चैप्टर 6 गुनाहों का देवता : धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 6 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 6 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 6 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

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चंदर के जाने के जरा ही देर बाद पापा आाये और खाने बैठे। सुधा ने रसोई की रेशमी धोती पहनी और पापा को पंखा झलने बैठ गयी। सुधा अपने पापा की सिरचढ़ी दुलारी बेटियों में से थी और इतनी बड़ी हो जाने पर भी वह दुलार दिखाने से बाज नहीं आती थी। फिर आज तो उसने पापा की प्रिय नानखटाई अपने हाथ से बनायी। दुलार दिखाने का उस का हक था और भली बुरी हर तरह की जिदको मान लेना, यह पापा की मजबूरी थी ।

मुश्किल से डॉ० साहब ने अभी दो कौर खाये होंगे कि सुधा ने  कहा, “नानखटाई खाओ पापा!”

डॉ० शुक्ला ने एक नानखटाई तोड़ कर खाते हुए कहा, “बहुत अच्छी है।” खाते-खाते उन्होंने पूछा, “सोमवार को कौन दिन है सुध!”

“सोमवार को कौन दिन है?” सोमवार को ‘मण्डे’ है।” सुधा ने हँस कर कहा। डॉ० शुक्ला भी अपनी भूल पर हँस पड़े।

“अरे देख तो में कितना भुल्लकड़ हो गया हूँ। मेरा मतलब था कि सोमवार को कौन तारीख है।”

“११ तारीख।” सुधा बोली, “क्यों?”

“कुछ नहीं, १० को कॉन्फ्रेंस है और १४ को तुम्हारी बुआ आ रही है।”

“बुआ आ रही हैं, और विनती भी आयेगी?”

“हाँ, उसी को तो पहुँचाने आ रही है। विदुषी का केन्द्र यही तो है।”

“आ हा! तब तो बिनती तीन महीने यहीं रहेगी, पापा अब बिनती को यहीं बुला लो। मैं बहुत अकेली रहती हूँ।”

“हाँ अब तो जून तक यहीं रहेगी। फिर जुलाई में उसकी शादी होगी।” डॉ० शुक्ला ने कहा।

“अरे, अभी से, अभी उस की उम्र ही क्या है?” सुधा बोली

“क्यों, तेरे ही बराबर है। अब तेरे लिए भी तेरी बुआ ने लिखा है।“

“नहीं पापा, हम ब्याह नहीं करेंगे।” सुधा ने मचलकर कहा।

“तब?”

“बस हम पढ़ेंगे। एफ०ए० कर लें, फिर बी०ए०, फिर एम०ए०, फिर रिसर्च, फिर बराबर पढ़ते जायेंगे, फिर एक दिन हम भी तुम्हारे बराबर हो जायेंगे। क्यों पापा?”

“पागल नहीं तो, बातें तो सुनो इसकी। ला, दो नानखटाई और दे।“ शुक्ला ने हँसकर बोले।

“नहीं, पहले तो कबूल दो तब हम नानखटाई देंगे। बताओ ब्याह तो नहीं करोगे।” सुधा ने दो नानखटाइयाँ हाथ में उठाकर कहा।

“ला रख।”

“नहीं पहले बता दो।”

“अच्छा अच्छा नहीं करेंगे।”

सुधा ने दोनो नानखटाइयाँ रखकर पंखा हांकना शुरू किया। इतने में फिर नानखटाइयाँ खाते हुए डॉ० शुक्ला बोले, “तेरी सास तुझे देखने आयेगी, तो यही नानखटाइयाँ तुझसे बनवा कर खिलायेंगे।”

“फिर वही बात।” सुधा ने पंखा पटक कर कहा, “अभी तुम वादा कर चुके हो कि ब्याह नहीं करोगे।”

“हाँ, हाँ, ब्याह नहीं करूंगा, यह तो कह दिया मैंने। लेकिन तेरा ब्याह नहीं करूंगा यह मैंने कब कहा।”

“हाँ आँ, ये तो फिर झूठ बोल गये तुम…” सुधा बोली।

“अच्छा ए! चलो मोहर ।” महराजिन ने डांटकर कहा, “एत्ती बड़ी बिटिया हो गयी, मारे दुलार के बररानी जात है।” महराजिन पुरानी थी और सुधा को डांटने का पूरा हक़ था उसे, और सुधा भी उस का बहुत लिहाज़ करती थी। वह उठी और चुपचाप जा कर अपने कमरे में लेट गयी। १२ बज रहे थे।

