चैप्टर 47 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 47 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 47 Gaban Novel By Munshi Premchand

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सारे दिन रमा उद्वेग के जंगलों में भटकता रहा। कभी निराशा की अंधाकारमय घाटियाँ सामने आ जातीं, कभी आशा की लहराती हुई हरियाली। ज़ोहरा गई भी होगी ? यहाँ से तो बड़े लंबे-चौड़े वादे करके गई थी। उसे क्या ग़रज़ है? आकर कह देगी, मुलाकात ही नहीं हुई। कहीं धोखा तो न देगी? जाकर डिप्टी साहब से सारी कथा कह सुनाये। बेचारी जालपा पर बैठे-बिठाये आफत आ जाये। क्या ज़ोहरा इतनी नीच प्रकृति की हो सकती है? कभी नहीं, अगर ज़ोहरा इतनी बेवफ़ा, इतनी दग़ाबाज़ है, तो यह दुनिया रहने के लायक ही नहीं। जितनी जल्द आदमी मुँह में कालिख लगाकर डूब मरे, उतना ही अच्छा। नहीं, ज़ोहरा मुझसे दग़ा न करेगी। उसे वह दिन याद आये, जब उसके दफ्तर से आते ही जालपा लपककर उसकी जेब टटोलती थी और रूपये निकाल लेती थी। वही जालपा आज इतनी सत्यवादिनी हो गई। तब वह प्यार करने की वस्तु थी, अब वह उपासना की वस्तु है। जालपा मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ। जिस ऊँचाई पर तुम मुझे ले जाना चाहती हो, वहाँ तक पहुँचने की शक्ति मुझमें नहीं है। वहाँ पहुँचकर शायद चक्कर खाकर फिर पडूं, मैं अब भी तुम्हारे चरणों में सिर झुकाता हूँ। मैं जानता हूँ, तुमने मुझे अपने ह्रदय से निकाल दिया है, तुम मुझसे विरक्त हो गई हो, तुम्हें अब मेरे डूबने का दुःख है न तैरने की ख़ुशी, पर शायद अब भी मेरे मरने या किसी घोर संकट में फंस जाने की ख़बर पाकर तुम्हारी आँखों से आँसू निकल आयेंगे। शायद तुम मेरी लाश देखने आओ। हाँ! प्राण ही क्यों नहीं निकल जाते कि तुम्हारी निगाह में इतना नीच तो न रहूं। रमा को अब अपनी उस ग़लती पर घोर पश्चाताप हो रहा था, जो उसने जालपा की बात न मानकर की थी। अगर उसने उसके आदेशानुसार जज के इज़लास में अपना बयान बदल दिया होता, धामकियों में न आता, हिम्मत मज़बूत रखता, तो उसकी यह दशा क्यों होती? उसे विश्वास था, जालपा के साथ वह सारी कठिनाइयाँ झेल जाता। उसकी श्रद्धा और प्रेम का कवच पहनकर वह अजेय हो जाता। अगर उसे फांसी भी हो जाती, तो वह हँसते-खेलते उस पर चढ़ जाता। मगर पहले उससे चाहे जो भूल हुई, इस वक्त तो वह भूल से नहीं, जालपा की ख़ातिर ही यह कष्ट भोग रहा था। कैद जब भोगना ही है, तो उसे रो-रोकर भोगने से तो यह कहीं अच्छा है कि हँस-हँसकर भोगा जाये। आख़िर पुलिस अधिकारियों के दिल में अपना विश्वास जमाने के लिए वह और क्या करता! यह दुष्ट जालपा को सताते, उसका अपमान करते, उस पर झूठे मुकदमे चलाकर उसे सज़ा दिलाते। वह दशा तो और भी असह्य होती। वह दुर्बल था, सब अपमान सह सकता था, जालपा तो शायद प्राण ही दे देती।

उसे आज ज्ञात हुआ कि वह जालपा को छोड़ नहीं सकता, और ज़ोहरा को त्याग देना भी उसके लिए असंभव-सा जान पड़ता था। क्या वह दोनों रमणियों को प्रसन्न रख सकता था? क्या इस दशा में जालपा उसके साथ रहना स्वीकार करेगी? कभी नहीं। वह शायद उसे कभी क्षमा न करेगी! अगर उसे यह मालूम भी हो जाये कि उसी के लिए वह यह यातना भोग रहा है, तो वह उसे क्षमा न करेगी। वह कहेगी, मेरे लिए तुमने अपनी आत्मा को क्यों कलंकित किया। मैं अपनी रक्षा आप कर सकती थी। वह दिन भर इसी उधेड़-बुन में पड़ा रहा। आँखें सड़क की ओर लगी हुई थीं। नहाने का समय टल गया, भोजन का समय टल गया, किसी बात की परवाह न थी। अख़बार से दिल बहलाना चाहा, उपन्यास लेकर बैठा, मगर किसी काम में भी चित्त न लगा। आज दारोग़ाजी भी नहीं आये। या तो रात की घटना से रूष्ट या लज्जित थे। या कहीं बाहर चले गये। रमा ने किसी से इस विषय में कुछ पूछा भी नहीं।

सभी दुर्बल मनुष्यों की भांति रमा भी अपने पतन से लज्जित था। वह जब एकांत में बैठता, तो उसे अपनी दशा पर दुःख होता, क्यों उसकी विलासवृत्ति इतनी प्रबल है? वह इतना विवेक-शून्य न था कि अधोगति में भी प्रसन्न रहता, लेकिन ज्यों ही और लोग आ जाते, शराब की बोतल आ जाती, ज़ोहरा सामने आकर बैठ जाती, उसका सारा विवेक और धर्म-ज्ञान भ्रष्ट हो जाता। रात के दस बज गये, पर ज़ोहरा का कहीं पता नहीं। फाटक बंद हो गया। रमा को अब उसके आने की आशा न रही, लेकिन फिर भी उसके कान लगे हुए थे। क्या बात हुई? क्या जालपा उसे मिली ही नहीं या वह गई ही नहीं?

