चैप्टर 9 सूरज का सातवां घोड़ा : धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 9 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 9 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti

Chapter  9 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti

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पाँचवी दोपहर

काली बेट का चाकू

अगले दिन दोपहर को जब हम सब लोग मिले, तो एक अजब सी मन:स्थिति थी हम लोगों की। हम सब इस रंगीन रूमानी प्रेम के प्रति अपना मुँह मोड़ नहीं पाते और दूसरी ओर उस पर हँसी भी आती थी, तीसरी ओर एक अजब सी ग्लानि थी। अपने मन में ही हम सब और हम सबके ये किशोरावस्था के सपने कितने निस्सार होते हैं और इन सभी भावनाओं का संघर्ष हमें एक अजीब सी झेंप और झुंझलाहट – बल्कि उसे खिसियाहट कहना बेहतर होगा – की स्थिति में छोड़ गया था। लेकिन माणिक मुल्ला बिल्कुल निर्द्वंद्व भाव से प्रसन्नचित्त हम लोगों से हँस-हँस कर बातें करते जा रहे थे और अलमारी तथा मेज पर से धूल झाड़ रहे थे, जो रात को आंधी के कारण जम जाती है और ऐसा लगता था, जैसे आदमी पुराने फटे हुए मोजों को कूड़े में फेंक देता है, उसी तरह अपने उस रूमानी भ्रम को सारी ममता पर छोड़ कर फेंक दिया है और उधर मुड़कर देखने का भी मोह नहीं रखा।

ऐसा मैंने पूछा – “इस घटना ने तो आपके मन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला होगा?”

मेरे इस प्रश्न से उनके चेहरे पर दो-चार बहुत करुण रेखायें उभर आई, लेकिन उन्होंने बड़ी चतुरता से अपनी मन:स्थिति छिपाते हुए कहा – “मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी कोई घटना ऐसी नहीं, जो आदमी के अंतर्मन पर गहरी छाप न छोड़ जाये।”

“कम से कम मेरे जीवन में ऐसा हो, तो मेरी ज़िन्दगी बिल्कुल मरुस्थल हो जाये। शायद दुनिया की कोई चीज मेरे मन में कभी रस का संचार न कर सके।” मैंने कहा।

माणिक मुल्ला मेरी ओर देखकर हँसे और बोले – “इसके यह मतलब है कि तुमने अभी न तो ज़िन्दगी देखी है और न अभी अच्छे उपन्यास ही पढ़े हैं। ज्यादातर ऐसा ही हुआ है और ऐसा ही सुना गया है मित्रवर कि इस प्रकार की निष्फल उपासना के बाद फिर ज़िन्दगी में कोई दूसरी लड़की आती है, जो बौद्धिक, नैतिक तथा आर्थिक स्तर से निम्न स्तर की होती है, पर जिसमें अधिक ईमानदारी, अधिक चरित्र, अधिक वफ़ादारी और अधिक बल होता है। मसलन शरद चटर्जी के देवदास मुखर्जी को ही ले लो। पारो के बाद उन्हें चंद्रा मिली। इसी तरह के अन्य कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं। माणिक मुल्ला को क्या तुम कम समझते हो? माणिक मुल्ला ने लिली के बाद गांधारी की तरह अपनी आँखों पर जीवन भर के लिए पट्टी बांध लेने की कसम खा ली। लेकिन अच्छा होता कि पट्टी बांध देता क्योंकि लिली के बाद सत्ती का आकर्षण मेरे लिए शुभ नहीं हुआ और न उसके ही लिये। लेकिन वह बिल्कुल दूसरी धातु की थी। जमुना से भी अलग और लिली से भी अलग। बड़ी विचित्र है उसकी कहानी भी…”

“लेकिन मुन्ना भाई! एक बात मैं कहूंगा, अगर तुम बुरा ना मानो।”

“तो!” प्रकाश के बाद काटकर कहा, “ये कहानियाँ जो तुम कहते हो, बिल्कुल सीधे साधे विवरण की भांति होती है, उनमें कुछ कथाशिल्प, कुछ कांट-छांट, कुछ टेक्निक भी तो होनी चाहिए।”

“टेक्निक! हाँ टेक्निक पर ज्यादा जोर वही देता है, जो कहीं ना कहीं अपरिपक्व होता है, जो अभ्यास कर रहा है, जिसे उचित माध्यम नहीं मिल पाया। लेकिन फिर भी टेक्निक पर ध्यान देना बहुत स्वस्थ प्रवृत्ति है, बशर्ते वह अनुपात से अधिक न हो जाये। जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझे तो कहानी कहने के दृष्टिकोण से फ्लाबेयर बहुत अच्छे लगते हैं, क्योंकि उनमें पाठक को अपनी जादू में बांध देने की ताकत है। वैसे उनके बाद चेखव कहानी के क्षेत्र में विचित्र व्यक्ति रहा है और मैं उनका लोहा मानता हूँ। चेखव ने एक बार किसी महिला से कहा था – ‘कहानी कहना कठिन बात नहीं है। आप कोई चीज मेरे सामने रख दें, यह शीशे का गिलास, यह ऐश ट्रे और कहें कि मैं इस पर कहानी कहूं। थोड़ी देर में मेरी कल्पना जागृत हो जायेगी और उससे सबंधित कितने लोगों के जीवन मुझे याद आ जायेंगे और वह चीज कहानी का सुंदर विषय वस्तु बन जायेगी।”

