चैप्टर 28 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 28 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 28 Gaban Novel By Munshi Premchand

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कलकत्ता में वकील साहब ने ठरहने का पहले ही इंतज़ाम कर लिया था। कोई कष्ट न हुआ। रतन ने महराज और टीमल कहार को साथ ले लिया था। दोनों वकील साहब के पुराने नौकर थे और घर के-से आदमी हो गए थे। शहर के बाहर एक बंगला था। उसके तीन कमरे मिल गए। इससे ज्यादा जगह की वहां जरूरत भी न थी। हाते में तरह-तरह के फल-पौधो लगे हुए थे। स्थान बहुत सुंदर मालूम होता था। पास-पड़ोस में और कितने ही बंगले थे। शहर के लोग उधर हवाखोरी के लिए जाया करते थे और हरे होकर लौटते थे, पर रतन को वह जगह फाड़े खाती थी। बीमार के साथ वाले भी बीमार होते हैं। उदासों के लिए स्वर्ग भी उदास है। सगष्र ने वकील साहब को और भी शिथिल कर दिया था। दो-तीन दिन तो उनकी दशा उससे भी ख़राब रही, जैसी प्रयाग में थी, लेकिन दवा शुरू होने के दो-तीन दिन बाद वह कुछ संभलने लगे। रतन सुबह से आधी रात तक उनके पास ही कुर्सी डाले बैठी रहती। स्नान-भोजन की भी सुधि न रहती। वकील साहब चाहते थे कि यह यहां से हट जाय तो दिल खोलकर कराहें। उसे तस्कीन देने के लिए वह अपनी दशा को छिपाने की चेष्टा करते रहते थे। वह पूछती, आज कैसी तबीयत है? तो वह फीकी मुस्कराहट के साथ कहते, ‘आज तो जी बहुत हल्का मालूम होता है।’ बेचारे सारी रात करवटें बदलकर काटते थे, पर रतन पूछती, ‘रात नींद आई थी?’ तो कहते, ‘हाँ, खूब सोया।’रतन पथ्य सामने ले जाती, तो अरूचि होने पर भी खा लेते। रतन समझती, अब यह अच्छे हो रहे हैं। कविराज जी से भी वह यही समाचार कहती। वह भी अपने उपचार की सफलता पर प्रसन्न थे। एक दिन वकील साहब ने रतन से कहा, ‘मुझे डर है कि मुझे अच्छा होकर तुम्हारी दवा न करनी पड़े।’

रतन ने प्रसन्न होकर कहा, ‘इससे बढ़कर क्या बात होगी। मैं तो ईश्वर से मनाती हूं कि तुम्हारी बीमारी मुझे दे दें। ‘शाम को घूम आया करो। अगर बीमार पड़ने की इच्छा हो, तो मेरे अच्छे हो जाने पर पड़ना।’

‘कहाँ जाऊं, मेरा तो कहीं जाने को जी ही नहीं चाहता। मुझे यहीं सबसे अच्छा लगता है।’

वकील साहब को एकाएक रमानाथ का ख़याल आ गया। बोले, ‘ज़रा शहर के पार्को में घूम-घाम कर देखो, शायद रमानाथ का पता चल जाय। रतन को अपना वादा याद आ गया। रमा को पा जाने की आनंदमय आशा ने एक क्षण के लिए उसे चंचल कर दिया। कहीं वह पार्क में बैठे मिल जाएं, तो पूछूं कहिए बाबूजी, अब कहां भागकर जाइएगा? इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल उठी। बोली, ‘जालपा से मैंने वादा तो किया था कि पता लगाऊंगी,पर यहाँ आकर भूल गई।’

वकील साहब ने साग्रह कहा, ‘आज चली जाओ। आज क्या, शाम को रोज़ घंटे-भर के लिए निकल जाया करो।’

रतन ने चिंतित होकर कहा, ‘लेकिन चिंता तो लगी रहेगी।’

