चैप्टर 9 : ज़िन्दगी गुलज़ार है | Chapter 9 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

Chapter 9 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

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Chapter 9 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

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२४ अक्टूबर कशफ़

आज मेरे एग्जाम्स ख़त्म हो गए हैं और कल मैं घर जाऊंगी. हालांकि मेरा दिल घर जाने को नहीं चाहता, क्योंकि उस घर में इतनी परेशानियाँ और डिप्रेशन है कि वहाँ कोई भी सुकून से नहीं रह सकता. लेकिन फिर भी मुझे वहाँ जाना ज़रूर है. हालांकि वहाँ से वापस आने के बाद बहुत दिनों तक मैं रात को ठीक तरह से सो नहीं पाऊंगी, लेकिन मैं अपनी बहन भाइयों से कतई ताल्लुक भी तो नहीं कर सकती. उनको बिलकुल नज़र-अंदाज़ कैसे कर सकती हूँ? मुझे एक दफा फिर वही घिसे-पिटे लेक्चर उनके सामने दोहराने पड़ेंगे. मैं तंग आ चुकी हूँ. मैं जब ही ये सोचती हूँ कि मेरी बहनें तालीम को इतने सरसरी अंदाज़ में क्यों लेती हैं, तो मैं परेशान हो जाती हूँ. पता नहीं वो इस क़दर लापरवाह क्यों हैं कि अपनी ज़िम्मेदारी महसूस नहीं करतीं.

अपने घर की खस्ताहाली भी उन्हें नहीं उकसाती कि वो पढ़ें, ताकि घर का बोझ शेयर कर सकें. उनकी लापरवाही मेरी परेशानियों और खौफ़ में इज़ाफ़ा करती जा रही हैं, क्योंकि मैं जानती हूँ कि मुझे अकेले ही ना सिर्फ़ घर की किफ़ायत करनी होगी, बल्कि उनकी शादियाँ भी करनी होगी और भाइयों को भी किसी काबिल बनाना होगा. अगर मेंरी बहनें तालीम में कुछ अच्छी होती, तो मुझे काफ़ी तसल्ली रहती कि हम मिलकर घर का बोझ उठाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं है. भाई अभी इतने छोटे हैं कि उनके हवाले से भी कोई ख्वाब नहीं देख सकती. अगर ख़ुदा ने मेरे कंधों पर इतनी जिम्मेदारियाँ डालनी थी, तो क्या ये बेहतर ना होता कि वो मुझे एक मर्द बनाता. फिर बहुत सी ऐसी मुश्किलात का सामना मुझे ना करना पड़ता, जिनका सामना अब करना पड़ रहा है. लेकिन ख़ुदा मुझे कोई आसानी क्यों नहीं देता. उसने तो बस मेरी किस्मत में मुश्किलात ही रखी है.

मुझे हमेशा इस बात पर हैरत होती है कि मेरी बहनें इस कदर मुतमइन (शांत/संतुष्ट) क्यों हैं? वो कौन सी चीज़ है, जिसने उन्हें इस कदर इत्मीनान से रखा है कि वो मेहनत भी ना करें, तब भी सब कुछ ठीक हो जायेगा. मुझे उनके इत्मिनान पर गुस्सा आता है, मगर कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि उनका भी क्या कसूर हैं? सारे लोग ही मेरी तरह पागल तो नहीं हो सकते, ना ही अपनी ख्वाहिशात का गला घोंट सकते है. वो इस उम्र में हैं, जब हर चमकती चीज़ सोना लगती है. जब कोई परेशानी भी इंसान को परेशान नहीं करती, फिर वो मेरे रिश्तदारों के बच्चों को देखती हैं और वही चीज़ चाहती हैं, जो उनके पास है, इस बात की परवाह किये बगैर कि वो इन्हें कभी हासिल नहीं कर पाएंगी.

कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि काश मैं कभी पहली औलाद ना होती, मेरी जगह कोई और होता और मैं भी अपने भाई-बहनों की तरह बेपरवाह होती. फिर मुझे किसी चीज़की फ़िक्र ना होती. क्या होती है ये सबसे बड़ी औलाद भी? उसे हर परेशानी अपने माँ-बाप के साथ शेयर करनी पड़ती है, वो ना करना चाहे तब भी. बाप से तवक्को कर ही नहीं सकते और माँ से करें तो क्या करें. ज़िन्दगी वाकई फ़िज़ूल होती है, पता नहीं लोग इससे मोहब्बत कैसे करते हैं?

क्या हमारे घर में कोई एक भी ऐसा नहीं, जिसके दम से सब कुछ संवर जाता, सब कुछ ठीक हो जाता, क्या इस घर के लोग इतने गुनाहगार हैं कि ख़ुदा भी उनकी कोई दुआ नहीं सुनता और जो हम से इतना बेखबर है, क्या वो वाकई ख़ुदा है?

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Complete Novel : Chandrakanta     

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