मैंने अवसर का लाभ उठाते हुए फौरन वह काले बेटवाला चाकू ताख पर से उठाया और बीच में रखते हुए कहा – “अच्छा इसको सत्ती की कहानी का केंद्र बिंदु बनाइये।”

“बनाइये!” माणिक मुल्ला गंभीर होकर बोले, “यह तो उसकी कहानी का केंद्र बिंदु है। जब मैं यह चाकू देखता हूँ, तो कल्पना करता हूँ – इसके काले बेंट पर बहुत सुंदर फूल की पंखुड़ियों जैसे गुलाबी नाखूनों वाली लंबी पतली उंगलियाँ आवेश से कांप रही है, एक चेहरा जो आवेश से अरक्त है, थोड़ी निराशा से नीला है, थोड़ी डर से विवर्ण है! यह स्मृति चित्र है सत्ती का, जब वह अंतिम बार मुझे मिली थी और मैं आँख उठाकर उसकी ओर देख भी नहीं सका था। उसके हाथ में यही चाकू था।”

उसके बाद उन्होंने सत्ती की जो कहानी बताई, उसे टेक्निक न निबाहकर में संक्षेप में बताये देता हूँ।

माणिक मुल्ला का कहना था कि वह लड़की अच्छी नहीं कही जा सकती थी, क्योंकि उसके रहन-सहन में एक अजीब से विलासिता झलकती थी, चाल-ढाल  भी बहुत उद्दीप्त करने वाली थी। वह हर आने-जाने वाले परिचित-अपरिचित से बोलने-बतियाने के लिए उत्सुक रहती थी, गली में चलते-चलते गुनगुनाती रहती थी और अकारण ही लोगों की ओर देखकर मुस्कुरा दिया करती थी।

लेकिन माणिक मुल्ला का कहना था कि वह लड़की बुरी भी नहीं की जा सकती थी, क्योंकि उसके बारे में कोई वैसी अफ़वाह नहीं थी और सभी लोग अच्छी तरह जानते थे कि अगर कोई उसकी तरफ ऐसी वैसी निगाह से देखें, तो वह आँखें निकाल सकती है। उसकी कमर में एक काले बेट का चाकू हमेशा रहा करता था।

लोगों का यह कहना था कि उसका चाचा, जिसके साथ में रहती थी, रिश्ते में उसका कोई नहीं है। वह असल में फतेहपुर के पास के किसी गाँव का नाई है, जो सफरमैना पलटन में भर्ती होकर क्वेटा बलूचिस्तान की ओर गया था और वहाँ किसी गाँव के नेस्तनाबूद हो जाने के बाद यह तीन-चार बरस की लड़की उसे रोती हुई मिली थी, जिसे वह उठा लाया और पालने पोसने लगा था। बहुत दिनों तक वह लड़की उधर ही रही और अंत में उसका एक हाथ कट जाने के बाद उसे पेंशन मिलने लगी और वह आकर यहीं रहने लगा। एक हाथ कट जाने से वह अपना पुश्तैनी पेशा तो नहीं कर सकता था, लेकिन उसने यहाँ आकर साबुनसाजी शुरू कर दी थी और चमन ठाकुर का पहिया छाप साबुन न सिर्फ मोहल्ले में वरन चौक तक की दुकानों पर बेचा जाता था। क्योंकि उसका एक हाथ कटा हुआ था, अतः सोलह सत्रह साल की अनिद्य सुंदरी सत्ती साबुन जमाती थी, उसके टुकड़े उसी काले बेट के चाकू से काटती थी, उन्हें दुकानदारों के यहाँ पहुँचाती थी और हर पखवाड़े के अंत में जाकर उनका दाम वसूल कर लाती थी। हर दुकानदार उसके सिर पर बंधे रंग-बिरंगे रुमाल, उसके बलूची कुर्ते, उसके चौड़े गरारे की ओर एक दबी निगाह डालता और दूसरे साबुनों के बजाय पहिया छाप साबुन दुकान पर रखता, ग्राहकों से उसकी सिफारिश करता और उसकी यह तमन्ना रहती कि कैसे सत्ती को पखवारे के अंत में ज्यादा से ज्यादा कलदार दे सके।