उसने इरादा किया अगर कल ज़ोहरा न आई, तो उसके घर पर किसी को भेजूंगा। उसे दो-एक झपकियाँ आई और सबेरा हो गया। फिर वही विकलता शुरू हुई। किसी को उसके घर भेजकर बुलवाना चाहिए। कम-से-कम यह तो मालूम हो जाये कि वह घर पर है या नहीं।

दारोग़ा के पास जाकर बोला, ‘रात तो आप आपे में न थे।’

दारोग़ा ने ईर्ष्या को छिपाते हुए कहा, ‘यह बात न थी। मैं महज़ आपको छेड़ रहा था।’

रमानाथ – ‘ज़ोहरा रात आई नहीं, ज़रा किसी को भेजकर पता तो लगवाइए, बात क्या है। कहीं नाराज़ तो नहीं हो गई?’

दारोग़ा ने बेदिली से कहा, ‘उसे गरज़ होगा खुद आयेगी। किसी को भेजने की ज़रूरत नहीं है।’

रमा ने फिर आग्रह न किया। समझ गया, यह हज़रत रात बिगड़ गये। चुपके से चला आया। अब किससे कहे, सबसे यह बात कहना लज्जास्पद मालूम होता था। लोग समझेंगे, यह महाशय एक ही रसिया निकले। दारोग़ा से तो थोड़ी-सी घनिष्ठता हो गई थी।

एक हफ्ते तक उसे ज़ोहरा के दर्शन न हुए। अब उसके आने की कोई आशा न थी। रमा ने सोचा, आख़िर बेवफ़ा निकली। उससे कुछ आशा करना मेरी भूल थी। या मुमकिन है, पुलिस-अधिकारियों ने उसके आने की मनाही कर दी हो, कम-से-कम मुझे एक पत्र तो लिख सकती थी। मुझे कितना धोखा हुआ। व्यर्थ उससे अपने दिल की बात कही। कहीं इन लोगों से न कह दे, तो उल्टी आंतें गले पड़ जाये, मगर ज़ोहरा बेवफाई नहीं कर सकती। रमा की अंतरात्मा इसकी गवाही देती थी। इस बात को किसी तरह स्वीकार न करती थी। शुरू के दस-पाँच दिन तो ज़रूर ज़ोहरा ने उसे लुब्ध करने की चेष्टा की थी। फिर अनायास ही उसके व्यवहार में परिवर्तन होने लगा था। वह क्यों बार-बार सजल-नेत्र होकर कहती थी, देखो बाबूजी, मुझे भूल न जाना। उसकी वह हसरत भरी बातें याद आ-आकर कपट की शंका को दिल से निकाल देती। ज़रूर कोई न कोई नई बात हो गई है। वह अक्सर एकांत में बैठकर ज़ोहरा की याद करके बच्चों की तरह रोता। शराब से उसे घृणा हो गई। दारोग़ाजी आते, इंस्पेक्टर साहब आते पर, रमा को उनके साथ दस-पाँच मिनट बैठना भी अखरता। वह चाहता था, मुझे कोई न छेड़े। कोई न बोले। रसोइया खाने को बुलाने आता, तो उसे घुड़क देता। कहीं घूमने या सैर करने की उसकी इच्छा ही न होती। यहाँ कोई उसका हमदर्द न था, कोई उसका मित्र न था, एकांत में मन-मारे बैठे रहने में ही उसके चित्त को शांति होती थी। उसकी स्मृतियों में भी अब कोई आनंद न था। नहीं, वह स्मृतियाँ भी मानो उसके ह्रदय से मिट गई थीं। एक प्रकार का विराग उसके दिल पर छाया रहता था।

सातवां दिन था। आठ बज गये थे। आज एक बहुत अच्छा फिल्म होने वाला था। एक प्रेम-कथा थी। दारोग़ाजी ने आकर रमा से कहा, तो वह चलने को तैयार हो गया। कपड़े पहन रहा था कि ज़ोहरा आ पहुँची। रमा ने उसकी तरफ एक बार आँख उठाकर देखा, फिर आईने में अपने बाल संवारने लगा। न कुछ बोला, न कुछ कहा। हाँ, ज़ोहरा का वह सादा, आभरणहीन स्वरूप देखकर उसे कुछ आश्चर्य अवश्य हुआ। वह केवल एक सफेद साड़ी पहने हुए थी। आभूषण का एक तार भी उसकी देह पर न था। होंठ मुरझाये हुए और चेहरे पर क्रीड़ामय चंचलता की जगह तेजमय गंभीरता झलक रही थी। वह एक मिनट खड़ी रही, तब रमा के पास जाकर बोली, ‘क्या मुझसे नाराज़ हो? बेकसूर, बिना कुछ पूछे-गछे?’

रमा ने फिर भी कुछ जवाब न दिया। जूते पहनने लगा। ज़ोहरा ने उसका हाथ पकड़कर कहा, ‘क्या यह खफ़गी इसलिए है कि मैं इतने दिनों आई क्यों नहीं!’

