चैप्टर 1 सूरज का सातवां घोड़ा : धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 1 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 1 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti

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प्रस्तावना

इसके पहले कि मैं आपके सामने माणिक मुल्ला की अद्भुत निष्कर्षवादी प्रेम कहानियों के रूप में लिखा गया यह ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ नामक उपन्यास प्रस्तुत करूं, यह अच्छा होगा कि पहले आप जान लें कि माणिक मुल्ला कौन थे, यह हम लोगों को कहाँ मिले, कैसे उनकी प्रेम कहानी हम लोगों के सामने आई, प्रेम के विषय में उनकी धारणायें और अनुभव क्या थे तथा कहानी की टेक्निक के बारे में उनकी मौलिक उदभावनायें क्या थी।

‘थीं’ का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ कि मुझे यह नहीं मालूम कि आजकल कहाँहै? क्या कर रहे हैं? अब कभी उनसे मुलाकात होगी या नहीं और अगर सच में वे लापता हो गए हैं, तो कहीं उनके साथ उनकी अद्भुत कहानियाँ भी लापता हो ना जाये, इसलिए मैं आपके सामने पेश कर देता हूँ।

एक जमाना था, जब वे हमारे मोहल्ले की मशहूर व्यक्ति थे। वहीँ पैदा हुए, वहीं बड़े हुए, वहीं शोहरत पाई और वहीं से लापता हो गये। हमारा मोहल्ला काफी बड़ा है, कई हिस्सों बटा हुआ है और वे उस हिस्से के निवासी थे, जो सबसे ज्यादा रंगीन और रहस्यमय है और जिनकी नई और पुरानी पीढ़ी दोनों के बारे में अजब-गजब सी किवंदतियाँ मशहूर है।

मुल्ला उनका उपनाम नहीं, जाति थी। कश्मीरी थे। कई पुश्तों से उनका परिवार यहाँ बसा हुआ था। वह अपने भाई और भाभी के साथ रहते थे। भाई और भाभी का तबादला हो गया था और वह पूरे घर में अकेले रहते थे। इतनी सांस्कृतिक स्वाधीनता तथा इतना कम्युनिस्ट एक साथ उनके घर में थी कि यद्यपि हम लोग उनके घर से बहुत दूर रहते थे लेकिन वही सब का अड्डा जमा रहता था। हम सब उन्हें गुरुवत मानते थे और उनका भी हम सबों पर निश्छल प्रेम था। वे नौकरी करते हैं या पढ़ते हैं, नौकरी करते हैं तो कहाँ, पढ़ते हैं तो कहाँ – यह भी हम लोग कभी नहीं जान पाये। उनके कमरे में किताबों का नामो-निशान भी नहीं था। हाँ कुछ अजब-गजब चीजें वहाँ थीं, जो अमूमन दूसरे लोगों के कमरे में नहीं पाई जाती। मसलन दीवार पर एक पुराने काले फ्रेम में एक फोटो जड़ा टंगा था।  ‘खाओ बदन बनाओ’  एक तख़्त में एक काली बेंट का बड़ा सुंदर चाकू रखा था। एक कोने में घोड़े की पुरानी नाल पड़ी थी और इसी तरह की कितनी ही अजीबोगरीब चीजें थीं, जिनका औचित्य हम लोग कभी नहीं समझ पाते थे। इनके साथ ही साथ हमें ज्यादा दिलचस्पी जिस बात में थी, वह यह थी कि जाड़ों में मूंगफलियाँ और गर्मियों में खरबूजे हमेशा मौजूद रहते थे और उनका स्वभाविक परिणाम था कि हम लोग भी हमेशा मौजूद रहते थे।

अगर कभी फुर्सत हो, पूरा घर अपने अधिकार में हो, चार मित्र बैठे हो, तो निश्चित है कि घूम फिर कर वार्ता राजनीति पर आ टिकेगी और जब राजनीति में दिलचस्पी खत्म होने लगेगी, तो गोष्ठी की वार्ता प्रेम पर आ टिकेगी। कम से कम मध्यम वर्ग में तो इन दो विषयों के अलावा तीसरा विषय नहीं होता। माणिक मल्ला का दखल जितना राजनीति में था उतना ही प्रेम में भी था। लेकिन जहाँ तक साहित्यिक वार्ता का प्रश्न था, वे प्रेम को तरजीह दिया करते थे।

