Chapter 17 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel
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उस दिन के बाद वो घर में कैद होकर रह गई। ट्यूशन छोड़ दी थी क्योंकि हैदर को उस पर ऐतराज़ था कि वो उसके दोस्त की बहन के घर पढ़ाने जाती है और उसकी इज्ज़त पर हर्फ़ (दाग, एब) आता है। किसी और जगह उसने ट्यूशन करने की कोशिश नहीं की। वो मुन्तज़िर थी कि आफ़रीन उसके नाना से बात करें और उसे कुछ बतायें, मगर उन्होंने अभी तक उसे कुछ नहीं बताया था। वह सारा दिन घर में बेमक़सद फिरती रहती है। उसका दिल अब किताबें पढ़ने में भी नहीं लगता था। एक अजीब सी बेचैनी हर वक्त उसके असाब (नसों) पर सवार रहती थी। फिर एक दिन आफ़रीन की सबसे बड़ी बहन ने फोन किया। उसे फोन अटेंड करते ही वो रो पड़ी थी।
“सारा! तुमको मैंने अपने यहाँ आने के लिए कहा था, मगर तुम आई नहीं। मैं उस दिन से तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ।” उसके सलाम का जवाब देते ही उन्होंने शिक़वा किया।
उसे उनकी बात पर ख़ुशगवार हैरत हुई, “आंटी! मैं आना चाहती थी, लेकिन मुझे आपका घर का पता नहीं था, अकेले में कैसे आ सकती हूँ।”
“घर का क्या मसला है, तुम् हैदर से कहो, वह तुम्हें छोड़ आयेगा।” वो उनकी बात पर ख़ामोश हो गई।
“मैं किसी दिन आपकी तरफ आऊंग्री।”
“किसी दिन नहीं, मैं कल तुम्हारा इंतज़ार करूंगी तुम जरूर आना।” उन्होंने इस कदर इसरार किया था कि उसने हामी भर दी। रात के खाने पर उसने आफ़रीन अब्बास से इस बात का ज़िक्र किया। वह ख़ामोशी से खाना खाते रहे और जब उसे यक़ीन हो गया कि उन्होंने उसकी सुनी ही नहीं, तभी को बोल उठे।
“ठीक है चली जाना है। हैदर तुम्हें छोड़ आयेगा।”
“लेकिन पापा मुझे तो सुबह ऑफिस जाना है। मैं कैसे इन्हें छोड़ने जा सकता हूँ।” हैदर पानी पीते-पीते रुक गया।
“तुम्हें ऑफिस जाते हुए इसे छोड़ आना और लंच आवर में घर छोड़ जाना।”
आफ़रीन अब्बास ने ख़ुद ही प्रोग्राम सेट कर दिया। हैदर ख़ामोश हो गया। खाना खत्म करने के बाद उसने जाते-जाते हैं कहा, “आप साढ़े आठ बजे तैयार रहियेगा। सारा ने सिर हिला दिया।
वह सुबह ठीक साढ़े आठ बजे तैयार होकर नीचे आ गया था। सारा नाश्ते से फ़ारिग होकर उसका इंतज़ार कर रही थी।
“चलें” उसने देखते ही पूछा।
“आप नाश्ता नहीं करेंगे?”
“नहीं” हैदर ने गाड़ी देखते हुए कहा।
उसके पीछे चलती हुई लॉन के दरवाजे की तरफ आ गई। हैदर ने लॉन का दरवाजा खोला और ख़ुद बाहर निकलने के बजाय उसे पहले निकलने का इशारा किया। सारा ने कद्र-ए-हैरत से उसके पास से गुज़रते हुए उसे देखा। उसके बाहर निकलने के बाद हैदर भी बाहर आ गया। सारा ला-शु’ऊरी (बेसुध, बेसोचा-समझा) तौर पर गाड़ी के पिछले दरवाजे के पास आ खड़ी हो गई, मगर हैदर ने गाड़ी के अंदर आते ही फ्रंट सीट का दरवाजा खोला और बुलंद आवाज़ में कहा, “मैंने आपको पहले भी बताया था कि मैं ड्राइवर नहीं हूँ। मेरे साथ अगर आपको कहीं जाना है, तो आगे बैठना होगा।”
सारा कुछ झेंप कर गाड़ी में बैठ गई। चंद मिनट बाद गाड़ी सड़क पर आ गई।
“आप कहाँ जॉब करते हैं?”
