चैप्टर 11 : ज़िन्दगी गुलज़ार है | Chapter 11 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

Chapter 11 ZindagiGulzar Hai Novel In Hindi

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Chapter 11 ZindagiGulzar Hai Novel In Hindi

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६ जनवरी कशफ़

ये पता नहीं ज़ारून जुनैद अपने आपको क्या समझता है? अगर आप के पास दौलत है, तो क्या इसका मतलब ये है कि आप जब चाहें दूसरों के ज़ज्बात का ख़याल किये बगैर उनकी इज़्ज़त नफ्स मज़रूह (चोट पहुँचाये) करते रहें.

मुझे ऐसे लोगों से नफ़रत है, जो सिर्फ़ अपना रुपया पैसा दिखाने और दूसरों को उनकी औकात जताने के लिए उन्हें तोहफ़े देते हैं, ताकि वो आपसे मुतासिर हो जाएं, आपके आगे-पीछे फिरें और आप वक़तन-फवक़तन (कभी-कभी) तरस खाकर अपनी इनायत (दया, कृपा, उपकार) उन पर तोहफ़ों की सूरत में नाज़िल करें. मुझे तरस और भीख दोनों से ही नफ़रत है. अगर यहीं सब मुझे करना होता, तो अपने तामिली अख्राजात (ख़र्च) के लिए मेहनत करना गंवारा ना करती, बल्कि अपने रिश्तेदारों के आगे हाथ फैलाती, लेकिन जब उस वक़्त मैंने भीख कुबूल नहीं की, तो अब कैसे कर लूं?

आज कॉलेज में सर क़दीर की क्लास अटेंड करने के बाद उनका लेक्चर ठीक करने के लिए लॉन में चली गई थी. मैंने लेक्चर को अभी पढ़ना शुरू ही किया था कि ज़ारून वहाँ आ गया. उनकी आमद मेरे लिए ख़िलाफ़ तवक्को थी क्योंकि वो कभी उस तरह अकेला मेरे पास नहीं आया था.

“एक्सक्यूज़ मी कशफ़ मैंने आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया?” उसने आते ही पूछा था.

“नहीं, आपको कोई काम है मुझसे?” मैंने फाइल बंद करके उससे पूछा.

“नहीं, ऐसा कुछ ख़ास तो नहीं, बस मैं आपको ये देना चाहता था.” उसने दो मुख्तालिफ़ साइज़ के पैकेट मेरी तरफ़ बढ़ा दिए.

“ये क्या है?’ मैंने पैकेट पकड़े बगैर ही उससे पूछा.

“आप ख़ुद खोल कर देख लें.”

“आप अगर ख़ुद बता दें कि इनमें क्या है, तो ठीक है. वरना मैं इन्हें नहीं खोलूंगी.”

उसे शायद मेरी तरफ़ से ऐसे कोरे जवाब की तवक्को नहीं थे. इसलिए कुछ देर तक वो ख़ामोश ही रहा, फिर उसने कहा, “मैं चंद दिनों के लिए हांगकांग गया था. वापसी पर अपने फ्रेंड्स के लिए कुछ तोहफ़े लाया हूँ. इस पैकेट में आपके लिए चंद किताबें और पेन हैं और इसमें कुछ चॉकलेट्स.”

“ये बहुत अच्छी बात है कि आप अपने फ्रेंड्स के लिए तोहफ़े लाते हैं. लेकिन ना तो मैं आपकी दोस्त हूँ और ना ही मैं तोहफ़े लेती हूँ.” मैंने ये कह कर दोबारा अपनी फाइल खोल ली.

“आप मुझे दोस्त क्यों नहीं समझती?” उसने एकदम पंजो के बल बैठते हुए मुझसे पूछा था.

“मैं आपको तो क्या, यहाँ किसी को भी अपना दोस्त नहीं समझती, क्योंकि मैं यहाँ पढ़ने आई हूँ, दोस्तियाँ करने नहीं.”

मुझे उम्मीद थी कि इतने रूखे जवाब पर वो चला ही जायेगा, मगर वो फिर भी वहीं रहा, “कशफ़ मैं इसके बदले में आपसे कोई गिफ्ट नहीं मांगूंगा.”

“जब मैं अपका गिफ्ट ले ही नहीं रही, तो देने का सवाल ही पैदा नहीं होता.” मुझे अब उस पर गुस्सा आने लगा.

“आप मेरी इन्सल्ट कर रही हैं.”

“मुझे अफ़सोस है, अगर मैं ऐसा कर रही हूँ तो. मगर मैं नहीं समझती कि किसी से तोहफ़ा ना लेना उसकी तौहीन हो सकता है और फिर आप आखिर क्या सोच कर मेरे पास ये तोहफ़ा लेकर आये हैं?”

“ओ.के. आप ये चॉकलेट्स तो ले लें, ये तो मैंने पूरी क्लास को दिए हैं.”

“मैं जानती हूँ कि मैं ऐसे चॉकलेट्स अफ़ोर्ड नहीं कर सकती, लेकिन क्या ये ज़रूरी है कि आप इन्हें लेने पर इसरार करके मुझे मेरी हैसियत जतायें.”

“आपने मेरी बात का गलत मतलब लिया है.” वो मेरी बात पर कुछ परेशान नज़र आया था.

“मुझे ख़ुशी होगी, अगर मैं आपकी बात का मतलब गलत समझी हूँ, लेकन इस वक़्त आप अपना और मेरा वक़्त ज़ाया ना करें.”

मैंने ये कहकर सामने रखे पेपर्स को पढ़ना शुरू कर दिया. वो चंद लम्हों के बाद उठ कर वहाँ से चला गया था. पता नहीं, वो मुझे ये तोहफ़ा देकर क्या साबित करना चाहता था? क्या वो ये जताना चाहता था कि वो क्या ख़रीद सकता है और मैं क्या ख़रीद नहीं सकती हूँ? मगर मैं तो ये सब पहले ही जानती हूँ, फिर मुझे जताने की क्या ज़रूरत है? मर शायद जिन लोगों के पास दौलत होती है, उन्हें ये हक हासिल होता है कि वो मेंरे जैसे कितने लोगों को ख्वाहिशात्त की सलीबों तले दफ्न करने का बायीस (वजह) बनते हैं, हम जो समझौते की ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर होते हैं.

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