चैप्टर 8 सूरज का सातवां घोड़ा : धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 8 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 8 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti

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चौथी दोपहर

मालवा की युवरानी देवसेना की कहानी

आँख लग जाने की थोड़ी देर बाद सहसा उमस चीरते हुए हवा का एक झोंका आया और फिर तो इतनी तेज झकोरे आने लगे कि नीम की शाखें झूम उठी। थोड़ी देर में तारों का एक काला पर्दा छा गया। हवायें अपने साथ बादल ले आई थी। सुबह हम लोग बहुत देर तक सोये, क्योंकि हवा चल रही थी और धूप का कोई सवाल नहीं था।

पता नहीं देर तक सोने का नतीजा हो या बादलों का क्योंकि कालिदास ने भी कहा है – ‘रम्यानी वीक्ष्य मधुरांशच’ पर मेरा मन बहुत उदास था और मैं लेट कर कोई किताब पढ़ने लगा, शायद स्कंद गुप्त जिसके अंत में नायिका देवसेना राग विहाग में ‘आह वेदना मिली विदाई’  गाती है और घुटने टेक कर विदा मांगती है – इस जीवन के देवता और उस जन्म के प्रप्य क्षमा और उसके बाद अनंत विरह के साथ पर्दा गिर जाता है।

उसको पढ़ने से मेरा मन और भी उदास हो गया और मैंने सोचा, चलो माणिक मुल्ला के यहाँ ही चला जाये। मैं पहुँचा, तो देखा कि माणिक मुल्ला चुपचाप बैठे खिड़की की राह बादलों की ओर देख रहे हैं और कुर्सी से लटकाये हुए दोनों पांव धीरे-धीरे हिल रहे हैं। मैं समझ गया कि माणिक मुल्ला के मन में कोई बहुत पुरानी बता जाग गई है, क्योंकि ये लक्षणों उसी बीमारी के होते हैं। ऐसी हालत में साधारणतया माणिक जैसे लोगों की दो प्रतिक्रियायें होती है। अगर कोई उनसे भावुकता की बात करें, तो वे फौरन उसकी खिल्ली उड़ायेंगे। पर जो वह चुप हो जायेगा, तो धीरे-धीरे खुद वैसे ही बातें छेड़ देंगे। यही माणिक ने भी किया। जब मैंने उसे कहा कि मेरा मन बहुत उदास है, तो वे हँसे और मैंने जब कहा कि कल रात के सपने में मेरे मन पर बहुत असर डाला है, तो वे और भी हँसे और बोले, “उस सपने से तो दो ही बातें मालूम होती है।”

“क्या?” मैंने पूछा।

“पहले तो यह है कि तुम्हारा हाजमा ठीक नहीं है, दूसरे यह कि तुमने दांते की ‘डिवाइन कॉमेडी’ पड़ी है, जिसमें नायक को स्वर्ग से नायिका मिलती है और उसे ईश्वर की सिंहासन तक ले जाती है।” जब मैंने झेंपकर यह स्वीकार किया कि दोनों बातें बिल्कुल सच है, तो फिर वे चुप हो गये और उसी तरह खिड़की की राह बादलों को देखकर पांव मिलाने लगे।

थोड़ी देर बाद बोले, “पता नहीं तुम लोगों को कैसा लगता है। मुझे तो बादलों को देखकर ऐसा लगता है, जैसे उस घर को देखकर लगता है, जिसमें हमने अपना हँसी खुशी से बचपन बिताया हो और जिसे छोड़कर हम पता नहीं कहाँ-कहाँ घूमे हो और भूलकर फिर उसी मकान के सामने बरसो बाद आ पहुँचे हो।”