वह लेटी-लेटी कल रात की बात सोचने लगी। क्लास में क्या मजा माया था कल; गेसू कितनी अच्छी लड़की है! इस वक्त गेसू के यहाँ खाना-पीना हो रहा होगा और फिर सब लोग मिल कर गायेंगे। कौन जाने शायद दोपहर को कव्वाली भी हो। इन लोगो के यहाँ कव्वाली इतनी अच्छी होती है। सुधा नहीं सुन पायेगी और गेसू ने भी कितना बुरा माना होगा। और यह सब सिर्फ चंदर की वजह से। चंदर हमेशा उसके आने-जाने, उठने-बैठने में कतर-ब्योंत करता रहता है। एक बार वह अपने मन से लड़कियों के साथ पिकनिक में चली गयी। वही चंदर के बहुत से दोस्त भी थे। एक दोस्त ने जा कर चंदर से जाने क्या कह दिया कि चंदर उस पर बहुत बिगड़ा और सुधा कितनी रोयी थी उस दिन। यह चंदर बहुत खराब है। सच पूछो अगर कभी-कभी वह सुधा का कहना मान लेता है, तो उससे दुगुना सुधा पर रौब जमाता है और सुधा को रुला-रुला कर मार डालता है। और खुद अपने आप दुनिया भर में घूमेंगे। अपना काम होगा तो “चलो सुधा, अभी करो, फौरन।” और सुधा का काम होगा तो – “अरे भाई, क्या करें भूल गये।” अब आज ही देखो, सुवह ८ बजे आये और अब देखो दो बजे भी जनाब आते है या नहीं? और कह गये हैं दो बजे तक के लिए तो अब दो बजे तक सुधा को चैन नहीं पड़ेगी। न नींद आयेगी, न किसी काम में तबीयत लगेगी। लेकिन अब ऐसे काम कैसे चलेगा। इम्तहान को कितने थोड़े दिन रह गये हैं और सुधा की तबीयत सिवा पोयट्री ( कविता ) के और कुछ पढने में लगती ही नहीं। कब से वह चंदर से कह रही है थोड़ा-सा कनॉमिक्स पढ़ा दो, लेकिन ऐसा स्वार्थी है कि बस चाय पी ली, नानखटाई खाली, रूला लिया और फिर अपने मस्त साइकिल पर घूम रहे हैं।

यही सब सोचते सोचते सुधा को नींद आ गयी।

और तीन बजे जब गेसू आयी, तो भी सुधा सो रही थी। पलंग के नीचे डी०एम० सी० का गोला खुला हुआ था और तकिये के पास क्रोसिया पड़ी थी- सुधा थी बड़ी प्यारी। बड़ी ख़ूबसूरत और खासतौर से उसकी पलकें तो अपराजिता के फूलों को मात करती थी। और थी इतनी गोरी गुदकारी कि कहीं पर दबा तो फूल खिल जाये। मूँगिया होंठों पर जाने कैसा अछूता गुलाब मुसकराता था और वह तो जैसे बेले की पाँखुरियों की बनी हों। गेसू आयी। उस के हाथ में मिठाई थी, जो उसकी माँ ने सुधा के लिए भेजी थी। वह पल भर खड़ी रही, फिर उसने मेज पर मिठाई रख दी और क्रोशिया से सुधा की गरदन गुदगुदाने लगी। सुधा ने करवट बदल ली। गेसू ने नीचे पड़ा हुआ डोरा उठाया और आहिस्ते से उसका चुटीला डोरे के एक छोर में बांध कर दूसरा छोर मेज के पाये में बाँध दिया। और उसके बाद बोली- “सुधा, सुधा उठो।”

सुधा चौंक कर उठ गयी आँख मलते-मलते बोली, “अब दो बजे हैं? लाये उन्हें या नहीं।”

“ओहो! उन्हें लाये या नहीं। किसे बुलवाया था रानी दो बजे, जरा हमें भी तो मालूम हो?” गेसू ने बाँह में चुटकी काटते हुए पूछा।

“उफ्फ़ोह” सुधा बाँह झटक कर बोली, “मार डाला। बेदर्द कहीं की? ये सब अपने उन्हीं अख्तर मियाँ को दिखाया कर।” और ज्यों ही सुधा ने सर ढंकने के लिए पल्ला उठाया, तो देखा कि चोटी डोर में बंधी हुई है। इसके पहले कि सुधा कुछ कहे, गेसू बोली, “या सनम! जरा पढ़ाई तो देखो, मैंने तो सुना था कि नींद न आये इसलिए लड़के अपनी चोटी खूंटी में बांध लेते हैं, पर यह नहीं मालूम था कि लडकियों भी अब वही करने लगी हैं।”

सुधा ने चोटी से डोर खोलते हुए कहा, “मैं ही सताने को रह गयी हूँ। अख्तर मियाँ की चोटी बांध कर नचाना उन्हें। अभी से बेताब क्यों हुई जाती है?”

