चैप्टर 13 : ज़िन्दगी गुलज़ार है | Chapter 13 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

Chapter 13 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

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Chapter 13 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

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११ अप्रैल – कशफ़

मैं आज बहुत थक गई हूँ. पता नहीं बाज़ दफ़ा ऐसा क्यों होता है कि आप थक जाते हैं, हालांकि आपने ना तो ज़िस्मानी मशक्क़त की होती है और ना ही ज़ेहांनी, फिर भी ज़िन्दगी बेकार लगती है, अपना वज़ूद बोझ लगता है. मेरे जैसा लोगों के लिए हर दिन एक जैसा होता है. हाँ, बाज़ दिन ज्यादा बुरे होते हैं और बाज़ दिन कम.

ज़िन्दगी में आने वाली हर मुसीबत पर मैं सोचा करती थी कि शायद ये आखिरी मुसीबत हो और उससे बड़ी मुसीबत मुझ पर नहीं आ सकती, लेकिन वो सब ठीक नहीं था. जितनी ज़िल्लत आज मैंने महसूस की है, दोबारा कभी नहीं कर पाऊंगी.

मुझे पहले ही दिन से ज़ारून अच्छा नहीं लगा था. मुझे ऐसा लगा था, जैसे मुझे उससे कोई नुकसान पहुँचेगा और आज ऐसा ही हुआ है.

आज मैं काफी जल्दी कॉलेज चली गई थी, क्योंकि मुझे कुछ नोट्स बनाने थे और मैंने सोचा कि लाइब्रेरी से कुछ किताबें इशू करवा कर ये काम कर लूंगी, सो मैंने लाइब्रेरी से किताबें इशू करवाई और वापस एक कोने में बैठ कर अपना काम करने लगी. इस काम को आज ही ख़त्म करने के लिए मैंने शुरू की चंद क्लासेज भी मिस की. उस वक़्त मैं अपनी फाइल में कुछ पॉइंट्स का इज़ाफ़ा कर रही थी, जब मैंने ज़ारून को अपने ग्रुप के साथ बातें करते हुए करीब ही सुना.

वो सेल्फ के दूसरी तरफ थे. मैं अपना काम तकरीबन ख़त्म कर चुकी थी, इसलिए उनकी बातों से डिस्टर्ब नहीं हुई, बल्कि गैर-इरादतन तौर पर उनकी बातें सुनने लगी.

“ये इंग्लिश डिपार्टमेंट की नगमा आज कल बड़े साथ-साथ होती है तुम्हारे, खैर तो है?”

ये असमारा की आवाज़ थी और मैं ज़वाब की मुतंज़िर (इंतज़ार करने वाला) थी कि ये सवाल उसने किससे किया है.

’”कम ऑन यार! तुम्हें तो ख्वाब में भी मेरे साथ लड़कियाँ नज़र आती हैं. अब बंदा यूनिवर्सिटी में मुँह पर टेप लगाकर तो नहीं फिर सकता. जब को-एजुकेशन है, तो हलो-हाय तो होती ही रहती है.” मैंने ज़ारून की आवाज़ को पहचान लिया.

“खैर बात सिर्फ़ हाय-हेलो तक ही रहे, तो ठीक है. मगर तुम हलो-हाय ही पर भी लंच की दावत देने से नहीं चूकते, कल मैंने तुम्हें उसके साथ पीसी में देखा था.”

“तो उससे क्या होता है? मैं सिर्फ कल ही नहीं परसों भी वहाँ उसके साथ गया था. आखिर ये किस किताब में लिखा है कि आप किसी लड़की के साथ लंच पर नहीं जा सकते.” ज़ारून की आवाज़ झुंझलाई हुई थी.

“छोड़े यार! तुम किन फ़िज़ूल बातों में लग गए हो. क्या यहाँ तुम लड़ने के लिए आए हो?” इस बार फ़ारूक बोला था.

“मैं लड़ नहीं रहा, बात क्लियर कर रहा हूँ. नगमा के पास बहुत अच्छी किताबें हैं और वो सी.एस.एस. की तैयारी भी कर रही है. मुझे उससे थोड़ी बहुत मदद मिल जाती है और बस अब वो मेरी इतनी मदद कर रही है और मैंने गर उसे होटल में लंच करवा दिया, तो असमारा को क्यों एतराज़ हो रहा है.”

