चैप्टर 10 बिराज बहू : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 10 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 10 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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मागरा के गंज का पीतल का इतना पुराना कारखाना एकाएक बन्द हो गया। चांडाल जाति की उसकी परिचित लड़की यह समाचार सुनाने कि लिए आई। सांचो की बिक्री बंद हो जाने के कारण, उसे क्या-क्या नुकसान हुआ, उनका ब्यौरा वह सिलसिलेवार देने लगी। बिराज चुपचाप सुनती रही और गहरा सांस छोड़कर वह रह गई। वह लड़की हताश थी, क्योंकि उसके दुःख का हिस्सा बंटानेवाला कोई नहीं था। वह दुःखी होकर चल पड़ी। परंतु उसे क्या पता, बिराज की इस सांस में न जाने कितने दर्द के तूफान छुपे हुए थे। वह क्या जाने कि शांत-निश्चल पृथ्वी के नीचे कितने ज्वालामुखी छुपे पड़े है।

नीलाम्बर ने आकर बताया कि उसे काम मिल गया है। कलकत्ते की एक प्रसिद्ध कीर्तन-मण्डली में वह तबला बजाएगा।

इसे सुनते ही बिराज की आकृति म्लान हो गई। उसका स्वामी वेश्या के मातहत होकर, वेश्या के साथ, भले आदमियों के बीच तबला बजाता फिरेगा, तब कहीं उसे दो जून की रोटी मिलेगी। उसकी इच्छा लज्जा के कारण जमीन में धंस जाने की हुई, परंतु वह जबान से मना नहीं कर सकी। दूसरा कोई उपाय नहीं था। सांझ के धुंधलके में नीलाम्बर उसका चेहरा नहीं देख पाया, यह अच्छा ही रहा।

भाटे के खिंचाव में पानी पल-पल घटता रहता है, और तट-प्रान्त पर चिह्न अंकित करता जाता है, उसी तरह वह सूखती गई! मगर छोटी बहू उसका ध्यान रखती थी।

इधर कई दिनों से उसे तीसरे पहर सर्दी लगकर बुखार आ जाता था। उसी दशा में जलता हुआ दीया लेकर उसे रसोईघर में जाना पड़ता था। पति की अनुपस्थिति में वह प्रायः दिन में खाना नहीं बनाती थी। जब रात को खाना बनाती थी तो उसे ज्वर रहता था। पति के भोजन करने के बाद वह पड़ी रहती थी। बस इस तरह समय बीत रहा था। बिराज अपने ठाकुर देवता को इधर मुँह उठाकर देखने को नहीं कहती। पहले की तरह प्रार्थना नहीं करती। दैनिक पूजा के बाद गले में आंचल डालकर जब वह प्रणाम करती है तब यह कहती है कि प्रभु! मैं जिस राह जा रही हूँ, उस राह पर जल्दी से जा सकूं, बस!

***

उस दिन सावन की संक्रान्ति थी। सुबह से ही मूसलाधार वर्षा हो रही थी। बिराज तीन दिनों से ज्वर-पीड़ित थी। वह भूख-प्यास से बेचैन होकर सांझ-बेला में बिस्तर से उठ गई। घर में नीलाम्बर नहीं था। पत्नी की बीमारी में भी, कुछ मिलने की आशा में, परसों उसे श्रीरामपुर के संपन्न शिष्य के यहाँ जाना पड़ा। उसने जाते-जाते कहा- वह शाम तक लौट आएगा। परंतु आज तीन दिन हो गए थे, उसके दर्शन हुए। कई दिनों के पश्चात बिराज आज दिन में कई बार रोई थी। वह दिया जलाकर बाहर आ गई। बाहर आकर वह रास्ते के किनारे आकर खड़ी हो गई। वह भीग गई थी। आशंकाओं से घिरती गई। उनका क्या हुआ होगा? वे बीमार तो नहीं पड़ गए। कहीं घोड़ागाड़ी के नीचे तो नहीं आ गए? क्यों करे? पीताम्बर भी घर में नहीं था। वह कल ही छोटी बहू को लेने चला गया था। घर में कुछ नहीं था। वह केवल पानी पीकर ही रह रही थी। भीगते-भीगते उसका सिर चकराने लगा। अपने को संभालकर वह किसी तरह खड़ी हो गई। चण्डी-मण्डप में आकर विलाप करने लगी।

