चैप्टर 5 गुनाहों का देवता : धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 5 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 5 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 5 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

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दूसरे दिन जब चंदर डॉ० शुक्ला के यहाँ निबंध की प्रतिलिपि लेकर पहुँचा, तो आठ बज चुके थे। सात बजे तो चंदर की नींद ही खुली थी और जल्दी से वह नहा-धो कर साइकिल दौड़ाता हुआ भागा था कि कहीं भाषण की प्रतिलिपि पहुँचने में देर न हो जाये।

जब वह बंगले पर पहुँचा, तो धूप फैल चुकी थी। अब धूप भली नहीं मालूम देती थी, धूप की तेजी बर्दाश्त के बाहर होने लगी थी, लेकिन सुधा ‘नीलकांटे के ऊँचे-ऊँचे झाड़ों की छाँह मे एक छोटी सी कुर्सी डाले बैठी थी। बगल में एक छोटी-सी मेज थी, जिस पर कोई किताब खुली हुई रखी थी, हाथ में क्रोशिया थी और उंगलियाँ एक नाजुक तेजी से डोरे से उलझ सुलझ रही थी। हल्की बादामी रंग की इकलाई की लहराती हुई घोती, नारंगी और काली तिरछी घारियों का कलफ किया चुस्त ब्लाउज और एक कंधे पर उभरा हुआ उस का पफ ऐसा लग रहा था जैसे कि बांह पर कोई रंगीन तितली आकर बैठ गयी हो और उसका सिर्फ एक पंख उठा हो। अभी-अभी शायद नहकर उठी थी क्योंकि शरद की खुशनुमा धूप की तरह हल्के सुनहले वाल पीठ पर लहरा रहे थे| नीलकांटे की टहनियो की सुनहली लहरें समझ कर अठखेलियाँ कर रही थीं।

चंदर की साइकिल जब अंदर दिख पड़ी, तो सुधा ने उधर देखा, लेकिन कुछ भी न कहकर फिर अपनी क्रोशिया बुनने में लग गयी। चंदर सीधा पोर्टिको में गया और अपनी साइकिल रखकर भीतर चला गया डॉक्टर शुक्ला के पास। स्टडी में, बैठक में, सोने के कमरे में कहीं भी डॉक्टर शुक्ला नहीं नज़र आये। हारकर वह बाहर आया, तो देखा मोटर अभी गैरेज में है। तो वे जा कहाँ सकते है? और सुधा को तो देखिए। क्या अकड़ी हुई है आज, जैसे चंदर को जानती ही नहीं। चंदर सुधा के पास गया। सुधा का मुँह और भी लटक गया।

“डॉक्टर साहब कहाँ हैं?” चंदर ने पूछा।

“हमें क्या मालूम?” सुधा ने क्रोशिया पर से बिना निगाह उठाये जवाब दिया जवाब दिया।

“तो किसे मालूम होगा?” चंदर ने डांटते हुए कहा, “हर वक़्त का मजाक हमें  अच्छा नहीं लगता। काम की बात का उसी तरह जवाब देना चाहिए। उनके निबंध की लिपि देनी है या नहीं!”

“हाँ हाँ, देनी है तो मैं क्या करूं? नहा रहे होंगे अभी। कोई ये तो है नहीं कि तुम निबंध की लिपि लाये हो, तो कोई नहाये-धोये न, बस सुबह से बैठा रहे कि अब निबंध आ रहा है, अब आ रहा है।” सुधा ने मुँह बना कर आँखें नचाते हुए कहा।

“तो सीधे क्यों नहीं कहती कि नहा रहे हैं।” चंदर ने सुधा के गुस्से पर हँसकर कहा। चंदर की हँसी पर तो सुधा का मिज़ाज़ और भी बिगड़ गया और अपनी क्रोशिया उठाकर और किताब बगल में दबाकर वह उठकर अंदर चल दी। उसके उठते ही चंदर आराम से उस कुर्सी पर बैठ गया और मेज पर टांग फैलाकर बोला, “आज मुझे बहुत गुस्सा चढ़ा है, खबरदार कोई बोलना मत।”