“अरे रानी, उनके चोटी कहाँ? मियाँ हैं मियाँ !”

“चोटी न सही, दाढ़ी सही।”

“दाढ़ी, खुदा खैर करे, अगर वो दाढ़ी रख लें, तो मैं उनसे मोहब्बत तोड़ लूं।”

सुधा हँसने लगी।

 “ले अम्मी ने तेरे लिए मिठाई भेजी है। तू आयी क्यों नहीं?”

“क्या बताऊं?”

“बताऊं वऊं कुछ नहीं। अब कब आयेगी तू?”

“गेसू, सुनो इसी मंगल, नहीं नहीं बृहस्पति को बुआ आ रही हैं। वो चली जायेंगी, तब आऊंगी मैं।”

“अच्छा अब मैं चलूं। अभी कामिनी और प्रभा के यहाँ मिठाई पहुँचानी है।” गेसू मुड़ते हुए बोली।

“अरे बैठो भी।” सुधा ने गसूस की ओढ़नी पकड़ कर उसे खींच कर बिठलाते हुए कहा, “अभी आये हो, बैठे हो, दामन संभाला है।”

“आहा! अब तो तू भी उर्दू शायरी कहने लगी।” गेसू ने बैठते हुए कहा।

“तेरा हो मर्ज़ लग गया।” सुधा ने हँसकर कहा।

“देख कहीं और भी मर्ज़ न लग जाये, वरना फिर तेरे लिए भी इंतज़ाम करना होगा!” गेस ने पलंग पर लेटते हुए कहा।

“अरे ये वो गुड़ नहीं कि चींटे खायें।”

“देखूंगी, और देखूंगी क्या, देख रही हूँ। इधर पिछले दो साल से कितनी बदल गयी है तू। पहले कितना हँसती-बोलती थी, कितना लड़ती-झगड़ती थी और अब कितनी हँसने-बोलने पर भी गुमसुम हो गयी है तू। और वैसे हमेशा हँसती रहे चाहे लेकिन जाने किस खयाल में डूबी रहती है हमेशा।” गेसू ने सुधा की ओर देखते हुए कहा।

“ढत् पगली कहीं की।” सुधा ने गेसू के एक हलकी-सी चपत मार पर कहा, “यह सब तेरे अपने खयाली पुलाव हैं। किसी के ध्यान में डूबूंगी, ये हमारे गुरु ने नहीं सिखाया।”

“गुरू तो किसी के नहीं सिखाते सुधा रानी, बिल्कुल सच-सच, क्या तुम्हारे मन में किसी के लिए मोहब्बत नहीं जागी?” गेस ने बहुत गंभीरता से पूछा।

“देख गेसू, तुझसे मैंने आज तक तो कभी कुछ नहीं छिपाया, न शायद कभी छिपाऊंगी। अगर कभी कोई बात होती, तो तुझसे छिपी न रहती और रहा मुहब्बत का, तो सच पूछ तो मैंने जो कुछ कहानियों में पढ़ा है कि किसी को देखकर मैं रोने लगूं, हँसने लगूं, गाने लगूं, पागल हो जाऊं, यह सब कभी मुझे नहीं हुआ। और रही कवितायें, तो उनमें की बातें मुझे बहुत अच्छी लगती है। कीट्स की कवितायें पढ़कर ऐसा लगा है अक्सर कि मेरी नसों का कतरा-कतरा आँसू बनकर छलकने वाला है। लेकिन वह महज कविता का असर होता है।”

“महज कविता का असर!” गेसू ने पूछा, “कभी किसी खास आदमी के लिए तेरे मन में हँसी या आँसू नहीं उमड़ते। कभी अपने मन को जाँच कर तो देख, कहीं तेरी नाजुक-खयाली के परदे में किसी एक की सूरत तो नहीं छिपी है।”

“नहीं गेसूबानो नहीं, इस में मन को जांचने की क्या बात है। ऐसी बात होती और मन किसी के लिए झुकता, तो क्या खुद मुझे नहीं मालूम होता?” सुधा बोली,  “लेकिन तुम ऐसा क्यों सोचती हो ?”