“चलो नगमा तो तुम्हारी मदद कर रही है, मगर कशफ़ कौन सी मदद कर रही है, जो तुम इस तरह उसके आगे पीछे फिरते हो?”

मैं असमारा के मुँह से अपना नाम सुनकर बेचैन हो गई थी. वो असमारा की बात पर हँसने लगा था.

“चलो अब तुम कशफ़ से भी जेलस होना शुरू हो गई हो. कम ऑन यार! मैं उसे बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहा हूँ, वो बन नहीं रही और तुम्हें ख्वाहमख्वाह (बेवजह) ग़लतफ़हमी…”

“मैं इस ग़लतफ़हमी का शिकार नहीं हूँ और ना ही जेलस हो रही हूँ. तुम तो कहा करते थे कि कशफ़ जैसी लड़कियों से तुम बात करना भी पसंद नहीं करते, अफेयर चलाना तो दूर की बात है. और अब उसे सलाम करते फिर रहे हो. उसके पास से बात किये बगैर गुज़र जाओ, ये तो नामुमकिन है और फिर भी तुम कह रहे हो कि मैं ग़लतफ़हमी का शिकार हूँ.”

मैं बिल्कुल साकित (सन्न, शांत, ख़ामोश) हो गई थे. असमारा के लहज़े में मेरे लिए बहुत तल्खी थी.

“मैंने कब कहा कि मेरा रवैया उसके साथ नहीं बदला है. हाँ बदल गया है, लेकिन सिर्फ़ किसी ख़ास मकसद के तहत, वरना मैं उस जैसी लडकी के बारे में अब भी वही खयालात रखता हूँ, जो पहले रखता था. मैं तो बस ये चाहता हूँ कि वो कॉलेज में मेरी वजह से बदनाम हो जाये. जितनी नेक-नाम वो बनती है, मैं बस वो नेक-नामी खत्म करना चाहता हूँ और ये मेरे लिए कोई मुश्किल काम नहीं और तुम्हें लगता है कि मैं उस पर आशिक हो गया हूँ, उससे शादी-वादी का इरादा रखता हूँ. नहीं यार! ऐसा नहीं है. कशफ़ जैसी लड़कियाँ हमारे लिए सिर्फ तफरीह (मन बहलाव के लिए घूमना-फिरना) होती है, उसे ज्यादा कुछ नहीं. मैं तो बस सर अबरार को दिखाना चाहता हूँ कि वो भी आम सी लड़की है. उसमें कोई सुरखाब के पर नहीं लगे हैं और उस जैसी लड़कियाँ कभी भी ना-काबिल-तस्खीर (जिसे हराना असंभव हो, जिस वशीभूत करना नामुमकिन हो) नहीं होती, बस उन्हें फंसाने में कुछ वक़्त लगता है.”

“मगर ज़ारून उसके रवैये में कोई तब्दीली नहीं आई.” ओसमा ने कहा.

“वो अपनी कीमत बढ़ा रही है, मैंने कहा ना कि इन मिडिल क्लास लड़कियों को फंसाने में वक़्त लगता है, मगर बिला-आखिर फंस ही जाती हैं.”

“अच्छा अगर वो तुम्हारी प्लानिंग समझ गई और तुम्हारे जाल में न फंसी तो?’

“ओसामा, वो मेरी चाल को कभी नहीं समझ पायेगी, ऐसा सिर्फ तब हो सकता है, जब तुम उसे ये सब बता दो और तुम ऐसा नहीं करोगे और वो मेरे जाल में फंसेगी क्यों नहीं? मेरे पास वो सब कुछ हैं, जिसकी ऊन जैसी लड़कियों को तलाश होती है. अमीर हूँ, खूबसूरत हूँ, ब्राइट फ्यूचर है, एक ऊँची फैमिली से ताल्लुक रखता हूँ और कशफ़ जैसी लड़कियाँ मेरे जैसे लड़कों के ही तो पीछे हैं, इस आस में कि मैं उनसे शादी कर लूंगा और वो मुझे जीना (सीढ़ी) बनाकर अपर क्लास में आ जायेंगी.”