चमन ठाकुर कारखाने के बाहर खाट डालकर नारियल का हुक्का पीते रहते थे और सत्ती अंदर काम करती थी। श्रम ने सत्ती के बदन में एक ऐसा गठन, चेहरे पर एक ऐसा तेज़, बातों में ऐसा अदम आत्मविश्वास पैदा कर दिया था कि जब उसे माणिक मुल्ला ने देखा, तो उसके मन में लिली का अभाव बहुत हद तक भर गया और सत्ती के व्यक्तित्व से मंत्रमुग्ध हो गये।

सत्ती से उनकी भेंट अजब ढंग से हुई। कारखाने के बाहर चमन और सत्ती मिलकर गंगा महाजन के यहाँ का देना पावना जोड़ रहे थे। चमन ने जो कुछ पढ़ा लिखा था, वह भूल चुके थे। सत्ती ने थोड़ा पढ़ा था, पर यह हिसाब काफ़ी जटिल था। उधर माणिक मुल्ला दही लेकर घर जा रहे थे कि दोनों को हिसाब को झगड़ते देखा। सत्ती सिर झटकती थी, तो उसके कानों के दोनों बूंदे चमक उठते थे और हँसती थी, तो मोती से दांत चमक जाते थे, मुड़ती थी, तो कंचन सा बदन झलमला उठता था और सिर झुकाती थी, तो नागिन सी अलकें झूल जाती थीं। अब अगर माणिक मुल्ला के कदम धरती से चिपक ही गए, तो इसमें माणिक मुल्ला का कौन कसूर?

इतने में चमन ठाकुर बोले, “जय राम जी की भैया!” और उनके कटे हुए दायें हाथ ने जुंबिश खाई और फिर लटक गया। सत्ती हँस कर बोली, “लो जरा हिसाब जोड़ दो माणिक बाबू!”

और माणिक बाबू भाभी के लिए दही ले जाना भूल कर इतनी देर तक हिसाब लगाते रहे कि भाभी ने खूब डांटा। लेकिन उस दिन से अक्सर उनके जिम्मे सत्ती  का हिसाब जोड़ना आता रहा और गणित शास्त्र में उनकी जैसी दिलचस्पी बढ़ गई, उसे देखकर ताज़्जुब होता था।

माणिक मुल्ला की गिनती पता नहीं क्यों सत्ती अपने मित्रों में करने लगी। एक ऐसा मित्र, जिस पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है। एक ऐसा मित्र, जिसे सभी साबुन के नुस्खे निसंदेह बताए जा सकते थे। जिसके बारे में पूरा भरोसा था कि वह साबुन के नुस्खों को दूसरी कंपनी वालों को नहीं बता देगा। जिस पर सारा हिसाब छोड़ा जा सकता था, जिससे यह भी सलाह दी जा सकती थी कि हरधन स्टोर्स को माल उधार दिया जा सकता है या नहीं। माणिक के आते ही सत्ती सारा काम छोड़कर उठ जाती, दरी बिछा देती, जमे हुए साबुन के थाल ले आती और कमर से काला चाकू निकालकर साबुन की सलाखें काटती जाती और माणिक को दिनभर का सारा दुख सुख बताती जाती। किस बनिया ने बेईमानी की, किस बनिये ने सबसे ज्यादा साबुन बेचा, कहाँ किराने की नई दुकान खुली, वगैरह।

माणिक मुल्ला उसके पास बैठकर एक अजब सी बात महसूस करते थे। इस मेहनत करने वाली स्वाधीन लड़की के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था, जो न पढ़ी-लिखी भावुक लिली में था, न अनपढ़ी दमित मनवाली जमुना में था। इसमें सहज स्वस्थ ममता थी, जो हमदर्दी चाहती थी, हमदर्दी देती थी। जिसकी मित्रता का अर्थ था – एक दूसरे के सुख दुख, श्रम और उल्लास में हाथ बंटाना। उसमें कहीं से कोई गांठ, कोई उलझन, कोई भी कोई दमन, कोई कमजोरी नहीं थी। कोई बंदा नहीं था। उसका मन खुली धूप की तरह स्वच्छ था। अगर उसे लिली की तरह थोड़ी शिक्षा भी मिली होती, तो सोने में सुहागा होता। मगर फिर भी उसमें जो कुछ था, वह मालिक मुल्ला को आकाश के सपनों में विहार करने की प्रेरणा नहीं देता था, न उन्हें विकृतियों की अंधेरी खाइयों में गिराता था। वह उन्हें धरती पर सहज मानवीय भावना से जीने की प्रेरणा देती थी। वह कुछ ऐसी भावनायें जगाती थी, जो ऐसी ही कोई मित्र संगिनी जगा सकती थी, जो स्वाधीन हो, जो साहसी हो, जो कोई जो मध्यम वर्ग की मर्यादाओं के शीशों के पीछे सजी हुई गुड़िया की तरह बेजान और खोखली न हो। जो सृजन और श्रम में सामाजिक जीवन में उचित भाग लेती हो अपना उचित देय देती हो।

