चैप्टर 41 : ज़िन्दगी गुलज़ार है नॉवेल | Chapter 41 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

Chapter 41 Zindagi Gulzar Hai Novel In Hindi

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१७ मार्च कशफ़

शादी के चार महीने बाद मैंने उसके घर का रिश्ता हमेशा के लिए छोड़ दिया. पता नहीं मैंने गलत किया या सही, मगर यह सब होना ही था. अगर मैं ख़ुद उसका घर नहीं छोड़ती, तो कुछ दिनों बाद वह ख़ुद मुझे घर से निकाल देता. मेरा उससे शादी का फैसला गलत था. हम दोनों दो मुख्तलिफ़ (अलग) लोग हैं. मगर अफ़सोस मुझे इस बात का है कि उसे मेरे किरदार पर शुबहा (शक, संदेह)  है, एक ऐसा शख्स जिसका अपना कोई किरदार नहीं है. उसका रवैया -ब-दिनदिन अजीब होता गया था. पहले वह नरमी से मुझे अपनी बात मानने पर मजबूर करता था. फिर सख्ती करने लगा. मैं उसकी हर नाज़ायज बात भी सिर्फ़ इसलिए मान लेती थी क्योंकि मैं अपना घर पर बर्बाद नहीं करना चाहती थी. लेकिन कल के वाक़िये  के बाद मेरे लिए मज़ीद  कुछ बर्दाश्त करना नामुमकिन हो गया था.

कल रात को खाना खाने के बाद वो एक किताब लेकर बेड पर बैठ गया था. मैं ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठकर अपने बालों में ब्रश कर रही थी, जब मुझे यूं लगा जैसे वो बड़े गौर से मुझे देख रहा था. मगर मैंने इस बात को नज़रअंदाज किया.

“कशफ़!एक बात पूछूं.” उसने अचानक मुझे चौंका दिया. मैं बालों में ब्रश करना रोक दिया और मुड़कर उसकी तरफ़ देखने लगी.

“यह जो तुम्हारा बड़ा बहनोई है अजहर, सुना है उसका प्रपोजल पहले तुम्हारे लिए आया था और वह  तुम्हें काफ़ी पसंद करता था.”

“वह मुझे पसंद करता था या नहीं, यह तो मैं नहीं जानती. हाँ, उसका प्रपोजल ज़रूर मेरे लिए आया था.”  मैंने जवाब दिया.

“फिर तुमने उसका प्रपोजल कबूल क्यों नहीं किया.”

“क्योंकि उस वक्त मुझे शादी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. मुझ पर बहुत ज्यादा जिम्मेदारियाँ थीं.”

“’तुम झूठ बोल रही हो. असल में उसकी अम्मी को आसमा तुमसे ज्यादा पसंद आ गई थी, क्योंकि वह ज्यादा ख़ूबसूरत है. इसलिए उन्होंने अज़हर को आसमा से शादी पर मजबूर कर दिया. वैसे कशफ़ तुम  लाहौर में पढ़ती थी, अज़हर भी वही इंजीनियरिंग यूनिवर्सिटी में होता था. तुम लोगों की अक्सर मुलाकात होती होगी.”

मैं उसकी बातों पर बिल्कुल सन्न रह गई थी. मेरे तसव्वुर (कल्पना) में भी नहीं था कि वह कभी मुझसे ऐसी बात करेगा. कुछ देर तक मैं बिल्कुल बोल नहीं सकी. वह मुझे इतनी गहरी नज़रों से देख रहा था, जैसे मैं कोई मुज़रिम हूँ और उसने मुझे जुर्म करते हुए पकड़ लिया था.

“ज़ारून तुम क्या कह रहे हो, मेरे समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा.” मैंने उससे कहा.

