Chapter 11 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel
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अगले दिन सुबह वो नाश्ता की मेज़ पर मौजूद नहीं थी। अपने मुलाज़िम को उसने उसे जगाने से मना कर दिया। आफ़रीन और हैदर से उसका सामना रात को खाने पर हुआ था।
“आफ़रीन अंकल! क्या आप मेरे नाना से मेरा राब्ता करवा सकते हैं?”
हैदर चाय पीते-पीते रुक गया और आफ़रीन अब्बास ने बेहद हैरानी से उसे देखा।
“तुम उनसे राब्ता क्यों चाहती हो?” आफ़रीन ने कुछ बेचैनी से उससे पूछा।
“मैं उनके पास जाना चाहती हूँ, अगर वह मान गए तो।” वह अपने मेज़ की सतह को घूरने लगी।
“उनके पास जाना चाहती हो? क्या तुम यहाँ ख़ुश नहीं हो?” आफ़रीन ने कुछ बेयकीनी से कहा।
वह चुप रही।
“सारा! तुम्हारी अम्मी चाहती थी कि तुम मेरे पास रहो और मैं तुम्हें उनके घर वालों के पास ना भेजूं।”
“ऐसा क्यों चाहती थी?” उसने एकदम सिर उठाकर सवाल किया। आफ़रीन कोई जवाब नहीं दे सके। हैदर खामोशी से चाय के सिप लेता हुआ दोनों के दरमियां होने वाले गुफ्तगू सुन रहा था।
“यह सबा ही बेहतर जानती होगी। बहरहाल उनके पास जाने का तुम्हें कोई फायदा नहीं होगा।” कुछ देर बाद उन्होंने एक गहरी सांस लेकर कहा।
“पापा! अगर यह अपने नाना के पास जाना चाहती है, तो आप उन्हें जाने दे। यह वाकई उनके हाथ में बेहतर होगा।” एकदम हैदर ने फ्रेंच में अपने डैड से कहा।
“तुम मुझसे क्यों भेजना चाहते?” आफ़रीन मैं बड़े तीखे लहज़े में उससे पूछा। वह कुछ घबरा गया।
“नहीं! मैं क्यों भेजना चाहूंगा। मैं तो वैसे ही आपको अपनी राय दे रहा था। पापा! मेरा अपना भी यही ख्याल है, यह अपने नाना और मामू के पास ज्यादा ख़ुश रहेगी, क्योंकि यहाँ यह सारी उम्र तो नहीं रह सकती और फिर हम उन्हें कितनी देर रखेंगे।” वो धीमे लहज़े में संज़ीदगी से कह गया।
“हैदर! यह तुम्हारा मसला नहीं है। उसे कब तक यहाँ रहना है, इसका दारोमदार इस पर है। चाहे वह सारी उम्र रहे, तुम्हें इसके बारे में ऐतराज़ करने का कोई हक नहीं है।”
आफ़रीन अब्बास ने बेहद खुश्क लहज़े में उसे कहा। हैदर दोबारा बोलने की हिम्मत नहीं कर सका। सारा बेहद खामोशी से नाश्ता करते उनकी बातें सुनती रही। उसे पहले ही दिन ही अंदाज़ा हो गया था कि हैदर को उसका यहाँ आना अच्छा नहीं लगा और उस वक्त उनकी बातों ने उसके अंदाज़े की तस्दीक (पुष्टि) कर दी थी।
उसका दिल मज़ीद बोझिल हो गया। बार-बार उसका दिल चाह रहा था कि वह वहाँ से भाग जाए। इस तरह बोझ बन के रहना उसके लिए एकदम दुश्वार हो गया था।
“किसी को भी ख्वाह-म-ख्वाह की जिम्मेदारी और खर्च अच्छा नहीं लगता। हैदर ने बिल्कुल ठीक कहा था कि वह मुझे कितनी देर यहाँ रख सकते हैं और हैदर मेरे बारे में इज्ज़त से कैसे सोच सकता है, जब वह जानता है कि उसके बाप किसी जमाने में मेरी माँ को पसंद करता था और अब भी करता है और अब उस औरत की बेटी एक बोझ बन कर उसके घर आ गई है।”
वह दिल ही दिल में हैदर को हक-ब-जानिब (जो अपनी बात में सच्चा हो) समझ रही थी और वह जानती थी वह उसके बारे में क्या सोचता होगा।
“अगर मैं अपने नाना के पास नहीं जा सकती, तो फिर मुझे किसी ना किसी तरह इस घर से भी चले जाना चाहिए। मैं वाकई यहाँ बहुत ज्यादा देर तक नहीं रह सकती।”
उसने नाश्ता करते हुए दिल ही दिल में तय कर लिया।
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