रमा ने रूखाई से जवाब दिया, ‘अगर तुम अब भी न आतीं, तो मेरा क्या अख्तियार था। तुम्हारी दया थी कि चली आई!’ यह कहने के साथ उसे ख़याल आया कि मैं इसके साथ अन्याय कर रहा हूँ। लज्जित नज़रों से उसकी ओर ताकने लगा। ज़ोहरा ने मुस्कराकर कहा, ‘यह अच्छी दिल्लगी है। आपने ही तो एक काम सौंपा और जब वह काम करके लौटी, तो आप बिगड़ रहे हैं। क्या तुमने वह काम इतना आसान समझा था कि चुटकी बजाने में पूरा हो जायेगा। तुमने मुझे उस देवी से वरदान लेने भेजा था, जो ऊपर से फल है, पर भीतर से पत्थर, जो इतनी नाजुक होकर भी इतनी मज़बूत है।’

रमा ने बेदिली से पूछा, ‘है कहाँ? क्या करती है?’

ज़ोहरा – ‘उसी दिनेश के घर हैं, जिसको फांसी की सज़ा हो गई है। उसके दो बच्चे हैं, औरत है और माँ है। दिन भर उन्हीं बच्चों को खिलाती है, बुढ़िया के लिए नदी से पानी लाती है। घर का सारा काम-काज करती है और उनके लिए बड़े-बड़े आदमियों से चंदा मांग लाती है। दिनेश के घर में न कोई जायदाद थी, न रूपये थे। वे लोग बड़ी तकलीफ़ में थे। कोई मददगार तक न था, जो जाकर उन्हें ढाढ़स तो देता। जितने साथी-सोहबती थे, सब-के-सब मुँह छिपा बैठे। दो-तीन फाके तक हो चुके थे। जालपा ने जाकर उनको जिला लिया।’

रमा की सारी बेदिली काफूर हो गई। जूता छोड़ दिया और कुर्सी पर बैठकर बोले, ‘तुम खड़ी क्यों हो, शुरू से बताओ, तुमने तो बीच में से कहना शुरू किया। एक बात भी मत छोड़ना। तुम पहले उसके पास कैसे पहुँची? पता कैसे लगा?’

ज़ोहरा – ‘कुछ नहीं, पहले उसी देवीदीन खटिक के पास गई। उसने दिनेश के घर का पता बता दिया। चटपट जा पहुँची।’

रमानाथ – ‘तुमने जाकर उसे पुकारा, तुम्हें देखकर कुछ चौंकी नहीं? कुछ झिझकी तो ज़रूर होगी!’

ज़ोहरा मुस्कराकर बोली, ‘मैं इस रूप में न थी। देवीदीन के घर से मैं अपने घर गई और ब्रह्मा-समाजी लेडी का स्वांग भरा। न जाने मुझमें ऐसी कौन-सी बात है, जिससे दूसरों को फौरन पता चल जाता है कि मैं कौन हूँ, या क्या हूँ। और ब्रह्माणों-लेडियों को देखती हूँ, कोई उनकी तरफ आँखें तक नहीं उठाता। मेरा पहनावा-ओढ़ावा वही है, मैं भड़कीले कपड़े या फजूल के गहने बिलकुल नहीं पहनती। फिर भी सब मेरी तरफ आँखें फाड़- फाड़कर देखते हैं। मेरी असलियत नहीं छिपती। यही खौफ़ मुझे था कि कहीं जालपा भांप न जाये, लेकिन मैंने दांत ख़ूब साफ कर लिए थे। पान का निशान तक न था। मालूम होता था किसी कालेज की लेडी टीचर होगी। इस शक्ल में मैं वहाँ पहुँची। ऐसी सूरत बना ली कि वह क्या, कोई भी न भांप सकता था। परदा ढंका रह गया। मैंने दिनेश की माँ से कहा, ‘मैं यहाँ यूनिवर्सिटी में पढ़ती हूँ। अपना घर मुंगेर बतलाया। बच्चों के लिए मिठाई ले गई थी। हमदर्द का पार्ट खेलने गई थी, और मेरा ख़याल है कि मैंने ख़ूब खेला, दोनों औरतें बेचारी रोने लगीं। मैं भी जब्त न कर सकी। उनसे कभी-कभी मिलते रहने का वादा किया। जालपा इसी बीच में गंगाजल लिए पहुँची। मैंने दिनेश की माँ से बंगला में पूछा, ‘क्या यह कहारिन है? उसने कहा, नहीं, यह भी तुम्हारी ही तरह हम लोगों के दुःख में शरीक होने आ गई है। यहाँ इनका शौहर किसी दफ्तर में नौकर है। और तो कुछ नहीं मालूम, रोज़ सबेरे आ जाती हैं और बच्चों को खेलाने ले जाती हैं। मैं अपने हाथ से गंगाजल लाया करती थी। मुझे रोक दिया और ख़ुद लाती हैं। हमें तो इन्होंने जीवन-दान दिया। कोई आगे-पीछे न था। बच्चे दाने-दाने को तरसते थे। जब से यह आ गई हैं, हमें कोई कष्ट नहीं है। न जाने किस शुभ कर्म का यह वरदान हमें मिला है।

उस घर के सामने ही एक छोटा-सा पार्क है। महल्ले-भर के बच्चे वहीं खेला करते हैं। शाम हो गई थी, जालपा देवी ने दोनों बच्चों को साथ लिया और पार्क की तरफ चलीं। मैं जो मिठाई ले गई थी, उसमें से बूढ़ी ने एक-एक मिठाई दोनों बच्चों को दी थी। दोनों कूद-कूदकर नाचने लगे। बच्चों की इस ख़ुशी पर मुझे रोना आ गया। दोनों मिठाइयाँ खाते हुए जालपा के साथ हो लिए। जब पार्क में दोनों बच्चे खेलने लगे, तब जालपा से मेरी बातें होने लगीं! रमा ने कुर्सी और करीब खींच ली, और आगे को झुक गया। बोला, तुमने किस तरह बातचीत शुरू की।

ज़ोहरा – ‘कह तो रही हूँ। मैंने पूछा, ‘जालपा देवी, तुम कहाँ रहती हो? घर की दोनों औरतों से तुम्हारी बड़ाई सुनकर तुम्हारे ऊपर आशिक हो गई हूँ।’

रमानाथ – ‘यही लफ्ज कहा था तुमने?’