सुधा जाते-जाते मुड़कर खड़ी हो गयी।

“हमने कह दिया चंदर एक बार कि हमें ये सब बातें अच्छी नहीं लगती। जब  देखो, तुम चिढ़ाते रहते हो।” सुधा ने गुस्से से कहा।

“नहीं! चिढ़ायेंगे नहीं, तो पूजा करेंगे! तुम अपने मौके पर छोड देती हो!” चंदर ने उसी लापरवाही से कहा।

सुधा गयी नहीं। वहीँ घास पर बैठ गयी और किताब खोलकर पढ़ने लगी। जब पाँच मिनिट तक वह कुछ नहीं बोली, तो चंदर ने सोचा, आज बात कुछ गंभीर है।

“सुधा!” उसने बड़े दुलार से पुकारा, “सुधा!”

सुधा ने कुछ नहीं कहा, मगर दो बड़े-बड़े आँसू टप से नीचे किताब पर गिर गये।

“अरे क्या बात है सुधा, नहीं बताओगी?”

“कुछ नहीं।”

“बता दो तुम्हें हमारी क़सम है।”

“कल शाम को तुम आये नहीं…” सुधा रोनी आवाज़ में बोली।

“बस, इस बात पर इतनी नाराज़ हो, पागल।”

“हाँ, इस बात पर इतनी नाराज़ हूँ। तुम आओ चाहे हजार बार न आओ, इस पर हम क्यों नाराज़ होंगे। बड़े कहीं के आये, नहीं आयेंगे, तो जैसे हमारा घर-बार नहीं है। अपने को जाने क्या समझ लिया है। ” सुधा ने चिढ़कर जवाब दिया।

“अरे तो तुम्हीं तो कह रही थी भाई।” चंदर ने हँस कर कहा।

“तो पूरी वात तो सुनो। शाम को गेसू का नौकर आया था। उसके छोटे भाई हसरत की सालगिरह थी। सुबह ‘कुरानखानी’ होने वाली थी और  उसकी माँ ने बुलाया था।”

“तो गयी क्यों नहीं?”

“गयी क्यों नहीं। किससे पूछ कर जाती? आप तो इस वक्त आ रहे हैं, जब सब खत्म हो गया।” सुधा बोली।

“तो पापा से पूछ के चली जाती।” चंदर ने समझा कर कहा, “और फिर गेसू के यहाँ तो यों ही अक्सर र जाती हो तुम!”

“तो? आज तो डांस भी करने के लिए कहा था उसने। फिर बाद में तुम कहते, ‘सुधा, तुम्हें ये नहीं करना चाहिए, वो नहीं करना चाहिए। लड़कियों को ऐसे रहना चाहिए, वैसे रहना चाहिए।’ और बैठ के उपदेश पिलाते नौर नाराज़ होते। बिना तुमसे पूछे हम कहीं सिनेमा, पिकनिक, जलसों में गये हैं कभी?” और फिर उसके आँसू टपक पड़े।

“पगली कहें की। इतनी सी बात पर रोना क्या? किसी के हाथ कुछ उपहार भेज दो और फिर किसी मौके पर चली जाना।”

“हाँ चली जाना! तुम्हें कहते क्या लगता है। गेसू ने कितना बुरा माना होगा।” सुधा ने बिगड़ते हुए ही कहा, “फिर इम्तहान आ रहा है, फिर कब जायेंगे?”

“कब है इम्तहान तुम्हारा “

“चाहे जव हो। मुझे पढ़ाने के लिए कहा किसी से?”

“अरे भूल गये। अच्छा आज देखो कहेंगे।”

“कहेंगे-कहेंगे नहीं, आज दोपहर को आप बुला लाइये, वरना हम सब किताबों में लगाये देते है आग। समझे कि नहीं।”

“अच्छा, अच्छा आज दोपहर को बुला लायेंगे। ठीक, अच्छा याद आया बिसारिया से कहूंगा तुम्हें पढ़ाने के लिये। उसे रुपये की ज़रूरत भी है।” चंदर ने छुटकारे का कोई रास्ता न पाकर कहा।

“आज दोपहर को ज़रूर से।” सुधा ने फिर आँखें नचा कर कहा, “”लो पापा आ गये नहा कर, जाओ!”