बहुत ख़ुशदिली से उसका कहा गया एक-एक लफ्ज़ मेंरे कानों में पिघले हुए शीशे की तरह उतर रहा था. वो सब हँस रहे थे और वो उससे कह रही थी, “ज़ारून अगर तुम उससे फ़्लर्ट करने में कामयाब हो गए, तो मैं तुम्हें डिनर दूंगी, वरना तुम देना.”

एक औरत दूसरी औरत को शिकार बनाने के लिए एक मर्द को तर्गीब (प्रोत्साहन, प्रलोभन) दे रही थी. लाइब्रेरी में बैठा हुआ कोई शख्स ये नहीं जानता था कि जिस कशफ़ की बात वो कर रहे थे, वो मैं थी, मगर मुझे लग रहा था जैसे वहाँ मौज़ूद हर शख्स मुझे ही देख रहा था, मुझ ही पर हँस रहा था. फिर मैं नहीं जानती मुझे क्या हुआ. मैं ख़ुद को कण्ट्रोल नहीं कर पाई थी. मैं ख़ुद को सब कुछ करते देख रही थी, मगर रोक नहीं सकती थी, ऐसे जैसे मैं कोई दूसरी लड़की थी. मैंने अपनी फाइल बंद की, कितबें उठाई और लाइब्रेरियन को जाकर वापस कर दी, फिर मैं सेल्फ के इस तरफ आई थी, जहाँ वो बैठे थे. वो सब अब किताबें खोले कुछ काम कर रहे थे, उन्होंने मुझे नहीं देखा. ज़ारून अपनी फाइल खोले कुछ लिख रहा था और फिर उसने सिर उठाकर फ़ारूक से कुछ कहा, तब फ़ारूक की नज़र मुझ पर पड़ी थी.

“कशफ़ आप” बेइख्तियार उसने कहा था. फिर उनका पूरा ग्रुप मेरी तरफ मुतवज्जह (ध्यान देना, चौकस होना, मुखातिब होना) हो गया था. मैं अहिस्ता से चलती हुई उसके मुकाबिल खड़ी हुई, फिर मैंने उसके सामने रखे हुए पेपर्स उठाये, उन्हें फाड़ा और पूरी कूवत से उसके मुँह पर दे मरा. वो एकदम अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया, उसके चेहरे का सारा इत्मिनान रुखसत हो गया था,

“ये क्या बदतमीज़ी है.”

“ये तुम जैसे लोगों के साथ बिलकुल मुनासिब सुलूक है. बदतमीजी उन्हें लगनी चाहिए, जिन्हें खुद कोई तमीज़ हो और तुम उन लोगों की फेहरिस्त में शामिल नहीं हो.” उसका चेहरा सुर्ख हो गया था.

“क्या मतलब है तुम्हारा?”

मेरा मतलब वही है, जो तुम अच्छी तरह समझ चुके हो.” मुझे हैरत थी कि मैं बड़े सुकून से उससे मुखातिब थी, मेरे हाथ पैरों में कोई लज़रिश थी, ना आवाज़ में कंपकंपाहट.

“तुमने मेरे पेपर्स क्यों फाड़े हैं?”

“सिर्फ तुम्हें ये जताने के लिए कि तुम्हारी हैसियत मेरे नज़दीक इन पेपर्स के बराबर भी नहीं है. तुम किस क़दर गैर-अहम और छोटे आदमी हो, मैं तुम्हें यही बताने के लिए आई हूँ. वो और लड़कियाँ होंगी, जो तुम्हारी तफरीह (मन बहलाव के लिए घूमना-फिरना) का समन (महत्व देना) करती होंगी और वो भी और होंगी, जो तुम्हारे आगे-पीछे फिरती होंगी. मगर मैं उनमें से नहीं हूँ. मैं यहाँ सिर्फ़ पढ़ने के लिए आती हूँ, तुम जैसों को फंसाने के लिए नहीं और तुम्हें अपने बारे में क्या ख़ुशफ़हमी है? क्या है तुम्हारे पास कि तुम खुद को अन्न-दाता समझने लगे हो. जिन चीज़ों को तुम चंद लम्हों पहले गिनवा रहे थे, मुझे उन सब में कोई दिलचस्पी नहीं है. अपने बारे में तुम्हारे ख़यालात जानकर मुझे हैरत नहीं हुई. वो तब होती, जब तुम मेरे बारे में या किसी भी औरत के बारे में अच्छे ख़यालात का इज़हार करते, मगर तुम्हारा कसूर नहीं है, ये उस तबियत का कसूर है, जो तुम्हें दी गई है, ये उस रुपये का कसूर है, जो तुम्हारे माँ-बाप तुम्हारे लिए कमाते हैं. हैरानगी तो तब होती, जब तुम जैसे लोगों में कोई शरीफ़ हो, किसी का किरदार अच्छा हो और तुम्हारे और तुम्हारे बदकिरदार होने में तो मुझे कोई शुबहा नहीं रहा था.

