चैप्टर 42 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 42 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 42 Gaban Novel By Munshi Premchand

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एक महीना गुज़र गया। जालपा कई दिन तक बहुत विकल रही। कई बार उन्माद-सा हुआ कि अभी सारी कथा किसी पत्र में छपवा दूं, सारी कलई खोल दूं, सारे हवाई किले ढा दूं, पर यह सभी उद्वेग शांत हो गए। आत्मा की गहराइयों में छिपी हुई कोई शक्ति उसकी ज़बान बंद कर देती थी। रमा को उसने ह्रदय से निकाल दिया था। उसके प्रति अब उसे क्रोध न था, द्वेष न था, दया भी न थी, केवल उदासीनता थी। उसके मर जाने की सूचना पाकर भी शायद वह न रोती। हाँ, इसे ईश्वरीय विधान की एक लीला, माया का एक निर्मम हास्य, एक क्रूर क्रीड़ा समझकर थोड़ी देर के लिए वह दुखी हो जाती। प्रणय का वह बंधन जो उसके गले में दो-ढाई साल पहले पड़ा था, टूट चुका था, पर उसका निशान बाकी था। रमा को इस बीच में उसने कई बार मोटर पर अपने घर के सामने से जाते देखा। उसकी आँखें किसी को खोजती हुई मालूम होती थीं। उन आँखों में कुछ लज्जा थी, कुछ क्षमा-याचना, पर जालपा ने कभी उसकी तरफ आँखें न उठाई। वह शायद इस वक्त आकर उसके पैरों पर पड़ता, तो भी वह उसकी ओर न ताकती। रमा की इस घृणित कायरता और महान स्वार्थपरता ने जालपा के ह्रदय को मानो चीर डाला था, फिर भी उस प्रणय-बंधन का निशान अभी बना हुआ था। रमा की वह प्रेम-विह्नल मूर्ति, जिसे देखकर एक दिन वह गदगद हो जाती थी, कभी-कभी उसके ह्रदय में छाये हुए अंधेरे में क्षीण, मलिन,निरानंद ज्योत्स्ना की भांति प्रवेश करती, और एक क्षण के लिए वह स्मृतियाँ विलाप कर उठतीं। फिर उसी अंधकार और नीरवता का परदा पड़ जाता। उसके लिए भविष्य की मृदु स्मृतियाँ न थीं, केवल कठोर, नीरस वर्तमान विकराल रूप से खड़ा घूर रहा था।

वह जालपा, जो अपने घर बात-बात पर मान किया करती थी, अब सेवा, त्याग और सहिष्णुता की मूर्ति थी। जग्गो मना करती रहती, पर वह मुँह-अंधेरे सारे घर में झाड़ू लगा आती, चौका-बरतन कर डालती, आटा गूंधकर रख देती, चूल्हा जला देती। तब बुढ़िया का काम केवल रोटियाँ सेंकना था। छूत-विचार को भी उसने ताक पर रख दिया था। बुढ़िया उसे ठेल-ठालकर रसोई में ले जाती और कुछ न कुछ खिला देती। दोनों में माँ-बेटी का-सा प्रेम हो गया था।

मुकदमे की सब कार्रवाई समाप्त हो चुकी थी। दोनों पक्ष के वकीलों की बहस हो चुकी थी। केवल फैसला सुनाना बाकी था। आज उसकी तारीख़ थी। आज बड़े सबरे घर के काम-धंधों से फुर्सत पाकर जालपा दैनिक-पत्र वाले की आवाज़ पर कान लगाये बैठी थी, मानो आज उसी का भाग्य-निर्णय होने वाला है। इतने में देवीदीन ने पत्र लाकर उसके सामने रख दिया। जालपा पत्र पर टूट पड़ी और फैसला पढ़ने लगी। फैसला क्या था, एक ख़याली कहानी थी, जिसका प्रधान नायक रमा था। जज ने बार-बार उसकी प्रशंसा की थी। सारा अभियोग उसी के बयान पर अवलंबित था।

देवीदीन ने पूछा, ‘फैसला छपा है?’

जालपा ने पत्र पढ़ते हुए कहा, ‘हाँ, है तो!’

‘किसकी सजा हुई?’

‘कोई नहीं छूटा, एक को फांसी की सज़ा मिली। पाँच को दस-दस साल और आठ को पाँच-पाँच साल। उसी दिनेश को फांसी हुई।’

यह कहकर उसने समाचार-पत्र रख दिया और एक लंबी साँस लेकर बोली, ‘इन बेचारों के बाल-बच्चों का न जाने क्या हाल होगा!’