“बात यह है सुधी।” गेसू ने सुधा को अपनी गोद में खीचते हुए कहा – “देखो, तुम मुझ से इल्म में ऊँची हो, तुमने अंग्रेजी शायरी छान ली है, लेकिन ज़िन्दगी से जितना मुझे साबिक़ा पड़ा चुका है, अभी तुम्हें नहीं पड़ा। अकसर कब, कहाँ और कैसे मन अपने को हार बैठता है, यह खुद हमें पता नहीं लगता। मालूम तब होता है, जब जिसके कदम पर हमने सिर रखा है, वह झटके से अपने कदम घसीट ले। उस वक्त हमारी नींद टूट जाती है और तब हम जाकर देखते हैं कि अरे हमारा सिर तो किसी के कदमों पर रखा हुआ है और उनके सहारे आराम से सोते हुए हम सपना देख रहे थे कि हमारा सिर कहीं झुका ही नहीं। और मुझे जाने तेरी आँखो में इधर क्या दिख रहा है कि मैं बेचैन हो उठी हूँ। तूने कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन मैंने देखा कि नाजुक अशआर तेरे दिल को उस जगह छू लेते हैं, जिस जगह उसी को छू सकते है, जो अपना दिल किसी के कदमों पर चढ़ा चुका हो और मैं यह नहीं कहती कि तूने मुझ से छिपाया है। कौन जानता है, तेरे दिल ने खुद तुझसे यह राज छिपा रखा हो।” और सुधा के गाल थपथपाते हुए गेसू बोली – “लेकिन मेरी एक बात मानेगी तू? तू कभी इस दर्द को मोल न लेना। बहुत तकलीफ होती है।”

सुधा हँसने लगी – “तकलीफ की क्या बात? तू तो है ही। तुझसे पूछ लूंगी उसका इलाज।”

“मुझ से पूछ कर क्या कर लेगी –

दर्द दिल क्या बांटने की चीज है।

बांट ले अपने पराये दर्दे दिल?”

नहीं, तू बड़ी सुकुँवार है। तू इन तकलीफों के लिए बनी नहीं मेरी चंपा।” और गेसू ने उसका सिर अपनी छाती में छिपा लिया।

टन ते घडी ने साढ़े तीन बजाये। सुधा ने अपना सिर उठाया और घड़ी की ओर देख कर कहा –

“ओफ़्फ़ो, साढ़ेतीन बज गये और अभी तक गायब!”

“किसके इंतज़ार में बेताब है तू ?” गेसू ने उठकर पूछा।

“बस दर्दे दिल, मुहब्बत, इंतज़ार, बेताबी, तेरे दिमाग में तो यही सब भरा रहता है। आजकल, वही तू सबको समझती है। इंतज़ार विंतज़ार नहीं, चंदर अभी मास्टर ले कर आयेंगे। अब इम्तहान कितना नज़दीक है।”

“हाँ, ये तो सच है, और अभी तक मुझसे पूछ क्या पढ़ाई हुई है। बात तो यह है कि कॉलेज में पढ़ाई हो, तो घर में पढ़ने में मन लगे और राजा कॉलेज में पढ़ाई नहीं होती। इससे अच्छा सीधे यूनिवर्सिटी में बी०ए० करते तो अच्छा था। मेरी तो अम्मी ने कहा कि वहाँ लड़के पढ़ते हैं, वहाँ नहीं भेजूंगी, लेकिन तू क्यों नहीं गयी सुधा!”

“मुझे भी चंदर ने मना कर दिया था।” सुधा बोली।

सहसा गेसू ने एक क्षण को सुधा की ओर देखा और कहा – “सुधी, मैं तुझसे एक बात पूछूं?”

“हाँ!”

“अच्छा जाने दे!”

“पूछो न!”

“नहीं, पूछना क्या? खुद ज़ाहिर है।”

“क्या?”

“कुछ नहीं।”

“पूछो न!”

“अच्छा फिर कभी पूछ लेंगे! अब देर हो रही है। आधा घण्टा हो गया। कोचवान बाहर खडा है।”

सुघा गेसू को पहुँचाने बाहर तक आयी।

“कभी हसरत को ले कर आओ।” सुधा बोली।

“अब पहले तुम आओ।” गेसू ने चलते-चलते कहा।

“हाँ, हम तो विनती को ले कर आयेंगे। और हसरत से कह देना तभी उसके लिए तोहफा लायेंगे!”