मेरा यह मतलब नहीं कि माणिक मुल्ला उसके पास बैठकर यह सब चिंतन किया करते थे। नहीं, यह सब तो उस परिस्थिति का मेरा अपना विश्लेषण है। वैसे माणिक मुल्ला को तो वह केवल बहुत अच्छी लगती थी और उन दिनों माणिक मुल्ला का मन पढ़ने में भी लगने लगा, काम करने में भी और उनका वजन भी बढ़ गया और उन्हें भूख भी खुलकर लगने लगी, वे कॉलेज के खेलों में भी हिस्सा लेने लगे।

माणिक मुल्ला ने ज़रा झेंपते हुए यह भी स्वीकार किया कि उनके मन में सत्ती के लिए बहुत आकर्षण जाग गया था और सत्ती की हाथी दांत सी गर्दन को चूमते हुए उसके लंबे झूलते बूंदों को देखकर उनके होंठ कांपने लगते थे और माथे की नसों में गर्म खून जोर से सूरज का सातवां घोड़ा दौड़ाने लगता था। पर सारी मित्रता के बावजूद कभी सत्ती के व्यवहार में उसे जमुना सी कोई बात नहीं दिखाई पड़ी। माणिक की निगाह जब उसके झूलते हुए बूंदों पर पड़ती और उनका माथा गर्म हो जाता, तभी उसकी निगाह सत्ती की कमर से झूलते हुए चाकू पर भी पड़ती और माथा फिर ठंडा हो जाता, क्योंकि सत्ती उन्हें बता चुकी थी कि एक बार एक बनिये ने साबुन की सलाखों को रखवाते हुए कहा, “साबुन तो क्या मैं साबुन वाली को भी दुकान पर रख लूं।” तो सत्ती ने फौरन चाकू चाकू खोलकर कहा – “मुझे अपनी दुकान पर रख या ये चाकू खोलकर छाती पर रख कमीने।“ तो सेठ ने सत्ती के पांव छूकर कसम खाई कि वह तो मज़ाक कर रहा था। वरना वह तो अपनी पहली ही सेठानी नहीं रख पाया, वही दरबान के साथ चली गई। अब भला सत्ती को क्या रखेगा?

इसी घटना को याद कर माणिक मुल्ला कभी कुछ नहीं कहते थे। पर मन ही मन एक अव्यक्त करुण उदासी उनकी आत्मा पर छा गई थी और उन दिनों में कुछ कवितायें भी लिखने लगे थे, जो बहुत करूण विरह गीत होती थी, जिनमें कल्पना कर लेते थे कि सत्ती उनसे दूर कहीं चली गई है और फिर वे सत्ती को विश्वास दिलाते थे कि प्रिय तुम्हारे प्रणय का स्वप्न मेरे हृदय में पल रहा है और सदा पलता रहेगा। कभी-कभी वे बहुत व्याकुल होकर लिखते थे, जिस का भावार्थ होता था कि मेघों की छाया में तो मुझसे तृषित नहीं रहा जाता, आदि आदि। सारांश यह कि वे जो कुछ सत्ती से नहीं कह पाते थे, उसे गीतों में बांध डालते थे। पर जब कभी सत्ती के सामने उन्होंने उसे गुनगुनाने का प्रयास किया, तो सती हँसते-हँसते लोटपोट हो गई और बोली – ‘तुमसे बन्ना सुना है; सांझी सुनी है।‘ और तब वह मोहल्ले में गाये जाने वाले गीत इतनी दर्द भरी आवाज में गाती थी कि माणिक मुला भाव-विभोर हो उठते थे और अपने गीत उन्हें कृत्रिम और शब्द आडंबर पूर्ण लगने लगते थे। ऐसी थी सत्ती, सदैव निकट, सदैव दूर, अपने में एक स्वतंत्र सत्ता, जिसके साथ माणिक मुल्ला के मन को संतोष मिलता था और साथ आकुलता भी।

कभी-कभी वे सोचते थे कि अपनी भावनाओं को पत्र के माध्यम से लिख डालें और वे कभी-कभी पत्र लिखते भी। ये बहुत लंबे-लंबे और बहुत मधुर, यहाँ तक कि अगर वे बचे होते, तो उनकी गणना नेपोलियन और सीजर के प्रेम पत्रों के साथ की जाती। मगर जब उसमें ‘आत्मा की ज्योति’ ‘चांद की राजकुमारी’ आदि वे लिख चुकते, तो उन्हें ख़याल आता कि यह भाषा तो बेचारी सत्ती समझती नहीं और जो भाषा उसके समझ में आती थी, उसका व्यवहार करने पर कमर में लटकने वाले काले चाकू की तस्वीर दिमाग में आ जाती थी। अतः उन्होंने वे सब खत फाड़ डालें।

