चैप्टर 43 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 43 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 43 Gaban Novel By Munshi Premchand

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रमा मोटर पर चला, तो उसे कुछ सूझता न था, कुछ समझ में न आता था, कहाँ जा रहा है। जाने हुए रास्ते उसके लिए अनजाने हो गए थे। उसे जालपा पर क्रोध न था, ज़रा भी नहीं। जग्गो पर भी उसे क्रोध न था। क्रोध था अपनी दुर्बलता पर, अपनी स्वार्थलोलुपता पर, अपनी कायरता पर। पुलिस के वातावरण में उसका औचित्य-ज्ञान भ्रष्ट हो गया था। वह कितना बड़ा अन्याय करने जा रहा है, उसका उसे केवल उस दिन ख़याल आया था, जब जालपा ने समझाया था। फिर यह शंका मन में उठी ही नहीं। अफसरों ने बड़ी-बड़ी आशायें बांधकर उसे बहला रखा। वह कहते, अजी बीबी की कुछ फिक्र न करो। जिस वक्त तुम एक जड़ाऊ हार लेकर पहुँचोगे और रूपयों की थैली नज़र कर दोगे, बेगम साहब का सारा गुस्सा भाग जायेगा। अपने सूबे में किसी अच्छी-सी जगह पर पहुँच जाओगे, आराम से ज़िन्दगी कटेगी। कैसा गुस्सा! इसकी कितनी ही आँखों देखी, मिसालें दी गई। रमा चक्कर में फंस गया। फिर उसे जालपा से मिलने का अवसर ही न मिला। पुलिस का रंग जमता गया। आज वह जड़ाऊ हार जेब में रखे जालपा को अपनी विजय की ख़ुशख़बरी देने गया था। वह जानता था जालपा पहले कुछ नाक-भौं सिकोड़ेगी, पर यह भी जानता था कि यह हार देखकर वह ज़रूर ख़ुश हो जायेगी। कल ही संयुक्त प्रांत के होम सेक्रेटरी के नाम कमिश्नर पुलिस का पत्र उसे मिल जायेगा। दो-चार दिन यहाँ ख़ूब सैर करके घर की राह लेगा। देवीदीन और जग्गो को भी वह अपने साथ ले जाना चाहता था। उनका एहसान वह कैसे भूल सकता था। यही मनसूबे मन में बांधकर वह जालपा के पास गया था, जैसे कोई भक्त फल और नैवेद्य लेकर देवता की उपासना करने जाये, पर देवता ने वरदान देने के बदले उसके थाल को ठुकरा दिया, उसके नैवेद्य उसकी ओर ताकने का साहस न कर सकता था। उसने सोचा, इसी वक्त ज़ज के पास चलूं और सारी कथा कह सुनाऊं। पुलिस मेरी दुश्मन हो जाये, मुझे जेल में सड़ा डाले, कोई परवाह नहीं। सारी कलई खोल दूंगा। क्या जज अपना फैसला नहीं बदल सकता – अभी तो सभी मुज़िलम हवालात में हैं। पुलिस वाले खूब दांत पीसेंगे, खूब नाचे-यदेंगे, शायद मुझे कच्चा ही खा जायें। खा जायें! इसी दुर्बलता ने तो मेरे मुँह में कालिख लगा दी।

जालपा की वह क्रोधोन्मभा मूर्ति उसकी आँखों के सामने फिर गई। ओह, कितने गुस्से में थी! मैं जानता कि वह इतना बिगड़ेगी, तो चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाती, अपना बयान बदल देता। बड़ा चकमा दिया इन पुलिस वालों ने, अगर कहीं जज ने कुछ नहीं सुना और मुलिज़मों को बरी न किया, तो जालपा मेरा मुँह न देखेगी। मैं उसके पास कौन मुँह लेकर जाऊंगा। फिर ज़िन्दा रहकर ही क्या करूंगा। किसके लिये?

उसने मोटर रोकी और इधर-उधर देखने लगा। कुछ समझ में न आया, कहाँ आ गया। सहसा एक चौकीदार नज़र आया। उसने उससे जज साहब के बंगले का पता पूछा, चौकीदार हँसकर बोला, ‘हुजूर तो बहुत दूर निकल आये। यहाँ से तो छः-सात मील से कम न होगा, वह उधर चौरंगी की ओर रहते हैं।’

रमा चौरंगी का रास्ता पूछकर फिर चला। नौ बज गए थे। उसने सोचा, ‘जज साहब से मुलाकात न हुई, तो सारा खेल बिगड़ जायेगा। बिना मिले हटूंगा ही नहीं। अगर उन्होंने सुन लिया तो ठीक ही है, नहीं कल हाईकोर्ट के जजों से कहूंगा। कोई तो सुनेगा। सारा वृत्तांत समाचार-पत्रों में छपवा दूंगा, तब तो सबकी आँखें खुलेंगी।‘

मोटर तीस मील की चाल से चल रही थी। दस मिनट ही में चौरंगी आ पहुँची। यहाँ अभी तक वही चहल-पहल थी, मगर रमा उसी ज़न्नाटे से मोटर लिये जाता था। सहसा एक पुलिसमैन ने लाल बत्ती दिखाई। वह रूक गया और बाहर सिर निकालकर देखा, तो वही दारोग़ाजी!

दारोग़ा ने पूछा, ‘क्या अभी तक बंगले पर नहीं गए? इतनी तेज़ मोटर न चलाया कीजिए। कोई वारदात हो जायेगी। कहिए, बेगम साहब से मुलाकात हुई? मैंने तो समझा था, वह भी आपके साथ होंगी। ख़ुश तो ख़ूब हुई होंगी!’