ज़ोहरा – ‘हाँ, ज़रा मज़ाक करने की सूझी। मेरी तरफ ताज्जुब से देखकर बोली, तुम तो बंगालिन नहीं मालूम होतीं। इतनी साफ हिंदी कोई बंगालिन नहीं बोलती। मैंने कहा, ‘मैं मुंगेर की रहने वाली हूँ और वहाँ मुसलमानी औरतों के साथ बहुत मिलती-जुलती रही हूँ। आपसे कभी-कभी मिलने का जी चाहता है। आप कहाँ रहती हैं। कभी-कभी दो घड़ी के लिए चली आऊंगी। आपके साथ घड़ी भर बैठकर मैं भी आदमीयत सीख जाऊंगी। जालपा ने शरमाकर कहा, ‘तुम तो मुझे बनाने लगीं, कहाँ तुम कालेज की पढ़ने वाली, कहाँ मैं अपढ़-गंवार औरत। तुमसे मिलकर मैं अलबत्ता आदमी बन जाऊंगी। जब जी चाहे, यहीं चले आना। यही मेरा घर समझो।

मैंने कहा, ‘तुम्हारे स्वामीजी ने तुम्हें इतनी आजादी दे रखी है। बड़े अच्छे ख़यालों के आदमी होंगे। किस दफ्तर में नौकर हैं?’

जालपा ने अपने नाखूनों को देखते हुए कहा, ‘पुलिस में उम्मीदवार हैं।’

मैंने ताज्जुब से पूछा, ‘पुलिस के आदमी होकर वह तुम्हें यहाँ आने की आज़ादी देते हैं?’

जालपा इस प्रश्न के लिए तैयार न मालूम होती थी। कुछ चौंककर बोली, ‘वह मुझसे कुछ नहीं कहते। मैंने उनसे यहाँ आने की बात नहीं कही। वह घर बहुत कम आते हैं। वहीं पुलिस वालों के साथ रहते हैं।’

उन्होंने एक साथ तीन जवाब दिये। फिर भी उन्हें शक हो रहा था कि इनमें से कोई जवाब इत्मीनान के लायक नहीं है। वह कुछ खिसियानी-सी होकर दूसरी तरफ ताकने लगी। मैंने पूछा, ‘तुम अपने स्वामी से कहकर किसी तरह मेरी मुलाकात उस मुख़बिर से करा सकती हो, जिसने इन कैदियों के ख़िलाफ गवाही दी है?’

रमानाथ की आँखें फैल गई और छाती धक-धक करने लगी। जोहरा बोली, ‘यह सुनकर जालपा ने मुझे चुभती हुई आँखों से देखकर पूछा, ‘तुम उनसे मिलकर क्या करोगी?’

मैंने कहा, ‘तुम मुलाकात करा सकती हो या नहीं, मैं उनसे यही पूछना चाहती हूँ कि तुमने इतने आदमियों को फंसाकर क्या पाया? देखूंगी वह क्या जवाब देते हैं?’

जालपा का चेहरा सख्त पड़ गया। बोली, ‘वह यह कह सकता है, मैंने अपने फायदे के लिए किया! सभी आदमी अपना फायदा सोचते हैं। मैंने भी सोचा। जब पुलिस के सैकड़ों आदमियों से कोई यह प्रश्न नहीं करता, तो उससे यह प्रश्न क्यों किया जाये? इससे कोई फायदा नहीं।‘

मैंने कहा, ‘अच्छा, मान लो तुम्हारा पति ऐसी मुख़बिरी करता, तो तुम क्या करतीं?

जालपा ने मेरी तरफ सहमी हुई आँखों से देखकर कहा, ‘तुम मुझसे यह सवाल क्यों करती हो, तुम खुद अपने दिल में इसका जवाब क्यों नहीं ढूंढ़तीं?’

मैंने कहा, ‘मैं तो उनसे कभी न बोलती, न कभी उनकी सूरत देखती।’

जालपा ने गंभीर चिंता के भाव से कहा, ‘शायद मैं भी ऐसा ही समझती, या न समझती, कुछ कह नहीं सकती। आख़िर पुलिस के अफसरों के घर में भी तो औरतें हैं, वे क्यों नहीं अपने आदमियों को कुछ कहतीं, जिस तरह उनके ह्रदय अपने मर्दों के-से हो गए हैं, संभव है, मेरा ह्रदय भी वैसा ही हो जाता।’

इतने में अंधेरा हो गया। जालपादेवी ने कहा, ‘मुझे देर हो रही है। बच्चे साथ हैं। कल हो सके तो फिर मिलियेगा। आपकी बातों में बड़ा आनंद आता है।’

मैं चलने लगी, तो उन्होंने चलते-चलते मुझसे कहा, ‘ज़रूर आइयेगा। वहीं मैं मिलूंगी। आपका इंतज़ार करती रहूंगी। लेकिन दस ही कदम के बाद फिर रूककर बोलीं – मैंने आपका नाम तो पूछा ही नहीं। अभी तुमसे बातें करने से जी नहीं भरा। देर न हो रही हो तो आओ, कुछ देर गप-शप करें।’

मैं तो यह चाहती ही थी। अपना नाम ज़ोहरा बतला दिया। रमा ने पूछा, ‘सच!’

