चैप्टर 51 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 51 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 51 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 51 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 1 | 2 | 3 | 4| 5 | | 7 8910111213141516171819202122 23 | 242526272829 | 3031323334 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51

Prev | All Chapters

चौ की शीतल, सुहावनी, स्फूर्तिमयी संध्या, गंगा का तट, टेसुओं से लहलहाता हुआ ढाक का मैदान, बरगद का छायादार वृक्ष, उसके नीचे बंधी हुई गायें, भैंसें, कद्दू और लौकी की बेलों से लहराती हुई झोपड़ियाँ, न कहीं गर्द न गुबार, न शोर न गुल, सुख और शांति के लिए क्या इससे भी अच्छी जगह हो सकती है? नीचे स्वर्णमयी गंगा लाल, काले, नीले आवरण से चमकती हुई, मंद स्वरों में गाती, कहीं लपकती, कहीं झिझकती, कहीं चपल, कहीं गंभीर, अनंत अंधकारकी ओर चली जा रही है, मानो बहुरंजित बालस्मृति क्रीड़ा और विनोद की गोद में खेलती हुई, चिंतामय, संघर्षमय, अंधाकारमय भविष्य की ओर चली जा रही हो देवी और रमा ने यहीं, प्रयाग के समीप आकर आश्रय लिया है।

तीन साल गुज़र गए हैं, देवीदीन ने ज़मीन ली, बाग़ लगाया, खेती जमाई, गाय-भैंसें खरीदीं और कर्मयोग में, अविरत उद्योग में सुख, संतोष और शांति का अनुभव कर रहा है। उसके मुख पर अब वह जर्दी, झुर्रियाँ नहीं हैं, एक नई स्फूर्ति, एक नई कांति झलक रही है। शाम हो गई है, गायें-भैंसें हार से लौटीं, जग्गो ने उन्हें खूंटे से बांधा और थोड़ा-थोड़ा भूसा लाकर उनके सामने डाल दिया। इतने में देवी और गोपी भी बैलगाड़ी पर डांठें लादे हुए आ पहुँचे, दयानाथ ने बरगद के नीचे ज़मीन साफ कर रखी है। वहीं डांठें उतारी गई। यही इस छोटी-सी बस्ती का खलिहान है।

दयानाथ नौकरी से बरख़ास्त हो गए थे और अब देवी के असिस्टेंट हैं। उनको समाचार-पत्रों से अब भी वही प्रेम है, रोज कई पत्र आते हैं, और शाम को फुर्सत पाने के बाद मुंशीजी पत्रों को पढ़कर सुनाते और समझाते हैं। श्रोताओं में बहुधा आसपास के गाँवों के दस-पाँच आदमी भी आ जाते हैं और रोज़ एक छोटी-मोटी सभा हो जाती है।

रमा को तो इस जीवन से इतना अनुराग हो गया है कि अब शायद उसे थानेदारी ही नहीं, चुंगी की इंस्पेक्टरी भी मिल जाये, तो शहर का नाम न ले। प्रातःकाल उठकर गंगा-स्नान करता है, फिर कुछ कसरत करके दूध पीता है और दिन निकलते-निकलते अपनी दवाओं का संदूक लेकर आ बैठता है। उसने वैद्य की कई किताबें पढ़ ली हैं और छोटी-मोटी बीमारियों की दवा दे देता है। दस-पाँच मरीज़ रोज़ आ जाते हैं और उसकी कीर्ति दिन-दिन बढ़ती जाती है। इस काम से छुट्टी पाते ही वह अपने बगीचे में चला जाता है। वहाँ कुछ साग-भाजी भी लगी हुई है, कुछ फल-फलों के वृक्ष हैं और कुछ जड़ी-बूटियाँ हैं। अभी तो बाग़ से केवल तरकारी मिलती है, पर आशा है कि तीन-चार साल में नींबू, अमरूद,बेर, नारंगी, आम, केले, आंवले, कटहल, बेल आदि फलों की अच्छी आमदनी होने लगेगी।

देवी ने बैलों को गाड़ी से खोलकर खूंटे से बांध दिया और दयानाथ से बोला, ‘अभी भैया नहीं लौटे?’