चंदर उठा और चल दिया। सुधा उठी और अंदर चली गयी।

डॉक्टर शुक्ला हल्के सांवले रंग के ज़रा स्थूलकाय से थे

डॉक्टर शुक्ला हलके-सांवले रंग के जरा स्थूलकाय से थे। बहुत गंभीर अध्ययन, और अध्यापन और उम्र के साथ-साथ ही उनकी नम्रता और भी बढ़ती जा रही थी। लेकिन वे लोगों से मिलते-जुलते कम थे। व्यक्तिगत दोस्ती उनकी किसी से नहीं थी। लेकिन उत्तर भारत के प्रमुख विद्वान् होने के नाते कांफ्रेंसों में, मौखिक परीक्षाओं में, सरकारी कमेटियो में वे बराबर बुलाये जाते थे और इसमें बहुत दिलचस्पी से हिस्सा लेते थे। ऐसी जगहों में चंदर अक्सर उनका प्रमुख सहायक रहता था और इसी नाते चंदर भी प्रांत के बड़े-बड़े लोगों से परिचित हो गया था। जब से वह एम०ए० पास हुआ था, तबसे फाइनेन्स विभाग में उसे कई बार ऊँचे-ऊँचे पदो का ‘ऑफर’ जा चुका था, लेकिन डॉ० शुक्ला इस के खिलाफ़ थे। वे चाहते थे कि पहले वह रिसर्च पूरी कर संभव हो, तो विदेश हो आये, तब चाहे कुछ काम करे। अपने व्यक्तिगत जीवन में डॉ० शुक्ला अंतर्विरोधों के व्यक्ति थे। पार्टियों में मुसलमानों और ईसाइयों के साथ खाने में उन्हें कोई एतराज नहीं था, लेकिन कच्चा खाना वे चौके में आसन पर बैठकर रेशमी धोती पहन कर खाते थे। सरकार को उन्होंने सलाह दी थी कि साधु और सन्यासियों को जबर्दस्ती काम में लगाया जाये और मंदिरों की जायदादें जब्त कर ली जायें, लेकिन सुबह घण्टे भर तक पूजा ज़रूर करते थे। पूजा-पाठ, खान-पान, जात-पात के पक्के हामी, लेकिन व्यक्तिगत जीवन में कभी यह नहीं जाना कि उसका कौन शिष्य ब्राह्मण है, कौन बनिया, कौन खत्री, कौन कायस्थ।

नहा कर वे आ रहे थे और दुर्गासप्तशती का कोई श्लोक गुनगुना रहे थे। कपूर को देखा, तो रुक गये और बोले – “हलो, हो गया वह टाइप।“

“जी हाँ।”

“कहाँ कराया टाइप?”

“मिस डिक्रूज के यहाँ।”

“अच्छा, वह लड़की अच्छी है? अब तो बहुत बड़ी हुई होगी? अभी शादी नहीं हुई? मैंने तो सोचा वह मिले या न मिले!”

“नहीं, वह यहीं है। शादी हुई। फिर तलाक।“

“अरे! तो अकेले रहती है?”

“नहीं! अपने भाई के साथ है, बर्टी के साथ!”

“अच्छा! और बर्टी की पत्नी अच्छी तरह है?”

“वह मर गयी।”

“राम राम, तब तो घर ही बदल गया होगा।”

“पापा, पूजा के लिए सब बिछा दिया है।” सहसा सुधा बोली।

“अच्छा बेटी, अच्छा चंदर मैं पूजा कर आऊं जल्दी से। तुम चाय पी चुके?”

“जी हाँ।”

“अच्छा तो मेरी मेज पर एक चार्ट है, ज़रा इसको ठीक तो कर दो तब तक। मैं अभी आया।”

चंदर स्टडी रूम में गया और मेज पर बैठ गया। कोट उतार कर उसने खूंटी पर टांग दिया और नक्शा देखने लगा। पास में एक छोटी-सी चीनी की प्याली में चाइना इंक रखी थी और मेज पर पानी। उसने दो बूंद पानी डालकर चाइना इंक घिसनी शुरू की, इतने में सुधा कमरे में दाखिल हुई, “ए सुनो!” उसने चारों ओर देख कर बड़े सशंकित स्वरों में कहा और फिर झुककर चंदर के कान के पास मुँह लाकर कहा, “चावल को नानसटाई खाओगे?”

