Chapter 9 Gaban Novel By Munshi Premchand
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रमा दफ्तर से घर पहुँचा, तो चार बज रहे थे। वह दफ्तर ही में था कि आसमान पर बादल घिर आए। पानी आया ही चाहता था, पर रमा को घर पहुँचने की इतनी बेचैनी हो रही थी कि उससे रूका न गया। हाते के बाहर भी न निकलने पाया था कि जोर की वर्षा होने लगी। आषाढ़ का पहला पानी था, एक ही क्षण में वह लथपथ हो गया। फिर भी वह कहीं रूका नहीं। नौकरी मिल जाने का शुभ समाचार सुनाने का आनंद इस दौंगड़े की क्या परवाह कर सकता था? वेतन तो केवल तीस ही रूपये थे, पर जगह आमदनी की थी। उसने मन-ही-मन हिसाब लगा लिया था कि कितना मासिक बचत हो जाने से वह जालपा के लिए चंद्रहार बनवा सकेगा। अगर पचास-साठ रूपये महीने भी बच जायें, तो पाँच साल में जालपा गहनों से लद जाएगी। कौन-सा आभूषण कितने का होगा, इसका भी उसने अनुमान कर लिया था। घर पहुँचकर उसने कपड़े भी न उतारे, लथपथ जालपा के कमरे में पहुँच गया।
जालपा उसे देखते ही बोली – “यह भीग कहाँ गये, रात कहाँ गायब थे?”
रमानाथ – “इसी नौकरी की फिक्र में पड़ा हुआ हूँ। इस वक्त दफ्तर से चला आता हूँ। म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर में मुझे एक जगह मिल गई।“
जालपा ने उछलकर पूछा – “सच! कितने की जगह है?”
रमा को ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री के नज़रों में तुच्छ बनना कौन चाहता है?बोला – “अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्द तरक्की होगी। जगह आमदनी की है।“
जालपा ने उसके लिए किसी बड़े पद की कल्पना कर रखी थी। बोली – “चालीस में क्या होगा? भला साठ-सभार तो होते!”
रमानाथ – “मिल तो सकती थी सौ रूपये की भी, पर यहाँ रौब है, और आराम है। पचास-साठ रूपये ऊपर से मिल जायेंगे।“
जालपा – “तो तुम घूस लोगे, गरीबों का गला काटोगे?”
रमा ने हँसकर कहा – “नहीं प्रिये, वह जगह ऐसी नहीं कि गरीबों का गला काटना पड़े। बड़े-बड़े महाजनों से रकमें मिलेंगी और वह खुशी से गले लगायेंगे।
मैं जिसे चाहूं, दिनभर दफ्तर में खड़ा रखूं, महाजनों का एक-एक मिनट एक-एक अशरफी के बराबर है। जल्द-से-जल्द अपना काम कराने के लिए वे खुशामद भी करेंगे, पैसे भी देंगे।“
जालपा संतुष्ट हो गई, बोली – “हाँ, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।“
रमानाथ – “वह तो करूंगा ही।“
जालपा – “अभी अम्माजी से तो नहीं कहा? जाकर कह आओ। मुझे तो सबसे बड़ी खुशी यही है कि अब मालूम होगा कि यहाँ मेरा भी कोई अधिकार है।“
रमानाथ – “हाँ, जाता हूँ, मगर उनसे तो मैं बीस ही बतलाऊंगा।“
जालपा ने उल्लसित होकर कहा – “हाँ जी, बल्कि पंद्रह ही कहना, ऊपर की आमदनी की तो चर्चा ही करना व्यर्थ है। भीतर का हिसाब वे ले सकते हैं। मैं सबसे पहले चंद्रहार बनवाऊंगी।“
इतने में डाकिये ने पुकारा। रमा ने दरवाज़े पर जाकर देखा, तो उसके नाम एक पार्सल आया था। महाशय दीनदयाल ने भेजा था। लेकर खुश-खुश घर में आये और जालपा के हाथों में रखकर बोले – “तुम्हारे घर से आया है, देखो इसमें क्या है?”