जब मैंने स्वीकार किया कि मेरे मन में यही भावना होती है तो और भी उत्साह से भर कर बोले, “देखो अगर ज़िन्दगी में फूल ना होते, बादल ना होते पवित्रता ना होते, प्रकाश ना होता सिर्फ अंधेरा होता कीचड़ होता, गंदगी होती, तो कितना अच्छा होता। हम सब उसमें कीड़े की तरह बिलबिलाते और मर जाते। कभी अंतःकरण में किसी तरह की छटपटाहट ना होती। लेकिन बड़ा अभागा होता है वह दिन, जिस दिन हमारी आत्मा पवित्रता की एक झलक पा लेती है। रोशनी का एक कण पा लेती है, क्योंकि उसके बाद सदियों तक अंधेरे में कैद रहने पर भी रोशनी की प्यास उसमें मर नहीं पाती, उसे तड़पाती रहती है। अंधेरे समझौता कर ले परसों चैन कभी नहीं मिलता।”

मैं उनकी बातों से पूर्णतया सहमत था, पर लिख चाहे थोड़ा बहुत लूं, मुझे उन दिनों अच्छी हिंदी बोलने का इतना अभ्यास नहीं था। अतः उनकी उदासी से सहमति प्रकट करने के लिए मैं चुपचाप मुँह लटका बैठा रहा। बिल्कुल माणिक मुल्ला की तरह मुँह लटकाए हुए बादलों की ओर देखता रहा और नीचे पांव झुलाता रहा।

माणिक मुल्ला कहते हैं – “अब यही प्रेम की बात लो। यह सच है कि प्रेम आर्थिक स्थितियों से अनुशासित होता है, लेकिन मैंने जो जोश में कह दिया था कि प्रेम आर्थिक निर्भरता का ही दूसरा नाम है, यह केवल आंशिक सत्य है। इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि प्यार…” यहाँ माणिक मुल्ला रुके और मेरी ओर देखकर बोले, “क्षमा करना तुम्हारी अभ्यस्त शैली में कहूं, तो इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि प्यार आत्मा की गहराई में सोये हुए सौंदर्य के संगीत को जगा देता है। हमें अजब से पवित्रता, नैतिक निष्ठा और प्रकाश भर देता है। आदि-आदि है लेकिन…”

“लेकिन क्या?” मैंने पूछा।

“लेकिन हम सब परंपराओं, सामाजिक परिस्थितियों, झूठे बंधनों में इस तरह कसे हुए हैं कि उसे सामाजिक स्तर ग्रहण नहीं करा पाते। उसके लिए संघर्ष नहीं कर पाते और बाद में अपनी कायरता और विवशताओ का सुनहरा पानी फेरकर उसे चमकाने की कोशिश करते रहते हैं। इस रूमानी प्रेम का महत्व है। पर मुसीबत यह है कि वह कच्चे मन का प्यार होता है। उसमें सपने, इंद्रधनुष और फूल तो काफी मिकदार होते हैं, पर वह साहस और परिपक्वता नहीं होती, जो इन सपनों और फूलों को स्वस्थ सामाजिक संबंध में बदल सके। नतीजा यह होता है कि थोड़े दिन बाद यह सब मन से उसी तरह गायब हो जाता है जैसे बादलों की छांव। आखिर हम हवा में तो नहीं रहते और जो भी भावना हमारे सामाजिक जीवन की खाद नहीं बन पाती, ज़िन्दगी उसे झाड़ झंखाड़ की तरह उखाड़ फेंकती है।

ओंकार, श्याम, प्रकाश भी तब तक आ गए थे और हम सब लोग मन ही मन इंतजार कर रहे थे कि माणिक मुल्ला कब अपनी कहानी शुरू करें, पर उनकी खोयी हुई मनःस्थिति देख कर हम लोगों की हिम्मत नहीं पड़ रही थी।

इतने में माणिक मुल्ला खुद हम लोगों के मन की बात समझ गये और सहसा अपने दिवास्वप्नों की दुनिया से लौटते हुए फीकी हँसी हँसकर बोले, “आज मैं तुम लोगों को एक ऐसी लड़की की कहानी सुनाऊंगा, जो ऐसे बादलों के दिन मुझे बार-बार याद आ जाती है। अजब थी वह लड़की।”