प्रेम के विषय में बात करते समय वे कभी-कभी कहावतों को अजब रूप में पेश किया करते थे और उनमें से ना जाने क्यों एक कहावत अभी तक मेरे दिमाग में चस्पा है। हालांकि उसका सही मतलब ना मैं तब समझा था ना अब। अक्सर प्रेम के विषय में अपने कड़वे मीठे अनुभवों से हम लोगों का ज्ञान वर्धन करने के बाद खरबूजा काटते हुए कहते थे – ‘प्यारे बंधुओ! कहावत में चाहे जो कुछ हो, प्रेम में खरबूजा चाहे चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर, नुकसान हमेशा चाकू का होता है। अतः जिसका व्यक्तित्व चाकू की तरह ना हो, उसे हर हालत में उस उलझन से बचना चाहिए।’ ऐसी कहावतें थीं, याद आने पर मैं लिखूंगा।

लेकिन जहाँ तक कहानियों का प्रश्न था, उनकी निश्चित धारणा थी कि कहानियों की तमाम नस्लों में प्रेम कहानियाँ ही सबसे सफल साबित होती है। अतः कहानी में रोमांस का अंश जरूर होना चाहिए। लेकिन साथ ही हमें अपनी दृष्टि संकुचित नहीं कर लेनी चाहिए और कुछ ऐसा चमत्कार करना चाहिए कि वह समाज के लिए कल्याणकारी अवश्य हो।

जब हम पूछते थे कि यह कैसे संभव है कि कहानियाँ प्रेम पर लिखी जाये, पर उनका प्रभाव कल्याणकारी हो। तब यह कहते थे कि यही तो चमत्कार है तुम्हारे माणिक मुल्ला, में जो अन्य किसी कहानीकार में है ही नहीं।

यद्यपि उन्होंने उस समय तक एक भी कहानी लिखी नहीं थी, फिर भी कहानियों के विषय में उनका विशाल अध्ययन था (कम से कम हम लोगों को ऐसा ही लगता था) और उनकी कहानी कला पर पूर्ण अधिकार था।

कहानियों की टेक्निक के बारे में उनका सबसे पहला सिद्धांत था कि आधुनिक कहानी में आदि, मध्य, अंत तीनों में से कोई ना कोई तत्व अवश्य छूट जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। उनका कहना था कि कहानी वहीं पूर्ण है जिसमें आदि में आदि हो, मध्य में मध्य और अंत में अंत। इनकी व्याख्या वे यों करते थे – कहानी का आदि वह है जिसके पहले कुछ ना हो। बाद में मध्य हो, मध्य वह जिसके पहले आदि हो बाद में अंत। अंत उसे कहते हैं जिसके पहले मध्य हो, बाद में रद्दी की टोकरी हो।

कहानियों की टेक्निक के बारे में उनका दूसरा सिद्धांत यह था की कहानियाँ चाहे छायावादी हो या प्रगतिवादी, ऐतिहासिक हो या अनैतिहासिक, समाजवादी हो या मुस्लिमलीगी, किंतु उनमें कोई ना कोई निष्कर्ष अवश्य निकलना चाहिए और निष्कर्ष समाज के लिए कल्याणकारी होना चाहिए। ऐसा उनका निश्चित मत था और इसलिए यद्यपि उन्होंने जीवन भर कोई कहानी नहीं लिखी, पर वे अपने को कथा साहित्य में निष्कर्षवाद के प्रवर्तक मानते थे। कथा शिल्प की प्रणाली इस प्रकार बताते थे :

कुछ पात्र लो और एक निष्कर्ष पहले से सोच लो जैसे यानी जो भी निष्कर्ष निकालना चाहते हो, फिर अपने पात्रों पर इतना अधिकार रखो, इतना शासन रखो कि वह अपने आप प्रेम के चक्र में उलझ जाए और अंत में वे उसी निष्कर्ष पर पहुँचे, जो तुमने पहले से तय कर रखा है।

