अंतिम चैप्टर 50 : ज़िन्दगी गुलज़ार है नॉवेल | Last Chapter 50 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

Chapter 50 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

Chapter 50 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi
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२७ फरवरी कश्यप

आज पाकिस्तान में मेरा आखरी दिन है और पूरे सात घंटे बाद मैं ज़ारुन के साथ अमेरिका चले जाऊंगी और वापसी बहुत जल्दी नहीं होगी. इस वक्त ज़ारून सो रहा है, क्योंकि वह हमेशा लंबी फ्लाइट से पहले ज़रूर होता है. मैं इस वक्त अकेली हूँ और पता नहीं मेरा दिल चाह रहा है कि पाकिस्तान में गुजरे हुए अपने पिछले सालों के बारे में कुछ लिखूं. शायद ऐसा इसलिए है, क्योंकि आज मैंने अपने पिछले सालों की तमाम डायरीज़ पढ़ी है और मैंने फिर उन्हें दूसरे डॉक्यूमेंट के साथ बैंक लॉकर में रख दिया है, क्योंकि मैं उन सबको अपने साथ लेकर नहीं जा सकती.

3:00 बजे की फ्लाइट से मुझे जाना है और अभी बहुत वक्त है. यहाँ से जाने से पहले मैं सारे ए’तिराफ़ (confession) करना चाहती हूँ.

चार दिन पहले ज़ारून के साथ अपनी फैमिली को ख़ुदा-हाफिज़ कहने गुजरात गई थी, क्योंकि अब उनसे दोबारा मुलाकात बहुत अरसे बाद होगी. वहाँ मैं अपने बाकी रिश्तेदारों से मिली. मुझे हमेशा यही शिकायत रहती थी कि मेरी अम्मी को उनकी अच्छाइयों, उनकी नेकियों का कोई सिला नहीं मिला और ना ही कभी मिलेगा. लेकिन आज जब मैं अपनी अम्मी और अपनी मुमाईयों को कंपेयर हूँ, तो यह बात बिल्कुल साफ़ नज़र आती है कि मेरी यह सोच गलत थी. ऐसा क्या है, जो आज मेरी अम्मी के पास नहीं है? उनकी चारों बेटियाँ अच्छे घरों में ब्याही गई है और वो बहुत आराम से हैं. उनके दोनों बेटे अच्छे ओहदों पर हैं. उनकी बहुयें उनकी इज्ज़त करती हैं, उनसे मोहब्बत करती हैं. किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं है. यह ठीक है कि उनके पास बेतहाशा दौलत नहीं है, लेकिन अच्छी और पुर-सुकून ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए किसी के पास जितना रुपया होना चाहिए, वह उनके पास है और ज्यादा की हवस तो उन्हें कभी थी ही नहीं. क्या यह सब उनकी नेकियों का सिला नहीं है.

पहले अम्मी का सब्र, शुक्र, उनकी किफ़ायत मुझे ज़हर लगती थी और आज मैं, जो यह समझती थी कि दौलत हर मसले का हल है, आप अपनी सोचों पर शर्मिंदा हूँ. कोई इंकलाब नहीं आया, ना कोई मोजज़ाह (जादू, करामात) हुआ, न ही एक रात में काया पलटी, मगर फिर यह कैसे हुआ कि जिनके पास पहले से दौलत थी, वह आज दौलत की मौजूदगी में भी ख़ुश नहीं, सुकून से मेहरूम है. आज जो कभी अच्छे लिबास और अच्छी खुराक के लिए तरसते थे, आज उनके पास ख़ुशी और सुकून के साथ-साथ वह सब कुछ है, जो कभी उनकी ख्वाहिश थी.

फ़र्क सिर्फ़ अच्छाइयों का है. प्रश्न यह है कि किसने ज़िन्दगी को कैसे बरता? अपने से कमतर लोगों की भी कोई इज्ज़त होती है और दुनिया में दौलत ही सब कुछ नहीं होती है. रुपये के बलबूते पर आप दूसरों को कूड़ा-करकट नहीं समझ सकते. जिन लोगों के पास कुछ नहीं होता, उनकी ज़िंदगियाँ आसान बनाने में कुछ किरदार पैसे वाले लोगों को भी अदा करना होता है.

