई नहीं पड़ता था। सोचा, किसी को बुलावे, तो मुँह से जमुना का नाम निकला और फिर अपने बच्चे का फिर बापू (महेसर का) और फिर चुप हो गये।

लोगों ने बहुत पूछा, “किसे तार दे दे क्या किया जाये?” सिर्फ मरने के पहले उन्होंने अपनी दोनों कटी टांगे देखने की इच्छा प्रकट की और वे लाई गई, तो ठीक से देख नहीं सकते थे। अतः बार-बार उन्हें छूते थे, दबाते थे, उठाने की कोशिश करते थे और हाथ खींच लेते थे और थर-थर कांपने लगते थे।

पता नहीं मुझे कैसा लगा कि मैं निष्कर्ष सुनने की प्रतीक्षा किए बिना चुपचाप उठकर चला आया।

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