मैं शायद और बोलती, मगर उसके जोरदार थप्पड़ ने मुझे खामोश कर दिया था. एक लम्हे के लिए मैं साकित हो गई थी, मुझे यकीन नहीं आ रहा था कि वो इतने लोगों के सामने मुझ पर हाथ उठा सकता है. ओसामा और फ़ारूक उसे खींचकर पीछे कर रहे थे और वो ख़ुद को उनकी गिरफ्त से छुड़ाने की कोशिश कर रहा था. सब लोग हमारी तरफ मुतवज्जह (ध्यान देना, चौकस होना, मुखातिब होना) हो चुके थे और वो चीख-चीख कर कह रहा था, “ओसामा छोड़ दो मुझे, ये खुद को समझती क्या है? इसने मुझे बदकिरदार कहा है, मैं इसे बताऊंगा, इसकी औकात क्या है.”

वो दोनों उसे पीछे धकेल रहे थे. फ़ारूक उससे कह रहा था, “बैठ जाओ ज़ारून, तमाशा ना बनाओ यार. तुम्हें ये क्या हो गया है? जो बात है, हम अभी क्लियर कर लेते हैं.”

“जो जैसा होता है, उसे वैसा कहो, तो वह इसी तरह चिल्लाता है, जैसे तुम चिल्ला रहे हो. चोर को चोर कहो, तो उसे तकलीफ होगी.’

मुझे हैरत थी कि मैं उससे खौफ़ज़दा नहीं थी. मेरी बात पर वो फिर भड़क उठा था. ओसामा उसे मजबूती से जकड़े हुए था और वो चिल्ला रहा था, “ओसामा मुझे छोड़ दो, वरना मैं तुम्हे भी मार दूंगा.”

फ़ारूक ने मुझसे कहा था, “कशफ़ आप यहाँ से चली जायें, मैंने उसकी बात सुनी-अनसुनी कर दी थी.

तुमने मुझे इसलिए मारा है, क्योंकि तुम्हारे पास वो सब कुछ है, जिस की बुनियाद पर तुम किसी पर भी हाथ उठा सकते हो और मैं तुम्हें इसलिए नहीं रोक पाई, क्योंकि मेरे पास आज कुछ भी नहीं है. मगर मैं उस वक़्त का इंतजार करूंगी, जब मेरे पास भी इतनी ताकत आ जायेगी कि मैं तुम्हें इससे भी ज़ोरदार थप्पड़ मार सकूं.”

“तुम मरोगी मुझे? तुम हो क्या? औकात क्या है तुम्हारी? मिडिल क्लास की एक लड़की, जिसके माँ-बाप के पास इतने रुपये नहीं कि वो उसकी तमीली अखराजात (ख़र्चे) उठा सकें. जिसके चेहरे पर कोई दूसरी निगाह डालना पसंद नहीं करता, मामूली हैसियत की एक मामूली लड़की.”