मैं पहले हर बात में ख़ुदा को इल्ज़ाम देती थी और मुझे इस बात का हमेशा अफ़सोस रहेगा कि मैंने ख़ुदा को गलत समझा. शायद हम सब ही ख़ुदा को गलत समझते हैं. उनकी ताकत का गलत अंदाज़ा लगाते हैं. हमें ख़ुदा पर सिर्फ़ उस वक्त प्यार आता है, जब वह हमें माली तौर पर आसूदा (संतुष्ट) कर दे और अगर ऐसा ना हो, तो हम उसे ताकतवर नहीं समझते. हम नमाज़ के दौरान अल्लाह-हू-अकबर कहते हैं, इस बात का ए’तिराफ़ (confession) करते हैं कि अल्लाह सबसे बड़ा है और नमाज़ खत्म होते ही हम रुपये को बड़ा समझना शुरू कर देते हैं. मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि ख़ुदा मुझे नफ़रत करता है, हालांकि ऐसा नहीं था. ख़ुदा तो हर एक से मोहब्बत करता है, इसलिए तो उसने मुझे आज़मायशो में डाला और वह अपने उन बंदों को आज़माइश में डालता है, जिससे वो दिल से मोहब्बत करता है. अगर ख़ुदा वाकई मुझसे नफ़रत करता है और वह मेरे मसले खत्म ना करना चाहता, तो मुझे मुश्किलात से लड़ने का हौसला भी ना देता. मैंने एस.एस.सी. क्वालीफाई किया और इसमें अच्छी पोजीशन ली. ख़ुदा की रज़ा के बगैर यह कैसे हो सकता था. रिजल्ट अनाउंस होने के फौरन बाद मुझे एकेडमी कॉल कर लिया गया और सबसे बेहतरीन डिपार्टमेंट में भेजा गया, क्या यह सब ख़ुदा की मर्ज़ी के बगैर हो सकता था. मुझे अपनी बहनों की शादियों के लिए रिश्तों की तलाश में हाथ-पाँव मारने नहीं पड़े, ना ही दहेज के लिए लंबा-चौड़ा मुतालबे (मांग) सुनना पड़े. क्या तब ख़ुदा मेरे साथ नहीं था और फिर मेरे दोनों भाइयों को किसी सिफ़ारिश के बगैर आर्मी में ले लिया गया, क्या यह भी ख़ुदा की मर्ज़ी के बगैर हो सकता था. फिर मैं भी, जो बुरी तरह एहसास-ए-कमतरी का शिकार थी, जिसका ख़याल था कि अगर किसी के पास दौलत और ख़ूबसूरती है, तो वह सब कुछ हासिल कर सकता है और जिसके पास ये चीजें नहीं होती, तो दुनिया में कुछ भी हासिल नहीं कर सकता. ख़ुदा ने मेरे इस ख़याल को भी ग़लत साबित किया. मैं ख़ूबसूरत नहीं थी, फिर भी ज़ारून ने मुझे पसंद किया. मेरे पास दौलत भी नहीं थी, फिर भी अपने से बड़े खानदान की बहू हूँ. सो साबित हुआ कि मेरी हर सोच, हर ख्याल गलत था और शायद अहमकाना भी. ख़ूबसूरती और दौलत ख़ुदा देता है, तो उसे इन चीजों की क्या परवाह, जो उसकी देन है. पर यह सब मैं पहले नहीं जान पाई. शायद मैं इस हकीकत को तस्लीम (स्वीकार करना) करना ही नहीं चाहती थी. ख़ुदा चाहता, तो मुझे उन सब ग़लत नजरिये की सजा देता, जो मैं ख़ुदा के बारे में रखती थी. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. यह उसका रहमो-करम ही था कि उसने सचमुच मुझे मुँह नहीं फेरा, वह मुझसे बेपरवाह वह नहीं हुआ. उसने मेरी नादानी को माफ़ कर दिया.

मैंने सख्त मेहनत की और उसने मुझे इसका अज़र (ईनाम) दिया. शायद मेहनत के बगैर वह मुझे कभी कुछ ना देता, यह ज़िन्दगी का सच है. इसमें हाथ-पाँव मारे बगैर कुछ नहीं मिलता, क्योंकि अब ख़ुदा प्लेट में कोई चीज़ रखकर हमें पेश नहीं करता. उसने हमारे मुकद्दर में जो लिखा है, वह हमें उस वक्त नहीं मिलेगा, जब तक हम उसे पाने के लिए मेहनत ना करें.

