चैप्टर 2 जंगल में लाश : इब्ने सफ़ी का उपन्यास हिंदी में | Chapter 2 Jungle Mein Lash Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 2 Jungle Mein Lash Ibne Safi Novel 

Chapter 2 Jungle Mein Lash Ibne Safi Novel 

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सड़क पर जूता

दूसरे दिन सुबह 6:00 बजे धर्मपुर का जंगल असलहों से लैस पुलिस वालों के जूतों की आवाजों से गूंज रहा था। आसपास के देहातों से तकरीबन 300 आदमी शक में गिरफ्तार किए गए, जिन पर कोतवाली में बेतहाशा लाठियां और जूते बरस रहे थे। इनमें से कई तो इतनी बुरी तरह पिटे थे कि बेहोश हो गए थे, लेकिन नतीजा कुछ ना निकला….. कोई सुराग ना मिल सका। आखिर चार-पांच घंटों की लगातार उठा-पटक के बाद मामला जासूसी विभाग के सुपुर्द कर दिया गया।

राज रूपनगर केस के मशहूर स्पेक्टर फ़रीदी और सार्जेंट हमीद कोतवाली पहुँच चुके थे। सारे किस्से की जानकारी उन्हें पहले ही से थी, लेकिन उन्होंने कोतवाली इंचार्ज वगैरह के बयान दोबारा सुने, पर एक चक्कर धर्मपुर के जंगलों का भी लगा आए। दिन भर की दौड़-धूप के बाद जब कोतवाली वापस आए तो कई चेहरे उन पर मुस्कुरा रहे थे। फरीदी तो इस तरह की बातों को हँसकर टाल देता था। लेकिन सार्जेंट हमीद ने नाक बहुत जरूर चढ़ा ली थी, लेकिन फिर जल्दी किसी सोच में डूब गया। तभी सोचते सोचते एकदम से उसकी आँखें चमक उठी।

“इंस्पेक्टर साहब….!” उसने फ़रीदी की तरफ देखते हुए कहा,”हम लोग भी कितने बुद्धू हैं।”

“क्या मतलब?” फ़रीदी ने उसे बोलते हुए कहा।

‘मतलब क्या? वही मिसाल है…. बच्चा बगल में, ढिंढोरा शहर में। अरे… कहने का मतलब क्या कि मुलजिम का सुराग मिल गया।” हमीद ने चुटकी बजाते हुए कहा।

*क्या तुम्हें मुझ पर शक है?” फ़रीदी ने मुस्कुरा कर कहा।

“खैर वह तो पुरानी चीज है। मेरी पीठ ठोकिये,… कहिए, तो बताऊं।”

“मुझे अफसोस है कि इस वक्त ठोकने की कोई चीज मेरे हाथ में नहीं। खैर, तुम बताओ।”

“मोटरसाइकिल…. मुलजिम मैं अपनी मोटरसाइकिल रात ही छोड़ी थी ना।” हमीद ने कहा।

“बहुत देर में पहुँचे….मुझे सुबह ही ख़याल आया था, लेकिन उसकी मोटरसाइकिल ऐसी नहीं हो सकती जो उसका पता ठिकाना बता दे।” फ़रीदी ने सिगरेट सुलगते हुए कहा।

“फिर भी देख लेने में क्या बुराई है?” हमीद ने उठते हुए कहा।

दोनों कोतवाली इंचार्ज के साथ वहाँ पहुँचे, जहाँ रात मुलजिम ने अपनी मोटरसाइकिल छोड़ी थी। मोटर साइकिल अभी तक वही खड़ी थी।

“देखो…. मैं ना कहता था।” फ़रीदी ने कहा, “नंबर प्लेट निकाल दी गई है।”

“लेकिन कंपनी का नंबर तो जरूर होगा।” हमीद ने झुक कर देखते हुए कहा, “यह भी रेत दिया गया है।” फ़रीदी ने कहकहा लगाया। हमीद भी खिसियाना होकर हँसने लगा।

“हम लोग निरे घामड़ नहीं है,…. फरीदी साहब!” कोतवाली इंचार्ज ने हँसकर कहा,”पहले ही देख कर इत्मीनान कर चुके हैं।”

“क्या…?”