“अच्छा सलाम और गेसू की गाड़ी मुश्किल से फाटक के बाहर गयी होगी कि साइकिल पर चंदर आते हुए दिख पड़ा। सुधा ने बहुत ग़ौर से देखा कि उसके साथ कौन है, मगर वह अकेला था।

सुधा सचमुच झल्ला गयी। आखिर लापरवाही की हद है। चंदर को दुनिया भर के काम याद रहते हैं, एक सुधा से जाने क्या खार खाये बैठा है वह कि सुधा का काम कभी नहीं करेगा। इस बात पर सुधा कभी-कभी दुखी हो जाती है और घर में किस से वह कहे काम के लिये।

खुद कभी बाजार नहीं जाती। नतीजा यह होता है कि वह छोटी से छोटी चीज के लिए मोहताज हो कर बैठ जाती है। और काम नौकरों से करवा भी ले, पर अब मास्टर तो नौकर से नहीं ढूंढवाया जा सकता। ऊन तो नौकर नहीं पसंद कर सकता। किताबें तो नौकर नहीं ला सकता और चंदर का यह हाल है। इसी बात पर कभी-कभी उसे रुलाई आ जाती है।

चंदर ने आकर बरामदे में साइकिल रखी और सुधा का चेहरा देखते ही वह समझ गया।

“काहे मुँह बना रखा है, पाँच बजे मास्टर साहब आयेंगे तुम्हारे। अभी उन्हीं के यहाँ से आ रहे हैं। बिसरिया को जानती हो, वही आयेंगे।” और उसके बाद चंदर सीधा स्टडी रूम में पहुँच गया। वहाँ जाकर देखा, तो आरामकुरसी पर बैठे-ही-बैठे डॉ० शुक्ल सो रहे है, अतः उसने अपना चार्ट और पेन उठाया और ड्राइम में आकर चुपचाप काम करने लगा।|

बड़ा गंभीर था वह। जब इंक घोलने के लिए उसने सुधा से पानी नहीं मांगा और खुद गिलास लाकर आँगन में पानी लेने लगा, तब सुधा समझ गयी कि आज दिमाग कुछ बिगड़ा है। वह एकदम तड़प उठी। क्या करे वह? वैसे चाहे वह चंदर से कितना ही रूठी क्यों न हो, पर जब चंदर गुस्सा रहता था, तब सुधा की रूह काँप उठती थी। उसकी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह कुछ भी कहे। लेकिन अंदर ही अंदर वह इतनी परेशान हो उठती थी कि बस।|

कई बार वह किसी-न-किसी बहाने से ड्राइम में आयी, कभी गुलदस्ता बदलने, कभी मेज़पोश बदलने, कभी अलमारी में कुछ रखने, कभी अलमारी में से कुछ निकालने, लेकिन चंदर अपने चार्ट में ही निगाह गड़ाये रहा। उसने सुधा की ओर देखा तक नहीं। सुधा की आँख में आँसू छलक आये और वह चुपचाप अपने कमरे में चली गयी और लेट गयी। थोड़ी देर वह पड़ी रही, फिर पता नहीं क्यों वह फूट-फूट कर रो पड़ी। खूब रोयी खूब रोयी और फिर मुँह धो कर आकर पढ़ने की कोशिश करने लगी। जब हर अक्षर में उसे चंदर का उदास चेहरा नज़र आने लगा, तो उस ने किताब बंद कर के रख दी और ड्राइम में गयी। चंदर ने चार्ट बनाना भी बंद कर दिया था और कुर्सी पर सिर टेके छत की ओर देखता हुआ जाने क्या सोच रहा था। वह जा कर सामने बैठ गयी, तो चंदर ने चौंक कर सिर उठाया और फिर चार्ट को सामने खिसका लिया। सुधा ने बड़ी हिम्मत करके कहा – “चंदर”

“क्या!” बड़े भर्राये गले से चंदर बोला।

“इधर देखो!” सुधा ने बहुत दुलार से कहा।

“क्या है!” चंदर ने उधर देखते हुए कहा – “अरे सुधा! तुम रो क्यों रही हो?”

“हमारी बात पर नाराज हो गये तुम। हम क्या करे, हमारा स्वभाव ही ऐसा हो गया। पता नहीं क्यों तुम पर इतना गुस्सा आ जाता है।” सुधा के गाल पर दो बड़े-बड़े मोती ढलक आये।

“अरे पगली। मालूम होता है तुम्हारा तो दिमाग बहुत जल्दी खराब हो जायेगा, हम ने तुमसे कुछ कहा है?”

“कह लेते तो हमें संतोष हो जाता। हमने कभी कहा तुमसे कि तुम कहा मत करो,  गुस्सा मत हुआ करो। मगर तुम तो फिर गुस्सा मन-ही-मन में छिपाने लगते हो। इसी पर हमें रुलाई आ जाती है।”

“नहीं सुधी, तुम्हारी बात नहीं थी और हम गुस्सा भी नहीं थे। पता नहीं क्यों मन बड़ा भारी-सा था।”

“क्या बात है, अगर बता सको तो बताओ, वरना हम कौन हैं तुमसे पूछने वाले।” सुधा ने बड़े करुण स्वर में कहा।

“तो तुम्हारा दिमाग़ खराब हुआ। हमने कभी तुमसे कोई बात छिपायी है? जाओ, अच्छी लड़की की तरह पहले मुँह धो आओ।”

सुधा उठी और मुँह धोकर आकर बैठ गयी।

“अब बताओ क्या बात थी?”