“ये क्या बला है?” चंदर ने इंक घिसते-घिसते पूछा।

“बड़ी अच्छी चीज़ होती है, पापा को बहुत अच्छी लगती ।है आज हमन सुबह  अपने हाथ से बनायी थी। ए खाओगे?” सुधा से दुलार से पूछा।

“ले आओ।” चंदर ने कहा।

“ले आये हम, लो!” और सुधा ने अपने आंचल में लिपटी हुई नानसटाई निकाल कर मेज पर रख दी।

“अरे तश्तरी में क्यों नहीं लायी? सब धोती में घी लग गया। इतनी बड़ी हो गयी, शऊर नहीं ज़रा-सा।” चंदर ने बिगड़ कर कहा।

“छिपा कर के लाये हैं, फिर ये सकरी होती हैं कि नहीं? चौके के बाहर कैसे लाते? तुम्हारे लिए तो लाये हैं और तुम्हीं बिगड़ रहे हो। अंधे को नोन दो, अंधा कहे मेरी आँखे फोड़ी।” सुधा ने मुँह बनाकर कहा, “खाना है कि नहीं?”

“हाथ में तो हमारे स्याही लगी है।” चंदर बोला।

“हम अपने हाथ से नहीं खिलायेंगे, हमारा हाथ जूठा हो जायेगा, और राम! राम! पता नैन तुम रेस्टोरेंट में मुसलमान के हाथ का खाते होगे। थू-थू!”

चंदर हँस पड़ा सुधा की इस बात पर और उसने पानी में हाथ डुबोकर बिना पूछे सुधा के आँचल में हाथ पोंछ दिये स्याही के और बेतकल्लुफ़ी से नानखटाई उठाकर खाने लगा।

“बस, अब धोती का किनारा रंग दिया और यही पहनना है हमें दिन-भर।” सुधा ने बिगड़ कर कहा।

“खुद नानखटाई छिपा कर लायी और घी लग गया, तो कुछ नहीं और हमने स्याही पोछ दी, तो मुँह बिगड़ गया।” चंदर ने मैपिंग पेन में इंक लगाते हुए कहा।

“हाँ, अभी पापा देखेंगे, तो और बिगड़ेंगे कि धोती में घी, स्याही सब लगाये रहती है। तुम्हें क्या?” और उसने स्याही लगा हुआ छोर कसकर कमर में खोंस लिया।

“छि वही घी में तर छोर कमर में खोस लिया। गंदी कहीं की।” चंदर ने चार्ट की लाइनें ठीक करते हुए कहा।