ज़ोहरा- ‘हाँ, हर्ज़ क्या था। पहले तो जालपा भी ज़रा चौंकी, पर कोई बात न थी। समझ गई, बंगाली मुसलमान होगी। हम दोनों उसके घर गई। उस ज़रा से कठघरे में न जाने वह कैसे बैठती हैं। एक तिल भी जगह नहीं। कहीं मटके हैं, कहीं पानी, कहीं खाट, कहीं बिछावन, सील और बदबू से नाक फटी जाती थी। खाना तैयार हो गया था। दिनेश की बहू बरतन धो रही थी। जालपा ने उसे उठा दिया, जाकर बच्चों को खिलाकर सुला दो, मैं बरतन धोए देती हूँ। और ख़ुद बबर्तन मांजने लगीं। उनकी यह खिदमत देखकर मेरे दिल पर इतना असर हुआ कि मैं भी वहीं बैठ गई और मांजे हुए बरतनों को धोने लगी। जालपा ने मुझे वहाँ से हट जाने के लिए कहा, पर मैं न हटी, बराबर बरतन धोती रही। जालपा ने तब पानी का मटका अलग हटाकर कहा, ‘मैं पानी न दूंगी, तुम उठ जाओ, मुझे बड़ी शर्म आती है, तुम्हें मेरी कसम, हट जाओ, यहाँ आना तो तुम्हारी सजा हो गई, तुमने ऐसा काम अपनी ज़िन्दगी में क्यों किया होगा! मैंने कहा, ‘तुमने भी तो कभी नहीं किया होगा, जब तुम करती हो, तो मेरे लिए क्या हर्ज़  है।’

जालपा ने कहा, ‘मेरी और बात है।’

मैंने पूछा, ‘क्यों? जो बात तुम्हारे लिए है, वही मेरे लिए भी है। कोई महरी क्यों नहीं रख लेती हो?’

जालपा ने कहा, ‘महरियाँ आठ-आठ रूपये मांगती हैं।’

मैं बोली, ‘मैं आठ रूपये महीना दे दिया करूंगी।’

जालपा ने ऐसी निगाहों से मेरी तरफ देखा, जिसमें सच्चे प्रेम के साथ सच्चा उल्लास, सच्चा आशीर्वाद भरा हुआ था। वह चितवन! आह! कितनी पाकीजा थी, कितनी पाक करने वाली। उनकी इस बेगरज खिदमत के सामने मुझे अपनी ज़िन्दगी कितनी ज़लील, कितनी काबिले नगरत मालूम हो रही थी। उन बरतनों के धोने में मुझे जो आनंद मिला, उसे मैं बयान नहीं कर सकती।

बरतन धोकर उठीं, तो बुढ़िया के पांव दबाने बैठ गई। मैं चुपचाप खड़ी थी। मुझसे बोलीं, ‘तुम्हें देर हो रही हो, तो जाओ, कल फिर आना। मैंने कहा, ‘नहीं, मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचाकर उधर ही से निकल जाऊंगी। गरज नौ बजे के बाद वह वहाँ से चलीं। रास्ते में मैंने कहा, ‘जालपा! तुम सचमुच देवी हो।’

जालपा ने छूटते ही कहा, ‘ज़ोहरा! ऐसा मत कहो मैं ख़िदमत नहीं कर रही हूँ, अपने पापों का प्रायश्चित्ता कर रही हूँ। मैं बहुत दुखी हूँ। मुझसे बड़ी अभागिनी संसार में न होगी।’

मैंने अनजान बनकर कहा, ‘इसका मतलब मैं नहीं समझी।’

जालपा ने सामने ताकते हुए कहा, ‘कभी समझ जाओगी। मेरा प्रायश्चित्त इस जन्म में न पूरा होगा। इसके लिए मुझे कई जन्म लेने पड़ेंगे।’

मैंने कहा, ‘तुम तो मुझे चक्कर में डाले देती हो, बहन! मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। जब तक तुम इसे समझा न दोगी, मैं तुम्हारा गला न छोडूंगी।’ जालपा ने एक लंबी साँस लेकर कहा, ‘ज़ोहरा -‘ किसी बात को ख़ुद छिपाये रहना इससे ज्यादा आसान है कि दूसरों पर वह बोझ रखूं।’

मैंने आर्त कंठ से कहा, ‘हाँ, पहली मुलाकात में अगर आपको मुझ पर इतना एतबार न हो, तो मैं आपको इलज़ाम न दूंगी, मगर कभी न कभी आपको मुझ पर एतबार करना पड़ेगा। मैं आपको छोडूंगी नहीं।’

कुछ दूर तक हम दोनों चुपचाप चलती रहीं, एकाएक जालपा ने कांपती हुई आवाज़ में कहा, ‘ज़ोहरा! अगर इस वक्त तुम्हें मालूम हो जाय कि मैं कौन हूँ, तो शायद तुम नफ़रत से मुँह  उधर लोगी और मेरे साये से भी दूर भागोगी।’

इन लर्जिेंशों में न मालूम क्या जादू था कि मेरे सारे रोयें खड़े हो गये। यह एक रंज और शर्म से भरे हुए दिल की आवाज़ थी और इसने मेरी स्याह जिंदगी की सूरत मेरे सामने खड़ी कर दी। मेरी आँखों में आँसू भर आये। ऐसा जी में आया कि अपना सारा स्वांग खोल दूं। न जाने उनके सामने मेरा दिल क्यों ऐसा हो गया था। मैंने बड़े-बड़े काइयें और छंटे हुए शोहदों और पुलिस-अफसरों को चपर-गट्टू बनाया है, पर उनके सामने मैं जैसे भीगी बिल्ली बनी हुई थी। फिर मैंने जाने कैसे अपने को संभाल लिया। मैं बोली तो मेरा गला भी भरा हुआ था, ‘यह तुम्हारा ख़याल गलत है देवी!’