इसके बाद माणिक मुल्ला ने जब कहानी प्रारंभ की थी, तभी मैंने टोका और उनको याद दिलाई कि उनकी कहानी में समय का विस्तार इतना सीमाहीन था कि घटनाओं का क्रम बहुत तेजी से चलता गया और विवरण भी अपनी तेजी से चले कि व्यक्तिक मनोविश्लेषण और मन:स्थिति निरूपण पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाये। माणिक मुल्ला ने पिछली कहानी की इस कमी को स्वीकार किया, लेकिन लगता है अंदर-अंदर उन्हें कुछ लगा क्योंकि उन्होंने चिढ़कर बहुत कड़वे स्वर में कहा, “अच्छा लो, आज की कहानी का घटना काल केवल चौबीस घंटे में ही सीमित रहेगा – 29 जुलाई सन 19… कुछ सायं छः बजे से 30 जुलाई सायं छः0 बजे तक और उसके बाद उन्होंने कहानी प्रारंभ की : (कहानी कहने से पहले मुझसे बोले, “शैली में तुम्हारी झलक आ जाये, तो क्षमा करना।”)

खिड़की पर झूलते हुए जॉर्जेट की हवा से भी हल्के पर्दों को चूमते हुए शाम की सूरत की उदास पीली किरणों ने झांककर उस लड़की को देखा, जो तकिये में मुँह छिपाये सिसक रही थी। उसकी रूखी पलकें खारे आँसू से धुले गालों को छूकर सिहर उठती थी। चंपे की कलियों से उसकी लंबी पतली कलात्मक उंगलियाँ, सिसकियों से कांप-कांप उठने वाला उसका सोनजुही सा तन, उसके गुलाब की सूखी पंखुड़ियों से होंठ और कमरे का उदास वातावरण, पता नहीं कौन सा वह दर्द था, जिसकी उदास उंगलियाँ रह-रहकर उसके व्यक्तित्व के मृणाल तंतुओं के संगीत को झकझोर रही थी।

थोड़ी देर बाद उठी उसकी आँखों के नीचे एक हल्की फलसाई छांह थी, जो सूज आई थी। उसकी चाल हंस की थी, पर ऐसे हंस की, जो मानसरोवर से ना जाने कितने दिनों के लिए विदा ले रहा हो। उसने एक गहरी सांस ली और लगा जैसे हवा में केसर के डोरे बिखर गए हों। वह उठी और खिड़की के पास जाकर बैठ गई। हवाओं से जार्जेट के पर्दे उड़कर उसे गुदगुदा जाते थे, कभी कानों के पास कभी होठों के पास कभी….खैर!

बाहर सूरज की आखिरी किरणें नीम और पीपल के शिखरों पर सुनहरी उदासी बिखेर रही थी। क्षितिज के पास से गहरी जामुनी पर्त जमी हुई थी, जिस पर गुलाब बिखरे हुए थे और उसके बाद हल्की पीली आंधी की आभा लहरा रही थी।

“आंधी आने वाली है बेटी! चलो खाना खा लो।” माँ ने दरवाजे पर से कहा।

लड़की कुछ नहीं बोली सिर्फ सिर हिला दिया।

माँ कुछ नहीं बोली, इसरार भी नहीं किया। माँ की अकेली लड़की थी, घर भर में माँ और बेटी ही थी, बेटी समझो तो! बेटा समझो तो! बेटी की बात काटने कि हिम्मत किसी में नहीं थी। माँ थोड़ी देर चुपचाप खड़ी रही, चली गई। लड़की सूनी सूनी आँखों से चुपचाप जामुनी रंग के गिरते हुए बादलों को देखती रहे और उन पर धधकते हुए गुलाबों को और उन पर घिरती हुई आंधी को।