वकील साहब ने मुस्कराकर कहा, ‘मेरी? मैं तो अच्छा हो रहा हूँ।’

रतन ने संदिग्ध भाव से कहा, ‘अच्छा, चली जाऊंगी।’

रतन को कल से वकील साहब के आश्वासन पर कुछ संदेह होने लगा था। उनकी चेष्टा से अच्छे होने का कोई लक्षण उसे न दिखाई देता था। इनका चेहरा क्यों दिन-दिन पीला पड़ता जाता है! इनकी आँखें क्यों हरदम बंद रहती हैं! देह क्यों दिन-दिन घुलती जाती है! महराज और कहार से वह यह शंका न कह सकती थी। कविराज से पूछते उसे संकोच होता था। अगर कहीं रमा मिल जाते, तो उनसे पूछती। वह इतने दिनों से यहां हैं, किसी दूसरे डाक्टर को दिखाती। इन कविराज जी से उसे कुछ-कुछ निराशा हो चली थी। जब रतन चली गई, तो वकील साहब ने टीमल से कहा, ‘मुझे ज़रा उठाकर बिठा दो,टीमल, पड़े-पड़े कमर सीधी हो गई। एक प्याली चाय पिला दो। कई दिन हो गए, चाय की सूरत नहीं देखी। यह पथ्य मुझे मारे डालता है। दूध देखकर ज्वर चढ़ आता है, पर उनकी ख़ातिर से पी लेता हूँ! मुझे तो इन कविराज की दवा से कोई फायदा नहीं मालूम होता। तुम्हें क्या मालूम होता है?’

टीमल ने वकील साहब को तकिए के सहारे बैठाकर कहा, ‘बाबूजी सो देख लेव, यह तो मैं पहले ही कहने वाला था। सो देख लेव, बहूजी के डर के मारे नहीं कहता था।’

वकील साहब ने कई मिनट चुप रहने के बाद कहा, ‘मैं मौत से डरता नहीं, टीमल! बिलकुल नहीं। मुझे स्वर्ग और नरक पर बिलकुल विश्वास नहीं है। अगर संस्कारों के अनुसार आदमी को जन्म लेना पड़ता है, तो मुझे विश्वास है, मेरा जन्म किसी अच्छे घर में होगा। फिर भी मरने को जी नहीं चाहता। सोचता हूँ, मर गया तो क्या होगा।’

टीमल ने कहा, ‘बाबूजी सो देख लेव, आप ऐसी बातें न करें। भगवान चाहेंगे, तो आप अच्छे हो जाएंगे। किसी दूसरे डाक्टर को बुलाऊं- आप लोग तो अंगरेज़ी पढ़े हैं, सो देख लेव, कुछ मानते ही नहीं, मुझे तो कुछ और ही संदेह हो रहा है। कभी-कभी गंवारों की भी सुन लिया करो। सो देख लेव,आप मानो चाहे न मानो, मैं तो एक सयाने को लाऊंगा। बंगाल के ओझे-सयाने मसहूर हैं।’

वकील साहब ने मुँह उधर लिया। प्रेत-बाधा का वह हमेशा मज़ाक उडाया करते थे। कई ओझों को पीट चुके थे। उनका ख़याल था कि यह प्रवंचना है, ढोंग है, लेकिन इस वक्त उनमें इतनी शक्ति भी न थी कि टीमल के इस प्रस्ताव का विरोध करते। मुँह उधर लिया।

महराज ने चाय लाकर कहा, ‘सरकार, चाय लाया हूँ।’

वकील साहब ने चाय के प्याले को क्षुधित नजरों से देखकर कहा, ‘ले जाओ, अब न पीऊंगा। उन्हें मालूम होगा, तो दुखी होंगी। क्यों महराज, जब से मैं आया हूँ, मेरा चेहरा कुछ हरा हुआ है?’

