चैप्टर 22 : मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशान नॉवेल | Chapter 22 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Urdu Novel In Hindi Translation

Chapter 22 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel

Chapter 22 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel

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“सबा को बुला दो। ख़ुदा के लिए कोई एक बार सबा को बुला दे। मैं उसके सामने हाथ जोड़कर माफी मांग लूंगी, ताकि मैं सुकून से मर सकूं। आफ़रीन! तुम ही चले जाओ। तुम ही उसे बुला लाओ। उससे कहो, आकर मुझे जूते मारे। उसे कहो, आकर मेरे मुँह पर थूके। मुझे गालियाँ दे, कुछ तो करे, मगर एक बार आ जाये, मुझे इस अज़ाब (यातना, तकलीफ) से निज़ात दिला दे। उसे कहो, अल्लाह के नाम पर मुझे माफ़ कर दे, एक बार कह दे कि उसने मुझे माफ़ किया। आफ़रीन! एक दफ़ा उसे ले आओ। ख़ुदा के लिए एक बार…”

तायी अम्मी तकलीफ़ की शिद्दत से अपनी बात मुकम्मल नहीं कर पाई थी। वह कराहने लगी थी। फिर वह पहले की तरह ग़शी (बेहोशी) में चली गई। आफ़रीन कमरे से बाहर निकल आया। बरामदे की सीढ़ियों में बैठकर उसने दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया।

“आफ़रीन! तुम सबा को लेने जाओ। वह किसी के जाने पर नहीं आ रही। वह दरवाजा बंद कर लेती है। वह नहीं आयेगी, तो तुम्हारी अम्मी इसी हालत में रहेगी। उसे अब सेहत-याब नहीं होना है। बेहतर है वह मर जाये, ताकि इस तरह से उसकी जान छूट जाये। लेकिन सबा नहीं आयेगी, तो वह इसी अज़ाब (यातना, तकलीफ) में रहेगी। तुम जाओ…तुम्हारे…तुम्हारे कहने पर वह आ जायेगी।

उसे अपनी पुश्त पर बाप की आवाज सुनाई दी। उसने सिर उठाकर खाली नज़रों से सेहन (बरामदा) को देखा। बाहर सुकूत (शांति) था। अंदर से एक बार फिर उसकी माँ के कराहने की आवाज आने लगी थी। वह एक दिन पहले तेन साल बाद पाकिस्तान आया था। ताया ने उसे उसकी माँ की बीमारी की इत्तला दी थी और यह भी बता दिया था कि डॉक्टर कह रहे हैं कि उसका कैंसर आखिरी स्टेज पर है और अब बचने की कोई इम्कान (चांस) नहीं है। वह पिछले दो साल से बीमार थी और वह इस बात से ला’इल्म नहीं था, लेकिन वह ख़ुद आने के बजाय एक लंबी-चौड़ी रकम भेज देता था। मगर अब उसे आना ही पड़ा था। वह आसमां और हैदर को भी साथ लाया था, ताकि अम्मी मरने से पहले उन्हें भी देख सके और यहाँ पर उसके लिए शॉक मौजूद था।

तीन माह पहले तायी अम्मी ने इस बात का इक़रार कर लिया था कि उन्होंने कुरान पर झूठ हलफ़ (कसम, सौगंध) उठाया था और उन्होंने सबा को जानबूझकर उस मंसूबे का शिकार बनाया था।

आदिल डेढ़ साल पहले घर आ गया था और तीन साल मुज़रिमों की तरह गुज़ारने के बाद तायी ने उससे और उसके माँ-बाप से माफ़ी मांगी थी। शायद वह माफ़ ना करते, मगर तायी की हालत अब बीमारी की वजह से इतनी खराब हो चुकी थी कि उन्होंने दिल पर पत्थर रखते हुए उन्हें माफ़ कर दिया था और फिर सबा की तलाश शुरू हुई थी और तब ताया को पता चला था कि उसका शौहर सबा की बेटी को अपनी औलाद मानने को तैयार नहीं था और उसने सारा की पैदाइश से छह माह पहले ही उसे तलाक़ दे दी थी।

“मैं सबा के बारे में तुम्हें सब कुछ इसलिए बताया था ताकि तुम कल को यह ना कह सको कि हमने तुम्हें धोखा दिया।” ताया को याद आया था, उन्होंने शादी से पहले सबा के शौहर से यह सब कहा था। उन्होंने अपने हाथों से उसके घर की बुनियाद पानी पर रखी थी। “एक तोहमत मेरी बीवी ने लगाई। दूसरी तोहमत का हिस्सेदार मैं बन गया।” वो लरज कर रह गए थे।

चंद हफ्तों की तलाश के बाद वह सबा तक पहुँचने में कामयाब हो गए थे। वह किसी हॉस्पिटल के रिहायशी इलाके में किसी डॉक्टर के यहाँ काम करती थी, मगर सबा ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया था। फिर वह उस इलाके में गए थे, जहाँ वह रहती थी। मगर उसने उनकी आवाज पहचान कर दरवाजा नहीं खोला। वह देर तक दरवाजा बजाते, उसे आवाज दे देते रहे, मगर घर के अंदर मुकम्मल ख़ामोशी रही। वह थक-हार कर लौट आए थे। उसने यह सलूक सिर्फ उन्हीं के साथ नहीं किया था, बल्कि जो भी उसके पास गया था, उसने उन सबके साथ यही किया था। आफ़रीन सब कुछ जान कर सकते में रह गया था।

“मैं बेकसूर हूँ। मैं कोई गुनाह नहीं किया, मगर मेरे पास कोई सबूत नहीं।”

“मैं सच बोलती हूँ, तुम्हें ऐतबार नहीं आता। मैं झूठ बोलूंगी, तुम यकीन कर लोगे। तुम पहले ही दूसरों की बातों पर यकीन कर चुके हो, मुझसे तो तुम सिर्फ तस्दीक़ (पुष्टि) चाहते हो।”

“अल्लाह दिलो में बसता है। तुम अपने दिल से पूछो मैं बेगुनाह हूँ या नहीं।”

एक आवाज उसके कानों में गूंजती रही। वह आवाज़ का गला नहीं घोंट सकता था। वह बिस्तर पर पड़ी हुई बीमार माँ को खुलेआम मलामत (निंदा) भी नहीं कर सकता और उसे सबा के सामने भी जाना था।

हम देखेंगे।

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे।

हम देखेंगे।

वह दिन जिसका वादा था।

हम देखेंगे।

चाचा के घर रेडियो पर सिंगर बुलंद आवाज में गा रही थी।

“आफ़रीन तुम जाओ ना!” उसे बाप की आवाज सुनाई दी। उसने बेबसी से होंठ भींच लिये।

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