चैप्टर 10 देवांगना : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 10 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 10 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

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वज्रतारा का मंदिर : देवांगना

वज्रतारादेवी के मन्दिर के भीतरी आलिन्द में महासंघस्थविर वज्रसिद्धि कुशासन पर बैठे थे। सम्मुख वज्रतारा की स्वर्ण-प्रतिमा थी। प्रतिमा पूरे कद की थी। उसके सिर पर रत्न-जड़ित मुकुट था। हाथ में हीरक दण्ड था। मूर्ति सोने के अठपहलू सिंहासन पर पद्मासन से बैठी थी। मूर्ति के पीछे पाँच कोण का यन्त्र था। जिस पर नामाचार के अंक अंकित थे। मूर्ति सर्वथा दिगम्बर थी।

वज्रसिद्धि के आगे विधान की पुस्तक खुली पड़ी थी। वे उसमें से मन्त्र पढ़ते जाते तथा पूजा-विधि बोलते जाते थे। बारह भिक्षु, भिन्न-भिन्न पात्र हाथ में लिए पूजा-विधि सम्पन्न कर रहे थे। बहुत-से नागरिक भक्ति भाव से करबद्ध पीछे बैठे थे। मंदिर का घण्टा निरन्तर बज रहा था। आचार्य पूजा-विधि तो कर रहे थे परन्तु उनका मन वहाँ नहीं था। वे बीच-बीच में व्यग्र भाव से इधर-उधर देख लेते थे।

इसी समय महानन्द ने मंदिर में प्रवेश किया। वह चौकन्ना हो इधर-उधर देखता हुआ, धीरे-धीरे भीतर की ओर अग्रसर हुआ। और संघस्थविर के पीछे वाली खिड़की में जा खड़ा हुआ। किसी का ध्यान उधर नहीं गया। परन्तु वज्रसिद्धि को उसका आभास मिल गया। फिर भी उन्होंने आँख फेरकर उधर देखा नहीं। हाँ, कुछ सन्तोष की भावना उनके चित्त में अवश्य उत्पन्न हो गई।

महानन्द ने देखा—पूजा में सब सफेद फूल काम में लाये जा रहे हैं। उसने अवसर पा एक लाल फूल वज्रसिद्धि के आगे फेंक दिया। महानन्द की ओर किसी की दृष्टि न थी। उसके इस काम को भी किसी ने नहीं देखा। ऐसी ही उसकी मान्यता भी थी। परन्तु वास्तव में एक पुरुष की आँखों से वह ओझल नहीं हो सका। और वह था सुखदास।

सुखदास ने उसकी चाल और रंग-ढंग देखकर ही पहचान लिया था कि वह कोई रहस्यपूर्ण पुरुष है, इस प्रकार अपने को छिपाकर तथा चौकन्ने होकर चलने का दूसरा कारण हो भी क्या सकता था! अत: सुखदास ने छिपकर उसका पीछा किया। और अब यहाँ खंभे की ओट में खड़ा हो उसकी गतिविधि देखने लगा।

लाल फूल देखते ही आचार्य चौंक उठे। मंत्रपाठ के स्थान पर उनके मुँह से निकल पड़ा—”अरे! यह तो युद्ध का संकेत है!” उन्होंने नजर बचाकर एक बार महानंद की ओर देखा। एक कुटिल हास्य उनके ओठों पर खेल गया। उसने फूल के चार टुकड़े कर उत्तर दिशा में फेंक दिए। उनके हिलते हुए ओठों से लोगों ने समझा, यह भी पूजाविधि ही होगी।

थोड़ी ही देर में एक भिक्षु कुछ वस्तु उठाने के बहाने उनके कान के पास झुक गया। आचार्य ने उसके कान में कहा—”देख एक आदमी उत्तर तोरण के चतुर्थ द्वार पर खड़ा है। उसे गुप्त राह से पीछे वाली गुफा में ले जा।”

भिक्षु नमन करके चला गया। संघस्थविर ने आचार्य बुद्धगुप्त को संकेत से पास बुलाकर कहा—”तुम यहाँ पूजा विधि संपन्न करो। मैं अभी जाकर जाप में बैठता हूँ। देखना मेरे जाप में विघ्न न हो।”

बुद्धगुप्त ने सहमति संकेत किया। संघस्थविर उठकर एक ओर चल दिए। बुद्धगुप्त आसन पर बैठकर पूजन विधि सम्पन्न करने लगे।

लोगों ने ससम्भ्रम आचार्यपाद को मार्ग दिया। वे भूमि में झुक गए। आचार्य ने मुस्कराकर, सबको दोनों हाथ उठाकर, कल्याण-कल्याण का आशीर्वाद दिया।

