चैप्टर 3 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 3 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 3 Gaban Novel By Munshi Premchand

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मुंशी दीनदयाल उन आदमियों में से थे, जो सीधों के साथ सीधे होते हैं, पर टेढ़ों के साथ टेढ़े ही नहीं, शैतान हो जाते हैं। दयानाथ बड़ा-सा मुँह खोलते, हजारों की बातचीत करते, तो दीनदयाल उन्हें ऐसा चकमा देते कि वह उम्र भर याद करते। दयानाथ की सज्जनता ने उन्हें वशीभूत कर लिया। उनका विचार एक हजार देने का था, पर एक हजार टीके ही में दे आये।

मानकी ने कहा – “जब टीके में एक हजार दिया, तो इतना ही घर पर भी देना पड़ेगा। आयेगा कहाँ से.”

दीनदयाल चिढ़कर बोले – “भगवान मालिक है। जब उन लोगों ने उदारता दिखाई और लड़का मुझे सौंप दिया, तो मैं भी दिखा देना चाहता हूँ कि हम भी शरीफ़ हैं और शील का मूल्य पहचानते हैं। अगर उन्होंने हेकड़ी जताई होती, तो अभी उनकी खबर लेता।“

दीनदयाल एक हजार तो दे आये, पर दयानाथ का बोझ हल्का करने के बदले और भारी कर दिया। वह कर्ज से कोसों भागते थे। इस शादी में उन्होंने मियां की जूती मियां की चाँद वाली नीति निभाने की ठानी थी, पर दीनदयाल की सह्रदयता ने उनका संयम तोड़ दिया। वे सारे टीमटाम, नाच-तमाशे, जिनकी कल्पना का उन्होंने गला घोंट दिया था, वही रूप धारण करके उनके सामने आ गये। बंधा हुआ घोड़ा थान से खुल गया, उसे कौन रोक सकता है? धूमधाम से विवाह करने की ठन गई। पहले जोड़े-गहने को उन्होंने गौण समझ रखा था, अब वही सबसे मुख्य हो गया। ऐसा चढ़ावा हो कि मड़वे वाले देखकर भङक उठें। सबकी आँखें खुल जायें। कोई तीन हजार का सामान बनवा डाला। सर्राफ़ को एक हजार नगद मिल गये, एक हजार के लिए एक सप्ताह का वादा हुआ, तो उसने कोई आपत्ति न की। सोचा – ‘दो हजार सीधे हुए जाते हैं, पाँच-सात सौ रूपये रह जायेंगे, वह कहाँ जाते हैं।‘

व्यापारी की लागत निकल आती है, तो नगद को तत्काल पाने के लिए आग्रह नहीं करता। फिर भी चंद्रहार की कसर रह गई। जड़ाऊ चंद्रहार एक हजार से नीचे अच्छा नहीं मिल सकता था। दयानाथ का जी तो लहराया कि लगे हाथ उसे भी ले लो, किसी को नाक सिकोड़ने की जगह तो न रहेगी, पर जागेश्वरी इस पर राजी न हुई। बाजी पलट चुकी थी।

दयानाथ ने गर्म होकर कहा – “तुम्हें क्या, तुम तो घर में बैठी रहोगी। मौत तो मेरी होगी, जब उधार के लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगेंगे।“

जागेश्वरी – “दोगे कहाँ से, कुछ सोचा है?”

दयानाथ – “कम-से-कम एक हजार तो वहाँ मिल ही जायेंगे।“

जागेश्वरी – “खून मुँह लग गया क्या?”

दयानाथ ने शरमाकर कहा – “नहीं-नहीं, मगर आखिर वहाँ भी तो कुछ मिलेगा?”

जागेश्वरी – “वहाँ मिलेगा, तो वहाँ खर्च भी होगा। नाम जोड़े गहने से नहीं होता, दान-दक्षिणा से होता है।“

इस तरह चंद्रहार का प्रस्ताव रद्द हो गया।
मगर दयानाथ दिखावे और नुमाइश को चाहे अनावश्यक समझें, रमानाथ उसे परमावश्यक समझता था। बरात ऐसे धूम से जानी चाहिए कि गांव-भर में शोर मच जाय। पहले दूल्हे के लिए पालकी का विचार था। रमानाथ ने मोटर पर जोर दिया। उसके मित्रों ने इसका अनुमोदन किया, प्रस्ताव स्वीकृत हो गया।

दयानाथ एकांतप्रिय जीव थे, न किसी से मित्रता थी, न किसी से मेल-जोल। रमानाथ मिलनसार युवक था, उसके मित्र ही इस समय हर एक काम में अग्रसर हो रहे थे। वे जो काम करते, दिल खोल कर। आतिशबाजियाँ बनवाई, तो अव्वल दर्जे की। नाच ठीक किया, तो अव्वल दर्जे का; बाजे-गाजे भी अव्वल दर्जे के, दोयम या सोयम का वहाँ ज़िक्र ही न था। दयानाथ उसकी उच्छृंखलता देखकर चिंतित तो हो जाते थे, पर कुछ कह न सकते थे। क्या कहते?

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मुंशी प्रेमचंद के अन्य उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

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