दयानाथ ने डांठों को समेटते हुए कहा, ‘अभी तो नहीं लौटे। मुझे तो अब इनके अच्छे होने की आशा नहीं है। ज़माने का उधार है। कितने सुख से रहती थीं, गाड़ी थी, बंगला था, दर्ज़नों नौकर थे। अब यह हाल है। सामान सब मौजूद है, वकील साहब ने अच्छी संपत्ति छोड़ी था, मगर भाई-भतीजों ने हड़प ली।

देवीदीन-‘ ‘भैया कहते थे, अदालत करतीं तो सब मिल जाता, पर कहती हैं, मैं अदालत में झूठ न बोलूंगी। औरत बड़े ऊँचे विचार की है।’
सहसा जागेश्वरी एक छोटे-से शिशु को गोद में लिये हुए एक झोंपड़े से निकली और बच्चे को दयानाथ की गोद में देती हुई देवीदीन से बोली, ‘भैया! ज़रा चलकर रतन को देखो, जाने कैसी हुई जाती है। ज़ोहरा और बहू, दोनों रो रही हैं! बच्चा न जाने कहाँ रह गये!

देवीदीन ने दयानाथ से कहा, ‘चलो लाला, देखें।’

जागेश्वरी बोली, ‘यह जाकर क्या करेंगे, बीमार को देखकर तो इनकी नानी पहले ही मर जाती है।’

देवीदीन ने रतन की कोठरी में जाकर देखा। रतन बांस की एक खाट पर पड़ी थी। देह सूख गई थी। वह सूर्यमुखी का-सा खिला हुआ चेहरा मुरझाकर पीला हो गया था। वह रंग जिन्होंने चित्र को जीवन और स्पंदन प्रदान कर रखा था, उड़ गये थे, केवल आकार शेष रह गया था। वह श्रवण-प्रिय, प्राणप्रद, विकास और आह्लाद में डूबा हुआ संगीत, मानो आकाश में विलीन हो गया था, केवल उसकी क्षीण उदास प्रतिध्वनि रह गई थी। ज़ोहरा उसके ऊपर झुकी, उसे करूण, विवश, कातर, निराश तथा तृष्णामय नज़रों से देख रही थी। आज साल-भर से उसने रतन की सेवा-सुश्रूषा में दिन को दिन और रात को रात न समझा था। रतन ने उसके साथ जो स्नेह किया था, उस अविश्वास और बहिष्कार के वातावरण में जिस खुले निःसंकोच भाव से उसके साथ बहनापा निभाया था, उसका एहसान वह और किस तरह मानती। जो सहानुभूति उसे जालपा से भी न मिली, वह रतन ने प्रदान की। दुःख और परिश्रम ने दोनों को मिला दिया, दोनों की आत्माएं संयुक्त हो गई। यह घनिष्ठ स्नेह उसके लिए एक नया ही अनुभव था, जिसकी उसने कभी कल्पना भी न की थी। इस मौके में उसके वंचित ह्रदय ने पति-प्रेम और पुत्र-स्नेह दोनों ही पा लिया। देवीदीन ने रतन के चेहरे की ओर सचिंत नजरों से देखा, तब उसकी नाड़ी हाथ में लेकर पूछा, ‘कितनी देर से नहीं बोलीं?’

जालपा ने आँखें पोंछकर कहा, ‘अभी तो बोलती थीं। एकाएक आँखें ऊपर चढ़ गई और बेहोश हो गई। वैद्य जी को लेकर अभी तक नहीं आये?’

देवीदीन ने कहा, ‘इनकी दवा वैद्य के पास नहीं है।’ यह कहकर उसने थोड़ी-सी राख ली, रतन के सिर पर हाथ फेरा, कुछ मुँह में बुदबुदाया और एक चुटकी राख उसके माथे पर लगा दी। तब पुकारा, ‘रतन बेटी, आँखें खोलो।’

रतन ने आँखें खोल दीं और इधर-उधर सकपकाई हुई आँखों से देखकर बोली, ‘मेरी मोटर आई थी न? कहाँ गया वह आदमी? उससे कह दो, थोड़ी देर के बाद लाये। ज़ोहरा – ‘आज मैं तुम्हें अपने बग़ीचे की सैर कराऊंगी। हम दोनों झूले पर बैठेंगी।’

ज़ोहरा फिर रोने लगी। जालपा भी आँसुओं के वेग को न रोक सकी। रतन एक क्षण तक छत की ओर देखती रही। फिर एकाएक जैसे उसकी स्मृति जाग उठी हो, वह लज्जित होकर एक उदास मुस्कराहट के साथ बोली, ‘मैं सपना देख रही थी, दादा!’