“कोई एक बात हो तो बतायें। पता नहीं तुम्हारे घर से गये, तो एक न एक ऐसी बात होती गयी कि मन बड़ा उदास हो गया।”

“आखिर फिर भी कोई बात तो हुई ही होगी।”

“बात यह हुई कि तुम्हारे यहाँ से मैं घर गया खाना खाने। वहाँ देखा चाचाजी आये हुए है, उनके साथ एक कोई साहब और है। खैर बड़ी ख़ुशी हुई। खाना-वाना खाकर जब बैठे, तब मालूम हुआ कि चाचाजी मेरा ब्याह तय करने के लिए आये हैं और साथ वाले साहब मेरे होने वाले ससुर हैं। जब मैंने इंकारर कर दिया, तो बहुत बिगड़ कर चले गये और बोले हम आज से तुम्हारे लिए मर गये और तुम हमारे लिए मर गये।”

“तुम्हारी माताजी कहाँ है ?”

“प्रतापगढ़ में, लेकिन वो तो सौतेली हैं और वे तो चाहती ही नहीं कि मैं घर लौटूं, लेकिन चाचाजी ज़रूर आज तक मुझसे कुछ मुहब्बत करते थे। आज वह भी नाराज होकर चले गये।”

सुधा कुछ देर तक सोचती रही, फिर बोली – “तो चंदर तुम शादी कर क्यों नहीं लेते?”

“नहीं सुधा, शादी नहीं करनी है मुझे। मैंने देखा कि जिनकी शादी हुई, कोई भी सुखी नहीं हुआ। सभी का भविष्य बिगड़ गया। और क्यों एक तवालत पाली जाये? जाने कैसी लड़की हो, क्या हो?”

“तो उसमें क्या? पापा से कहो उस लड़की को जाकर देख लें। हम भी पापा के साथ चले जायेंगे। अच्छी हो तो कर लो न चंदर। फिर यहीं रहना। हमें अकेला भी नहीं लगेगा। क्यों?”

“नहीं जी, तुम तो समझती नहीं हो। ज़िन्दगी निभानी है कि कोई गये-भैस खरीदना है।“ चंदर से हँस कर कहा. “आदमी एक-दूसरे को समझे, बूझे, प्यार करे, तब ब्याह के भी कोई माने हैं।”

“तो उसी से कर लो, जिससे प्यार करते हो!” चंदर ने कुछ जवाब नहीं दिया।

“बोलो। चुप क्यों हो गये। अच्छा तुमने किसी को प्यार किया चंदर!”

“क्यों?”

“बताओ न।”

“शायद नहीं।”

“बिलकुल ठीक, हम भी यही सोच रहे थे अभी।” सुधा बोली।

“क्यों, ये क्यों सोच रही थी?”

“इसलिए कि तुमने किया होता तो तुम हमसे थोड़े ही छिपाते, हम से ज़रूर बताते, और नहीं बताया तो हम समझ गये कि अभी तुमने किसी से प्यार नहीं किया।”

“लेकिन तुमने यह पूछा क्यों सुधा यह बात तुम्हारे मन में उठी कैसे?”

“कुछ नहीं, अभी गेसू आयी थी। वह बोली-सुधा, तुमने किसी से कभी प्यार किया है, असल में वह अख्तर को प्यार करती है। उससे उस का ब्याह होने वाला है। हाँ तो उसने पूछा कि तूने किसी से प्यार किया है, हम ने कहा, नहीं। बोली, तू अपने से छिपाती है। तो हम मन ही-मन में सोचते रहे कि तुम आओगे तो तुमसे पूछेंगे कि हमने कभी प्यार तो नहीं किया है। क्योंकि तुम्हीं एक हो जिससे हमारा मन कभी कोई बात नहीं छिपाता, अगर कोई बात छिपायी भी होती हमने, तो तुम्हें जरूर बता देती। फिर हमने सोचा शायद कभी हमने प्यार किया हो और तुमसे बताया हो, फिर हम भूल गये हों। अभी उसी दिन देखो, हम पापा की दवाई का नाम भूल गये और तुम्हें याद रहा। शायद हम भूल गये हो और तुम्हें मालूम हो। कभी हमने प्यार तो नहीं किया न?”