“गंदी हैं तो, तुमसे मतलब!” और मुँह चिढ़ाते हुए सुधा कमरे से बाहर चली गयी।

चंदर चुपचाप बैठा चार्ट दुरुस्त करता रहा। उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिला – बलिया, आजमगढ़, बस्ती, बनारस आदि में बच्चो की मृत्यु-संख्या का ग्राफ बनाना था और एक ओर उनके नक्शे पर बिंदुओं की सघनता से मृत्यु-संख्या का निर्देश करना था। चंदर की एक आदत थी कि वह काम में लगता था, तो भूत की तरह लगता था। फिर उसे दीन-दुनिया किसी की खबर नहीं रहती थी। खाना-पीना, तन-बदन, किसी का होश नहीं रहता था। इसका एक कारण था। चंदर उन लड़कों में से था, जिनकी ज़िन्दगी बाहर से बहुत हल्की-फुल्की होते हुए भी अंदरर से बहुत गंभीर और अर्थमयी होती है, जिनके सामने एक स्पष्ट उद्देश्य, एक लक्ष्य होता है। बाहर से चाहे जैसे होने पर भी अपने आंतरिक सत्य के प्रति घोर ईमानदारी, यह इन लोगों की विशेषता होती है और सारी दुनिया के प्रति अगंभीर और उच्छृखल होने पर भी जो चीजें इनकी लक्ष्यपरिधि में ना जाती है, उनके प्रति उन की गंभीरता, साधना और पूजा बन जाती है। इसलिए बाहर से इतना व्यक्तिवादी और सारी दुनिया के प्रति निरपेक्ष और लापरवाह दिख पड़ने पर भी वह अंतर्मन से समाज और युग और अपने आसपास के जीवन और व्यक्तियों के प्रति अपने को बेहद उत्तरदायी अनुभव करता था। वह देशभक्त भी था और शायद समाजवादी भी, पर अपने तरीके से। वह खद्दर नहीं पहनता था, कांग्रेस का सदस्य नहीं था, जेल नहीं गया था, फिर भी वह अपने देश को प्यार करता था। बेहद प्यार। उसकी की देशभक्ति, उसका समाजवाद, सभी उसके अध्ययन और खोज में समा गया था। वह यह जानता था कि समाज के सभी स्तंभों का स्थान अपना अलग होता है। अगर सभी मंदिर के कंगूरे का फूल बनने की कोशिश करने लगें, तो नींव की ईंट और सीढ़ी का पत्थर कौन बनेगा? और वह जानता था कि अर्थशास्त्र वह पत्थर है, जिस पर समाज के सारे भवन का बोझ हैं। और उसने निश्चय किया था कि अपने देश, अपने युग के आर्थिक पहलू को वह खूब अच्छी तरह से अपने ढंग से विश्लेषण करके देखेगा और उसे आशा थी कि वह एक दिन ऐसा समाधान खोज निकालेगा कि मानव की बहुत-सी समस्यायें हल हो जायेंगी और आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में अगर आदमी आज खूंखार जानवर बन गया है, तो एक दिन दुनिया उसकी एक आवाज पर देवता बन सकेगी। इसलिए जब वह बैठ कर कानपुर की मिलों के मजदूरों के वेतन का चार्ट बनाता था, या उपयुक्त साधनों के अभाव में मर जाने वाले गरीब औरतों और बच्चों का लेखा-जोखा करता था, तो उसके सामने अपना कैरियर, अपनी प्रतिष्ठा, अपनी डिग्री का सपना नहीं होता था। उसके मन में उस वक़्त वैसा संतोष होता था, जो किसी पुजारी के मन में होता है, जब वह अपने देवता की अर्चना के लिए धूप, दीप, नैवेद्य सजाता है। बल्कि चंदर थोडा भावुक था, एक बार तो जब चंदर ने अपने रिसर्च के सिलसिले में यह पढ़ा कि अंग्रेजों ने अपनी पूंजी लगाने और अपना व्यापार फैलाने के लिए किस तरह मुर्शिदाबाद से ले कर रोहतक तक हिंदुस्तान के ग़रीब से गरीब और अमीर से अमीर बाशिन्दे को अमानुषिकता से लूटा, तब वह फूट-फूट कर रो पड़ा था, लेकिन इसके बावजूद भी उसने राजनीति में कभी डूब कर हिस्सा नहीं लिया, क्योंकि उसने देखा कि उसके जो भी मित्र राजनीति में गये, वे थोड़े दिन बाद बहुत प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पा गये, मगर आदमीयत खो बैठे।

अपने अर्थशास्त्र के बावजूद वह यह समझता था कि आदमी की ज़िन्दगी सिर्फ़ आर्थिक पहलू तक सीमित नहीं और वह यह भी समझता था कि जीवन को सुधारने के लिए सिर्फ़ आर्थिक ढाँचा बदल देने-भर की ज़रूरत नहीं है। उसके लिए आदमी का सुधार करना होगा, व्यक्ति का सुधार करना होगा। वरना एक भरे-पूरे और वैभवशाली समाज में भी आज के से अस्वस्थ और पाशविक वृत्तियों वाले व्यक्ति रहेंगे, तो दुनिया ऐसी ही लगेगी जैसे एक खूबसूरत सजा-सजाया महल जिस में कीड़े और राक्षस रहते हों।