देवीदीन ने तत्परता से कहा, ‘तुमने जिस दिन मुझसे कहा था, उसी दिन से मैं इन बातों का पता लगा रहा हूँ। आठ आदमियों का तो अभी तक ब्याह ही नहीं हुआ और उनके घर वाले मज़े में हैं। किसी बात की तकलीफ नहीं है। पाँच आदमियों का विवाह तो हो गया है, पर घर के ख़ुश हैं। किसी के घर रोजगार होता है, कोई जमींदार है, किसी के बाप-चचा नौकर हैं। मैंने कई आदमियों से पूछा, यहाँ कुछ चंदा भी किया गया है। अगर उनके घर वाले लेना चाहें, तो तो दिया जायगा। खाली दिनेश तबाह है। दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, बुढ़िया, माँ और औरत, यहाँ किसी स्कूल में मास्टर था। एक मकान किराये पर लेकर रहता था। उसकी खराबी है।’

जालपा ने पूछा, ‘उसके घर का पता लगा सकते हो?’

‘हाँ, उसका पता कौन मुश्किल है?’

जालपा ने याचना-भाव से कहा, ‘तो कब चलोगे? मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अभी तो वक्त है। चलो, ज़रा देखें।’

देवीदीन ने आपत्ति करके कहा, ‘पहले मैं देख तो आऊं। इस तरह मेरे साथ कहाँ-कहाँ दौड़ती फिरोगी?’

जालपा ने मन को दबाकर लाचारी से सिर झुका लिया और कुछ न बोली। देवीदीन चला गया। जालपा फिर समाचार-पत्र देखने लगी,पर उसका ध्यान दिनेश की ओर लगा हुआ था। बेचारा फांसी पा जायेगा। जिस वक्त उसने फांसी का हुक्म सुना होगा, उसकी क्या दशा हुई होगी। उसकी बूढ़ी माँ और स्त्री यह खबर सुनकर छाती पीटने लगी होंगी। बेचारा स्कूल-मास्टर ही तो था, मुश्किल से रोटियाँ चलती होंगी। और क्या सहारा होगा? उनकी विपत्ति की कल्पना करके उसे रमा के प्रति उत्तेजना, पूर्ण घृणा हुई कि वह उदासीन न रह सकी। उसके मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इस वक्त वह आ जाये, तो ऐसा धिक्कारूं कि वह भी याद करें। तुम मनुष्य हो! कभी नहीं। तुम मनुष्य के रूप में राक्षस हो, राक्षस! तुम इतने नीच हो कि उसको प्रकट करने के लिए कोई शब्द नहीं है। तुम इतने नीच हो कि आज कमीने से कमीना आदमी भी तुम्हारे ऊपर थूक रहा है। तुम्हें किसी ने पहले ही क्यों न मार डाला। इन आदमियों की जान तो जाती ही, पर तुम्हारे मुँह में तो कालिख न लगती। तुम्हारा इतना पतन हुआ कैसे! जिसका पिता इतना सच्चा, इतना ईमानदार हो, वह इतना लोभी, इतना कायर!

शाम हो गई, पर देवीदीन न आया। जालपा बार-बार खिड़की पर खड़ी हो-होकर इधर-उधर देखती थी, पर देवीदीन का पता न था। धीरे-धीरे आठ बज गए और देवी न लौटा। सहसा एक मोटर द्वार पर आकर रूकी और रमा ने उतरकर जग्गो से पूछा, ‘सब कुशल-मंगल है न दादी! दादा कहाँ गए हैं?’

जग्गो ने एक बार उसकी ओर देखा और मुँह उधर लिया। केवल इतना बोली, ‘कहीं गए होंगे, मैं नहीं जानती।’

रमा ने सोने की चार चूड़ियाँ जेब से निकालकर जग्गो के पैरों पर रख दीं और बोला, ‘यह तुम्हारे लिए लाया हूँ दादी, पहनो, ढीली तो नहीं हैं?’

जग्गो ने चूड़ियाँ उठाकर ज़मीन पर पटक दीं और आँखें निकालकर बोली, ‘जहाँ इतना पाप समा सकता है, वहाँ चार चूड़ियों की जगह नहीं है! भगवान की दया से बहुत चूड़ियाँ पहन चुकी और अब भी सेर-दो सेर सोना पडा होगा, लेकिन जो खाया, पहना, अपनी मेहनत की कमाई से, किसी का गला नहीं दबाया, पाप की गठरी सिर पर नहीं लादी, नीयत नहीं बिगाड़ी। उस कोख में आग लगे, जिसने तुम जैसे कपूत को जन्म दिया। यह पाप की कमाई लेकर तुम बहू को देने आये होगे! समझते होगे, तुम्हारे रूपयों की थैली देखकर वह लट्टू हो जायेगी। इतने दिन उसके साथ रहकर भी तुम्हारी लोभी आँखें उसे न पहचान सकीं। तुम जैसे राक्षस उस देवी के जोग न थे। अगर अपनी कुसल चाहते हो, तो इन्हीं पैरों जहाँ से आये हो, वहीं लौट जाओ, उसके सामने जाकर क्यों अपना पानी उतरवाओगे। तुम आज पुलिस के हाथों ज़ख्मी होकर, मार खाकर आये होते, तुम्हें सज़ा हो गई होती, तुम जेल में डाल दिये गये होते, तो बहू तुम्हारी पूजा करती, तुम्हारे चरण धो-धोकर पीती। वह उन औरतों में है जो चाहे मजूरी करें, उपास करें, फटे-चीथड़े पहनें, पर किसी की बुराई नहीं देख सकतीं। अगर तुम मेरे लड़के होते, तो तुम्हें जहर दे देती। क्यों खड़े मुझे जला रहे हो, चले क्यों नहीं जाते। मैंने तुमसे कुछ ले तो नहीं लिया है?