महराज ने टीमल की ओर देखा। वह हमेशा दूसरों की राय देखकर राय दिया करते थे। ख़ुद सोचने की शक्ति उनमें न थी। अगर टीमल ने कहाँ है,आप अच्छे हो रहे हैं, तो वह भी इसका समर्थन करेंगे। टीमल ने इसके विरुद्ध कहा है, तो उन्हें भी इसके विरुद्ध ही कहना चाहिए। टीमल ने उनके असमंजस को भांपकर कहा, ‘हरा क्यों नहीं हुआ है, हाँ, जितना होना चाहिए उतना नहीं हुआ।’

महराज बोले, ‘हां, कुछ हरा जरूर हुआ है, मुदा बहुत कम।’

वकील साहब ने कुछ जवाब नहीं दिया। दो-चार वाक्य बोलने के बाद वह शिथिल हो जाते थे और दस-पांच मिनट शांत अचेत पड़े रहते थे। कदाचित उन्हें अपनी दशा का यथार्थ ज्ञान हो चुका था। उसके मुख पर, बुद्धि पर, मस्तिष्क पर मृत्युकी छाया पड़ने लगी थी। अगर कुछ आशा थी,तो इतनी ही कि शायद मन की दुर्बलता से उन्हें अपनी दशा इतनी हीन मालूम होती हो उनका दम अब पहले से ज्यादा फलने लगा था। कभी-कभी तो ऊपर की सांस ऊपर ही रह जाती थी। जान पड़ता था, बस अब प्राण निकला। भीषण प्राण-वेदना होने लगती थी। कौन जाने, कब यही अवरोध एक क्षण और बढ़कर जीवन का अंत कर दे।

सामने उद्यान में चांदनी द्दहरे की चादर ओढ़े, ज़मीन पर पड़ी सिसक रही थी। फल और पौधो मलिन मुख, सिर झुकाए, आशा और भय से विकल हो-होकर मानो उसके वक्ष पर हाथ रखते थे, उसकी शीतल देह को स्पर्श करते थे और आंसू की दो बूंदें गिराकर फिर उसी भांति देखने लगते थे। सहसा वकील साहब ने आंखन खोलीं। आंखों के दोनों कोनों में आँसू की बूंदें मचल रही थीं।
क्षीण स्वर में बोले, ‘टीमल! क्या सिद्धू आए थे?’

फिर इस प्रश्न पर आप ही लज्जित हो मुस्कराते हुए बोले, ‘मुझे ऐसा मालूम हुआ, जैसे सिद्धू आए हों।’

फिर गहरी सांस लेकर चुप हो गए, और आंखें बंद कर लीं। सिद्धू उस बेटे का नाम था, जो जवान होकर मर गया था। इस समय वकील साहब को बराबर उसी की याद आ रही थी। कभी उसका बालपन सामने आ जाता, कभी उसका मरना आगे दिखाई देने लगता,कितने स्पष्ट, कितने सजीव चित्र थे। उनकी स्मृति कभी इतनी मूर्तिमान, इतनी चित्रमय न थी। कई मिनट के बाद उन्होंने फिर आंखें खोलीं और इधर-उधर खोई हुई आंखों से देखा। उन्हें अभी ऐसा जान पड़ता था कि मेरी माता आकर पूछ रही हैं, ‘बेटा, तुम्हारा जी कैसा है?’

सहसा उन्होंने टीमल से कहा, ‘यहां आओ। किसी वकील को बुला लाओ, जल्दी जाओ, नहीं वह घूमकर आती होंगी।’

इतने में मोटर का हार्न सुनाई दिया और एक पल में रतन आ पहुंची। वकील को बुलाने की बात उड़ गई। वकील साहब ने प्रसन्न-मुख होकर पूछा, ‘कहाँ?कहाँ गई?कुछ उसका पता मिला?’

रतन ने उनके माथे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘कई जगह देखा। कहीं न दिखाई दिए। इतने बडे शहर में सड़कों का पता तो जल्दी चलता नहीं, वह भला क्या मिलेंगे। दवा खाने का समय तो आ गया न?’