लोहित आकाश पर कालिमा का परदा पड़ गया था। उसी वक्त रतन के जीवन पर मृत्यु ने परदा डाल दिया।

रमानाथ वैद्यजी को लेकर पहर रात को लौटे, तो यहाँ मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। रतन की मृत्यु का शोक वह शोक न था, जिसमें आदमी हाय-हाय करता है, बल्कि वह शोक था जिसमें हम मूक रूदन करते हैं, जिसकी याद कभी नहीं भूलती, जिसका बोझ कभी दिल से नहीं उतरता।

रतन के बाद ज़ोहरा अकेली हो गई। दोनों साथ सोती थीं, साथ बैठती थीं, साथ काम करती थीं। अकेले ज़ोहरा का जी किसी काम में न लगता। कभी नदी-तट पर जाकर रतन को याद करती और रोती, कभी उस आम के पौधो के पास जाकर घंटों खड़ी रहती, जिसे उन दोनों ने लगाया था। मानो उसका सुहाग लुट गया हो जालपा को बच्चे के पालन और भोजन बनाने से इतना

अवकाश न मिलता था कि उसके साथ बहुत उठती-बैठती, और बैठती भी तो रतन की चर्चा होने लगती और दोनों रोने लगतीं।

भादों का महीना था। पृथ्वी और जल में रण छिड़ा हुआ था। जल की सेनायें वायुयान पर चढ़कर आकाश से जल-शरों की वर्षा कर रही थीं। उसकी थल-सेनाओं ने पृथ्वी पर उत्पात मचा रखा था। गंगा गाँवों और कस्बों को निगल रही थी। गाँव के गाँव बहते चले जाते थे। ज़ोहरा नदी के तट पर बाढ़ का तमाशा देखने लगी। वह कृशांगी गंगा इतनी विशाल हो सकती है, इसका वह अनुमान भी न कर सकती थी। लहरें उन्मभा होकर गरजतीं, मुँह से फन निकालतीं, हाथों उछल रही थीं। चतुर डकैतों की तरह पैंतरे बदल रही थीं। कभी एक कदम आतीं, फिर पीछे लौट पड़तीं और चक्कर खाकर फिर आगे को लपकतीं। कहीं कोई झोंपडा डगमगाता तेज़ी से बहा जा रहा था, मानो कोई शराबी दौडा जाता हो कहीं कोई वृक्ष डाल-पत्तों समेत डूबता-उतराता किसी पाषाणयुग के जंतु की भांति तैरता चला जाता था। गायें और भैंसें, खाट और तख्ते मानो तिलस्मी चित्रों की भांति आंखों के सामने से निकले जाते थे। सहसा एक किश्ती नज़र आई। उस पर कई स्त्री-पुरूष बैठे थे। बैठे क्या थे, चिमटे हुए थे। किश्ती कभी ऊपर जाती, कभी नीचे आती। बस यही मालूम होता था कि अब उलटी, अब उलटी। पर वाह रे साहस सब अब भी ‘गंगा माता की जय’ पुकारते जाते थे। स्त्रियां अब भी गंगा के यश के गीत गाती थीं