शाम ने धुंधलके का सुरमई दुपट्टा ओढ़ लिया। वह चुपचाप ही बैठी रही, बेले की बनी हुई कला प्रतिमा की तरह, निगाहों में रह-रहकर नरगिस उदास और लजीली नरगिस झूम हो जाती थी।

“कहिए जनाब!” माणिक मुल्ला ने प्रवेश किया, तो वह उठी और चुपचाप लाइट ऑन कर दी। माणिक मुल्ला ने उसकी खिन्न मनःस्थिति, उसका अश्रुसिक्त मौन देखा, तो रुक गए और गंभीर होकर बोले, ” क्या हुआ लिली? लिली!”

“कुछ नहीं!” लड़की ने हँसने का प्रयास करते हुए कहा, मगर आँखें डबडबा आई और वह माणिक मुल्ला के पांव के पास बैठ गई।

माणिक ने उसके बूंदों में उलझी एक सूखी लट को सुलझाते हुए कहा, “तो नहीं बताओगी?”

“हम कभी छिपाते हैं तुमसे कोई बात!”

“नहीं, अब तक तो नहीं छिपाती थी। आज से छिपाने लगी हो।”

“नहीं कोई बात नहीं! सच मानो।” लड़की ने जिसका नाम लीला था, लिली नाम से पुकारी जाती थी, ने माणिक के कमीज के कांच के बटन खोलते और बंद करते हुए कहा।

“अच्छा मत बताओ। हम भी अब तुम्हें कुछ नहीं बतायेंगे।” माणिक ने उठने का उपक्रम करते हुए कहा।

“तो चले कहाँ?” वह माणिक के कंधे पर झुक गई, “बताती तो हूँ।”

“तो बताओ!”

लिली थोड़ा झेंप गई और फिर उसने माणिक की हथेली अपनी सूजी पलकों पर रख कर कहा, “हुआ ऐसा कि आज देवदास देखने गए थे। कम्मो भी साथ थी। खैर उसकी समझ में आई नहीं। मुझे पता नहीं कैसा लगने लगा। मानिक, क्या होगा बताओ? अभी तो एक दिन तुम नहीं आते हो, तो न खाना अच्छा लगता है, न पढ़ना। फिर महीनों महीनों तुम्हें नहीं देख पायेंगे। सच, वैसे चाहे जितना हँसते रहो, बोलते रहो, पर जहाँ इस बात का ध्यान आया कि मन को कैसे पाला जाता है।

माणिक कुछ नहीं बोले। उनकी आँखोंमें एक करूण व्यथा झलक आई और चुपचाप बैठे रहे। आंधी आ गई थी और मेज के नीचे सिनेमा के दो आधे फटे हुए टिकट आंधी की वजह से तमाम कमरे में घायल तितलियों के जोड़े की तरह इधर-उधर उड़कर दीवार से टकरा रहे थे।

माणिक के पांव पर टप से एक गर्म आंसू चू पड़ा, तो उन्होंने चौंक कर देखा। लिली की पलकों में आँसू छलक रहे थे। उन्होंने हाथ पकड़कर लिली को पास खींच लिया और उसे सामने बिठा कर उसके दो नन्हे उजले कबूतरों जैसे पांव पर उंगली से धारियाँ खींचते हुए बोले, “छी, यह सब रोना-धोना हमारी लिली को शोभा नहीं देता। यह सब कमजोरी है, मन का मोह और कुछ नहीं। तुम जानती हो कि मेरे मन में कभी तुम्हारे लिए मोह नहीं रहा, तुम्हारे मन में मेरे लिए कभी अधिकार की भावना नहीं रही। अगर हम दोनों जीवन में एक दूसरे के निकट आये भी तो इसलिए कि हमारी अधूरी आत्मा एक-दूसरे को पूर्ण बनाये, एक-दूसरे को बल दे, प्रकाश दे प्रेरणा दे। और दुनिया की कोई भी ताकत कभी हमसे हमारी इस पवित्रता को छीन नहीं सकती। मैं जानता हूँ कि तमाम जीवन मैं जहाँ कहीं भी रहूंगा, जिन परिस्थितियों में भी रहूंगा, तुम्हारा प्यार मुझे बल देता रहेगा। फिर तुम्हें इतनी अस्थिरता क्यों आ रही है? इसका मतलब यह है कि पता नहीं मुझ में कौन सी कमी है कि तुम मुझे वह आस्था नहीं दे पा रहा हूँ।”