रमा सिर झुकाये चुपचाप सुनता रहा। तब आहत स्वर में बोला, ‘दादी, मैंने बुराई की है और इसके लिए मरते दम तक लज्जित रहूंगा, लेकिन तुम मुझे जितना नीच समझ रही हो, उतना नीच नहीं हूँ। अगर तुम्हें मालूम होता कि पुलिस ने मेरे साथ कैसी-कैसी सख्तियाँ कीं, मुझे कैसी-कैसी धमकियाँ दीं, तो तुम मुझे राक्षस न कहतीं।’

जालपा के कानों में इन आवाज़ों की भनक पड़ी। उसने जीने से झांककर देखा। रमानाथ खड़ा था। सिर पर बनारसी रेशमी साफा था, रेशम का बढ़िया कोट, आँखों पर सुनहली ऐनक। इस एक ही महीने में उसकी देह निखर आई थी। रंग भी अधिक गोरा हो गया था। ऐसी कांति उसके चेहरे पर कभी न दिखाई दी थी। उसके अंतिम शब्द जालपा के कानों में पड़ गये, बाज की तरह टूटकर धम-धम करती हुई नीचे आई और ज़हर में बुझे हुए बाणों का उस पर प्रहार करती हुई बोली, ‘अगर तुम सख्तियों और धमकियों से इतना दब सकते हो, तो तुम कायर हो, तुम्हें अपने को मनुष्य कहने का कोई अधिकार नहीं। क्या सख्तियाँ की थीं? ज़रा सुनूं! लोगों ने तो हँसते-हँसते सिर कटा लिए हैं, अपने बेटों को मरते देखा है, कोल्हू में पेले जाना मंजूर किया है, पर सच्चाई से जौभर भी नहीं हटे, तुम भी तो आदमी हो, तुम क्यों धमकी में आ गये? क्यों नहीं छाती खोलकर खड़े हो गए कि इसे गोली का निशाना बना लो, पर मैं झूठ न बोलूंगा। क्यों नहीं सिर झुका दिया- देह के भीतर इसीलिए आत्मा रक्खी गई है कि देह उसकी रक्षा करे। इसलिए नहीं कि उसका सर्वनाश कर दे। इस पाप का क्या पुरस्कार मिला? ज़रा मालूम तो हो!

रमा ने दबी हुई आवाज़ से कहा, ‘अभी तो कुछ नहीं।’

जालपा ने सर्पिणी की भांति फुंकारकर कहा, ‘यह सुनकर मुझे बड़ी ख़ुशी हुई! ईश्वर करे, तुम्हें मुँह में कालिख लगाकर भी कुछ न मिले! मेरी यह सच्चे दिल से प्रार्थना है, लेकिन नहीं, तुम जैसे मोम के पुतलों को पुलिस वाले कभी नाराज़ न करेंगे। तुम्हें कोई जगह मिलेगी और शायद अच्छी जगह मिले, मगर जिस जाल में तुम फंसे हो, उसमें से निकल नहीं सकते। झूठी गवाही, झूठे मुकदमे बनाना और पाप का व्यापार करना ही तुम्हारे भाग्य में लिख गया। जाओ शौक से जिंदगी के सुख लूटो। मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था और आज फिर कहती हूँ कि मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है। मैंने समझ लिया कि तुम मर गये। तुम भी समझ लो कि मैं मर गई। बस, जाओ। मैं औरत हूँ। अगर कोई धमकाकर मुझसे पाप कराना चाहे, तो चाहे उसे न मार स्वयं अपनी गर्दन पर छुरी चला दूंगी। क्या तुममें औरतों के बराबर भी हिम्मत नहीं है?’

रमा ने भिक्षुकों की भांति गिड़गिड़ाकर कहा, ‘तुम मेरा कोई उज्र न सुनोगी?’