“ट्रेनी के तौर पर सिटी बैंक में काम कर रहा हूँ।”
वाहिद सवाल और जवाब था, जो पंद्रह मिनट की सफ़र में दोनों के दरमियान हुआ था। पंद्रह मिनट बाद कार एक पुरानी लेकिन वासी (बड़ी) इमारत के बाहर रुक गई।
“अंदर जाकर दायें तरफ जो घर है, वहीं पर मेरी दोनों फुफियाँ रहती हैं।”
हैदर ने हाथ के इशारे से उसे बताया। वह इस इत्तला पर कुछ हैरान हुई थी।
“दोनों फुफियाँ।”
“असल में ये घर मेरे दादा का है। बड़ी फूफी काफ़ी साल पहले बेवा हो गई थी और छोटी फूफी का डिवोर्स हो गया था। तबसे वह दोनों अपने बच्चों के साथ यहीं रहती है।” हैदर ने वज़ाहत (बड़ाई करना) की।
“लेकिन मैं अकेले अंदर कैसे जाऊं?” वह कुछ नर्वस हो रही थी।
हैदर एन उसे कुछ हैरानी से देखा, “क्यों अकेले जाने से क्या होगा? खैर मैं आपको तो छोड़ आता हूँ।” उसने गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए कहा।
सारा भी गाड़ी से बाहर निकल आईं। हैदर गेट की तरफ बढ़ा और उसे खोल दिया। एक बार फिर पहले की तरह उसने सारा से आगे बढ़ने के लिए कहा। सारा ने दिलचस्पी से उन एक जैसी इमारतों को देखा, जो उस अहाते में चार कोनों में थी। तवील (लंबी) लॉन पार करके वो दाहिने जानिब (तरफ़) वाली इमारत की तरफ मुड़ गई। अंदर जाते ही उसे ख़ुशगवार हैरत हुई, जब उसने आफ़रीन की सबसे बड़ी बहन को अपना मुन्तज़िर पाया।
“आफ़रीन ने मुझे रात को फोन कर दिया था कि तुम हैदर के साथ सुबह आओगी। तब से तुम्हारे इंतज़ार में बैठी हूँ।” उन्होंने उसे गले लगाते हुए कहा।
“मैं आपको लेने के लिए डेढ़ बजे के करीब आऊंगा।” हैदर ने सारा से कहा।
“नहीं सारा आज नहीं जायेगी। वह आज यहीं रहेगी। तुम कल शाम को उसे ले जाना।’ बड़ी फूफी ने फौरन फैसला सुना दिया।
“क्यों सारा?” हैदर ने पूछा। सारा ताज्जुब में पड़ गई।
“नहीं फुफू मैं रात को नहीं रह सकती।”
“क्यों सारा? रात क्यों नहीं?” उन्होंने सारा का इश्तियाक़ (उत्कंठा, इच्छा) बढ़ा दिया।
“ठीक है। आज आप मुझे लेने न आयें। मैं आज यहीं रहूंगी।” उसने फौरन हैदर को अपना फैसला सुना दिया।
“अच्छा फुफू मैं अब चलता हूँ।” हैदर ने गाड़ी देखते हुए कहा।
“अरे इतनी जल्दी! बैठो चाय तो पीकर जाओ।” उन्होंने उसे रोकने की कोशिश की।
“नहीं फूफू मुझे ऑफिस से देर हो रही है। कल शाम आऊंगा, तब चाय पीकर जाऊंगा। इस वक़्त नहीं।”
वो ख़ुदाहाफ़िज़ कह कर चला गया। वो उस वक़्त चाय पी रही थी, जब आफ़रीन की दूसरी बहन ऊपर आ गई। वो भी उससे बड़ी मोहब्बत से मिली। चाय पीने के बाद बड़ी फुफू उसे लेकर बाकी दोनों घरों में गई थीं और कहीं भी सारा को ये नहीं लगा कि कोई उसकी अम्मी से नाराज़ था। हर जगह उसकी अम्मी का ज़िक्र मोहब्बत से किया गया।