उसी बीच में सत्ती की ममता माणिक के प्रति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई और जब जब माणिक मुल्ला कहीं जाते, बाहर बैठा हुआ चमन ठाकुर अपना कटा हाथ हिला कर उन्हें सलाम करता, हँसता और पीठ पीछे इन्हें खूब बहुत खूनी निगाह से देखकर दांत पीसता और पैर पटक कर हुक्के के अंगारे कुरेदता। सत्ती माणिक के खाने-पीने, कपड़े लत्ते, रहन-सहन में बहुत दिलचस्पी लेती और बाद में अपने अड़ोसिन-पड़ोसिन से बतलाती कि माणिक बारहवीं से में पढ़ रहे हैं और उसके बाद बड़े लाट के दफ्तर में नौकरी मिल जायेगी और हमेशा माणिक को याद दिलाती रहती कि पढ़ने में ढिलाई मत करना।

पर एक बात अक्सर माणिक देखते थे कि सत्ती कुछ उदास ही रहने लगी है और कोई ऐसी बात है, जो यह माणिक से छुपाती है। माणिक ने बहुत पूछा, पर उसने नहीं बताया। पर वह अक्सर चमन ठाकुर को झिड़क देती थी, राह में उसकी चिलम पड़ी रहती, तो उसे ठोकर मार देती थी, खुद कभी हिसाब न करके उसके सामने कॉपी और वसूली के रुपये फेंक देती थी। चमन ठाकुर ने एक दिन माणिक से कहा कि मैं अगर इसे न लाकर पालता पोसता, तो इसे चील और गिद्ध नोच नोच कर खा गए होते और यही जब माणिक ने सत्ती से कहा, तो वह बोली, “चील और गिद्ध खा गए होते, तो वह अच्छा होता, बजाय इसके कि यह राक्षस उसे नोंचे खाये।”

माणिक ने सशंकित होकर पूछा, तो वह बहुत चिल्ला कर बोली, “यह मेरा चाचा बनता है। इसलिए पाल पोस कर बड़ा किया था। इसकी निगाह में खोट आ गया है, पर मैं डरती नहीं। यह चाकू मेरे पास हमेशा रहता है।”

और उसके बाद उन्होंने सत्ती को पहली बार रोते देखा और वह अनाथ, मेहनती, निराश्रित लड़की फूट-फूटकर रोई और उन्हें कई घटनायें बताई। यह बात सुनकर माणिक मुल्ला को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। वह बहुत व्यथित हुए और यह जान करके ऐसा भी हो सकता है, उनके मन पर बहुत धक्का लगा। उस दिन शाम को उसे खाना नहीं खाया गया और यह सोच कर उनकी आँखों में आँसू भी आ गए कि यह ज़िन्दगी इतनी गंदी और विकृत क्यों है।

उसके बाद उन्होंने देखा कि सत्ती चमन ठाकुर में कटुता बढ़ती ही गई। साबुन का रोजगार भी ठंडा होता गया और अक्सर माणिक के जाने पर सत्ती रोती हुई मिलती और चमन ठाकुर चीखते गरजते हुए मिलते। वे रिटायर्ड सोल्जर थे। अतः कहते थे, “शूट कर दूंगा तुझे। संगीन से दो टुकड़े कर दूंगा। तूने समझा क्या है? आदि आदि।”

सत्ती के चेहरे पर थोड़ी खुशी उस दिन आई, जिस दिन उसे मालूम हुआ कि माणिक बारहवां दर्जा पास हो गए हैं। उसने उस दिन महीनों बाद पहली बार चमन ठाकुर से जाकर दो रुपये मांगे। एक की मिठाई मंगाई और दूसरे के फूल बताशे चंडी के चौंतरे पर चढ़ा आई। पर उस दिन माणिक आये ही नहीं। जिस दिन माणिक आये, उस दिन उसे यह जानकर बड़ी निराशा हुई कि माणिक नौकरी नहीं करेंगे बल्कि पढ़ेंगे। हालांकि भैया भाभी ने साफ मना कर दिया है कि अब जमाना बुरा है और वे माणिक का खर्च नहीं उठा सकते। सत्ती की राय भैया भाभी के साथ थी क्योंकि वह अपनी आँख से माणिक को बड़े लाट के दफ्तर में देखना चाहती थी। पर जब उसने माणिक की इच्छा पढ़ने की देखी, तो कहा, “उदास मत हो। अगर मैं यही रही, तो मैं दूंगी तुम्हें रुपये। अगर नहीं रही, तो देखा जायेगा।”

माणिक मुल्ला ने घबराकर पूछा कि ‘कहाँ जाओगी तुम?’ तो सती ने एक और बात बताई, जिससे माणिक स्तब्ध रह गये।