जालपा ने अभिमान से कहा, ‘नहीं!’

‘तो मैं मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊं?

‘तुम्हारी ख़ुशी!’

‘तुम मुझे क्षमा न करोगी?’

‘कभी नहीं, किसी तरह नहीं!’

रमा एक क्षण सिर झुकाये खड़ा रहा, तब धीरे-धीरे बरामदे के नीचे जाकर जग्गो से बोला, ‘दादी, दादा आयें, तो कह देना, मुझसे ज़रा देर मिल लें। जहाँ कहें, आ जाऊं?’

जग्गो ने कुछ पिघलकर कहा, ‘कल यहीं चले आना।’

रमा ने मोटर पर बैठते हुए कहा, ‘यहाँ अब न आऊंगा, दादी!’

मोटर चली गई तो जालपा ने कुत्सित भाव से कहा, ‘मोटर दिखाने आये थे, जैसे ख़रीद ही तो लाये हों!’

जग्गो ने भर्त्सना की, ‘तुम्हें इतना बेलगाम न होना चाहिए था, बहू! दिल पर चोट लगती है, तो आदमी को कुछ नहीं सूझता।’

जालपा ने निष्ठुरता से कहा, ‘ऐसे हयादार नहीं हैं, दादी! इसी सुख के लिए तो आत्मा बेची, उनसे यह सुख भला क्या छोड़ा जायेगा। पूछा नहीं, दादा से मिलकर क्या करोगे? वह होते तो ऐसी फटकार सुनाते कि छठी का दूध याद आ जाता।’

जग्गो ने तिरस्कार के भाव से कहा, ‘तुम्हारी जगह मैं होती तो मेरे मुँह से ऐसी बातें न निकलतीं। तुम्हारा ह्रदय बड़ा कठोर है। दूसरा मर्द होता, तो इस तरह चुपका-चुपका सुनता, मैं तो थर-थर कांप रही थी कि कहीं तुम्हारे ऊपर हाथ न चला दे, मगर है बड़ा गमखोर।’

जालपा ने उसी निष्ठुरता से कहा, ‘इसे गमखोरी नहीं कहते दादी, यह बेहयाई है।’

देवीदीन ने आकर कहा, ‘क्या यहाँ भैया आये थे? मुझे मोटर पर रास्ते में दिखाई दिये थे।’

जग्गो ने कहा, ‘हाँ, आये थे। कह गए हैं, दादा मुझसे ज़रा मिल लें।’

देवीदीन ने उदासीन होकर कहा, ‘मिल लूंगा। यहाँ कोई बातचीत हुई?’

जग्गो ने पछताते हुए कहा, ‘बातचीत क्या हुई, पहले मैंने पूजा की, मैं चुप हुई, तो बहू ने अच्छी तरह फल-माला चढ़ाई।’

जालपा ने सिर नीचा करके कहा, ‘आदमी जैसा करेगा, वैसा भोगेगा।’

जग्गो – ‘अपना ही समझकर तो मिलने आये थे।’

जालपा – ‘कोई बुलाने तो न गया था। कुछ दिनेश का पता चला, दादा!’

देवीदीन – ‘हाँ, सब पूछ आया। हावड़े में घर है। पता-ठिकाना सब मालूम हो गया।’

जालपा ने डरते-डरते कहा, ‘इस वक्त चलोगे या कल किसी वक्त?’

देवीदीन-‘तुम्हारी जैसी मरजी, जी जाहे इसी बखत चलो, मैं तैयार हूँ।

जालपा – ‘थक गये होगे?’

देवीदीन – ‘इन कामों में थकान नहीं होती बेटी।’

आठ बज गये थे। सड़क पर मोटरों का तांता बंध हुआ था। सड़क की दोनों पटरियों पर हज़ारों स्त्री-पुरूष बने-ठने, हँसते-बोलते चले जाते थे। जालपा ने सोचा, दुनिया कैसी अपने राग-रंग में मस्त है। जिसे उसके लिए मरना हो मरे, वह अपनी टेव न छोड़ेगी। हर एक अपना छोटा-सा मिट्टी का घरौंदा बनाये बैठा है। देश बह जाये, उसे परवा नहीं। उसका घरौंदा बच रहे! उसके स्वार्थ में बाधा न पड़े। उसका भोला-भाला ह्रदय बाज़ार को बंद देखकर ख़ुश होता। सभी आदमी शोक से सिर झुकाये, त्योरियाँ बदले उन्मभा-से नज़र आते। सभी के चेहरे भीतर की जलन से लाल होते। वह न जानती थी कि इस जन-सागर में ऐसी छोटी-छोटी कंकड़ियों के गिरने से एक हल्कोरा भी नहीं उठता, आवाज तक नहीं आती।

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