वह यह भी समझता था कि वह जिस तरह की दुनिया का सपना देखता, वह दुनिया आज किसी भी एक राजनीतिक क्रांति या किसी भी विशेष पार्टी की सहायता मात्र से नहीं बन सकती है। उसके लिए आदमी को अपने को बदलना होगा, किसी समाज को बदलने से काम नहीं चलेगा। इसलिए वह अपने व्यक्ति के संस्कार में निरंतर लगा रहता था और समाज के आर्थिक पहलू को समझने की कोशिश करता रहता था। यही कारण है कि अपने जीवन में आने वाले व्यक्तियों के प्रति वह बेहद ईमानदार रहता था और अपने अध्ययन और काम के प्रति वह सचेत और जागरूक रहता था और वह अच्छी तरह समझता था कि इस तरह वह दुनिया को उस ओर बढ़ने में थोड़ी-सी मदद कर रहा है। चूंकि अपने में भी वह सत्य की वही चिंगारी पाता था इसलिए कवि या दार्शनिक न होते हुए भी वह इतना भावुक, इतना दृढ़-चरित्र, इतना सशक्त और इतना गंभीर था और काम तो अपना वह इस तरह करता था, जैसे वह किसी की एकाग्र उपासना कर रहा हो। इसलिए जब वह चार्ट के नक़्शे पर कलम चला रहा था, तो उसे मालूम ही नैन हुआ कि कितनी देर से डॉक्टर शुक्ला आकर उसके पीछे खड़े हो गये।

“वाह, नवशे पर तो तुम्हारा हाथ बहुत अच्छा चलता है। बहुत अच्छा अब उसे रहने दो, लाओ देखें, तुम्हारा काम कैसा चल रहा है? आ तो इतवार है न?”

डॉक्टर शुक्ल पास की कुर्सी पर बैठकर बोले, “चंदर! आजकल मैं एक किताब लिखने की सोच रहा हूँ। मैंने सोचा है कि भारतवर्ष की जाति व्यवस्था का नये वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन और विश्लेषण किया जाये। तुम इसके बारे में क्या सोचते हो?”

“व्यर्थ है! जो व्यवस्था आज नहीं तो कल चूर-चूर होने जा रही है। उसके बारे में तूमार बांधना और समय बर्बाद करना बेकार है।” चंदर ने बहुत आत्मविश्वास से कहा।

“यही तो तुम लोगो में खरावी है। कुछ थोडी-सी खराबियाँ जाति व्यवस्था की देख ली और उसके खिलाफ़ हो गये। एक रिसर्च स्कॉलर का दृष्टिकोण ही दूसरा होना चाहिए। फिर हमारे भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को तो बहुत ही सावधानी से समझने की आवश्यकता है। यह समझ लो कि मानवजाति दुर्बल नहीं है। अपने विकासक्रम में वह उन्हीं संस्थाओं, रीति-रिवाजों और परंपराओं को रहने देती है, जो उसके अस्तित्व के लिए बहुत आवश्यक होती है। अगर वे आवश्यक न हुई, तो मानव उनसे छुटकारा मांग लेता है। यह जाति-व्यवस्था जाने कितने सालों से हिंदुस्तान में कायम है, क्या यही इस बात का प्रमाण नहीं कि यह बहुत सशक्त है, अपने में बहुत जारूरी है!”

“अरे हिन्दुस्तान की भली चलायी।” चंदर बोला,  “हिंदुस्तान में तो गुलामी इतने दिनो से क़ायम है, तो क्या वह भी जरूरी है।”

“बिल्कुल ज़रूरी।” डॉ० शुक्ला बोले, “मुझे भी हिंदुस्तान पर गर्व है। मैंने कभी काँग्रेस का काम किया, लेकिन मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि ज़रा-सी आजादी अगर मिलती है हिंदुस्तानियों को, तो वे उसका भरपूर दुरुपयोग करने से बाज नहीं आते और कभी भी ये लोग अच्छे शासक नहीं निकलेंगे।”