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया।

एक बार-दो बार।

उसने जाकर दरवाजा खोला।

किसान का बेटा था। उसने कहा – “माँजी! ठाकुर दादा ने एक सूखी धोती मंगवाई है।”

बिराज अच्छी तरह से समझ नहीं पाई, बोली – “धोती मंगवाते है।”

लड़के ने उत्तर दिया – “अभी-अभी वे गोपाल महाराज का दाह-संस्कार करके लौटे है।”

बिराज स्तंभित रह गई बड़बड़ा उठी – “दाह-संस्कार करके?”

गोपाल चक्रवर्ती उनके दूर के रिश्तेदार थे। उनका वृद्ध पिता कई दिनों से बीमार था। दो दिन पहले ही गंगा-यात्रा (जब बीमार के बचने की कोई आशा नहीं होती तो उसे चारपाई के साथ गंगा या किसी नदी के पानी में रख देते है और उसकी मृत्यु तक ‘हरि बोल’ कहते रहते है) कराई थी। आज दोपहर को वे मर गए। सबकुछ बताकर लड़के ने कहा- “पास-पड़ोस में दादा ठाकुर से अच्छा नाड़ी देखनेवाला कोई नहीं है, इसलिए वे भी उसी दिन से उनके साथ हैं।”

बिराज ने लड़खड़ाते हुए धोती दी और टूटी-टूटी-सी बिस्तर पर आकर पड़ गई।

अंधकार में जिसकी पत्नी चिंताओं में घिरी भूखी-प्यासी, बीमार पड़ी हो, यह सब जानने के बाद भी जिसका पति परोपकार में लगा हुआ हो, उस अभागिन को कोई क्या कहे-सुने! आज उसके श्रान्त-कलान्त मन में वह विचार बार-बार आन लगा कि बिराज! तेरा इस संसार में कोई नहीं है। न माँ-बहन, न भाई-बहन और अब पति भी नहीं है। है तो बस केवल यमराज! उनके पास जाने के अलावा तुम्हारी आग कभी भी ठण्डी नहीं होगी। वर्षा की आवाज, झींगुरों की झंकार और हवाओं के सन्नाटों में यह ‘कोई नहीं… तेरा कोई नहीं’ कि आवाज उसके कर्णकुहरों के चारों ओर गूंजने लगी। भण्डार में भात नहीं था, कोठिला में धान नहीं, बाग में फल नहीं, पोखर में मछली नहीं, सुख नहीं, शान्ति नहीं, स्वास्थ्य नहीं और घर में छोटी बहू भी नहीं है; और ताज्जुब तो इस बात का है कि किसी के प्रति उसके मन में अधिक विशेष क्षोभ भी नहीं है।

साल-भर पहले की इस हृदयहीनता के सौवें हिस्से से भी वह पागल हो जाती थी, तिलमिला जाती थई, पर आज वह असीम अवसाद से मानो विचार-शून्य होती जा रही है।

वह निर्जिव-सी पड़ी हुई न जाने क्या-क्या विचारती रही। स्वाभावानुसार उसे याद आया कि उन्होंने दिन-भर से कुछ खाया-पीया नहीं है।

अब उसका धैर्य जाता रहा। दिया लेकर वह भण्डार-घर में गई और देखने लगी कि कुछ पकाने के लिए है या नहीं। मगर वहाँ कुछ नहीं मिला। अनाज के दाने के भी दर्शन नहीं हुए। वह बाहर आकर दीवार का सहारा लेकर सोचती रही।

इसके पश्चात फूंक मारकर दीया बुझा दिया। खिड़की खोलकर बाहर निकल गई।

घोर अंधेरा। भयानक सन्नाटों और घनी झाड़ियों का फिसल-भरा रास्ता भी उसके कदमों को नही रोक सका।

बाग का दूसरा छोर… जंगल जैसा। वहाँ चाण्डालों की छोटी-छोटी झोंपड़ियां थीं। बिराज उधर गई। दीवार नहीं थी, इसलिए आंगन में पहुँचकर पुकारा- “तुलसी!”