अगर आज मैं अपने माज़ी पर नज़र दौड़ाऊं, तो मुझे अपने आप पर रश्क आता है, क्योंकि मैंने अपनी शख्सियत ख़ुदा बनाई ह. मैं सेल्फमेड हूँ. मेरे रास्ते में किसी ने आसानी पैदा करने की कोशिश नहीं की, लेकिन बहुत सारे काम्प्लेक्स, ढेरों मुखालिफ़त (विरोध), हजारों ख़ामियों के बावजूद एक चीज़ जो मैंने कभी तर्क (छोड़ी) नहीं की, वह मेहनत थी और शायद एक लड़की होते हुए जितनी मेहनत की, कोई दूसरा ना करता. मेरी फैमिली कुछ नहीं थी और उस कुछ नहीं से मैंने कभी कंप्रोमाइज नहीं किया. मैंने वह सब पाने के लिए ज़द्दोजहद की, जो हम खो चुके थे और फिर आहिस्ता-आहिस्ता सब पा लिया, बल्कि शायद उससे भी ज्यादा ही पा लिया, जितना हमने खोया था.

उन दिनों मेरे दिल में बस एक ही ख़याल रहता है कि मुझे कुछ बनना है, अपने लिए नहीं, बल्कि अपनी फैमिली के लिये. मुझे अपनी फैमिली का नज़रअंदाज़ किया जाना बुरा लगता था. अपने रिश्तेदारों के नज़रिया-ज़ुमले उनके ताने, उनकी नजरें हर चीज़ ने मुझे आगे बढ़ने के लिए उकसाया. जो लोग मेरे साथ खराब सलूक करते थे, वह यह नहीं जानते थे कि वह आगे बढ़ने में मुझे किस कदर मदद दे रहे थे. शायद उनके ज़ुमलों के बगैर मैं कभी इस मुकाम पर नहीं पहुँच पाती, जिस पर आज मैं हूँ.

उन दिनों ज़िन्दगी इसलिए मुश्किल नहीं लगती थी कि गर्मियों में पैदल कॉलेज आते-जाते पैरों में छाले पड़ जाते थे, अच्छे खाने, अच्छे पहनने के लिए रुपये नहीं होते थे, ना ही आज ज़िन्दगी इतनी आसान लगती है कि कहीं जाने के लिए एक नहीं तीन-तीन गाड़ियाँ हैं और कोई ऐसी चीज़ नहीं, जो मेरे एक्सेस से दूर हो. तब ज़िन्दगी शायद इसलिए बुरी लगती थी, क्योंकि मुझे अपने वजूद से नफ़रत थी. मुझे ऐसा लगता था कि मैं बेकार हूँ और मैं कुछ नहीं कर सकती. मुझमें ज़ाहिरी और बातिनी (आंतरिक) कोई ख़ूबी नहीं है। मेरे ज़ेहन में यह एक बात बैठ चुकी थी कि दूसरे लोगों की तरह ख़ुदा ने भी मेरा साथ छोड़ दिया है. अगर उन दिनों मुझे इस बात का यकीन होता कि ख़ुदा मेरे साथ है और वह मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ेगा, तो शायद मुझे अपनी जात से मोहब्बत होती. हमारी सारी तकलीफ़ आसानी होती, बगैर किसी शिकवा शिकायत के। अगर आज मुझे अपने वजूद से मोहब्बत है, तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि अब मुझे ख़ुदा के साथ पर यकीन है.

मैं सोचती हूँ, अगर उस वक्त मैं तालीम छोड़ देती और यह तवक्को रखती कि ख़ुदा सब कुछ ठीक कर देगा तो क्या होता? सब कुछ उसी तरह रहता और ज़िन्दगी वैसे ही ठोकर खाते हुए खत्म हो जाती. अगर मैं मेहनत ना करती, तो मैं और मेरी फैमिली आज भी वही खड़ी होती. मैं और मेरी बहनें आज भी एक-एक चीज के लिए तरसते रहते. लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और ख़ुदा ने मुझे मेरी अच्छाइयों का बदला दिया.