महेसर दलाल यानी जमुना वाले तन्ना का पिता अक्सर आया करता था और चूंकि  दलाल होने के नाते उसकी सुनारों और सर्राफों से काफ़ी जान-पहचान थी। अतः गिलट के कड़े और पायल पर पॉलिश करा कर और चांदी के गहनों पर नकली सुनहरा पानी चढ़ा कर लाता था और सत्ती को देने की कोशिश करता था। मगर माणिक मुल्ला ने पूछा कि चमन ठाकुर कुछ नहीं कहते, तो बोली कि रोजगार तो पहले ही चौपट हो चुका है। चमन गांजा और दारू खूब पीता है। महेसर दलाल उसे रोज नये नोट ला कर देते है। रोज उसे अपने साथ ले जाते हैं। रात को वह पिये हुए आता है और ऐसी बातें बकता है कि सत्ती अपना दरवाजा अंदर से बंद कर लेती है और रात भर डर के मारे उसे नींद नहीं आती। इतना कहकर वह रो पड़ी और बोली, “सिवा माणिक के उसका अपना कोई नहीं है और माणिक भी उसे कोई रास्ता नहीं बताते।”

माणिक उस दिन बहुत ही व्यथित हुए और उस दिन उन्होंने एक बहुत ही करूण कविता लिखी और उसे लेकर किसी स्थानीय पत्र में देने ही जा रहे थे कि रास्ते में सत्ती मिली। वह बहुत घबराई हुई थी और रोते-रोते उसकी आँखें सूज आई थी। उसने माणिक को रोककर कहा, “तुम मेरे यहाँ मत आना। चमन ठाकुर तुम्हारा कत्ल करने पर उतारू है। चौबीसों घंटे नशे में धुत रहता है। तुम्हें मेरी मांग की कसम है। तुम फिकर न करना। मेरे पास चाकू तो रहता ही है और फिर कोई मौका पड़ा, तो तुम तो हो ही। जानते हो, वह बूढ़ा पोपला महेसर मुझसे ब्याह करने को कह रहा है।”

माणिक मन बहुत आकुल रहा। कई बार उन्होंने चाहा कि सत्ती की ओर जायें, पर सच बात यह है कि नशेबाज चमन का क्या ठिकाना है? एक ही हाथ है, पर सिपाही का हाथ ठहरा।

इस बीच में एक बात और हुई। यह सारा किस्सा माणिक मुल्ला के नाम के साथ बहुत नमक मिर्च के साथ फैल गया और मोहल्ले की कई बूढ़ियों ने आकर बीजा छीलते हुए माणिक की भाभी को कहानी बताई और ताकीद की कि उसका ब्याह कर देना चाहिए, कई ने तो अपने नातेदारों की सुंदर सुशील लड़कियाँ तक बताई। भाभी ने थोड़ी अपनी तरफ से भी जोड़कर भैया से पूरा किस्सा बताया और भैया ने दूसरे दिन माणिक को बुलाकर समझाया कि उन्हें माणिक पर पूरा विश्वास है,  लेकिन माणिक अब बच्चे नहीं हैं। उन्हें दुनिया को देख कर चलना चाहिए। छोटे लोगों को मुँह लगाने से कोई फ़ायदा नहीं। यह सब बहुत गंदे और कमीने किस्म के होते हैं। माणिक के खानदान का इतना नाम है। माणिक अपने भैया के स्नेह पर बहुत रोये और उन्होंने वादा किया कि अब इन लोगों से नहीं घुले मिलेंगे।

दो-तीन बार सत्ती आई, पर माणिक मुल्ला अपने घर से बाहर नहीं निकले और कहला दिया कि नहीं है। माणिक अक्सर जमुना के यहाँ जाया करते थे और एक दिन जमुना के दरवाजे पर सत्ती मिली।

माणिक कुछ नहीं बोले, तो सत्ती रोकर बोली, “नसीब रूठ गया, तो तुमने भी साथ छोड़ दिया। क्या गलती हो गई मुझसे?”

माणिक ने घबरा कर चारों ओर देखा। भैया के दफ्तर से लौटने का वक्त हो गया था। सत्ती उनकी घबराहट समझ गई। क्षण भर उनकी ओर बड़ी अजब निगाह से देखती रही। फिर बोली, “घबराओ न माणिक। हम जा रहे हैं।” और आँसू पोंछकर धीरे-धीरे चली गई।“

उन्हीं दिनों भाभी और माणिक के बीच अक्सर झगड़ा शुरू हुआ करता था क्योंकि भैया भाभी साफ कह चुके थे कि माणिक को अपनी नौकरी कर लेनी चाहिए। पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं। पर माणिक पढ़ना चाहते थे। भाभी ने एक दिन जब बहुत जली-कटी सुनाई, तो माणिक उदास होकर एक बाग में जाकर बरगद के नीचे बेंच पर बैठ गए और सोचने लगे कि क्या करना चाहिए।

थोड़ी देर बाद उन्हें किसी ने पुकारा, तो देखा सामने सत्ती है। बिल्कुल शांत, मुर्दे की तरह सफेद चेहरा, भावहीन जड़ आँखें। आई और आकर पावों के पास जमीन पर बैठ गई और बोली, “आखिर जो सब चाहते थे, वह हो गया।”