“यही थी कंपनी का नंबर यही कोतवाली में इसी जगह आज ही किसी वक्त साफ किया गया है।”

“जी…!” कोतवाली इंचार्ज ने हैरत से विदा करते हुए कहा।

“जी हाँ…। क्या आप जमीन पर लोहे के सरे नहीं देख रहे हैं?”

“उफ्फ ओह… बड़ी गलती हुई।” कोतवाली इंचार्ज ने हाथ मलते हुए कहा।

“इन्हीं बारीकियों के लिए तो हम दोनों को तकलीफ दी जाती है।” सार्जेंट हमीद ने तन कर सीने पर हाथ मारते हुए कहा।

“लेकिन इससे क्या…. मुलजिम बाहर हाल अभी तक हमारी पहुँच से दूर ही है।” कोतवाली इंचार्ज ने जलाकर कहा।

“खैर, देखा जाएगा। न घोड़ा दूर, ना मैदान।” कोतवाली इंचार्ज में जाने के लिए मुड़ते हुए कहा।

सार्जेंट हमीद सीटी बजाने लगा।

कोतवाली में बैठे फ़रीदी का दिमाग इस गुत्थी को सुलझाने में लगा था। आखिरकार वह कोतवाली इंचार्ज से बोला।

“दरोगा जी… अब यह बात तो अच्छी तरह साफ हो गई कि मुलजिम या मुलजिमों का निशाना आप ही थे।”

“क्यों… नहीं क्यों?” कोतवाल चौक कर बोला।

“आपके बयान के मुताबिक रात को 5:00 सब-इंस्पेक्टर और 40 सिपाही ड्यूटी पर थे। उनमें से आप किसी को भी चुन सकते थे। इसलिए उनमें से किसी एक को मार डालने का सवाल ही नहीं पैदा होता और जाहिर है की धर्मपुर कोतवाली ही के क्षेत्र में है, इसलिए क़त्ल या और किसी वारदात के सिलसिले में मौका-ए-वारदात पर आप ही को पहुँचना होता है।”

“ओ…. इसका तो मुझे ख़याल ही नहीं आया था।” कोतवाली इंचार्ज में बेचैनी से कहा।

“अब आप यह बताइए कि आपका शक इस पर है?”

“भला मैं कैसे बताऊं.. शहर का हर बदमाश मेरा दुश्मन हो सकता है।” कोतवाली इंचार्ज ने कुछ सोचते हुए कहा।

“बहरहाल, आप हमें कोई मदद नहीं दे सकते।” हमीद ने हँसकर कहा।

“हमीद साहब, मैं आपसे माफी मांगता हूँ…!”

“हमीद, तुम चुप रहो।,”स्पेक्टर फ़रीदी ने हमीद को होते हुए कहा, “हाँ, दरोगा जी, क्या पीटर रोड के चौराहे के करीब कोई बस्ती भी है?”

“हाँ, एक छोटा-सा गांव है लक्ष्मणपुर। लेकिन उसकी दूरी यहाँ से लगभग 4 फर्लांग होगी।”

“मेरा खयाल है कि मैं इस वक्त वहाँ जाकर तफ्तीश करूं।” इंस्पेक्टर फ़रीदी ने कहा।

“लेकिन आपको वहाँ इस वक्त औरतें और बच्चे मिलेंगे। वहाँ के सारे मर्द तो यहीं हवालात में हैं।”

“तब तो और भी अच्छा है।” हमीद ने अपने निचले होंठ पर ज़ुबान फेरते हुए कहा। फ़रीदी ने उसे फिर घूरकर देखा और वह एकदम संजीदा हो गया। लेकिन यह संजीदगी भी इतनी मजाकिया थी कि झल्लाया हुआ कोतवाली इंचार्ज भी मुस्कुराये बगैर न रह सका। हमीद की बेवक्त की बेतुकी हरकतें फ़रीदी को अक्सर बुरी लग जाती थी। उसकी इसी आदत के चलते फ़रीदी अक्सर कहा करता था कि वह ज़िन्दगी भर एक अच्छा जासूस नहीं बन सकता।