हाँ, मुझे में अच्छाइयाँ थी, तब मैं यह तस्लीम (स्वीकार करना) नहीं करती थी, लेकिन यह हकीकत है कि ख़ुदा ने मुझे जो आसाइशें (सुविधायें) दी है, वह मेरी कुर्बानियों का सिला है. यह क्यों कहूं कि मैंने कोई अच्छा काम नहीं किया. मैंने तो अपने हिसाब से बढ़कर काम किया था. अपने फायदे के लिए तो कभी कुछ सोचा ही नहीं. ऑफिसर बनने के बाद भी मुझ में कोई बनावट नहीं आई, ना ही मैंने अपने आप पर गुरुर किया. पर शायद यह सब बातें हैं, ख़ुदा को पसंद आ गई.

आज लोग मुझसे ख़ुश-किस्मत समझते हैं. मेरे रिश्तेदार दुआ करते हैं कि उनकी बेटियों की किस्मत भी मेरे जैसी हो. उनका खयाल यह है कि मुझे सब कुछ ऐसे ही मिल गया है. उनमें से किसी ने यह सोचने की ज़हमत नहीं की होगी कि यह सब कुछ पाने के लिए मैंने क्या खोया, क्या कुछ कुर्बान किया और क्या कुछ कुर्बान कर रहे हैं, तब कहीं जाकर एक घर बना पाई हूँ. पर्दे के पीछे की हकीकत जानने की कोशिश कोई नहीं करता. ख़ुदा किसी को कोई चीज हमेशा के लिए नहीं देता. जो वह किसी को कुछ नहीं देता है, तो सिर्फ आज़माइश के लिये. वह चाहता है कि हम उस चीज़ को हमेशा अपने पास रखने के लिए ज़द्दोजहद करे. वह चाहता है कि हम अपने आप इस नेमत का अहल (योग्य बने) करें और हम अक्सर अपने आप को इस मेहनत नेमत का अहल (योग्य) साबित करने में नाकाम हो जाते हैं. जब मुझे ज़ारून मिला था, तो शुरू में मुझसे कुछ हिमाकतों हुई थी, लेकिन फिर आहिस्ता-आहिस्ता मैं बहुत मुहतात (सतर्क) हो गई, क्योंकि मैं जानती थी कि एक दफ़ा मैंने उसे खो दिया, तो फिर दोबारा मैं उसे नहीं पा सकूंगी.

मैंने ज़ारून की हर बात बर्दाश्त की. वो बहुत अच्छा था, लेकिन मर्द था. एक ऐसा मर्द, जिसे कोई मजबूरी लहक (जुड़ा होना) नहीं थी कि वह ज़रूर मेरे साथ ज़िन्दगी बसर करें. तो अपने घर को बरकरार रखने के लिए मैंने अपने ज़ज्बात कुर्बान किये. बहुत सी बातें नापसंद होने के बावजूद सिर्फ़ इसलिए अपना ली, क्योंकि वह ज़ारून को पसंद थी. अपने बहुत से पसंदीदा काम सिर्फ़ इसलिए छोड़ दिये, क्योंकि वह ज़ारून को नापसंद थे.

मैंने ज़ारून पर कभी कोई तजुर्बा करने की कोशिश नहीं की, उसकी फैमिली का रवैया शुरू ने मेरे साथ बहुत खराब था और उनकी मॉम अभी भी मुझे नापसंद करती है. बहुत दफ़ा उन्होंने मेरे बारे में दूसरों के सामने रिमार्क दिये और मैं जो किसी की कोई बात बर्दाश्त नहीं कर सकती थी, यह सब इसलिए बर्दाश्त की, क्योंकि वो ज़ारून की माँ थी. अगर मैं उनसे उलझती, तो ज़ारून मुझे नापसंद करता. बहरहाल वो उनकी माँ थी, जिससे बदला नहीं जा सकता और मैं सिर्फ़ बीवी, जिसे वह जब चाहे बदल सकता था और मेरी यह खामोशी बेकार नहीं गई.

अगर अब उसकी माँ दूसरों के सामने पहले की तरह मेरे बारे में रिमार्क नहीं देती, तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि ज़ारून मेरे खिलाफ़ कोई बात नहीं सुन सकता और वह बहुत सख्ती से उन्हें ऐसी बातों से रोक देते हैं. अगर मैं जारून के घर वालों के साथ झगड़ती, उनसे बदतमीजी करती,  उसकी मर्जी के खिलाफ़ हर काम करती, तो वह ज़ाहिर तौर पर मुझे तलाक दे चुका होता और अगर ऐसा होता, तो क्या फिर भी मैं ख़ुदा से शिकवा कर सकती थी कि उसने मुझे इंसाफ़ क्यों नहीं दिया और मुझे दोबारा अकेले छोड़ दिया. यकीनन नहीं.