‘शायद तब मैं तुम्हारे पैरों पर फिर पड़ूंगी। अपनी या अपनों की बुराइयों पर शर्मिन्दा होना सच्चे दिलों का काम है।’

जालपा ने कहा, ‘लेकिन तुम मेरा हाल जानकर करोगी क्या बस, इतना ही समझ लो कि एक ग़रीब अभागिन औरत हूँ, जिसे अपने ही जैसे अभागे और ग़रीब आदमियों के साथ मिलने-जुलने में आनंद आता है।’

‘इसी तरह वह बार-बार टालती रही, लेकिन मैंने पीछा न छोड़ा, आख़िर उसके मुँह से बात निकाल ही ली।’

रमा ने कहा, ‘यह नहीं, सब कुछ कहना पड़ेगा।’

ज़ोहरा-‘अब आधी रात तक की कथा कहाँ तक सुनाऊं। घंटों लग जायेंगे। जब मैं बहुत पीछे पड़ी, तो उन्होंने आख़िर में कहा,मैं उसी मुखबिर की बदनसीब औरत हूँ, जिसने इन कैदियों पर यह आगत ढाई है। यह कहते-कहते वह रो पड़ीं। फिर ज़रा आवाज़ को संभालकर बोलीं, ‘हम लोग इलाहाबाद के रहने वाले हैं। एक ऐसी बात हुई कि इन्हें वहाँ से भागना पड़ा। किसी से कुछ कहा न सुना, भाग आये। कई महीनों में पता चला कि वह यहाँ हैं।’

रमा ने कहा, ‘इसका भी किस्सा है। तुमसे बताऊंगा कभी, जालपा के सिवाय और किसी को यह न सूझती।‘

ज़ोहरा बोली, ‘यह सब मैंने दूसरे दिन जान लिया। अब मैं तुम्हारे रगरग से वाकिफ़ हो गई। जालपा मेरी सहेली है। शायद ही अपनी कोई बात उन्होंने मुझसे छिपाई हो। कहने लगीं, ज़ोहरा मैं बड़ी मुसीबत में फंसी हुई हूँ। एक तरफ तो एक आदमी की जान और कई खानदानों की तबाही है, दूसरी तरफ अपनी तबाही है। मैं चाहूं, तो आज इन सबों की जान बचा सकती हूँ। मैं अदालत को ऐसा सबूत दे सकती हूँ कि फिर मुखबिर की शहादत की कोई हैसियत ही न रह जायेगी, पर मुखबिर को सजा से नहीं बचा सकती। बहन, इस दुविधा में मैं पड़ी नरक का कष्ट झेल रही हूँ। न यही होता है कि इन लोगों को मरने दूं, और न यही हो सकता है कि रमा को आग में झोंक दूं। यह कहकर वह रो पड़ीं और बोलीं, बहन, मैं खुद मर जाऊंगी, पर उनका अनिष्ट मुझसे न होगा। न्याय पर उन्हें भेंट नहीं कर सकती। अभी देखती हूँ, क्या फैसला होता है। नहीं कह सकती, उस वक्त मैं क्या कर बैठूं। शायद वहीं हाईकोर्ट में सारा किस्सा कह सुनाऊं, शायद उसी दिन जहर खाकर सो रहूं।’

इतने में देवीदीन का घर आ गया। हम दोनों विदा हुई। जालपा ने मुझसे बहुत इसरार किया कि कल इसी वक्त ग़िर आना। दिन-भर तो उन्हें बात करने की फुरसत नहीं रहती। बस वही शाम को मौका मिलता था। वह इतने रूपये जमा कर देना चाहती हैं कि कम-से-कम दिनेश के घर वालों को कोई तकलीफ न हो दो सौ रूपये से ज्यादा जमा कर चुकी हैं। मैंने भी पाँच रूपये दिए। मैंने दो-एक बार ज़िक्र किया कि आप इन झगड़ों में न पड़िये, अपने घर चली जाइये, लेकिन मैं साफ-साफ कहती हूँ, मैंने कभी जोर देकर यह बात न कही। जब जब मैंने इसका इशारा किया, उन्होंने ऐसा मुँह बनाया, गोया वह यह बात सुनना भी नहीं चाहतीं। मेरे मुँह से पूरी बात कभी न निकलने पाई। एक बात है, ‘कहो तो कहूं?’

रमा ने मानो ऊपरी मन से कहा, ‘क्या बात है?’

ज़ोहरा-‘डिप्टी साहब से कह दूं, वह जालपा को इलाहाबाद पहुँचा दें। उन्हें कोई तकलीफ़ न होगी। बस दो औरतें उन्हें स्टेशन तक बातों में लगा ले जायेगी। वहाँ गाड़ी तैयार मिलेगी, वह उसमें बैठा दी जायेगी, या कोई और तदबीर सोचो।’

रमा ने ज़ोहरा की आँखों से आँख मिलाकर कहा, ‘क्या यह मुनासिब होगा?’

ज़ोहरा ने शरमाकर कहा, ‘मुनासिब तो न होगा।’

रमा ने चटपट जूते पहन लिये और ज़ोहरा से पूछा, ‘देवीदीन के ही घर पर रहती है न?’

