चैप्टर 1 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 1 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 1 Gaban Novel By Munshi Premchand

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बरसात के दिन हैं, सावन का महीना. आकाश में सुनहरी घटायें छाई हुई हैं। रह-रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है। अभी तीसरा पहर है; पर ऐसा मालूम हो रहा है, शाम हो गयी। आमों के बाग़ में झूला पड़ा हुआ है। लड़कियाँ भी झूल रहीं हैं और उनकी मातायें भी। दो-चार झूल रहीं हैं, दो चार झुला रही हैं। कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा। इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं। ये फुहारें मानो चिंताओं को ह्रदय से धो डालती हैं। मानो मुरझाये हुए मन को भी हरा कर देती हैं। सबके दिल उमंगों से भरे हुए हैं। धानी साड़ियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है।

इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खड़ा हो गया। उसे देखते ही झूला बंद हो गया। छोटे-बड़ों सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना संदूक खोला और चमकती-दमकती चीजें निकालकर दिखाने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लेस और गोटे, रंगीन मोजे, ख़ूबसूरत गुड़िया और गुड़ियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज ली, किसी ने कोई चीज। एक बड़ी-बड़ी आँखों वाली बालिका ने वह चीज पसंद की, जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुंदर थी। वह गिरोजी रंग का एक चंद्रहार था। माँ से बोली- “अम्मां, मैं यह हार लूंगी।“

माँ ने बिसाती से पूछा – “बाबा, यह हार कितने का है?”

बिसाती ने हार को रूमाल से पोंछते हुए कहा – “खरीद तो बीस आने की है, मालकिन जो चाहें दे दें।“

माता ने कहा – “यह तो बड़ा महंगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी।“

बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा – “बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चंद्रहार मिल जाएगा!”

माता के ह्रदय पर इन सह्रदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया।

बालिका के आनंद की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनंद न होता। उसे पहनकर वह सारे गांव में नाचती फिरी। उसके पास जो बाल-संपत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लड़की का नाम जालपा था, माता का मानकी।

महाशय दीनदयाल प्रयाग के छोटे से गांव में रहते थे। वह किसान न थे, पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे, पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे, पर थानेदारी करते थे। वह थे जमींदार के मुख्तार। गांव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोड़ा, कई गायें-भैंसें। वेतन कुल पाँच रूपये पाते थे, जो उनके तंबाकू के खर्च को भी काफ़ी न होता था। उनकी आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है। जालपा उन्हीं की लड़की थी। पहले उसके तीन भाई और थे, पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता—“तेरे भाई क्या हुए?” तो वह बड़ी सरलता से कहती – “बड़ी दूर खेलने गये हैं।“

कहते हैं, मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अंदर तीनों लड़के जाते रहे। तब से बेचारे बहुत संभलकर चलते थे। फूंक-फूंककर पांव रखते, दूध के जले थे, छाछ भी फूंक-फूंककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलंब?

दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिए कोई न कोई आभूषण ज़रूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुड़ियाँ और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे, इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गांव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पड़ता, तो वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आँखों में जंचता ही न था। एक दिन दीनदयाल लौटे, तो मानकी के लिए एक चंद्रहार लाए। मानकी को यह चाह बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गई। जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली – “बाबूजी, मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिये।“

दीनदयाल ने मुस्कराकर कहा – “ला दूंगा, बेटी!”

“कब ला दीजिएगा?”

“बहुत जल्दी।“

बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा।

उसने माता से जाकर कहा – “अम्मांजी, मुझे भी अपना सा हार बनवा दो।“

माँ – “वह तो बहुत रूपयों में बनेगा, बेटी!”

जालपा – “तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवातीं?”

माँ ने मुस्कराकर कहा – ‘तेरे लिए तेरी ससुराल से आयेगा।“

यह हार छ: सौ में बना था। इतने रूपये जमा कर लेना,  दीनदयाल के लिए आसान न था। ऐसे कौन बड़े ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आई, जीवन में फिर कभी इतने रूपये आयेंगे, इसमें उन्हें संदेह था। जालपा लजाकर भाग गई, पर यह शब्द उसके ह्रदय में अंकित हो गए। ससुराल उसके लिए अब उतनी भंयकर न थी। ससुराल से चंद्रहार आएगा, वहाँ के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे, तभी तो जो चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहाँ से आएगी।

लेकिन ससुराल से न आये, तो उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह चुके थे, किसी की ससुराल से चंद्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल से भी न आया तो, उसने सोचा – ‘तो क्या माताजी अपना हार मुझे दे देंगी? अवश्य दे देंगी।‘

इस तरह हँसते-खेलते सात वर्ष कट गए और वह दिन भी आ गया, जब उसकी चिरसंचित अभिलाषा पूरी होगी।

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