यह कैसी हो सकता था कि मैं अपनी मर्ज़ी से हर ग़लत काम करने के बाद भी ये तवक्को (उम्मीद) रखती कि ख़ुदा मेरी मदद करता रहे.

जब ज़ारून से मेरी शादी हुई थी, तो मैं उसके लिए एक राज़ की तरह थी. उसने मेरी खातिर हर शख्सियत से मोहब्बत की थी, जो बा-ज़ाहिर (बाह्य रूप से) बड़ी मजबूत ताकतवर और पुर-कशिश थी. अगर वो ये जान जाता कि यह तो सिर्फ़ एक मास्क है, जो मैंने ख़ुद पर चढ़ाया हुआ है, वरना तो मैं भी दूसरी औरत की तरह हूँ, मुझमें उसकी दिलचस्पी खत्म हो जाती. यह बात मैं बहुत जल्द समझ गई कि यह ज़िन्दगी थी ,कोई अफ़साना नहीं, जिसमें हीरो हीरोइन के मसले, उनकी परेशानियाँ जानकर उससे मजीद मोहब्बत करता और उसकी सारी मेहरूमियों को अपने प्यार से खत्म कर देता. मैं जानती थी कि ज़ारून के पास ना तो इतना वक्त है और ना ही उसे ज़रूरत थी कि वो मेरी नफ्सियात (मनोविज्ञान) को जानने की कोशिश करता, मेरे माज़ी के मसले को जानता और वह सब जान कर भी मुझे मोहब्बत करता रहता.

सो मैंने कभी अपने माज़ी को उसके सामने रखने की कोशिश नहीं की. अपना कोई जाति मसला उससे डिस्कस नहीं किया. मैं कभी ज़ज्बात  की रौ में बहकर उससे यह बताने की कोशिश नहीं की कि मुझे तालीम हासिल करने के लिए कितनी ज़द्दोजहद करना पड़ी या यह कि मुझे कैसे माली मसले के सामना करना पड़ा, मैंने उसे ज़िन्दगी का साथी ज़रूर समझा, लेकिन अपने साबिक़ा (पिछली) ज़िन्दगी को अपने दिल के अंदर ही महफूज़ रखा, क्योंकि मैं उसकी नज़रों में बे-वक़’अत (मूल्यहीन) होना नहीं चाहती थी और इस बात ने मुझे हमेशा फायदा पहुँचाया. मैं अपनी नफ्सियात (मनोविज्ञान)  को समझाने की बजाय उनकी साइकोलॉजी समझने की कोशिश की. उसे एक घर की ज़रूरत थी, वह अपने से वाबस्ता (जुड़े) लोगों की पूरी तवज़्ज़ो (ध्यान) चाहता था, क्योंकि वह उसे महरूम रहा था और मैंने उसकी ज़रूरत पूरी कि उसे इस हद तक घर और बच्चों में इनवॉल्व किया कि उसका अब इन सबके बगैर रहना मुमकिन नहीं.

पहले मेरा ख़याल था कि ज़ारून में कोई अच्छाई नहीं, फिर भी उसके पास सब कुछ है, लेकिन क्या वाकई उनमें कोई अच्छाई नहीं थी? अपनी सारी कमजोरियों के बावजूद बाज़ मामलात में उनकी अप्रोच बड़ी साफ़ और वज़ा है. उसने कभी मुझे अपनी फैमिली की माली मदद करने से नहीं रोका. उसने कभी इस बात को तंज के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया और ना ही इस बिना पर उसने मेरी फैमिली का इहतिराम (सम्मान) में कोई कमी की.