फ़रीदी को उसकी उस वक्त की बेतुकी बातों पर सख्त गुस्सा आ रहा था। लेकिन थोड़ी देर बाद उसका ज़ेहन फिर अपने काम में लग गया।

लक्ष्मणपुर की तरफ रवाना होते वक्त फ़रीदी ने उस इंस्पेक्टर को भी साथ ले लिया जो रात वाले हादसे में कोतवाली इंचार्ज के साथ था। धीरे-धीरे अंधेरा बढ़ता ही जा रहा था। इंस्पेक्टर फ़रीदी की कार सड़क छोड़ कच्चे रास्ते पर चली जा रही थी।

“इंस्पेक्टर फ़रीदी साहब! एक बात मेरी समझ में नहीं आती।” सब-इंस्पेक्टर बोला, “ख़ुद आप भी होते, तो उसकी हालत देखते हुए उसके बयान की सच्चाई में शक ना करते।”

“यह सब कुछ ठीक है।” फ़रीदी ने बुझा हुआ सिगार जलाते हुए कहा, “लेकिन मैं उसका सही पता ठिकाना जाने बगैर हरगिज़ उसके साथ में जाता। हैरत इस बात पर है कि सुधीर साहब ने रवानगी लिखने की भी ज़हमत गंवारा न की।”

“नहीं साहब… रवानगी पर लिखी गई थी।” सब-इंस्पेक्टर मैं जल्दी से कहा।

“दरोगा जी, मैं कोई बच्चा तो हूँ नहीं। क्या मैं इतना भी नहीं समझ सकता कि रवानगी हादसे के बाद लिखी गई है।” फ़रीदी ने बुरा सा मुँह बना कर कहा।

“खैर, यह कोई नई बात नहीं! आप ही नहीं….आपका विभाग यूं ही हम लोगों के लिए कोई अच्छी राय नहीं रखता, लेकिन यह आप किस तरह कह सकते हैं कि रवानगी हादसे के बाद लिखी गई है और इसका क्या सबूत है कि रोजनामचे में इस नंबर का कोई कमरा है ही नहीं। और सरताज होटल का एक-एक चप्पा पुलिस का देखा हुआ है। उस जैसे बदनाम होटल का नक्शा तो मेरे ख़याल से मामूली से मामूली कॉन्स्टेबल के ज़ेहन में भी होगा, क्योंकि पुलिस कई बार उस पर छापा मार चुकी है।”

“असली वाकया मुझसे सुनिये। आप लोग बगैर पूछताछ किये उनके साथ चल पड़े थे। बाद में सुधीर साहब को इस गलती का एहसास हुआ। वापसी पर जब वे रवानगी लिखने बैठे, तो घबराहट में कमरे का नंबर लिख गये। मैंने केस हाथ में लेने के बाद सबसे पहले रवानगी ही देखी थी। शायद उसी वक्त उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ। उसके बाद अभी थोड़ी देर पहले मुलज़िम के हुलिये के लिए मुझे दोबारा रवानगी देखनी पड़ी। आपको यह सुनकर हैरत होगी कि कमरे का पहला नंबर ब्लेड से खुरच कर उसकी जगह दूसरा नंबर लिख दिया गया था। जिसकी स्याही कागज कुदरा हो जाने की वजह से फैल गई थी।” फ़रीदी खामोश हो गया और हमीद हँसने लगा।

“साहब, यह बात मेरी समझ में तो आई नहीं। वाकई आप लोग हम लोगों के बारे में बहुत बुरे ख़याल रखते हैं।” सब-इंस्पेक्टर ने झेंप मिटाने की कोशिश करते हुए कहा।

“हम लोग आप लोगों के बारे में बुरे ख़याल रखने पर मजबूर हैं। आखिर कोई हद भी है। कोतवाली में रखी हुई मोटर साइकिल का नंबर कोई रेत कर चला जाये, पर आप लोगों को खबर भी ना हो।”

“वाकई इस पर तो ज़रूर हैरत है।” सब-इंस्पेक्टर ने कहा।

“मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कोतवाली का कोई फर्द (शख्स) सुधीर साहब की जान का दुश्मन है या फिर उनके दुश्मनों से मिला है। कोई बाहर का आदमी इतनी हिम्मत नहीं कर सकता।”

“आपका ख़याल ठीक है, लेकिन वह कौन हो सकता है?”