मेरे मन में अक्सर इन बातों पर शंकायें भी उठती थी। पर निष्कर्ष वाद के विषय में उन्होंने मुझे बताया कि हिंदी में बहुत से कहानीकार इसलिए प्रसिद्ध हो गए हैं क्योंकि कहानी में कथानक चाहे लंगड़ाता हो, पात्र चाहे पिलपिलें हो, लेकिन सामाजिक तथा राजनीतिक निष्कर्ष अद्भुत होते हैं।

मेरी दूसरी शंका कथावस्तु की प्रेम संबंधी अनिवार्यता के विषय में थी। मैं सोचता था कि ज़िन्दगी में अधिक से अधिक दस बरस ऐसे होते हैं जब हम प्रेम करते हैं। उन दस वर्षों में खाना-पीना, आर्थिक संकट, सामाजिक जीवन, पढ़ाई-लिखाई, घूमना-फिरना सिनेमा और साप्ताहिक पत्र, मित्र गोष्ठी, इन सबों से जितना समय बचता है, उतने में हम प्रेम करते हैं। फिर इतना महत्व उसे क्यों दिया जाये? सैर-सपाटा, खोज, शिकार, व्यायाम, मोटर चलाना, रोजी-रोजगार, तांगे वाले, इक्के वाले, और पत्रों के संपादकों विषय पर कहानियाँ लिखी जा सकती है, फिर आकर प्रेम पर ही क्यों लिखे जायें।

जब मैंने माणिक मुल्ला से पूछा तो सहसा वे भावुक हो गए और बोले, “तुम्हें बांग्ला आती है?”  मैंने कहा “नहीं क्यों?” तो गहरी सांस लेकर बोले , “टैगोर का नाम तो सुना ही होगा। उन्होंने लिखा है कि अमार मझारे जो आछे से गो कोनो विहरिनी नारी। अर्थात मेरे मन के अंदर जो बसा है, वह कोई विहारिणी नारी है और वही विहारिणी  नारी अपनी कथा कहा करती है – बार-बार तरह-तरह से। और फिर अपने मत की व्याख्या करते हुए बोले कि विहारिणी नारियाँ भी कई भांति की होती है – अनूढ़ा विरहिणी, उढा विहारिणी, मुग्धा विहारिणी, प्रौढ़ा विहारिणी आदि आदि तथा विरह भी कई प्रकार के होते हैं – बाह्य परिस्थितिजन्य, आंतरिक मन:स्थितिजन्य इत्यादि। इन सबों पर कहानियाँ लिखी जा सकती हैं; माणिक मुल्ला का चमत्कार यह था कि जैसे बाजीगर मुँह से आम निकाल देता है, वैसे ही वे इन सब कहानियों में से सामाजिक कल्याण के निष्कर्ष निकाल देने में समर्थ थे।

हालांकि माणिक मुल्ला के बारे में प्रकाश का मत था कि यार हो ना हो माणिक मुल्ला के बारे में भी हिंदी के अन्य कहानीकारों की तरह नारी के लिए कुछ ऑबसेशन है! पर यह वह कभी माणिक मुल्ला के सामने कहने का साहस नहीं करता था कि वे उसका सही-सही जवाब दे सके और जहाँ तक मेरा सवाल है मैं आज तक उनके बारे में सही फैसला नहीं कर पाया हूँ। इसलिए मैं ये कहानियाँ ज्यों-की-त्यों आपके सामने प्रस्तुत कर देता हूँ, ताकि आप स्वयं निर्णय कर लें। इसका नाम ‘सूरज का सातवा घोड़ा’ क्यों रखा गया, इस पर का स्पष्टीकरण भी अंत में मैंने कर दिया है।

हाँ आप मुझे क्षमा करेंगे कि इनकी शैली में बोलचाल के लहजे की प्रधानता है और मेरी आदत के मुताबिक उबकी भाषा रूमानी, चित्रात्मक, इंद्रधनुष और फूलों से सजी हुई नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि ये कहानियाँ माणिक मुल्ला की है, मैं तो सिर्फ प्रस्तुतकर्ता हूँ। जैसे उनसे सुनी थी, उन्हें यथासंभव वैसे प्रस्तुत कहने का प्रयास कर रहा हूँ।

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