“पता नहीं अम्मी आपको ये ग़लतफ़हमी क्यों हो गई थी कि वापस आने पर आपको कुबूल नहीं किया जायेगा। यहाँ पर तो सब आपकी गलती भूल चुके हैं। आप अपनी ज़िन्दगी में एक बार यहाँ आ जाती।” वह बार-बार यह सोच रही थी।
“मुझसे मोहब्बत का इज़हार कर रहे हैं, तो क्या यह आपसे मोहब्बत नहीं करते होंगे? लेकिन पता नहीं क्यों उन्होंने एक ग़लतफ़हमी में अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर ली।’ वह अब माँ से बदगुमान (शक्की) हो रही थी।
दोपहर के खाने के बाद बड़ी फुफु उसे उसकी अम्मी के घर ले गईं।
“तुम्हारे नानी और खाला अमेरिका जाते हुए इस घर को बेच देना चाहते थे, तब अब्बा ने उनको मना कर दिया बाद में…बाद में!”
बात करते-करते पता नहीं क्यों फूफी की ज़ुबान लड़खड़ा गई थी। “बाद में तुम्हारे नाना ने इस घर को बेचने पर इसरार किया, तो आफ़रीन ने ये घर खरीद लिया। तबसे अब तक यह बंद है। वह यहाँ किसी को रहने देता नहीं। न ही ख़ुद रहने आता है। इसकी चाबी मेरे पास है। मैं हर हफ्ते से इसे खोल कर साफ करवाती रहती हूँ।” फूफू ने दरवाजे का ताला खोलते हुए कहा।
सारा को घर के अंदर दाखिल होकर अजीब सी अपनियत और मर’ऊबियत का एहसास हुआ था।
‘तो अम्मी यहाँ रहती थी और यह सब कुछ छोड़ कर उन्होंने उस झोपड़ी का इंतिख़ाब (चुनाव, चयन) कैसे कर लिया था? क्या उनको कभी इन आसाइशों (सुख-सुविधा, आराम, सहूलियत,) का ख़याल नहीं आया?’ उसने दीवार पर लगी पेंटिंग्स पर नज़र दौड़ते हुए सोचा। फफू एक और कमरे का दरवाजा खोल रही थी।
“यह तुम्हारी अम्मी का कमरा है।” उन्होंने दरवाजा खोलकर उसे बताया। वह एक अजीब से इश्तियाक (उत्कंठा, इच्छा) में तेजी से उस कमरे की तरफ आई। कमरे में तारीकी (अंधेरा) की थी। फुफू ने अंदर दाखिल होकर परदे हटा दिये। कमरा एकदम रोशन हो गया। उसने चारों तरफ नज़र दौड़ाई। जो पहली चीज उसकी नज़र में आई थी, वह एक बहुत बड़ी वजनी सी स्टडी टेबल और उसके पार दीवार पर लगी हुई रैक्स पर किताबों की लंबी-लंबी कतारें थी। वह कुछ बे-इख्तियार सी (बेकाबू सी) होकर किताबों की तरफ गई और किताबों पर एक नज़र डालते ही उसने मुड़कर फूफु से पूछा –
“मम्मी ने कितनी तालीम हासिल की थी?”
“वो यूनिवर्सिटी में पढ़ती थी। इंग्लिश में एम.ए. कर रही थी। फिर बस…बस उसने छोड़ दिया।”
फूफू एकदम कुछ अफ़सुर्दा (खिन्न, उदास) हो गई थी और उसके सिर पर जैसे कोई पहाड़ आ गिरा था। ‘एम.ए. इंग्लिश और सारी उम्र वह एक फैक्ट्री में दो हजार की एवज पैकिंग का काम करती रही। आखिर क्यों?’