“यही तो देखना है।”

कार लक्ष्मणपुर में दाखिल हो चुकी थी। वहाँ तकरीबन 2 घंटे तक छानबीन करने के बाद भी कोई सुराग न मिल सका। लेकिन इतना ज़रूर मालूम हुआ कि वहाँ के लोगों ने पैरों की आवाजें सुनी थी। लेकिन यह उनके लिए कोई नई बात न थी, क्योंकि वहाँ आये दिन शिकारियों की बंदूके चला करती थी।

वापसी में सब-इंस्पेक्टर ने फ़रीदी से कहा, “इंस्पेक्टर साहब, क्या बताऊं….वाकई हम लोगों ने सख्त गलती की कि मुलज़िम का पता मालूम किए बगैर उसके साथ चले गये और यह भी सही है कि रवानगी हादसे के बाद लिखी गई थी। लेकिन मुझे उम्मीद है कि आप लोग यह बात अपने तक ही रखेंगे।”

“मगर यह कैसे मुमकिन है?” हमीद जल्दी से बोला।

फ़रीदी खामोश था। उसकी निगाहें बाहर अंधेरे में भटक रही थी। उंगलियों में दबा हुआ सिगार बुझ चुका था। दिन-भर की दौड़ धूप के बावजूद कोई खास नतीजा हाथ न लगा था। यह शायद पहला मौका था कि तफ्तीश का एक दिन इस तरह बेकार हो रहा था।

“अगर मैंने इसकी कोई ख़ास ज़रूरत ना समझी, तो उसे पर्दे में ही रखूंगा।” फ़रीदी ने धीरे से कहा और सिगार सुलगाने लगा।

“शुक्रिया..!” सब-इंस्पेक्टर ने इत्मीनान की सांस ली।

फिर खामोशी छा गई।

कार की तेज रोशनी अंधेरे का सीना चीरती हुई तेजी से आगे बढ़ रही थी। अचानक सड़क के बायें किनारे की झाड़ियों से 3-4 गीदड़ निकलकर सड़क पार करते हुए दायें किनारे की झाड़ियों में घुस गए। इनमें से एक के मुँह में दबी हुई कोई चीज सड़क पर गिर पड़ी। कार तेजी से उसे रौंदती हुई आगे निकली जा रही थी कि तभी फ़रीदी चीखा, “हमीद… रोको….गाड़ी रोको।”

कार एक झटके से रुक गई।

“क्या बात है?” सब-इंस्पेक्टर हैरान होते हुए बोला।

“आइए…आइए! हमीद, ज़रा मुझे टॉर्च देना।” फ़रीदी ने कार से उतरते हुए कहा। टॉर्च की रोशनी सड़क पर पड़े हुए जूते के चारों तरफ घेरा बना रही थी।

फ़रीदी ने जूते उठाकर टॉर्च की रोशनी में देखना शुरू किया।

“जूता तो नया मालूम होता है, लेकिन यह यहाँ कैसे आया?” हमीद ने कहा।

“यह इन्हीं गीदड़ में से एक के मुँह में दबा हुआ था।” फ़रीदी जूते पर नजरें जमाये धीरे से बोला। टॉर्च की रोशनी में झाड़ियों से उलझता हुआ वह आगे बढ़ रहा था। हमीद और सब-इंस्पेक्टर भी उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। उन्हें उसके इस रवैये पर सख्त हैरत थी, लेकिन वे ख़ामोश थे।

अचानक फ़रीदी रुक गया। झाड़ियाँ हटाकर दूसरी तरफ़ कुछ देख रहा था। सब-इंस्पेक्टर और हमीद भी रुक गए। थोड़ी देर बाद फ़रीदी मुड़कर बोला, “दरोगा जी, आप भूतों पर यकीन रखते हैं या नहीं?”