लिली ने आँसू डूबी निगाहें उठाई और कायरता से माणिक की ओर देखा, जिसका अर्थ था- ‘ऐसा ना कहो। मेरे जीवन में, मेरे व्यक्तित्व में, जो कुछ है तुम्हारा ही तो दिया हुआ है।’ पर लिली ने यह शब्दों में नहीं कहा। निगाहों से कह दिया।

माणिक धीरे से उसी के आंचल से उसके आँसू पोंछ दिये। बोले, “जाओ, मुँह धो आओ। चलो!” लिली मुँह धो कर आ गई। माणिक मुल्ला बैठे हुए रेडियो की सुई इस तरह घुमा रहे थे कि कभी झम से दिल्ली बज उठता, कभी लखनऊ की दो एक अस्फुट संगीत लहरी सुनाई पड़ जाती थी, कभी नागपुर कभी कोलकाता, (इलाहाबाद में सौभाग्य से तब तक रेडियो स्टेशन था ही नहीं) लिली बैठी रही, फिर उठ कर उसने रेडियो ऑफ कर दिया और आकुल आग्रह भरे स्वर में बोली, “माणिक कुछ बात करो। मन बहुत घबरा रहा है।”

माणिक हँसे और बोले, “अच्छा आओ बात करें। पर हमारी लिली जितनी अच्छी बात कर लेती है, उतनी मैं थोड़ी कर पाता हूँ। लेकिन खैर! तो तुम्हारी कम्मो की समझ में तस्वीर नहीं आई।”

“ऊं हूं!”

“कम्मो! बड़ी कुंद ज़ेहन है, लेकिन कोशिश हमेशा यही करती है कि सब काम में टांग अड़ाये।”

“तुम्हारी जमुना से तो अच्छी ही है!”

जमुना के जिक्र पर माणिक को हँसी आ गई और फिर आग्रह से, बेहद दुलार और बेहद नशे से लिली को देखते हुए बोले, “लिली! तुमने स्कंदगुप्त खत्म कर डाली।”

“हाँ!”

“कैसी लगी?”

लिली में सिर हिलाकर बताया कि बहुत अच्छी लगी। माणिक ने धीरे से लिली का हाथ अपने हाथों में ले लिया और उसकी रेखाओं पर अपने कांपते हुए हाथ को रखकर बोले, “मैं चाहता हूँ मेरी लिली भी उतनी ही पवित्र, उतनी ही सूक्ष्म, उतनी ही दृढ़ बने, जितनी देवसेना थी। तो लिली वैसी ही बनेगी ना।”

किसी मनावोपरी देवताओं के संगीत से मुग्ध भोली हिरणी की तरह लिली ने एक क्षण माणिक को देखा और उसकी हथेली में मुँह छिपा लिया।

“वाह! उधर देखो लिली!” माणिक ने दोनों हाथों से लिली का मुँह कमल के फूल की तरह उठाते हुए कहा।