उसके उलझन बढ़ती जा रही थी। जब वह अपनी अम्मी को फ्रेंच बोलते सुनती थी, तो उसका ख़याल था कि उन्होंने अपने किसी रिश्तेदार से यह ज़बान सीखी है। वो जानती थी कि वह पढ़ी लिखी हैं, लेकिन उनके हुलिये से उसे कभी अंदाज़ा नहीं हुआ कि वह कभी यूनिवर्सिटी में पढ़ती होंगी। रैक्स में हर तरह की किताबें थी। शेक्सपियर के ड्रामा से लेकर वारिस शाह की हीर तक, हार्डी के टेस से लेकर मऊपोसांट की कहानियों तक, वहाँ हर किस्म की किताब थी। वह कुछ अफ़सुर्दगी (खिन्नता) से किताबों को देखती।
“अम्मी ने यूनिवर्सिटी क्यों छोड़ दी?” एक बार फिर उसने मुड़कर फुफू से सवाल किया, उन्होंने उससे नज़रें चुरा ली।
“पता नहीं।”
उसे अपने सवाल का जवाब खुद ही मिल गया था।
‘वहाँ उनकी मुलाकात मेरे अब्बू से हो गई होगी और फिर उन्होंने सब कुछ छोड़ दिया होगा।’ उसने सोचा।
वो स्टडी टेबल की कुर्सी खींच कर बैठ गई। स्टडी टेबल पर गर्द की हल्की-हल्की तहें थी। उसने अपने हाथ से उसे साफ करने की कोशिश की। फिर उसने स्टडी टेबल की दराज़ खोलना शुरू कर दये। वह लॉक्ड नहीं थे। उनके अंदर कार्ड और लेटर्स का एक ढेर था।
“फुफू! आप अगर जाना चाहती हैं, तो चली जायें। मैं यहाँ रहना चाहती हूँ।” उसने उनसे कहा।
वह कुछ हिचकी, “तुम्हें अकेले यहाँ डर नहीं लगेगा।” उन्होंने पूछा।
“डर किस बात का?” उसने हैरानी से पूछा।
फुफू का चेहरा धुआं-धुआं हो गया।
“हाँ अब किसका डर होगा” वह बड़बड़ाई और कमरे से निकल गई। वह कुछ ना समझने वाले अंदाज़ में उन्हें ज्यादा देखती रही।
फिर वह दोबारा लैटर्स और कार्ड की तरफ मुतवज्जह (ध्यान देना, रूख करना) हो गई। ज्यादातर कार्ड्स और लेटर्स फ्रेंच में लिखे हुए थे और वो लिखने वाले का नाम पढ़कर चंद लम्हों के लिए साकित हो गई थी। वो लैटर्स और कार्ड्स आफ़रीन अब्बास ने लिखे थे। मम्मी ने फ्रेंच किससे और किस लिए सीखी होगी, आफ़रीन अब्बास से मिलने के बाद ही राज उसके लिए राज नहीं रहा था, मगर उसे यह तवक्को (उम्मीद) नहीं थी कि उन दोनों के दरमियान बाकायदा खत-वा-खिताबत भी होती होगी। उसने एक खत पढ़ना शुरू किया। कागज इंतिहाई (बहुत ज्यादा) पोशीदा (अदृश्य) हो चुका था और जगह-जगह पर स्याही भी गायब हो चुकी थी। बारी-बारी उसने सारे लैटर्स पढ़ना शुरू कर दिए, एक लैटर की कुछ लाइंस पढ़कर वह साकित (स्तब्ध) हो गई।
“तुमने अपने खत में जो लिखा है, बिल्कुल ठीक लिखा है। मैं भी रुखसती पर निकाह जैसा हंगामा नहीं चाहता। पता नहीं, हमारे यहाँ शादी जैसे जाति मामले को इतना बड़ा हंगामा और तमाशा क्यों बना दिया जाता है? बरहाल तुम्हें फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं। दिसंबर में जब रुखसती करवाने के लिए पाकिस्तान आऊंगा, तो घरवालों को मजबूर करूंगा कि वह मेहंदी जैसी रस्म पर वक्त ज़ाया ना करें। मैं जानता हूँ, तुम भी अपने घरवालों को इस बात पर राज़ी कर लोगी।”
‘ओ ख़ुदाया! यह सब क्या है?” वह बे-इख्तियार सिर पकड़ कर बैठ गई।
‘क्या आफ़रीन अंकल के साथ अम्मी का निकाह हुआ था, फिर मेरे अब्बू बीच में कहाँ से आ गये?” उसने खत पर तारीख देखने की कोशिश की। वह खत उसकी पैदाइश से डेढ़ साल पहले लिखा गया था।
‘क्या अम्मी ने निकाह हो जाने के बावजूद अम्मी ने अंकल के साथ धोखा किया?’