“मैं आपका मतलब नहीं समझा।” सब-इंस्पेक्टर ने कहा। लेकिन न जाने क्यों वह कांपने लगा।

“मतलब यह कि अगर आप इस वक्त जंगल में किसी जगह एक आदमी की टांग जमीन के अंदर से निकले ही देख ले, तो आपका क्या हाल होगा?”

“मेरे ख़याल से इनकी रूह इनका जिस्म में छोड़कर निकल जायेगी।” हमीद हँसकर बोला।

“अच्छा, तो पहले तुम ही आओ….!” फ़रीदी ने संजीदगी से कहा।

हमीद आगे बढ़ा। लेकिन दूसरे ही पर उसे ऐसा मालूम हुआ, जैसे किसी ने उसे पीछे धकेल दिया हो। वह बुरी तरह कांप रहा था।

“ज़ ज….ज़रूर….भभू…. त…..!” हमीद हकलाने लगा।

“बस, निकल गई सारी शरारत…!” फ़रीदी ने हँसकर कहा, “आइए दरोगा जी आप भी देखिये।”

“जी….जी…मैं…!” सब-इंस्पेक्टर हमीद की हालत देख कर आगे बढ़ने की हिम्मत ना कर सका।

“भई, कमाल कर दिया आप लोगों ने। आइये मेरे साथ।” कहते हुए फ़रीदी झाड़ियों में घुस गया। हमीद और सब-इंस्पेक्टर को भी साथ देना ही पड़ा। एक जगह थोड़ी खुदी हुई जमीन से एक इंसानी पैर बाहर निकला हुआ था। पतलून का पायचा कई जगह से फटा हुआ था और नंगे पांव में लंबी-लंबी खराशें थी।

“क्या समझे?” फ़रीदी अपने दोनों डरे हुए साथियों की तरफ़ मुड़कर बोला।

दोनों खामोशी से उसका मुँह ताक रहे थे।

“यह जूता उसी पैर का है। गीदड़ ने यहाँ की जमीन खोदी है। लाश की एक टांग निकाल पाये थे कि मोटर की शोर की वजह से उन्हें भागना पड़ा। शायद वे उसकी टांग खींच कर बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे। उसी ज़द्दोजहद में उसका जूता उतर गया, जिसे एक गीदड़ ले भागा।” फ़रीदी बोला। फिर उसने आगे कहा, “अरे भई…. यू खड़े मेरी सूरत क्या देख रहे हो।’

“जो बताइए, वह किया जाए।” सब-इंस्पेक्टर अपने सूखे होठों पर ज़ुबान फेरते हुए बोला।

“आओ, मिट्टी हटाकर लाश निकालें।” फ़रीदी ने बैठते हुए कहा, “हमीद, तुम टॉर्च दिखाओ।”

फ़रीदी और सब-इंस्पेक्टर ने मिट्टी हटानी शुरू की। एक घंटे की मेहनत के बाद वे लाश को निकालने में कामयाब हो गये।

“अरे…!” सब-इंस्पेक्टर चौंक कर पीछे हट गया।

“क्या बात है?” फ़रीदी ने पूछा।

“यह वही है, ख़ुदा की कसम वही है।” सब-इंस्पेक्टर जोर से चीख उठा, “वही जो हमें कल रात यहाँ लाया था।”

“बहरहाल…!” फ़रीदी ने इत्मीनान की सांस लेकर कहा, “कभी-कभी मेरे हवाई किले भी सच्चे हो जाते हैं। मुझे शुरु से ही इसकी उम्मीद थी।”

“बड़ी अजीब घटना है। मेरी तो अक्ल चक्कर खा रही है।” सब-इंस्पेक्टर परेशानी की सूरत में बोला। लगभग आधे घंटे तक तीनों वहीं खड़े लाश के बारे में बात करते रहे।

“खैर, अब यहाँ इस तरह खड़े रहना ठीक नहीं है। आइये उसे उठाकर काट तक ले चले।” फ़रीदी ने सिगार एक तरफ फेंकते हुए कहा।

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