वकील साहब ने दबी ज़बान से कहा, ‘लाओ, खा लूं।’

रतन ने दवा निकाली और उन्हें उठाकर पिलाई। इस समय वह न जानेक्यों कुछ भयभीत-सी हो रही थी। एक अस्पष्ट, अज्ञात शंका उसके ह्रदय को दबाए हुए थी। एकाएक उसने कहा, ‘उन लोगों में से किसी को तार दे दूं?’

वकील साहब ने प्रश्न की आँखों से देखा। फिर आप ही आप उसका आशय समझकर बोले, ‘नहीं-नहीं, किसी को बुलाने की जरूरत नहीं। मैं अच्छा हो रहा हूँ।’

फिर एक क्षण के बाद सावधान होने की चेष्टा करके बोले, ‘मैं चाहता हूँ कि अपनी वसीयत लिखवा दूं।’

जैसे एक शीतल, तीव्र बाण रतन के पैर से घुसकर सिर से निकल गया। मानो उसकी देह के सारे बंधन खुल गए, सारे अवयव बिखर गए, उसके मस्तिष्क के सारे परमाणु हवा में उड़ गए। मानो नीचे से धारती निकल गई, ऊपर से आकाश निकल गया और अब वह निराधार, निस्पंद, निर्जीव खड़ी है। अवरूद्ध, अश्रुकंपित कंठ से बोली-घर से किसी को बुलाऊं? यहां किससे सलाह ली जाए? कोई भी तो अपना नहीं है।

‘अपनों’ के लिए इस समय रतन अधीर हो रही थी। कोई भी तो अपना होता, जिस पर वह विश्वास कर सकती, जिससे सलाह ले सकती। घर के लोग आ जाते, तो दौड़-धूप करके किसी दूसरे डाक्टर को बुलाते। वह अकेली क्या? क्या करे- आख़िर भाई-बंद और किस दिन काम आवेंगे। संकट में ही अपने काम आते हैं। फिर यह क्यों कहते हैं कि किसी को मत बुलाओ!

वसीयत की बात फिर उसे याद आ गई! यह विचार क्यों इनके मन में आया? वैद्य जी ने कुछ कहा तो नहीं? क्या होने वाला है, भगवान! यह शब्द अपने सारे संसर्गो के साथ उसके ह्रदय को विदीर्ण करने लगा। चिल्ला-चिल्लाकर रोने के लिए उसका मन विकल हो उठा। अपनी माता याद आई। उसके आँचल में मुँह छिपाकर रोने की आकांक्षा उसके मन में उत्पन्न हुई। उस स्नेहमय आँचल में रोकर उसकी बाल-आत्मा को कितना संतोष होता था। कितनी जल्द उसकी सारी मनोव्यथा शांत हो जाती थी। आह! यह आधार भी अब नहीं। महराज ने आकर कहा, ‘सरकार, भोजन तैयार है। थाली परसूं?’

रतन ने उसकी ओर कठोर नजरों से देखा। वह बिना जवाब की अपेक्षा किए चुपके-से चला गया।

मगर एक ही क्षण में रतन को महराज पर दया आ गई। उसने कौन-सी बुराई की जो भोजन के लिए पूछने आया। भोजन भी ऐसी चीज़ है, जिसे कोई छोड़ सके! वह रसोई में जाकर महराज से बोली, ‘तुम लोग खा लो, महराज! मुझे आज भूख नहीं लगी है।’

महराज ने आग्रह किया, ‘दो ही फुलके खा लीजिए, सरकार!’