‘हालांकि मैंने कोई मुश्किल बात नहीं की थी. वैसे अगर मैं तुम्हारी जगह होता और कोई मेरी इंसल्ट करता और फिर मुझे प्रपोज़ करता, तो मैं कभी उससे शादी ना करता. लेकिन तुमने मुझे शादी कर ली, सब कुछ भूल कर. क्या यह हैरत की बात नहीं? शायद नहीं ,क्योंकि तुम्हारी जैसी औरतें मेरे जैसा मर्द  देखकर ही सब कुछ भूल जाती हैं, चाहे वह पुराना महबूब ही क्यों ना हो.”

“बहुत हो गया. मैं इससे ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर सकती. तुम्हें जो कहना है साफ़-साफ़ कहो.”

मैं खड़ी हो गई.वह मेरी बात पर बड़े अजीब अंदाज़ में मुस्कुराया.

“कशफ़ याद है, जब मैंने तुम्हें यूनिवर्सिटी में थप्पड़ मारा था, तो तुमने कहा था जो शख्स जैसा हो, उसे वैसी गाली दो, तो वह उसी तरह तड़पता है, जैसे मैं तड़प रहा हूँ. आज तुम्हारा रवैया भी वैसा ही नहीं है? जब मैंने मॉम के सामने शादी के लिए तुम्हारा नाम लिया था, तो उन्होंने कहा था कशफ़ में ऐसी कौन सी बात है, जो तुम्हें मुतासिर (प्रभावित) करती है और मैंने कहा था – उसका कैरेक्टर . तब उन्होंने कहा था तुम मिडिल क्लास की  लड़कियों को नहीं जानते ,यह इतनी पारसा (पवित्र) होती नहीं है, जितना ज़ाहिर करती हैं और मेरा ख़याल है यह सही था.”

मुझे उसकी बात गाली की तरह लगी थी. अपने शौहर के मुँह से अपने किरदार के बारे में ऐसी बात सुनना बहुत तकलीफ़देह होता है. फिर मैंने उससे पूछा था –

“तो तुम्हारा ख़याल है कि मैं करप्ट थी?”

“मैं क्या कह सकता हूँ. अपने बारे में तुम ज्यादा बेहतर जानती हो.”

यह कहकर उसने किताब खोल ली थी. मेरे तन-बदन में आग लग गई थी. मैंने उसके हाथ से किताब छीनकर दूर उछाल दी.

तुम्हें मेरे किरदार पर शुबहा है, मगर अपने किरदार के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?”

मैं चिल्लाई थी और उसने संज़ीदगी से कहा था –

“वह किताब उठाकर मुझे दे दो और अपनी आवाज आहिस्ता करो. ये मेरा घर है और मैं यहाँ किसी का चिल्लाना पसंद नहीं करता.”

मुझे ना तुम्हारी परवाह है और न तुम्हारे घर की.” मैं एक बार फिर चिल्लाने लगी, “तुम एक फ्लर्ट होकर मेरे बारे में यह कह रहे हो कि तुम्हें मेरे किरदार पर शक़ है. ख़ुद क्या हो तुम. किस-किस के साथ अय्याशियाँ करते रहे और फिर भी तुम्हें मुझ पर शक़ है.”

“बेहतर है तुम अपना मुँह बंद कर लो. मैं तुम्हारी बकवास बर्दाश्त नहीं करूंगा.”

“मैं अपना मुँह बंद नहीं करूंगी. मेरी बातें बकवास है, तो तुम्हारी बातें क्या है? तुम वाकई ज़लील इंसान हो और तुम्हें औरत की इज्ज़त करना भी नहीं आएगा.”

मैं शायद उससे और भी बहुत कुछ कहती, मगर उसका थप्पड़ मुझे खामोश पर गया था,”मैं तुम जैसी औरत की इज्ज़त करना चाहता भी नहीं. अपना मुँह बंद रखा करो. मैं तुम पर हाथ उठाने से गुरेज़ नहीं करूंगा.”