“अगर मैं मामूली लड़की हूँ, तो फिर मेरा नाम क्यों लेते हो? ज़िक्र क्यों करते हो? इस कॉलेज में बहुत सी मेरी जैसी लड़कियाँ है. तुम हर एक को तो मामूली नहीं कहते हो और अगर उन्हें भी मामूली कहते हो, तो इसका मतलब है कि मैं मामूली नहीं हूँ. मुझे कोई अफ़सोस नहीं है कि मैं गरीब हूँ. ये शर्म की बात नहीं है कि आपके  पास तालीम हासिल करने के लिए रूपये ना हो, आपके पास अच्छा खाने, अच्छा पहनने के लिए पैसे ना हो, शर्म की बात तो ये है कि आप बदकिरदार हो, आप लोगों को तकलीफ़ पहुँचाते हों, आपको किसी की इज्ज़त करना ना आता हो. काबिल शर्म चीज़ें ये हैं, ग़ुरबत (गरीबी, विवशता) कोई काबिल-ए-शर्म चीज़ नहीं है. तुमने कहा था कोई लड़की ना-काबिल-तस्खीर (जिसे हराना असंभव हो, जिस वशीभूत करना नामुमकिन हो) नहीं होती, तुम्हारा वास्ता इन जैसी लड़कियों से पड़ता रहा है.” मैंने असमारा की तरफ़ इशारा किया था. “हाँ, ये वाकई तस्खीर (जीतना, वश में करना, काबू करना) की जा सकती है, मगर मेरी ऐसी लड़कियों तुमने कभी देखी ही नहीं है. मैं कशफ़ मुर्तज़ा ना–काबिल-तस्खीर (जिसे हराना असंभव हो, जिस वशीभूत करना नामुमकिन हो) हूँ. तुम्हारे जैसे लोग आते-जाते रहते हैं, मेरे जैसे लोग हमेशा रहते हैं. तुमने कहा था कि अगर ये मुझसे फ़्लर्ट करबे में कामयाब हुआ, तो तुम इसे डिनर दोगी. ये शर्त तुम मुझसे लगाओ, अगर ये मुझसे फ़्लर्ट करने में कामयाब हुआ, तो मैं तुम्हें डिनर दूंगी.”

मैंने असमारा से कहा था और वो भड़क उठी थी, “शट अप, मैं तुम्हारे साथ बात करना अपनी इंसल्ट समझती हूँ.”

“कितनी खुद्दार हो तुम? कितनी बुलंद हो तुम? मेरे साथ बात करते हुए इंसल्ट इन्सल्ट होती है. मेरे बारे में बात करते हुए नहीं.”

उसने मेरी बात का जवाब नहीं दिया था, फिर मैं मज़ीद (ज्यादा; जितना उचित हो, उससे अधिक) किसी से कुछ कहे बगैर सीधी हॉस्टल आ गयी थी.

पहले छोटी-छोटी बातों पर मुझे रोना आ जाता था, मगर आज तो मेरी आँखों में एक भी आँसू नहीं आया था. अच्छा है, बहुत अच्छा है. मैं अब रोना चाहती भी नहीं हूँ. मेरे आँसुओं से किसी को क्या फ़र्क पड़ेगा. कौन सा अर्श (आसमान) हिल जायेगा. क्या फायदा होता है ऐसे आँसुओं का, जिससे किसी का दिल मोम ना हो, ना दिमाग कायल. फिर से वो तोड़-फोड़ मेरे अंदर शुरू हो गई है, जिसे मैं बड़ी मुश्किल से रोक पाई थी.

मैंने उससे झूठ बोला था कि उसकी कोई चीज़ मुझे मुतास्सिर (प्रभावित) नहीं करती और दौलत मेरे लिए गैर-अहम् है. हाँ, वो सब मुझे अच्छा लगता है, जो उनके पास है. मगर क्या करूं, मैं ये चीज़ें छीन नहीं सकती हूँ. फिर झूठ बोलने में क्या हर्ज़ है. मुझे अभी तक अपने गाल पर दर्द हो रहा है और इस अज़ीयत को मैं कभी नहीं भूल सकती, ना भूलना चाहूंगी.

आज फिर मुझे शिद्दत से अहसास हो रहा है कि खुदा मुझसे मुहब्बत नहीं करता. उसे मेरी परवाह नहीं है. वैसे जैसे मुझे उसने नहीं, किसी और ने बनाया है. आखिर मैंने ऐसा कौन सा गुनाह किया है. मैं जानती हूँ, मगर फिर भी वो मुझसे नाराज़ है और नाराज़ ही रहता है. अगर मुझे ये यकीन होता कि उसे मुझसे मुहब्बत है, तो शायद ज़िन्दगी इतनी मुश्किल नहीं लगती, मगर उसने मेरे नसीब में बस ज़िल्लतें लिख दी. वो मुझे सिर्फ़ ज़िल्लत देना चाहता है. मेरा दिल जानता है. मैं उसे ज़ोर-ज़ोर से आवाजें दूं, चिल्लाऊं, ख़ूब जोर से चिल्लाऊ, उसे बता दूं कि वो मुझे कितनी तकलीफ पहुँचा रहा है, मगर मैं….      

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