रतन ठिठक गई। महराज के आग्रह में इतनी सह्रदयता, इतनी संवेदना भरी हुई थी कि रतन को एक प्रकार की सांत्वना का अनुभव हुआ। यहां कोई अपना नहीं है, यह सोचने में उसे अपनी भूल प्रतीत हुई। महराज ने अब तक रतन को कठोर स्वामिनी के रूप में देखा था। वही स्वामिनी आज उसके सामने खड़ी मानो सहानुभूति की भिक्षा मांग रही थी। उसकी सारी सदवृत्तियां उमड़ उठीं।

रतन को उसके दुर्बल मुख पर अनुराग का तेज़ नज़र आया। उसने पूछा, ‘क्यों महराज, बाबूजी को इस कविराज की दवा से कोई लाभ हो रहा है?’

महराज ने डरते-डरते वही शब्द दुहरा दिए, जो आज वकील साहब से कहे थे,कुछ-कुछतो हो रहा है, लेकिन जितना होना चाहिए उतना नहीं।

रतन ने अविश्वास के अंदाज से देखकर कहा,तुम भी मुझे धोखा देते हो, महराज!

महराज की आँखें डबडबा गई। बोले, ‘भगवान सब अच्छा ही करेंगे बहूजी, घबडाने से क्या होगा। अपना तो कोई बस नहीं है।’

रतन ने पूछा, ‘यहाँ कोई ज्योतिषी न मिलेगा? ज़रा उससे पूछते। कुछ पूजापाठ भी करा लेने से अच्छा होता है।’

महराज ने तुष्टि के भाव से कहा, ‘यह तो मैं पहले ही कहने वाला था, बहूजी! लेकिन बाबूजी का मिजाज तो जानती हो इन बातों से वह कितना बिगड़ते हैं।’

रतन ने दृढ़ता से कहा, ‘सबेरे किसी को जरूर बुला लाना।’

‘सरकार चिढ़ेंगे!’

‘मैं तो कहती हूँ।’

यह कहती हुई वह कमरे में आई और रोशनी के सामने बैठकर जालपा को पत्र लिखने लगी,

‘बहन, नहीं कह सकती, क्या होने वाला है। आज मुझे मालूम हुआ है कि मैं अब तक मीठे भ्रम में पड़ी हुई थी। बाबूजी अब तक मुझसे अपनी दशा छिपाते थे, मगर आज यह बात उनके काबू से बाहर हो गई। तुमसे क्या कहूं, आज वह वसीयत लिखने की चर्चा कर रहे थे। मैंने ही टाला। दिल घबडा रहा है ।हन, जी चाहता है, थोड़ी-सी संखिया खाकर सो रहूं। विधाता को संसार दयालु, कृपालु, दीन?बंधु और जाने कौन?कौन?सी उपाधियां देता है। मैं कहती हूँ, उससे निर्दयी, निर्मम, निष्ठुर कोई शत्रु भी नहीं हो सकता पूर्वजन्म का संस्कार केवल मन को समझाने की चीज़ है। जिस दंड का हेतु ही हमें न मालूम हो, उस दंड का मूल्य ही क्या! वह तो ज़बर्दस्त की लाठी है, जो आघात करने के लिए कोई कारण गढ़लेती है। इस अंधेरे, निर्जन, कांटों से भरे हुए जीवन-मार्ग में मुझे केवल एक टिमटिमाता हुआ दीपक मिला था। मैं उसे अंचल में छिपाए, विधि को धन्यवाद देती हुई, गाती चली जाती थी, पर वह दीपक भी मुझसे छीना जा रहा है। इस अंधकार में मैं कहां जाऊंगी, कौन मेरा रोना सुनेगा,कौन मेरी बांह पकड़ेगा। बहन, मुझे क्षमा करना। मुझे बाबूजी का पता लगाने का अवकाश नहीं मिला। आज कई पार्को का चक्कर लगा आई, पर कहीं पता नहीं चला। कुछ अवसर मिला तो फिर जाऊंगी।

‘माताजी को मेरा प्रणाम कहना। ‘

पत्र लिखकर रतन बरामदे में आई। शीतल समीर के झोंके आ रहे थे। प्रकृति मानो रोग-शय्या पर पड़ी सिसक रही थी। उसी वक्त वकील साहब की सांस वेग से चलने लगी।

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