जीवन और मृत्यु का ऐसा संघर्ष किसने देखा होगा। दोनों तरफ के आदमी किनारे पर, एक तनाव की दशा में ह्रदय को दबाए खड़े थे। जब किश्ती करवट लेती, तो लोगों के दिल उछल-उछलकर ओठों तक आ जाते। रस्सियाँ फेंकने की कोशिश की जाती, पर रस्सी बीच ही में फिर पड़ती थी। एकाएक एक बार किश्ती उलट ही गई। सभी प्राणी लहरों में समा गये। एक क्षण कई स्त्री-पुरूष, डूबते-उतरते दिखाई दिए, फिर निगाहों से ओझल हो गये। केवल एक उजली-सी चीज़ किनारे की ओर चली आ रही थी। वह एक रेले में तट से कोई बीस गज़ तक आ गई। समीप से मालूम हुआ, स्त्री है। ज़ोहरा – ‘जालपा और रमा, तीनों खड़े थे। स्त्री की गोद में एक बच्चा भी नज़र आता था। दोनों को निकाल लाने के लिए तीनों विकल हो उठे, पर बीस गज़ तक तैरकर उस तरफ जाना आसान न था। फिर रमा तैरने में बहुत कुशल न था। कहीं लहरों के ज़ोर में पांव उखड़ जायें, तो फिर बंगाल की खाड़ी के सिवा और कहीं ठिकाना न लगे।

ज़ोहरा ने कहा, ‘मैं जाती हूँ!’

रमा ने लजाते हुए कहा, ‘जाने को तो मैं तैयार हूँ, लेकिन वहाँ तक पहुँच भी सकूंगा, इसमें संदेह है। कितना तोड़ है!’

ज़ोहरा ने एक कदम पानी में रखकर कहा, ‘नहीं, मैं अभी निकाल लाती हूँ।’

वह कमर तक पानी में चली गई। रमा ने सशंक होकर कहा, ‘क्यों नाहक जान देने जाती हो वहाँ शायद एक गड्ढा है। मैं तो जा ही रहा था।’
ज़ोहरा ने हाथों से मना करते हुए कहा, ‘नहीं-नहीं, तुम्हें मेरी कसम, तुम न आना। मैं अभी लिये आती हूँ। मुझे तैरना आता है।’

जालपा ने कहा, ‘लाश होगी और क्या!’

रमानाथ – ‘शायद अभी जान हो’

जालपा – ‘अच्छा, तो ज़ोहरा तो तैर भी लेती है। जभी हिम्मत हुई।’

रमा ने ज़ोहरा की ओर चिंतित आँखों से देखते हुए कहा, हाँ, कुछ-कुछ जानती तो हैं। ईश्वर करे लौट आयें। मुझे अपनी कायरता पर लज्जा आ रही है।

जालपा ने बेहयाई से कहा, ‘इसमें लज्जा की कौन सी बात है। मरी लाश के लिए जान को जोखिम में डालने से फायदा, जीती होती, तो मैं ख़ुद तुमसे कहती, जाकर निकाल लाओ।’

रमा ने आत्म-धिक्कार के भाव से कहा, ‘यहाँ से कौन जान सकता है, जान है या नहीं। सचमुच बाल-बच्चों वाला आदमी नामर्द हो जाता है। मैं खड़ा रहा और ज़ोहरा चली गई।’

सहसा एक ज़ोर की लहर आई और लाश को फिर धारा में बहा ले गई। ज़ोहरा लाश के पास पहुँच चुकी थी। उसे पकड़कर खींचना ही चाहती थी कि इस लहर ने उसे दूर कर दिया। ज़ोहरा ख़ुद उसके ज़ोर में आ गई और प्रवाह की ओर कई हाथ बह गई। वह फिर संभली, पर एक दूसरी लहर ने उसे फिर ढकेल दिया। रमा व्यग्र होकर पानी में कूद पड़ा और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगा, ‘ज़ोहरा ज़ोहरा! मैं आता हूँ।’

मगर ज़ोहरा में अब लहरों से लड़ने की शक्ति न थी। वह वेग से लाश के साथ ही धारे में बही जा रही थी। उसके हाथ-पांव हिलना बंद हो गए थे। एकाएक एक ऐसा रेला आया कि दोनों ही उसमें समा गई। एक मिनट के बाद ज़ोहरा के काले बाल नज़र आये। केवल एक क्षण तक यही अंतिम झलक थी। फिर वह नज़र न आई।