बाहर गली की बिजली पता नहीं क्यों जल् नहीं रही थी, लेकिन रह-रहकर बैजनी रंग की बिजलियाँ चमक जाती थी और लंबी पतली गली, दोनों ओर के पक्के मकान, उनके खाली चबूतरे, बंद खिड़कियाँ, सुने बारजे, उदास छतें, उन बैजनी बिजलीयों में जाने कैसे जादू के से, रहस्यमय से लग रहे थे। बिजली चमकते ही अंधेरा चीरकर वे खिड़की से दिख पढ़ते थे और फिर सहसा अंधकार में विलीन हो जाते और उस बीच के एक क्षण में उनकी दीवारों पर तड़पती हुई बिजली की बैजनी रोशनी लप-लपाती रहती, बारजों की कोरों से पानी की धारें गिरती रहती, खंभे और बिजली के तार कांपते रहते और हवा में बूंदों की झालरें लहराती रहती। सारा वातावरण जैसे बिजली के एक क्षीण आघात से कांप रहा था डोल रहा था।

एक तेज झोंका आया और खिड़की के पास खड़ी लिली बौछार से भीग गई और भौहों से, माथे से बूंदे पोंछते हुए हटी, तो माणिक बोले, “लिली वही खड़ी रहो, खिड़की के पास। हाँ, बिल्कुल ऐसे ही। बूंदे मत पोंछो। और लीली यह एक लट तुम्हारी भी झूल आई है , कितनी अच्छी लग रही है?”

लिली कभी चुपचाप लजाती हुई खिड़की के बाहर, कभी लजाती हुई अंदर माणिक की ओर देखते हुए बौछार में खड़ी रही। जब बिजलियाँ चमकती, तो ऐसा लगता जैसे प्रकाश के झरने में कांपता हुआ नीलकमल। पहले माथा भीगा – लिली ने पूछा, “हटें!”

“नहीं!” माथे से पानी गर्दन पर आया, बूंदे उसके गले में पड़ी सुनहरी मटरमाला को चूमती हुई नीचे उतरने लगी, वह सिहर उठी।

“सर्दी लग रही है?” माणिक ने पूछा।

एक अजब से अलग आत्मसमर्पण के स्वर में लिली बोली, “नहीं सर्दी नहीं लग रही है। लेकिन तुम बड़े पागल हो।”

“हूँ तो नहीं, कभी-कभी हो जाता हूँ। लिली, एक अंग्रेज की कविता है – ‘ए लिली गर्ल नॉट मेड फॉर दिस वर्ल्डस पेन।‘ एक फूल सी लड़की जो इस दुनिया के दुख दर्द के लिए नहीं बनी। लिली यह कवि तुम्हें जानता था क्या? लिली…तुम्हारा नाम तक लिख दिया है।“

“हूं! हमें तो जरूर जानता था। तुम्हें भी एक नई बात रोज सूझती रहती है।”

“नहीं! देखो उसने यहाँ तक तो लिखा है – एंड लागिंग आइज हाफ स्लंवरस टीयर्स,  लाइक ब्लूएस्ट वाटर्स सोन थ्रू मिस्टस, ऑफ रेन – लालसा भरी निगाहें, उनींदे आँसू से आच्छादित जैसे पानी की बौछार में धुंधली दिखने वाली नीली झील।“

सहसा तड़प के दूर कहीं बिजली गिरी और लिली चौंक पर भागी और बदहवास माणिक के पास आ गिरी। दो पल बिजली की दिल दहला देने वाली आवाज गूंजती रही। और लिली सहमी हुई गौरैया की तरह माणिक की बाहों के घेरे में खड़ी रही। फिर उसने आँखें खोली और माणिक के पांवों पर दो गरम होंठ रख दिये। माणिक की आँखों में आँसू आ गये। बाहर बारिश धीमी पड़ गई थी। सिर्फ छज्जों से टप टप बूंदे चू रही थी। हल्के-हल्के बादल अंधेरे में उड़े जा रहे थे।

सुबह लिली जागी, जागी नहीं – लिली को रात भर नींद आई नहीं। उसे पता नहीं कब माँ ने खाने के लिए जगाया, उसने कब मना कर दिया, कब और किसने उसे पलंग पर लेटाया। उसे सिर्फ इतना याद है कि रात भर वह पता नहीं किसके पांव पर सिर रखकर रोती रही। तकिया आँसुओं से भीग गया था, आँखें सूज आई थी।