वह कुछ समझ नहीं पाई। एकदम से उसका दिल वहाँ से उचाट हो गया। उसने खुतूत (ख़त, पत्र) अपने बैग में भर लिए। कार्ड्स को देखते हुए वह फिर चौंक गई। अब सुब्हा (शक) की कोई गुंजाइश नहीं रही। कुछ कार्ड्स आफ़रीन अब्बास ने उसकी अम्मी को निकाह के दिन की मुबारकबाद देने के लिए भेजे थे। उसने उन कार्ड्स को भी बैग में डाल लिया। माँ से उसकी बदगुमानी बढ़ती जा रही थी। उसने बाकी कार्ड्स को दराज़ में रख दिया और दरवाजा बंद करके बाहर आई। फुफू वहाँ नहीं थी। शायद अपने घर चली गई थी। उसने बैरूनी (बाहरी) दरवाजे को एहतियात से बंद कर दिया और फुफू के घर की तरफ चल पड़ी।
शाम तक वो उलझे हुए अंदाज़ में फुफू के पास बैठी उनकी बातें सुनती रही। पाँच बजे खिलाफ़ तवक्को हैदर आ गया। उसका मूड बिगड़ा हुआ था।
“पापा नाराज़ हो रहे हैं। वह कह रहे हैं कि मैं सारा को फौरन लेकर आऊं।” उसने आते ही फुफू से कहा।
“लेकिन वह तो यहाँ रात रुकेगी।”
“आप रात की बात कर रही हैं, वह तो इस बात पर मुझ पर बिगड़ रहे थे कि लंच ऑवर मे मैं उनकी हिदायत के मुताबिक सारा को वापस क्यों नहीं लेकर आया।”
“तुम ने उन्हें बताया था कि सारा खुद यहाँ रुकने पर तैयार है?”
“फूफू! आपको पता है पापा के गुस्से का। जब वह गुस्से में होते हैं, तो किसी की बात कहते सुनते हैं? उन्होंने तो मेरी इतनी इंसल्ट की है। वह कह रहे थे कि मैं ने किसकी इज़ाज़त से उसे वहाँ रात रुकने के लिए कह दिया। मुझे यह हक किसने दिया है। मैंने उनसे कहा भी कि वह मोहतरमा ख़ुद तैयार हुई थी रात में ठहरने के लिये, मगर उनका पारा नीचे नहीं आया। अब बरा-ए-मेहरबानी (कृपा करके) मिस सारा आप चलें।”
वह बड़ी बेज़ारी (निराशा) से उससे कह रहा था। सारा कुछ शर्मिंदगी के साथ उठ खड़ी हुई।
“तुम आती जाती रहना। अब तो तुम्हें घर का भी पता है।”
फुफू ने उसे लिपटाते हुए कहा। वह बुझे दिल से हैदर के साथ चल पड़ी। हैदर का मूड बुरी तरह ऑफ था। वह घर आते ही सीधा ऊपर चला गया और दोबारा खाना खाने भी नीचे नहीं आया।
आफ़रीन अब्बास ने उसे कुछ नहीं कहा था, मगर उनके चेहरे के तासुरात (भाव) से वह समझ गई थी कि वह उससे भी ज्यादा ख़ुश नहीं है। बड़ी बेदिली से उसने उनके साथ खाना खाया और फिर अपने कमरे में चली गई। कमरे में आते ही उसने अपने बैग में से वह खुतूत और कार्ड्स निकाल लिये और एक बार फिर से उन्हें पढ़ने लगी।
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