उसने कभी मुझे जॉब छोड़ने पर मजबूर नहीं किया, सोशल स्टेटस से अपने से कमतर होने के बावजूद उसने मुझे शादी की और इस मामले में उसने अपने घरवालों की मुख्तलिफ़ (अलगाव) की भी परवाह नहीं की. उसने कभी किसी से मेरी फैमिली बैकग्राउंड को छुपाने की कोशिश नहीं की और जब भी किसी ने मेरे फैमिली के सोशल स्टेटस के बारे में जानना चाहा, तो उसने उनके बारे में कुछ भी छुपाने की कोशिश नहीं की और उसने मुझे बहुत ही दफ़ा कहा, “कशफ़ कॉलेज में हमारा झगड़ा हुआ था, तो तुमने कहा था, शर्म इस बात पर नहीं आनी चाहिए, अगर आपके पास रुपया नहीं, आप गरीब हैं, शर्म तो इस बात पर आना चाहिए, अगर आप कातिल है, चोर है या ऐसी कोई दूसरी बुराई आपके अंदर मौजूद है.” तुम्हारी वह बात मेरे दिल पर नक्स हो गई थी. वाकई गुरबत (ग़रीबी) या कम रुपया-पैसा शर्मिंदगी की बात नहीं.”

क्या यह सारी खुसूसियत (ख़ूबी) किसी आम मर्द में हो सकती है. यकीनन  नहीं. वो एक आम मर्द है भी नहीं. अगर ख़ुदा ने उसे शुरू से ही असाइशों (सुविधाओं) में रखा, तो शायद यह उसके लिए इनाम था, क्योंकि उसे बाद में मेरी जैसी एक औरत को एतमाद और इज्ज़त देनी थी और औरत का ख़ुदा  पर यकीन मजबूत करना था, तो उन सब बातों के लिए ख़ुदा ने उसे पहले ही नवाज़ दिया था और अब मैं यह कैसे चाह सकती हूँ कि उसे किसी किस्म की परेशानी का सामना करना पड़े.

उसकी जात से मैं और मेरे दोनों बेटे वाबस्ता (जुड़े) हैं, उसे पहुँचने वाली किसी तकलीफ़ से सबसे ज्यादा हम ही मुत’अस्सिर (मुश्किल) होंगे. वह एक इनाम है, जो  ख़ुदा ने मुझे दिया है, अब मैं उसे कैसे खो सकती हूँ. ख़ुदा में एक दफ़ा फिर साबित कर दिया है कि जिन लोगों की आसाइशों से हम हसद (ईर्ष्या, जलन) करने लगते हैं, उनकी तो कोई ख़ूबी ही नहीं. वे तो करम के मुस्तहिक (हक़दार) ही नहीं होते, फिर भी उन्हें ख़ुदा ने इतना सब कुछ क्यों दे रखा है? हो सकता है, सब नेमतें उन्हें किसी दूसरे की दुआओं की एवज़ में मिली हो.

माज़ी में अगर मैं ख़ुदा से इतने शिकवे शिकायत करती थी, तो उसकी एक वजह लोगों को लोगों का रवैया भी था. लोग जानबूझकर हमें इस तरह ट्रीट करते थे कि हमें हमारी हैसियत का अंदाज़ा होता रहे. लोगों के रवैये की वजह से ही मैं ख़ुदा से बा-दिल (दूर) हो गई थी. काश लोग कभी यह जान पाते कि उनके रवैयों की वजह से कोई ख़ुदा से बरगश्ता (नाराज़, बागी) होने लगता है.

आज मेरे पास भी किसी चीज की कमी नहीं. अपना घर, दौलत, ओहदे,  बच्चे या शौहर देखकर मैं आपे से बाहर नहीं होती. मैं नहीं चाहती कि इन चीजों के बलबूते पर मैं किसी की दिल-अज़ारी का रीज़न बनूं. कोई मेरी आसाइशें (सुविधायें) देखकर अपने वजूद से नफ़रत करे, किसी को मेरा यह रवैया ख़ुदकुशी के बारे में सोचने पर मजबूर कर दे. नहीं मुझे इन सबसे  खौफ़ खौफ आती है. मैं वह सब नहीं करना चाहती, जो कल तक मेरे साथ होता रहा. इसलिए ख़ुद को बड़ा नॉर्मल रखती हूँ.

मैं जब भी गुजरात जाती हूँ, तो किसी फंक्शन में किसी के रवैये की बिना पर से गैर मामूली तवज़्ज़ो नहीं देती. हर एक को एक जैसा ट्रीट करते हूँ.  मैं कीमती लिबास अफ़ोर्ड कर सकती हूँ, लेकिन सादा लिबास पहनती हूँ.  मेरे पास रुपया है, यह सब जानते हैं, फिर क्या ज़रूरत है कि मैं शो-ऑफ करूं, दूसरों को अहसास-ए-कमतरी में मुब्तिला (डालूं, प्रभावित करूं) करूं.