तुलसी हाथ में दीया लेकर बाहर आया। बिराज को देखकर वह अवाक रह गया। बोल पड़ा – “माँजी, आप?”

बिराज ने झट कहा – “थोड़ा चावल दे।”

“चावल दूं?” तुलसी को जैसे यकीन नहीं हुआ। वह इस विचित्र मांग का कोई मतलब ही नहीं समझ पाया।

बिराज ने उसकी ओर देखकर कहा – “तुलसी! मेरा मुँह मत देख… जल्दी कर।”

तुलसी ने एक-दो और प्रश्न किए। फिर चावल लाकर बिराज के आंचल में बांधकर कहा – “इन मोटे चावलों से आपका काम नहीं चलेगा। इन्हें आप खा नहीं पायेंगे।”

“खा लेंगे।”

तुलसी ने दीया लेकर रास्ता दिखाना चाहा, पर बिराज ने मना कर दिया। बोली – “ना रे… अकेले तू वापस नहीं आ सकेगा।”

और पलक झपकते वह आँखों से ओझल हो गई।

***

बिराज आज चाण्डाल के घर भीख मांगने आई। भीख मिल भी गई, फिर भी यह अपमान आज उसे नहीं बींध सका। सुख-दुःख, मान-अपमान, कुछ भी सोच सकने की शक्ति उसमें शेष नहीं रही।

घर में आकार देखा तो नीलाम्बर आ चुका था। पूरे दिनों से उसने पति को नहीं देखा था। देखते ही अथाह आकर्षण उसे खींचने लगा, पर उसने अपने को संभाल लिया!

अपने पति को देखकर वह बहुत ही शक्तिमय हो गई। फिर उसे सुन्न-सी देखती रह गई।

नीलाम्बर ने भी एक बार सिर उठाकर झुका लिया। तभी बिराज ने देख लिया कि उसकी दोनों आँखें जवा के फूल तरह लाल-लाल है। वह समझ गई कि मुर्दा फूंकने के दौरान इन्होंने कई-कई दिनों तक गांजा पिया है। कुछ पलों के उपरान्त उसने समीप आकर कहा – “खाना नहीं खाया?”

“नहीं।”

बिराज ने कोई सवाल नहीं किय। वह रसोईघर की ओर जाने लगी कि नीलाम्बर ने पूछा – “इतनी रात गए तुम कहाँ गई थी?”

“यमराज के घर गई थी।” यह कहकर बिराज रसोईघर में घुस गई।

एक घण्टे बाद थाली मे भात डालकर वह नीलाम्बर को बुलाने आई, नीलाम्बर ऊंघ रहा था। नशे के कारण उसका सिर भारी हो रहा था। वह सीधा होकर बैठ गया।

फिर वही सवाल – “कहाँ गई थी?”

बिराज को एक पल के लिए क्रोध आ गया। फिर भी वह संयत स्वर में बोली – “इस समय तो खा-पीकर सो जाओ, सुबह यह बात पूछ लेना।”

“ना… अभी सुनूंगा, बता, कहाँ गई थी?”

उसके हठ पर बिराज को भी हँसी आ गई, बोली – “अगर न बताऊं तो?”

नीलाम्बर बोला – “बतलाना ही पड़ेगा।”

बिराज ने कहा – “पहले खा-पी लो, तभी सुन सकोगे।”

नीलाम्बर ने इस हल्केपन पर कोई ध्यान नहीं दिया। आँखें तरेरकर सिर उठाया। आँखों में घृणा थी। उसने कठोर आवज में कहा – “तुम्हारी बात जाने बिना मैं तुम्हारे हाथ का पानी भी नहीं पीऊंगा।”

बिराज ऐसे चौंक पड़ी जैसे काले सांप के डसने पर भी आदमी नहीं चौंकता। लड़खड़ाते हुए पीछे हटती हुई बोली – “क्या कहा, मेरे हाथ का पानी तक नहीं पीओगे?”

“ना… ना… कभी नहीं!”

बिराज ने पूछी – “क्यों?”