ज़ोहरा उठ खड़ी हुई और उसके सामने आकर बोली, ‘तो क्या इस वक्त जाओगे?’

रमानाथ – ‘हाँ ज़ोहरा! इसी वक्त चला जाऊंगा। बस, उनसे दो बातें करके उस तरफ चला जाऊंगा, जहाँ मुझे अब से बहुत पहले चला जाना चाहिए था।’

ज़ोहरा – ‘मगर कुछ सोच तो लो, नतीजा क्या होगा।’

रमानाथ-‘सब सोच चुका, ज्यादा-से ज्यादा तीन-चार साल की कैद दरोगबयानी के जुर्म में, बस अब रूख़सत, भूल मत जाना ज़ोहरा,  शायद फिर कभी मुलाकात हो!’

रमा बरामदे से उतरकर सहन में आया और एक क्षण में फाटक के बाहर था।

दरबान ने कहा, ‘हुजूर ने दारोग़ाजी को इत्तला कर दी है?’

रमनाथ – ‘इसकी कोई ज़रूरत नहीं।’

चौकीदार-‘मैं ज़रा उनसे पूछ लूं। मेरी रोज़ी क्यों ले रहे हैं, हुजूर?’

रमा ने कोई जवाब न दिया। तेज़ी से सड़क पर चल खड़ा हुआ। ज़ोहरा निस्पंद खड़ी उसे हसरत-भरी आँखों से देख रही थी। रमा के प्रति ऐसा प्यार,ऐसा विकल करने वाला प्यार उसे कभी न हुआ था। जैसे कोई वीरबाला अपने प्रियतम को समरभूमि की ओर जाते देखकर गर्व से फली न समाती हो चौकीदार ने लपककर दारोग़ा से कहा। वह बेचारे खाना खाकर लेटे ही थे। घबराकर निकले, रमा के पीछे दौड़े और पुकारा, ‘बाबू साहब, ज़रा सुनिये तो, एक मिनट रूक जाइए, इससे क्या फायदा,कुछ मालूम तो हो, आप कहाँ जा रहे हैं? आख़िर बेचारे एक बार ठोकर खाकर गिर पड़े। रमा ने लौटकर उन्हें उठाया और पूछा, ‘कहीं चोट तो नहीं आई?’

दारोग़ा – ‘कोई बात न थी, ज़रा ठोकर खा गया था। आख़िर आप इस वक्त कहाँ जा रहे हैं? सोचिये तो इसका नतीज़ा क्या होगा?’

रमानाथ – ‘मैं एक घंटे में लौट आऊंगा। जालपा को शायद मुख़ालिफों ने बहकाया है कि हाईकोर्ट में एक अर्जी दे दे। ज़रा उसे जाकर समझाऊंगा।’

दारोग़ा – ‘यह आपको कैसे मालूम हुआ?’

रमानाथ – ‘ज़ोहरा कहीं सुन आई है।’

दारोग़ा – ‘बड़ी बेवफ़ा औरत है। ऐसी औरत का तो सिर काट लेना चाहिए।’

रमानाथ- ‘इसीलिए तो जा रहा हूँ। या तो इसी वक्त उसे स्टेशन पर भेजकर आऊंगा, या इस बुरी तरह पेश आऊंगा कि वह भी याद करेगी। ज्यादा बातचीत का मौका नहीं है। रात-भर के लिए मुझे इस कैद से आज़ाद कर दीजिये।’

दारोग़ा – ‘मैं भी चलता हूँ, ज़रा ठहर जाइये।’

रमानाथ – ‘जी नहीं, बिल्कुल मामला बिगड़ जायेगा। मैं अभी आता हूँ।’

दारोग़ा लाजवाब हो गये। एक मिनट तक खड़े सोचते रहे, फिर लौट पड़े और ज़ोहरा से बातें करते हुए पुलिस स्टेशन की तरफ चले गये। उधर रमा ने आगे बढ़कर एक तांगा किया और देवीदीन के घर जा पहुँचा। जालपा दिनेश के घर से लौटी थी और बैठी जग्गो और देवीदीन से बातें कर रही थी। वह इन दिनों एक ही वक्त ख़ाना खाया करती थी। इतने में रमा ने नीचे से आवाज़ दी। देवीदीन उसकी आवाज़ पहचान गया। बोला, ‘भैया हैं सायत।’

जालपा – ‘कह दो, यहाँ क्या करने आये हैं। वहीं जायें।’

देवीदीन – ‘नहीं बेटी, ज़रा पूछ तो लूं, क्या कहते हैं। इस बख़त कैसे उन्हें छुटटी मिली?’

जालपा – ‘मुझे समझाने आये होंगे और क्या! मगर मुँह धो रखें।’

देवीदीन ने द्वार खोल दिया। रमा ने अंदर आकर कहा, ‘दादा, तुम मुझे यहाँ देखकर इस वक्त ताज्जुब कर रहे होगे। एक घंटे की छुटटी लेकर आया हूँ। तुम लोगों से अपने बहुत से अपराधों को क्षमा कराना था। जालपा ऊपर हैं?’

देवीदीन बोला, ‘हाँ, हैं तो। अभी आई हैं, बैठो, कुछ खाने को लाऊं!’