रमा ने चटपट कैंची निकाली और पार्सल खोला, उसमें देवदार की एक डिबिया निकली। उसमें एक चंद्रहार रखा हुआ था। रमा ने उसे निकालकर देखा और हँसकर बोला – “ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली, चीज तो बहुत अच्छी मालूम होती है।“
जालपा ने कुंठित स्वर में कहा – “अम्माजी को यह क्या सूझी, यह तो उन्हीं का हार है। मैं तो इसे न लूंगी। अभी डाक का वक्त हो, तो लौटा दो।“
रमा ने विस्मित होकर कहा – “लौटाने की क्या ज़रूरत है, वह नाराज न होंगी?”
जालपा ने नाक सिकोड़कर कहा – “मेरी बला से, रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। मैं उनकी दया के बिना भी जीती रह सकती हूँ। आज इतने दिनों के बाद उन्हें मुझ पर दया आई है। उस वक्त दया न आई थी, जब मैं उनके घर से विदा हुई थी। उनके गहने उन्हें मुबारक हों। मैं किसी का एहसान नहीं लेना चाहती। अभी उनके ओढ़ने-पहनने के दिन हैं। मैं क्यों बाधक बनूं। तुम कुशल से रहोगे, तो मुझे बहुत गहने मिल जायेंगे। मैं अम्माजी को यह दिखाना चाहती हूँ कि जालपा तुम्हारे गहनों की भूखी नहीं है।“
रमा ने संतोष देते हुए कहा – “मेरी समझ में तो तुम्हें हार रख लेना चाहिए। सोचो, उन्हें कितना दुःख होगा। विदाई के समय यदि न दिया तो, तो अच्छा ही किया। नहीं तो और गहनों के साथ यह भी चला जाता।“
जालपा – “मैं इसे लूंगी नहीं, यह निश्चय है।“
रमानाथ – “आखिर क्यों?”
जालपा – “मेरी इच्छा!”
रमानाथ – “इस इच्छा का कोई कारण भी तो होगा?”
जालपा रूंधे हुए स्वर में बोली – “कारण यही है कि अम्माजी इसे खुशी से नहीं दे रही हैं, बहुत संभव है कि इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनंद होगा। देने वाले का ह्रदय देखना चाहिए। प्रेम से यदि वह मुझे एक छल्ला भी दे दें, तो मैं दोनों हाथों से ले लूं। जब दिल पर जब्र करके दुनिया की लाज से या किसी के धिक्कारने से दिया, तो क्या दिया। दान भिखारिनियों को दिया जाता है। मैं किसी का दान न लूंगी, चाहे वह माता ही क्यों न हों।“
माता के प्रति जालपा का यह द्वेष देखकर रमा और कुछ न कह सका। द्वेष तर्क और प्रमाण नहीं सुनता। रमा ने हार ले लिया और चारपाई से उठता हुआ बोला – “ज़रा अम्मा और बाबू जी को तो दिखा दूं। कम-से-कम उनसे पूछ तो लेना ही चाहिए।“
जालपा ने हार उसके हाथ से छीन लिया और बोली – “वे लोग मेरे कौन होते हैं, जो मैं उनसे पूछूं? केवल एक घर में रहने का नाता है। जब वह मुझे कुछ नहीं समझते, तो मैं भी उन्हें कुछ नहीं समझती।“
यह कहते हुए उसने हार को उसी डिब्बे में रख दिया, और उस पर कपड़ा लपेटकर सीने लगी।
रमा ने एक बार डरते-डरते फिर कहा – “ऐसी जल्दी क्या है, दस-पाँच दिन में लौटा देना। उन लोगों की भी खातिर हो जायेगी।“
इस पर जालपा ने कठोर नज़रों से देखकर कहा – “जब तक मैं इसे लौटा न दूंगी, मेरे दिल को चैन न आएगा। मेरे ह्रदय में कांटा-सा खटकता रहेगा। अभी पार्सल तैयार हुआ जाता है, हाल ही लौटा दो।“
एक क्षण में पार्सल तैयार हो गया और रमा उसे लिये हुए चिंतित भाव से नीचे चला।
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