नीलाम्बर चिल्लाया – “पूछ रही हो, क्यों?”

बिराज पति ओर देखती रह गई, बोली – “अब समझ गई। अब नहीं पूछूंगी… जब कल तुम्हारा नशा उतर जाएगा, तब तुम अपने-आप समझ जाओगे।”

नीलाम्बर गुस्से में कहने लगा – “तुम यही कहना चाहती हो न कि मैंने गांजा पीया है? मैंने गांजा आज पहली बार नहीं पीया है कि मैं अपने होश खो दूं। बल्कि मैं कहना चाहूँगा कि तुम होश में नहीं हो…. बुद्धिहीन हो गई हो।”

बिराज बस उसे देखती रही।

नीलाम्बर ने फिर कहा – “बिराज! तुम मेरी आँखों में धूल झोंकना चाहती होम? मैं ही मूर्ख हूँ कि पीताम्बर की बात पर उस दिन विश्वास नहीं किया। तुमने झूठ ही कहा है कि मैं घाट पर गई थी।”

बिराज की आँखें अंगारो-सी जलने लगी। फिर भी अपने को संयत करके बोली- “मैं झूठ इसलिए बोली थी कि तुम सबकुछ जानकर लज्जित हो उठोगे। फिर भात खा भी नहीं सकोगे। मगर अब लाज-शर्म की बात ही खत्म हो गई। तुम अब मनुष्य नहीं रहे। तुमने मुझसे झूठ बोला। इतना बड़ा कपट तो पशु भी नहीं करते, भले ही तुम अपनी बीमार पत्नी को छोड़कर तीन दिनों तक किसी चेले के यहाँ गांजा पीते रहो। बताओ!”

“बताता हूँ।” गुस्से में नीलाम्बर ने बिराज के सिर पर पनडिब्बा उठाकर तड़ाक से दे मारा। सिर पर लगकर जमीन पर गिरकर वह डिब्बा झनझना उठा। खून की धार बिराज की आँख के कोने से बहकर अधर तक फैल गई।

बिराज माथा दबाकर चीख पड़ी- “तुमने मुझे मारा।”

नीलाम्बर गुस्से से कांप रहा था, बोला – “नहीं, मारा नहीं, पतिता! मेरी आँखों से दूर रहो जा…अपना यह चेहरा मत दिखाना!”

बिराज ने कहा – “जाती हूँ।”

एक कदम चलकर वह फिर रुकी, बोली – “किंतु तुम सह सकोगे?”

कल जब याद आएगा कि मैंने अपनी पत्नी को बुखार में पीटा, घर से निकाल दिया। मैं तीन दिनों से भूखी हूँ… फिर भी घोर तिमिर में तुम्हारे लिए भीख मांगकर लाई। तब यह सह सकोगे? इस पतिता को छोड़कर रह सकोगे?”

रक्त बहना देखकर नीलाम्बर का नशा हिरन हो गया। वह चुपचाप खड़ा रह गया।

बिराज ने आंचल से खून पोंछकर कहा – “पूरे एक साल से मैं यहाँ से जाने की सोच रही थी, पर तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकी। जरा आँखें खोलकर देखो – मेरे तन में क्या बचा है? नयनों की ज्योति भी सही नहीं, ढंग से चला-फिरा भी नहीं जाता। किंतु पति होकर तुमने मुझ पर लांछन लगाया है, अब तुम्हें अपना मुंह दिखा भी नहीं सकूंगी। तुम्हारे चरणों में मर जाने की मेरी तीव्र लालसा थी, यही लालसा मुझे आज तक रोके रही, पर आज उसे भी छोड़ती हूँ।” और बिराज खिड़की की राह बाग की तरफ चलकर अंधेरे में गुम हो गई।

नीलाम्बर कुछ कहना चाहता था, पर वह कह नहीं सका। वह पीछे भागना चाहता था, पर भाग नहीं सका।

गहरा जल-प्रवाह… सन्नाटा…. उसके पैरों तले काले पत्थर… काले घने मेघों से घिरा आकाश… आत्महत्या की काली इच्छा… वह वहाँ बैठकर अपने हाथ-पांव बांधने लगी।

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