रमा को ऐसा क्रोध आया कि मूंछें उखाड़ लूं, पर बात बनाकर बोला, ‘जी हाँ, बहुत ख़ुश हुई।’

‘मैंने कहा था न, औरतों की नाराज़ी की वही दवा है। आप कांपे जाते थे। ‘

मेरी हिमाकत थी।’

‘चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूँ। एक बाज़ी ताश उड़े और ज़रा सरूर जमे, डिप्टी साहब और इंस्पेक्टर साहब आयेंगे। ज़ोहरा को बुलवा लेंगे। दो घड़ी की बहार रहेगी। अब आप मिसेज़ रमानाथ को बंगले ही पर क्यों नहीं बुला लेते। वहाँ उस खटिक के घर पड़ी हुई हैं।’
रमा ने कहा, ‘अभी तो मुझे एक ज़रूरत से दूसरी तरफ जाना है। आप मोटर ले जायें। मैं पांव-पांव चला आऊंगा।’

दारोग़ा ने मोटर के अंदर जाकर कहा, ‘नहीं साहब, मुझे कोई जल्दी नहीं है। आप जहाँ चलना चाहें, चलिये। मैं ज़रा भी मुख़िल न हूंगा। रमा ने कुछ चिढ़कर कहा, ‘लेकिन मैं अभी बंगले पर नहीं जा रहा हूँ।’

दारोग़ा ने मुस्कराकर कहा, ‘मैं समझ रहा हूँ, लेकिन मैं ज़रा भी मुख़िल न हूंगा। वही बेगम साहब…..’

रमा ने बात काटकर कहा, ‘जी नहीं, वहाँ मुझे नहीं जाना है।’

दारोग़ा -‘तो क्या कोई दूसरा शिकार है? बंगले पर भी आज कुछ कम बहार न रहेगी। वहीं आपके दिल-बहलाव का कुछ सामान हाज़िर हो जायगा।’

रमा ने एकबारगी आँखें लाल करके कहा, ‘क्या आप मुझे शोहदा समझते हैं? मैं इतना जलील नहीं हूँ।’

दारोग़ा ने कुछ लज्जित होकर कहा, ‘अच्छा साहब, गुनाह हुआ, माफ कीजिए। अब कभी ऐसी गुस्ताखी न होगी, लेकिन अभी आप अपने को खतरे से बाहर न समझें, मैं आपको किसी ऐसी जगह न जाने दूंगा, जहाँ मुझे पूरा इत्मीनान न होगा। आपको ख़बर नहीं, आपके कितने दुश्मन हैं। मैं आप ही के फायदे के ख़याल से कह रहा हूँ।’

रमा ने होंठ चबाकर कहा, ‘बेहतर हो कि आप मेरे फायदे का इतना ख़याल न करें। आप लोगों ने मुझे मलियामेट कर दिया और अब भी मेरा गला नहीं छोड़ते। मुझे अब अपने हाल पर मरने दीजिये। मैं इस गुलामी से तंग आ गया हूँ। मैं माँ के पीछे-पीछे चलने वाला बच्चा नहीं बनना चाहता। आप अपनी मोटर चाहते हैं, शौक से ले जाइए। मोटर की सवारी और बंगले में रहने के लिए पंद्रह आदमियों को कुर्बान करना पड़ा है। कोई जगह पा जाऊं, तो शायद पंद्रह सौ आदमियों को कुर्बान करना पड़े। मेरी छाती इतनी मजबूत नहीं है। आप अपनी मोटर ले जाइये।’

यह कहता हुआ वह मोटर से उतर पड़ा और जल्दी से आगे बढ़ गया।

दारोग़ा ने कई बार पुकारा, ‘ज़रा सुनिए, बात तो सुनिए, ‘ लेकिन उसने पीछे फिरकर देखा तक नहीं। ज़रा और आगे चलकर वह एक मोड़ से घूम गया। इसी सड़क पर जज का बंगला था। सड़क पर कोई आदमी न मिला। रमा कभी इस पटरी पर और कभी उस पटरी पर जा-जाकर बंगलों के नंबर पढ़ता चला जाता था। सहसा एक नंबर देखकर वह रूक गया। एक मिनट तक खड़ा देखता रहा कि कोई निकले, तो उससे पूछूं साहब हैं या नहीं। अंदर जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। ख़याल आया, जज ने पूछा, तुमने क्यों झूठी गवाही दी, तो क्या जवाब दूंगा। यह कहना कि पुलिस ने मुझसे जबरदस्ती गवाही दिलवाई, प्रलोभन दिया, मारने की धमकी दी, लज्जास्पद बात है। अगर वह पूछे कि तुमने केवल दो-तीन साल की सज़ा से बचने के लिए इतना बड़ा कलंक सिर पर ले लिया, इतने आदमियों की जान लेने पर उतारू हो गए, उस वक्त तुम्हारी बुद्धि कहाँ गई थी, तो उसका मेरे पास क्या जवाब है? ख्वाह-मा-ख्वाह लज्जित होना पड़ेगा।

बेवकूफ बनाया जाऊंगा। वह लौट पड़ा। इस लज्जा का सामना करने की उसमें सामर्थ्य न थी। लज्जा ने सदैव वीरों को परास्त किया है। जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते। आग में झुंक जाना, तलवार के सामने खड़े हो जाना, इसकी अपेक्षा कहीं सहज है। लाज की रक्षा ही के लिए बड़े-बड़े राज्य मिट गए हैं, रक्त की नदियाँ बह गई हैं, प्राणों की होली खेल डाली गई है। उसी लाज ने आज रमा के पग भी पीछे हटा दिए।

शायद जेल की सज़ा से वह इतना भयभीत न होता।

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