“नही, हमें तो कभी नहीं बताया।” चंदर बोला।

“तब तो हमने प्यार व्यार नही किया। गेसू यूं ही गप्प उड़ा रही थी।“ सुधा ने संतोष की सांस ले कर कहा – “लेकिन बस! चाचाजी के नाराज होने पर तुम इतने दुखी हो गये हो। हो जाने दो नाराज़। पापा तो हैं अभी, क्या पापा मुहब्बत नहीं करते तुमसे?”

“सो क्यों नहीं करते, तुमसे ज्यादा मुझसे करते हैं लेकिन उनकी बात से मन तो भारी हो ही गया। उसके बाद गये बिसरिया के यहाँ। बिसारिया ने कुछ बड़ी  अच्छी कवितायें सुनायी। और भी मन भारी हो गया।” चंदर ने कहा।

“लो तब तो चंदर तुम प्यार करते होगे, ज़रूर से?” सुधा ने हाथ पटक कर कहा। “क्यों?”

“गेसू कह रही कि शायरी पर जो उदास हो जाता है, वह ज़रूर मुहब्बत-वुहब्बत करता है।” सुधा ने कहा, “अरे यह पोर्टिको में कौन है?”

चंदर ने देखा – “लो बिसरिया आ गया।”

चंदर उसे बुलाने उठा, तो सुधा ने कहा – “अभी बाहर बिठलाना उन्हें, मैं तब तक कमरा ठीक कर लूं।”

बिसरिया को बाहर बिठा कर चंदर भीतर आया, अपना चार्ट वगैरह समेटने के लिए, तो सुधा ने कहा – “सुनो।”

चंदर रुक गया।

सुधा ने पास आकर कहा- “तो अब तो उदास नहीं हो तुम। नहीं चाहते मत करो शादी, इसमें उदास क्या होना और कविता-वविता पर मुँह बनाकर बैठे, तो अच्छी बात नहीं होगी।”

“अच्छा!” चंदर ने कहा।

“अच्छा-वच्छा नहीं! बताओ, तुम्हें मेरी कसम है, उदास मत हुआ करो. फिर हमसे कोई काम नहीं होता।“

“अच्छा उदास नहीं होंगे, पगली!” चंदर ने हल्की-सी चपत मारकर कहा और बरबस उस के मुँह से एक ठण्डी साँस निकली। उसने चार्ट उठाकर स्टडी रूम में रखा। देखा डॉक्टर साहब अभी सो ही रहे हैं। सुधा कमरा ठीक कर रही थी। वह आकर बिसरिया के पास बैठ गया।

थोड़ी देर में कमरा ठीक कर के सुधा आकर दरवाजे पर खड़ी हो गयी। चंदर ने पूछा — “क्यों, सब ठीक है?”

उसने सिर हिला दिया. कुछ बोली नहीं।

“यही है आपकी शिष्या, श्री सुधा शुक्ला। इस साल बी०ए० फाइनल का इम्तहान देंगी।”

बिसरिया ने बिना आँखें उठाये ही हाथ जोड़ लिये। सुधा ने हाथ जोड़े, फिर बहुत सकुचा सी गयी। चंदर उठा और बिसरिया को लाकर उसने अंदर बिठा दिया। बिसरिया के सामने सुधा और उसकी बगल में चंदर।

चुप। सभी चुप। अंत में चंदर बोला – “लो तुम्हारे मास्टर साहब आ गये। अब बताओ न, तुम्हें क्या-क्या पढ़ना है?”

सुधा चुप। बिसरिया कभी यह पुस्तक उलटता, कभी वह। थोड़ी देर बाद वह बोला –”आपके क्या विषय हैं? “

“जी!” बड़ी कोशिश से बोलते हुए सुधा ने कहा – “हिन्दी, इकनॉमिक्स और गृहविज्ञान।” और उसके माथे पर पसीना झलक आया।

“आप को हिन्दी कौन पढ़ाता है?” बिसरिया ने किताब में ही निगाह गड़ाये हुए कहा।

सुधा ने चंदर की ओर देखा और मुस्कुरा कर फिर मुँह झुका लिया।

“बोलो न तुम खुद, ये राजा गर्ल्स कॉलेज में है। शायद मिस पवार हिन्दी पढ़ाती हैं।” चंदर ने कहा – “अच्छा अब आप पढ़ाइए, मैं अपना काम करूं।” चंदर उठकर चल दिया। स्टडी रूम में मुश्किल से चंदर दरवाजे तक पहुँचा होगा कि सुधा ने बिसरिया से कहा, “जी, मैं पेन ले आऊं।” और लपकती हुई चंदर के पास पहुँची।

“ए सुनो चंदर!”