कम्मो सुबह ही आ गई थी। आज लिली को जेवर पहनाया जाने वाला था। शाम को चार बजे लोग आने वाले थे, सास तो थी ही नहीं, ससुर ही आने वाले थे और कम्मो लिली की घनिष्ठ मित्र थी, उस पर घर को सजाने का पूरा भार था और लिली थी कि कम्मो के कंधे पर सिर रखकर इस तरह बिलखती थी कि कुछ पूछो मत।

कम्मो बड़ी यथार्थवादिनी, बड़ी ही अभावुक लड़की थी। उसने इतनी सहेलियों की शादियाँ होती देखी थी। पर लिली की तरह बिना बात के बिलक-बिलक कर रोते किसी को नहीं देखा था। अच्छा विदा होने लगे, तो उस समय को रोना ठीक है। वरनाचार बड़ी-बुढ़िया कहने लगती है कि देखो आजकल की लड़कियाँ हया शरम धोकर पी गई है। कैसी ऊंट सी गर्दन उठाये ससुराल चली जा रही है। अरे हम लोग थे कि रोते-रोते भोर हो गई थी और जब हाथ पकड़ के भैया ने डोली में ढकेल दिया, तो बैठे थे, एक यह है। आदि!

लेकिन इस तरह रोने से क्या फायदा और वह भी तब जब माँ या और लोग सामने ना हो। सामने रोये, तो एक बात भी है। बहरहाल कम्मो बिगड़ती रही और लिली के आँसू थमते ही न थे।

कम्मो ने काम बहुत जल्दी ही निपटा लिया, लेकिन वह घर में आई थी कि अब दिन भर वही रहेगी। कम्मो ठहरी घूमने फिरने वाली कामकाजी लड़की। उसे ख़याल आया कि उसे एलेनगंज जाना है। वहाँ से अपनी कढ़ाई की किताबें वगैरह वापस लानी है और फिर उसे एक क्षण चैन नहीं पड़ा। उसने लिली की माँ से पूछा। जल्दी से लिली को मारपीट कर जबर्दस्ती तैयार किया और दोनों सखियाँ चल पड़ी।

बादल छाये हुए थे और बहुत ही सुहाना मौसम था। सड़कों पर जगह-जगह पानी जमा था, जिनमें चिड़ियाँ नहा रही थी। थोड़ी ही दूर आगे बांध था, जिसके नीचे एक पुरानी रेल की लाइन गई थी, जो अब बंद पड़ी थी। लाइनों के बीच में घास उग आई थी और बारिश के बाद घास में लाल हीरो की तरह जगमगाती हुई बीरबहुटिया रेंग रही थी। दोनों सखियाँ वही बैठ गई – एक बीरबहूटी रह-रहकर उस जंग खाये हुए लोहे की लाइन को पार करने की कोशिश कर रही थी और बार-बार फिसल कर गिर जाती थी। लिली थोड़ी देर उसे देखते रहे और फिर बहुत उदास होकर का कम्मो से बोली, “कम्मो रानी! अब उस पिंजरे से निस्तार नहीं होगा। कहाँ ये घूमना फिरना? कहाँ तुम?”

कम्मो जो एक घास की डंठल चबा रही थी, तमककर बोली, “देखो लिली घोड़ी! मेरे सामने यह अंसुआ ढरकाने से कोई फायदा नहीं। समझी! हमें यह सब चोचला अच्छा नहीं लगता। दुनिया की सब लड़कियाँ तो पैदा होकर ब्याह करती हैं, एक तुम अनोखी पैदा हुई हो क्या? और ब्याह के पहले सभी ये कहती हैं, विवाह के बाद भूल भी जाओगे कि कम्मो कमबख्त किस खेत की मूली थी।”