माणिक के पूछने पर उसने बताया कि कल रात को चमन ठाकुर के साथ महेसर दलाल आया। दोनों बड़ी रात तक बैठकर शराब पीते रहे। सहसा महेसर से बहुत से रुपयों की थैली लेकर चमन उठकर बाहर चला गया और महेसर आकरर सत्ती से ऐसी बातें करने लगा, जिसे सुनकर सत्ती का तन बदन सुलगने लगा। सत्ती बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ी, तो देखा कि चमन उसे बाहर से बंद कर के चला गया है। सत्ती ने फौरन अपना चाकू निकाला और महेसर दलाल को एक धक्का दिया, तो महेसर दलाल लुढ़क गये। एक तो बूढ़े, दूसरे शराब में चूर और सत्ती जो चाकू से लेकर उनकी गर्दन पर चढ़ बैठी, तो उनका सारा नशा काफूर हो गया और बोले, “मार डाल मुझे। मैं उफ्फ न करूंगा। मैं तुझ पर हाथ में उठाऊंगा। लेकिन मैंने नगद पाँच सौ रुपया दिया है। मैं बाल बच्चेदार आदमी मर जाऊंगा।”

और उसके बाद हिचकियाँ भर-भर कर रोने लगा और फिर उसने वह कागज दिखाया, जिस पर चमन ठाकुर ने पाँच सौ पर उसके साथ सत्ती को भेजने की शर्त की थी और महेसर रोने लगा और सत्ती के जैसे किसी ने प्राण खींच लिए हों। महेसर के हाथ-पांव फूल गए, फिर महेसर दलाल ने समझाया कि अब तो कानूनी कार्रवाई हो गई है, फिर महेसर दलाल सुख से रखेगा वगैरह वगैरह , पर सत्ती जड़ मुर्दे सी पड़ी रही। उसे याद नहीं मशीन महेसर ने क्या कहा, उसे याद नहीं क्या हुआ।

सत्ती चुपचाप नीची निगाह किए नखों से धरती खोदती रही और फिर माणिक की ओर देखकर बोली, “महेसर ने आज अंगूठी दी है।”

माणिक ने हाथ में लेकर देखा, तो मुस्कुराने का प्रयास करती हुए बोली, “असली है!”

माणिक चुप हो रहे। सत्ती ने थोड़ी देर बाद पूछा कि माणिक उदास क्यों है? तो माणिक ने बताया कि भाभी से पढ़ाई के बारे में चक चक हो गई है। तो सत्ती ने अंगूठी निकालकर फौरन माणिक के हाथ में रख दिया और कहा कि इससे वह फीस जमा कर दें। आगे की बात सत्ती के हाथ में छोड़ दे।

माणिक ने इसे स्वीकार नहीं किया, तो क्षण भर सत्ती चुप रही, फिर सहसा बोली, “मैं समझ गई। अब तुम मुझसे कुछ नहीं लोगे। पर बताओ मैं क्या करूं? मुझे कोई भी तो नहीं बताता। मैं तुम्हारे पांव पड़ती हूँ। मुझे कोई रास्ता बताओ। कोई रास्ता, तुम जो कहोगे, मैं हर तरह से तैयार हूँ।”

और सचमुच सत्ती, जो अब तक पत्थर की तरह निष्प्राण बैठी थी, पांव पकड़कर फूट-फूट कर रो पड़ी। माणिक घबरा कर उठे, पर उसने पांव पर सिर रख दिया और इतना रोई इतना रोई कि कुछ पूछो मत। पर माणिक ने कहा कि अब उन्हें देर हो रही है। तो वह चुपचाप उठी और चली गई।

एक बार फिर वह मिली और माणिक उस दिन भी उदास थे क्योंकि जुलाई आ गई थी और उनके दाखिले का कुछ निश्चय ही नहीं हो पा रहा था। सत्ती ने बहुत इसरार करके माणिक को रुपए दिये, ताकि उनका काम ना रुके और फिर बहुत बिलक बिलक कर रोई और कहा कि उसकी ज़िन्दगी नरक हो गई है। कोई राह नहीं बताता। माणिक  मुल्ला ने सांत्वना का एक शब्द भी नहीं कहा, तो वह चुप हो गई और पूछने लगी कि माणिक को उसकी बातें बुरी तो नहीं लगती क्योंकि माणिक के अलावा उसका और कोई नहीं है, जिससे वह अपना दुख कह सके। और माणिक से ना जाने क्यों वह कोई बात नहीं छिपा पाती है और उनसे कह देने पर उसका मन हल्का हो जाता हैऔर उसे लगता है कि कम से कम एक आदमी ऐसा है, जिसके आगे उसकी आत्मा निष्पाप और अकलुष है।