फिर यह चीजें मुझे ख़ुश भी नहीं करती. ख़ुदा का शुक्र है, जिसने मुझे बहुत सारी खूबियों से नवाज़ा, एक अच्छा और बेहतर इंसान बनाया. उसने मेरे ज़ाहिर के बजाय मेरे बातिन (बाह्य रूप) इनको ख़ूबसूरत बनाया था. लेकिन यह मैं अब जान पा रही हूँ. काश मैं पहले भी अपनी इन खूबियों को जान पाती और इन पर शर्म महसूस ना करती. मगर ठीक है, हर काम वक्त गुजरने के साथ ही होता है.

मेरी ज़िन्दगी अभी खत्म नहीं होती. मैं नहीं जानती, हर आने वाला दिन मेरे लिए क्या लायेगा, मुझे यकीन नहीं है कि अब मेरी ज़िन्दगी में हमेशा खुशियाँ ही रहेगी, मैं यह दावे के साथ नहीं कह सकती हूँ कि ज़ारून हमेशा मेरा ही रहेगा या मेरे बेटे भी ज़िन्दगी में बहुत कामयाब रहेंगे. यकीन अगर किसी बात पर है, तो सिर्फ़ इस बात पर कि अब मैं किसी मुसीबत पर पहले की तरह ख़ुदा पर इल्ज़ाम नहीं दूंगी. मैंने सब्र  और बर्दाश्त सीख ली है. अब मैं ख़ुदा के एक फरमाबरदार और साबिर बंदे की तरह उनकी हर रज़ा पर राज़ी रहूंगी, क्योंकि हर ख़ुशी के बाद ग़म और ग़म के बाद ख़ुशी आती है. ख़ुदा से मेरा ताल्लुक अब बहुत मजबूत हो चुका है और अब मैं पहले की तरह अपनी मुस्तक़बिल (भविष्य) से खौफ़ज़दा नहीं हूँ, लेकिन फिर भी मैं समझदारी से काम लेती रहूंगी, ताकि हर मुसीबत से बची रहूं.

अपने सर्विस के साल पूरे होने के बाद मैं जॉब छोड़ दूंगी, ताकि अपने बेटों को पूरी तवज़्ज़ो दे सकूं, ताकि उनकी शख्सियत में कोई कमी, कोई खामी ना रहे.

जब मैं पहले दिन कॉलेज गई थी, तो ज़ारून से मेरी बहस हुई थी. मैंने उससे कहा था कि एक वोट की जीत कोई हैसियत नहीं रखती और अपने कुछ पॉइंट को साबित करने के लिए पता नहीं क्या-क्या दलीलें  दी थी. पर आज अपनी डायरी में उस दिन का हाल पढ़कर मैं सोच रही थी कि तब मैं गलत थी.

जीत जीत होती है, चाहे वह एक वोट की हो या एक लाख वोट की. ज़िन्दगी भी तो एक वोट की जीत है. वजा अकसरिय्यत (दर्द ज्यादा होने से)  से इसमें भी कोई फतेह-याद (जीत का हक़दार) नहीं होता. बस होता यह है कि किसी को चंद खुशियाँ ज्यादा मिल जाती है और किसी को चंद कम. ऐबक के रोने की आवाज आ रही है और ज़ारून भी उठ गया होगा और यकीनन मुझे तलाश रहा होगा, इसलिए आज के लिए इतना ही काफ़ी है. वैसे भी बहुत लंबी फ्लाइट है, कुछ देर बाद मुझे भी सो जाना चाहिए.

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पढ़ें उर्दू उपन्यास हिंदी में :

पढ़ें : मेरी ज़ात ज़र्रा बेनिशान ~ उमरा अहमद का नॉवेल 

पढ़ें : कुएँ का राज़ ~ इब्ने सफ़ी

पढ़ें : जंगल में लाश ~ इब्ने सफी 

2 thoughts on “अंतिम चैप्टर 50 : ज़िन्दगी गुलज़ार है नॉवेल | Last Chapter 50 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi”

  1. Great work! Thank you for translating this beautiful love story in Hindi. I request you for a translation of Umera Ahmed’s one more novel, ‘Ye jo ik Subh ka Sitara Hain’. Thank you again! ✨

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