रमा कोई सौ गज़ तक ज़ोरों के साथ हाथ-पांव मारता हुआ गया, लेकिन इतनी ही दूर में लहरों के वेग के कारण उसका दम फूल गया। अब आगे जाये कहाँ? ज़ोहरा का तो कहीं पता भी न था। वही आख़िरी झलक आँखों के सामने थी। किनारे पर जालपा खड़ी हाय-हाय कर रही थी। यहाँ तक कि वह भी पानी में कूद पड़ी। रमा अब आगे न बढ़सका। एक शक्ति आगे खींचती थी, एक पीछे। आगे की शक्ति में अनुराग था, निराशा थी, बलिदान था। पीछे की शक्ति में कर्तव्य था, स्नेह था, बंधन था। बंधन ने रोक लिया। वह लौट पड़ा। कई मिनट तक जालपा और रमा घुटनों तक पानी में खड़े उसी तरफ ताकते रहे। रमा की ज़बान आत्म-धिक्कार ने बंद कर रखी थी, जालपा की, शोक और लज्जा ने। आख़िर रमा ने कहा, ‘पानी में क्यों खड़ी हो? सर्दी हो जायेगी।

जालपा पानी से निकलकर तट पर खड़ी हो गई, पर मुँह से कुछ न बोली, मृत्युके इस आघात ने उसे पराभूत कर दिया था। जीवन कितना अस्थिर है,यह घटना आज दूसरी बार उसकी आँखों के सामने चरितार्थ हुई। रतन के मरने की पहले से आशंका थी। मालूम था कि वह थोड़े दिनों की मेहमान है, मगर ज़ोहरा की मौत तो वज्राघात के समान थी। अभी आधा घड़ी पहले तीनों आदमी प्रसन्नचित्त, जल-क्रीड़ा देखने चले थे। किसे शंका थी कि मृत्यु की ऐसी भीषण पीड़ा उनको देखनी पड़ेगी। इन चार सालों में जोहरा ने अपनी सेवा, आत्मत्याग और सरल स्वभाव से सभी को मुग्ध कर लिया था। उसके अतीत को मिटाने के लिए, अपने पिछले दागों को धो डालने के लिए, उसके पास इसके सिवाय और क्या उपाय था। उसकी सारी कामनायें, सारी वासनायें सेवा में लीन हो गई। कलकत्ता में वह विलास और मनोरंजन की वस्तु थी। शायद कोई भला आदमी उसे अपने घर में न घुसने देता। यहाँ सभी उसके साथ घर के प्राणी का-सा व्यवहार करते थे। दयानाथ और जागेश्वरी को यह कहकर शांत कर दिया गया था कि वह देवीदीन की विधवा बहू है। ज़ोहरा ने कलकत्ता में जालपा से केवल उसके साथ रहने की भिक्षा मांगी थी। अपने जीवन से उसे घृणा हो गई थी। जालपा की विश्वासमय उदारता ने उसे आत्मशुद्धि के पथ पर डाल दिया। रतन का पवित्र, निष्काम जीवन उसे प्रोत्साहित किया करता था। थोड़ी देर के बाद रमा भी पानी से निकला और शोक में डूबा हुआ घर की ओर चला। मगर अकसर वह और जालपा नदी के किनारे आ बैठते और जहाँ ज़ोहरा डूबी थी, उस तरफ घंटों देखा करते। कई दिनों तक उन्हें यह आशा बनी रही कि शायद ज़ोहरा बच गई हो और किसी तरफ से चली आये। लेकिन धीरे-धीरे यह क्षीण आशा भी शोक के अंधकार में खो गई। मगर अभी तक ज़ोहरा की सूरत उनकी आँखों के सामने गिरा करती है। उसके लगाए हुए पौधे, उसकी पाली हुई बिल्ली, उसके हाथों के सिले हुए कपड़े, उसका कमरा, यह सब उसकी स्मृति के चिन्ह उनके पास जाकर रमा की आँखों के सामने ज़ोहरा की तस्वीर खड़ी हो जाती है।

‘समाप्त’

Prev | All Chapters

Chapter 1 | 2 | 3 | 4| 5 | | 7 8910111213141516171819202122 23 | 242526272829 | 3031323334 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51

मुंशी प्रेमचंद के अन्य उन्पयास :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

~ प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

Leave a Comment