जिस भिक्षु को आचार्य ने महानंद को ले आने का आदेश दिया था––उसका सुखदास ने पीछा किया। जब वह महानन्द को गुप्त राह से ले चला तो सुखानंद अत्यंत सावधानी से उनके पीछे ही पीछे चला। अन्त में वे एक छोटे-से द्वार को पार कर एक अंधेरे अलिन्द में जा पहुंचे। वहाँ घृत के दीपक जल रहे थे। द्वार को पीछे से बन्द करने की सावधानी नहीं की गई, इससे सुखदास को अनुगमन करने में बाधा नहीं हुई।

वज्रसिद्धि ने आते ही कहा—”क्या समाचार है, महानंद! तुमने तो बड़ी प्रतीक्षा कराई।”

“आचार्य, मैंने एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोया।”

“तो समाचार कहो।”

“काशिराज के दरबार में हमारी चाल चल गई।” उसने आँख से संकेत करके कहा।

“तो तुम सीधे वाराणसी से ही आ रहे हो।”

“महाराज काशिराज जो यज्ञ कर रहे हैं, उसमें आपको निमंत्रित करने दूत आ रहा है।”

“वह तो है, परन्तु महाराज ने भी कुछ कहा?”

“जी हाँ, महाराज ने कहा है कि वे आचार्य की कृपा पर निर्भर है।”

वज्रसिद्धि हँस पड़े। हँसकर बोले—”समझा, समझा, अरे दया तो हमारा धर्म ही है, परन्तु धूत पापेश्वर का वह पाखण्डी पुजारी—?”

“सिद्धेश्वर?—वह आचार्यपाद से विमुख नहीं है।”

“तब आसानी से काशिराज का नाश किया जा सकता है। और इन ब्राह्मण के मन्दिर को भी लूटा जा सकता है। जानते हो कितनी संपदा है उस मंदिर में? अरे, शत-शत वर्ष की संचित संपदा है।”

“तो प्रभु, सिद्धेश्वर महाप्रभु आपसे बाहर नहीं हैं।”

“तो वाराणसी पर सद्धर्मियों का अधिकार करने का जो मैं स्वप्न देख रहा हूँ वह अब पूर्ण होगा? इधर श्रेष्ठि धनंजय के पुत्र दिवोदास के भिक्षु हो जाने से सेठ की अटूट सम्पदा हमारे हाथ में आई समझो। इतने से तो हमें पचास हजार सैन्य दल और शस्त्र जुटाना सहज हो जाएगा?”

“अरे, तो क्या सेठ के पुत्र ने दीक्षा ले ली?”

“ले रहा है।”

“नहीं तो क्या?”

“किन्तु आचार्य, वह धोखा दे सकता है, मैं भली भाँति जानता हूँ, उसे सद्धर्म पर तनिक भी श्रद्धा नहीं है!”

“यह क्या मैं नहीं जानता? इसी से मैंने उसे चार मास के लिए महातामस में डाल दिया है। तब तक तो काशिराज और उदन्तपुरी के महाराज ही न रहेंगे।”

“परन्तु आचार्य, सेठ यह सुनेगा तो वह महाराज को अवश्य उभारेगा। यह ठीक नहीं हुआ।”

“बहुत ठीक हुआ।”

इसी समय एक भिक्षु ने आकर बद्धांजलि हो आचार्य से कहा—“प्रभु, काशिराज के मन्त्री श्री चरणों के दर्शन की प्रार्थना करते हैं।”

वज्रसिद्धि ने प्रसन्न मुद्रा से महानन्द की ओर देखते हुए कहा—”भद्र महानंद, तुम महामन्त्री को आदरपूर्वक तीसरे अलिन्द में बैठाओ। और कहो कि आचार्य पाद त्रिपिटक सूत्र का पाठ कर रहे हैं, निवृत्त होते ही दर्शन देंगे।”

महानन्द “जो आज्ञा आचार्य” कहकर चला गया।

वज्रसिद्धि प्रसन्न मुद्रा से कक्ष में टहलते हुए आप ही आप कहने लगा, “बहुत अच्छा हुआ, सब कुछ आप ही आप ठीक होता जा रहा है। यदि काशिराज लिच्छविराज से संधि कर ले और सद्धर्मी हो जाय तथा धूत पापेश्वर की सब सम्पत्ति संघ को मिल जाय तो ठीक है, नहीं तो इसका सर्वनाश हो। यदि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जाय तो फिर एक बार सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में वज्रयान का साम्राज्य हो जाय।”

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