माणिक के सामने कोई रास्ता नहीं था और सच तो यह है कि भैया का कहना भी उन्हें ठीक लगता था कि माणिक का और इन लोगों का क्या मुकाबला । दोनों की सोसाइटी अलग, मर्यादा अलग, पर माणिक मुल्ला सत्ती से कुछ कह भी नहीं पाते थे, क्योंकि उन्हें पढ़ाई भी जारी रखनी थी और इस अंतर्द्वंद के कारण उनके गीतों में गहन निराशा और कटुता आती जा रही थी।

और फिर एक रात एक अजब सी घटना हुई। माणिक मुल्ला सो रहे थे कि सहसा किसी ने उन्हें जगाया और उन्होंने आँख खोली, तो सामने देखा सत्ती है। उसके हाथ में चाकू था, उसकी लंबी पतली गुलाबी उंगलियों में चाकू कांप रहा था, चेहरा आवेश से आरक्त, निराशा से नीला, डर से विवर्ण, उसकी बगल में छोटा सा बैग था, जिसमें गहने और रुपये भरे थे। सत्ती माणिक के पांव पर गिर पड़ी और बोली, “किसी तरह चमन ठाकुर से छूट कर आई हूँ। अब डूब मरूंगी, पर वहाँ नहीं लौटूंगी। तुम कहीं ले चलो, कहीं! मैं काम कर लूंगी, मजदूरी कर लूंगी। तुम्हारे भरोसे चली आई हूँ।”

माणिक का यह हाल तक कि ऊपर की सांस ऊपर नीचे की सांस नीचे। कविता उविता तो ठीक है पर यह इल्लत माणिक कहाँ पालते? और फिर भैया ठहरे भैया और भाभी उनसे सात कदम आगे। माणिक की सारी किस्मत बड़े पतले तागे पर झूल रही थी। पर आखिर दिमाग माणिक मुल्ला का ठहरा। खेल ही तो गया। फौरन बोले, “अच्छा बैठो सत्ती! मैं अभी चलूंगा। तुम्हारे साथ चलूंगा।”

और इधर पहुँचे भैया के पास। चुपचाप दो वाक्यों में सारी स्थिति बता दी। भैया बोले, “उसे बिठाओ। चमन को बुला लाऊं।”

माणिक गए और सत्ती जितना इसरार करें जल्दी निकल चलने को कि कहीं महेसर दलाल या चमन ही न आ पहुँचे, उतना माणिक किसी न किसी बहाने टालते जायें और जब सत्ती ने चाकू चमका कर कहा कि अगर नहीं चलोगे, तो आज या तो मेरी जान जायेगी या और किसी की, तो माणिक का रोम-रोम थर्रा उठा और माणिक मन ही मन भैया को स्मरण करने लगे।

सत्ती उनसे पूछती रही, “कहना चलोगे? कहाँ ठहरोगे? कहाँ नौकरी दिलाओगे? मैं अकेली नहीं रहूंगी।” इतने में एक हाथ में लाठी लिए महेसर और एक में लालटेन लिए चमन ठाकुर आ पहुँचे और पीछे-पीछे भैया और भाभी। सत्ती दहकती नागिन की तरह चलकर कोने में चिपक गई और क्षण भर में ही स्थिति समझकर चाकू खोलकर माणिक की ओर लपकी, “दगाबाज कमीना!” और भैया ने फौरन माणिक को खींच लिया। महेसर ने सत्ती को दबोचा और भाभी चीख कर भागी।

उसके बाद कमरे में भयानक दृश्य रहा। सत्ती काबू में ही ना आती थी, पर जब चमन ठाकुर ने अपने एक ही फौजी हाथ से पटका उठा कर सत्ती को मारा, तो वह बेहोश होकर गिर पड़ी। इसी अवस्था में सत्ती का चाकू वहीं छूट गया और उसके गहनों का बैग भी पता नहीं कहाँ गया। माणिक का अनुमान था कि भाभी ने उसे सुरक्षा के ख़याल से ले जाकर अपने संदूक में रख लिया था।

बेहोश सत्ती को भैया और महेसर उठाकर उसके घर पहुँचा आये और माणिक मुल्ला डर के मारे भैया के कमरे में सोये।

दूसरे दिन चमन ठाकुर के घर पर काफ़ी जमाव था क्योंकि घर खुला पड़ा था, सामान बिखरा पड़ा था और चमन ठाकुर तथा सत्ती दोनों गायब थे और बहुत सुबह उठकर जो बूढ़ियाँ गंगा नहाने जाती थी, उनका कहना था कि एक तांगा इधर से गया था, जिस पर कुछ सामान लदा था, चमन ठाकुर बैठा था और आगे की सीट पर सफेद चादर से ढका कोई सो रहा था, जैसे लाश हो।

लोगों का कहना था कि चमन और महेसर ने मिलकर रात को सत्ती का गला घोंट दिया।

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