“अरे नहीं। ऐसी बात नहीं। हिन्दुस्तानियों को ऐसा बना दिया है अंग्रेजों ने। वरना हिंदुस्तान ने ही तो चंद्रगुप्त और अशोक पैदा किये थे। और रही जाति व्यवस्था की बात, तो मुझे तो स्पष्ट दिख रहा है कि जाति व्यवस्था टूट रही है।” कपूर बोला, “रोटी बेटी की कैद थी। रोटी की कैद तो करीब-करीब टूट ही गयी, अब  बेटी की कैद भी….ब्याह-शादियाँ भी दो-एक पीढ़ी के बाद स्वच्छन्दता से होने लगेंगी।”

“अगर ऐसा होगा तो बहुत गलत होगा। इससे जातिगत पतन होता है। ब्याह-शादी को कम से कम मैं भावना की दृष्टि से नहीं देखता। यह एक सामाजिक तथ्य है और उसी दृष्टिकोण से हमें देखना चाहिए। शादी में सबसे बड़ी बात होती है सांस्कृतिक समानता। और जब अलग-अलग जाति में अलग-अलग रीति-रिवाजें है तो एक जाति की लड़की दूसरी जाति में जाकर कभी भी अपने को ठीक से संतुलित नहीं कर सकती। और फिर एक बनिया की व्यापारिक प्रवृत्तियों की लड़की और एक ब्राह्मण का अध्ययन वृत्ति का लड़का, इनकी संतान न इधर विकास कर सकती है न उधर। यह तो सामाजिक व्यवस्था को व्यर्थ के लिए असंतुलित  करना हुआ।“

“नहीं, लेकिन विवाह को आप केवल समाज के दृष्टिकोण से क्यों देखते हैं? व्यक्ति के दृष्टिकोण से भी देखिए। अगर दो विभिन्न जाति के लड़के लड़की अपना मानसिक संतुलन ज्यादा अच्छा कर सकते हैं, तो क्यों न विवाह की इज़ाजत दी जाये!”

“ओह, एक व्यक्ति के झुकाव के लिए हम समाज को क्यों नुकसान पहुँचाये और इसका क्या निश्चय कि विवाह के समय यदि दोनों में मानसिक संतुलन है, तो विवाह के बाद भी रहेगा ही। मानसिक संतुलन और प्रेम जितना अपने मन पर आधारित होता है, उतना ही बाहरी परिस्थितियों पर। क्या जाने ब्याह के वक्त की परिस्थिति का दोनों के मन पर कितना प्रभाव है और उसके बाद संतुलन रह पाता है या नहीं? मैंने तो लव-मैरिजेज (प्रेम विवाह) को असफल ही होते देखा है। बोलो है या नहीं?” डॉ० शुक्ला ने कहा।

“हाँ प्रेम विवाह अक्सर असफल होते हैं, लेकिन संभव है वह प्रेम न होता हो। जहाँ सच्चा प्रेम होगा, वहाँ कभी असफल विवाह नहीं होंगे।” चंदर ने बहुत साहस करके कहा।

“ओह! ये सब साहित्य की बातें हैं। समाजशास्त्र की दृष्टि से या वैज्ञानिक दृष्टि से देखो! अच्छा खैर, अभी मैंने उस की रूपरेखा बनायी है। लिखूंगा, तो तुम सुनते चलना। लाओ वह निबंध कहाँ है!” डॉ० शुक्ला बोले।

चंदर ने उन्हें टाइप की हुई प्रतिलिपि दे दी। उलट-पुलट कर डॉ० शुक्ला ने देखा और कहा, “ठीक है! अच्छा चंदर, अपना काम इढर ठीक-ठाक कर लो, अगले इतवार को लखनऊ कॉन्फ्रेंस में चलना है।”

“अच्छा! क्या कार पर चलेंगे या ट्रेन से?”

“ट्रेन से! अच्छा!” घड़ी देखते हुए उन्होंने कहा, “अब ज़रा मैं काम से चल रहा हूँ। तुम यह चार्ट बना डालो और एक निबंध लिख डालना ‘पूर्वी जिलों में शिशु मृत्यु।’ प्रांत के स्वास्थ्य विभाग ने एक पुरस्कार घोषित किया है।”

डॉ० शुक्ला चले गये। चंदर ने फिर चार्ट में हाथ लगाया।

 

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