लिली कुछ नहीं बोली। खिसियानी सी हँसी हँस दी। दोनों सखियाँ आगे चली। धीरे-धीरे लिली बीरबहुटिया बटोरने लगी। सहसा कम्मो ने उसे एक झाड़ी के पास पड़ी सांप की केचुली दिखाई, फिर दोनों एक बहुत बड़े अमरूद के बाग के पास आये, और दो-तीन बरसाती अमृत तोड़ कर खाये, जो काफ़ी बकठे थे और अंत में पुरानी कब्रों और खेतों में से होती हुई वे एक बहुत बड़े से पोखरे के पास आई, जहाँ धोबियों के पत्थर लगे हुए थे। केंचुल, बीरबहूटी, अमरूद और हरियाली ने लिली के मन को एक अजीब सी राहत दी। रो-रोकर थके हुए उसके मन ने उल्लास की एक करवट ली। उसने चप्पल उतार दी और भीगी हुई घास पर टहलने लगी। थोड़ी देर में लिली बिल्कुल दूसरी ही लिली थी, हँसी की तरंगों पर धूप की तरह जगमगाते वाली और शाम को पाँच0 बजे जब दोनों घर लौटी, तो उनकी खिलखिलाहट से मोहल्ला हिल उठा और लिली को बहुत कसकर भूख लग आई थी।

दिनभर घूमने से लिली को इतनी जोर की भूख लग आई थी कि आते ही उसने माँ से नाश्ता मांगा और जब अपने आप अलमारी से निकाले लगी, तो माँ ने टोका, “खुद खा जायेगी, तो तेरे ससुर क्या खायेंगे?” तो हँसकर बोली, “अरे उन्हें मैं बचा खुचा अपने हाथ से खिला दूंगी। पहले चख तो लूं, नहीं बदनामी हो बाद में।”

इतने में मालूम हुआ कि वे लो आ गये, तो झट से वह नाश्ता आधा छोड़कर अंदर गई। कम्मो ने उसे साड़ी पहनाई, उसे सजाया संवारा। लेकिन उसे भूख इतनी लगी थी कि उन लोगों के सामने जाने के पहले फिर बैठ गई और खाने लगी। यहाँ तक कि कम्मो ने जबरदस्ती उसके सामने से तस्करी हटा ली और उसे खींच ले गई।

दिनभर खुली हवा में घूमने से और पेट भर कर खाने से सुबह लिली के चेहरे पर जो उदासी छाई थी, वह बिल्कुल गायब हो गई थी और उन लोगों को लड़की बहुत पसंद आई और पिछले दिन शाम को उसके जीवन में जो जलजला शुरू हुआ था, वह दूसरे दिन शाम को शांत हो गया।इ

तना कहकर माणिक मुल्ला बोले, “और प्यारे बंधुओं! देखा तुम लोगों ने खुली हवा में घूमने और सूर्यास्त के पहले खाना खाने से सभी शारीरिक और मानसिक व्याधियाँ शांत हो जाती हैं। अतः इससे क्या निष्कर्ष निकला?”

“खाओ बदन बनाओ।” हम लोगों ने उनके कमरे में टंगी फोटो की ओर देखते हुए एक स्वर में कहा।

“लेकिन माणिक मुल्ला!” ओंकार ने पूछा, “यह आपने नहीं बताया कि लड़की को आप कैसे जानते थे? क्यों जानते थे? कौन थी यह लड़की?”

“अच्छा! आप लोग चाहते हैं कि मैं कहानी का घटनाकाल भी चौबीस घंटे रखूं और उसमें आपको सारा महाभारत और इनसाइक्लोपीडिया भी सुनाऊं। मैं जानता था इससे आपको क्या मतलब? यह मैं आपको बता दूं कि यह लीला वही लड़की है, जिसका ब्याह तन्ना से हुआ था और उस दिन शाम को महेसर दलाल उसे देखने आने वाले थे।“

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