रमानाथ-‘नहीं, मैं खाना खा चुका हूँ। बस, जालपा से दो बातें करना चाहता हूँ।’

देवीदीन – ‘वह मानेंगी नहीं, नाहक शर्मिंदा होना पड़ेगा। मानने वाली औरत नहीं है।’

रमानाथ – ‘मुझसे दो-दो बातें करेंगी या मेरी सूरत ही नहीं देखना चाहतीं? ज़रा जाकर पूछ लो।’

देवीदीन – ‘इसमें पूछना क्या है, दोनों बैठी तो हैं, जाओ। तुम्हारा घर जैसे तब था वैसे अब भी है।’

रमानाथ – ‘नहीं दादा, उनसे पूछ लो। मैं यों न जाऊंगा।’

देवीदीन ने ऊपर जाकर कहा, ‘तुमसे कुछ कहना चाहते हैं, बहू!’

जालपा मुँह लटकाकर बोली, ‘तो कहते क्यों नहीं, मैंने कुछ ज़बान बंद कर दी है? जालपा ने यह बात इतने ज़ोर से कही थी कि नीचे रमा ने भी सुन ली। कितनी निर्ममता थी! उसकी सारी मिलन-लालसा मानो उड़ गई। नीचे ही से खड़े-खड़े बोला, ‘वह अगर मुझसे नहीं बोलना चाहतीं, तो कोई जबरदस्ती नहीं। मैंने जज साहब से सारा कच्चा चिटठा कह सुनाने का निश्चय कर लिया है। इसी इरादे से इस वक्त चला हूँ। मेरी वजह से इनको इतने कष्ट हुए, इसका मुझे खेद है। मेरी अक्ल पर परदा पड़ा हुआ था। स्वार्थ ने मुझे अंधा कर रखा था। प्राणों के मोह ने, कष्टों के भय ने बुद्धि हर ली थी। कोई ग्रह सिर पर सवार था। इनके अनुष्ठानों ने उस ग्रह को शांत कर दिया। शायद दो-चार साल के लिए सरकार की मेहमानी खानी पड़े। इसका भय नहीं। जीता रहा तो फिर भेंट होगी। नहीं मेरी बुराइयों को माफ करना और मुझे भूल जाना। तुम भी देवी दादा और दादी, मेरे अपराध क्षमा करना। तुम लोगों ने मेरे ऊपर जो दया की है, वह मरते दम तक न भूलूंगा। अगर जीता लौटा, तो शायद तुम लोगों की कुछ सेवा कर सकूं। मेरी तो ज़िन्दगी सत्यानाश हो गई। न दीन का हुआ न दुनिया का। यह भी कह देना कि उनके गहने मैंने ही चुराये थे। सर्राफ को देने के लिए रूपये न थे। गहने लौटाना ज़रूरी था, इसीलिए वह कुकर्म करना पड़ा। उसी का फल आज तक भोग रहा हूँ और शायद जब तक प्राण न निकल जायेंगे, भोगता रहूंगा। अगर उसी वक्त सगाई से सारी कथा कह दी होती, तो चाहे उस वक्त इन्हें बुरा लगता, लेकिन यह विपत्ति सिर पर न आती। तुम्हें भी मैंने धोखा दिया था। दादा, मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, कायस्थ हूँ, तुम जैसे देवता से मैंने कपट किया। न जाने इसका क्या दंड मिलेगा। सब कुछ क्षमा करना। बस, यही कहने आया था।’

रमा बरामदे के नीचे उतर पड़ा और तेज़ी से कदम उठाता हुआ चल दिया। जालपा भी कोठे से उतरी, लेकिन नीचे आई तो रमा का पता न था। बरामदे के नीचे उतरकर देवीदीन से बोली, ‘किधर गए हैं दादा?’

देवीदीन ने कहा, ‘मैंने कुछ नहीं देखा, बहू! मेरी आँखें आँसू से भरी हुई थीं। वह अब न मिलेंगे। दौड़ते हुए गए थे।’

जालपा कई मिनट तक सड़क पर निस्पंद-सी खड़ी रही। उन्हें कैसे रोक लूं! इस वक्त वह कितने दुखी हैं, कितने निराश हैं! मेरे सिर पर न जाने क्या शैतान सवार था कि उन्हें बुला न लिया। भविष्य का हाल कौन जानता है। न जाने कब भेंट होगी। विवाहित जीवन के इन दो-ढाई सालों में कभी उसका ह्रदय अनुराग से इतना प्रकंपित न हुआ था। विलासिनी रूप में वह केवल प्रेम आवरण के दर्शन कर सकती थी। आज त्यागिनी बनकर उसने उसका असली रूप देखा, कितना मनोहर, कितना विशु’, कितना विशाल, कितना तेजोमय। विलासिनी ने प्रेमोद्यान की दीवारों को देखा था, वह उसी में खुश थी। त्यागिनी बनकर वह उस उद्यान के भीतर पहुँच गई थी, कितना रम्य दृश्य था, कितनी सुगंध, कितना वैचित्र्य, कितना विकास, इसकी सुगंध में, इसकी रम्यता का देवत्व भरा हुआ था। प्रेम अपने उच्चतर स्थान पर पहुँचकर देवत्व से मिल जाता है। जालपा को अब कोई शंका नहीं है, इस प्रेम को पाकर वह जन्म-जन्मांतरों तक सौभाग्यवती बनी रहेगी। इस प्रेम ने उसे वियोग, परिस्थिति और मृत्यु के भय से मुक्त कर दिया,उसे अभय प्रदान कर दिया। इस प्रेम के सामने अब सारा संसार और उसका अखंड वैभव तुच्छ है।

इतने में ज़ोहरा आ गई। जालपा को पटरी पर खड़े देखकर बोली,’वहां कैसे खड़ी हो, बहन, आज तो मैं न आ सकी। चलो, आज मुझे तुमसे बहुत – सी बातें करनी हैं।’

दोनों ऊपर चली गई।

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