चंद लम्हे इसी ख़ामोशी से देखने के बाद मैं ड्रेसिंग रूम में चली गई. बैग में अपनी चीजें रखने के बाद जब मैं दोबारा बेडरूम में आई, तो वह फिर किताब हाथ में लिए हुए था.

“मैं जा रही हूँ.”

“शौक से जाओ. मैं तुम्हें रोकने का कोई इरादा नहीं रखता. हाँ, यह बात ज़रूर याद रखना कि अगर आज यहाँ से जाओगी, तो दोबारा वापस नहीं आ सकोगी. अगर फिर भी जाना चाहती हो, तो जाओ. मैं चंद दिनों तक तुम्हें तलाक़ भिजवा दूंगा.”

उसने किताब से नज़रें उठाये बगैर कहा था.

“मैं खुद भी दोबारा यहाँ नहीं आना चाहती और यह तुम्हारी मेहरबानी होगी, अगर तुम मुझे जल्द से जल्द तलाक़ भिजवा दो. तुमने हक़-ए-महर (बीवी का अपने शौहर से महर वसूल करने का हक़) के तौर पर जो रकम मुझे दी थी, वह बैंक में है. मैं चेक बुक पर साइन कर दिया है ,तो उसे निकलवा सकते हो. हर माह में पंद्रह हज़ार तुम मुझे दिया करते थे, वह भी बैंक अकाउंट में जमा करवा देती थी, उसी अकाउंट में. यह वॉर्डरोब की चाभियाँ है. दराज में वह सारे जज़ेवरात मौजूद है, जो तुमने मुझे दिए थे.मैं अपने साथ अपनी चीजें लेकर जा रही हूँ, जो मेरे जाति रुपए से खरीदी गई है. तुम चाहो तो बैग चेक कर सकते हो.”

“दरवाजे को ठीक से बंद करके जाना.”

ये वो वाहिद (अकेला) फिकरा था, जो उसने मेरी बातों के जवाब में कहा था. अगर मैं एक लम्हा भी वहाँ मज़ीद खड़ी रहती, तो फूट-फूट कर रोना शुरू कर देती.

जिस पहर मैं वहाँ से निकली, तो यह नहीं जानती थी कि कहाँ जाऊं. फिर मैं अपनी कार में एम.एन.ए. हॉस्टल चली गई थी. इशारों में एक बार मुझे रुकने के लिए नहीं कहा था. शायद वह मुझे रुकना चाहता ही नहीं था. अगर वह मुझे रुकने के लिए कहता, तो शायद मैं रुक जाती. मैं अपना घर पर बर्बाद नहीं करना चाहती थी या शायद मैं उससे बहुत मोहब्बत करती हूँ, इसलिए कि वो मेरी ज़िन्दगी में आने वाला वाहिद (अकेला) मर्द है, जो मुझे मुहब्बत के ख्वाब दिखाता रहा. जिसने मेरे होने का एहसास दिलाया. लाख चाहने के बावजूद मैं उसे नफ़रत नहीं कर सकती, ना कभी कर सकूंगी.

मुझे नेकी का बहुत अच्छा अज्र (फ़ल) मिला था. मैंने अज़हर के प्रपोजल से अपनी बहन के हक में इसलिए दस्त बरदार (अलग हुई थी) हुई थी, ताकि उसकी शादी किसी अच्छी जगह हो जाए. लेकिन उस अय्यार (clever action) का मुझे यह सिला मिला. अज़हर का नाम दाग की तरह मेरे दामन पर लगा दिया गया. ख़ुदा ने कभी मेरे साथ इंसाफ़ नहीं किया और मुझे उससे इसकी तवक्को (उम्मीद) भी नहीं है. ज़ारून भी ख़ुदा के हाथों में एक पुतली है, उसकी भी क्या गलती है. यह तो यह तो ख़ुदा है, जो मुझे रुसवा करना चाहता है. मुझे देखना है, वो मुझसे और -क्या क्या छीनेगा.

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