चंदर रुक गया और उसका कुरता पकड़ कर छोटे बच्चों की तरह मचलते हुए सुधा बोली – “तुम चल कर बैठो, तो हम पढ़ेंगे। ऐसे शरम लगती है।“

“जाओ चलो। हर वक्त वही बचपना।” चंदर ने डांटकर कहा, “चलो पढ़ो सीधे से। इतनी बड़ी हो गयी, अभी तक वही आदतें!”

सुधा चुपचाप मुँह लटका कर खड़ी हो गयी और फिर धीरे-धीरे पढ़ने चली गयी। चंदर स्टडी रूम में जाकर चार्ट बनाने लगा। डॉक्टर साहब अभी तक सो रहे थे। एक मक्खी उड़कर उनके गले पर बैठ गयी और उन्होंने बायें हाथ से मक्खी मारते हुए नींद मे कहा – “मैं इस मामले में सरकार की नीति का विरोध करता हूँ।”

चंदर ने चौंक कर पीछे देखा। डॉक्टर साहब जग गये थे और जमुहाई ले रहे थे।

“जी आप कुछ मुझ से कहा!” चंदर ने पूछा।

“नहीं, क्या मैंने कुछ कहा था? ओह! मैं सपना देख रहा था। कै बज गये?”

“साढ़े पाँच!”

“अरे बिलकुल शाम हो गयी!” डॉक्टर साहब ने बाहर देखकर कहा – “अब रहने दो कपूर, आज काफ़ी काम किया है तुमने। चाय मंगवाओ। सुधा कहाँ है?”

“पढ़ रही है। आज से उसके मास्टर साहब आने लगे हैं।”

“अच्छा, अच्छा जाओ, उन्हें भी बुला लाओ, और चाय भी मंगवा लो। उसे भी बुला लो – सुधा को।”

चंदर जब ड्राइड रूम में पहुँचा, तो देखा सुधा किताबें समेट रही है। और बिसरिया जा चुका है। उसने सुधा से कहना चाहा, लेकिन सुधा का मुँह देखते ही उसने अनुमान किया कि सुधा लड़ने के मूड में हैं, अतः वह स्वयंही जाकर महराजिन से कह आया कि तीन प्याला चाय पढ़ने के कमरे में भेज दो। जब वह लौटने लगा, तो खुद सुधा ही उसके रास्ते में खड़ी हो गयी और धमकी के स्वर में बोली – “अगर कल से साथ नहीं बैठोगे तुम, तो हम नहीं पढ़ेंगे।”

“हम साथ नहीं बैठ सकते, चाहे तुम पढ़ो या न पढ़ो।” चंदर ने ठण्डे स्वर में कहा और आगे बढ़ा।

“तो फिर हम नहीं पढ़ेंगे।” सुधा ने जोर से कहा।

“क्या बात है? क्यों लड़ रहे हो तुम लोग?” डॉ० शुक्ला अपने कमरे से बोले।

चंदर कमरे में जाकर बोला, “कुछ नहीं, ये कह रही हैं कि..”

“पहले हम कहेंगे।” बात काटकर सुधा बोली – “पापा, हमने इनसे कहा तुम पढ़ाते वक्त बैठा करो, हमें बहुत शरम लगती है, ये कहते हैं पढ़ो चाहे न पढ़ो, हम नहीं बैठेंगे।”

“अच्छा, अच्छा, जाओ चाय लाओ।”

जब सुधा चाय लाने गयी, तो डॉक्टर साहब बोले – “कोई विश्वासपात्र लड़का है? अपने घर की लड़की समझकर सुधा को सौंपना पढ़ने के लिये। सुधा अब बच्ची नहीं है।”

“हाँ, हाँ, अरे ये भी कोई कहने की बात है!”

“हाँ, वैसे अभी तक सुधा तुम्हारी ही निगह्बानी में रही है। तुम खुद ही अपनी जिम्मेवारी समझते हो। लड़का हिन्दी में एम०ए० है?”

“हाँ, एम०ए० कर रहा है।“

“अच्छा है, तब तो बिनती आ रही है, उसे भी पढ़ा देगा।”

सुधा चाय ले कर आ गई थी।

“पापा, तुम लखनऊ कब जाओगे?”

“शुक्रवार को, क्यों?”

“और ये भी जायेंगे?”

“हाँ!”

“और हम अकेले रहेंगे?”

“क्यों, महराजिन यही सोयेगी और अगले सोमवार को हम लौट आयेंगे।” डॉ० शुक्ला ने चाय का प्याला मुँह में लगाते हुए कहा।

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