चैप्टर 14 : मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशान नॉवेल | Chapter 14 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Urdu Novel In Hindi Translation

Chapter 14 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel

Chapter 13 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel

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दरवाज़ा खुल गया था। बाहर खड़े मज़मा को जैसे तवक्कु’आत (उम्मीदों) के मुताबिक उन दोनों को अंदर से निकलते देख कर हैरत हुई थी।

“ताई अम्मी! किसी ने बाहर से….” सबा ने आखिरी बार सफ़ाई देने की कोशिश की।

“मैंने किया था दरवाज़ा बंद, ताकि तुम दोनों की करतूत को सब को दिखा सकूं।“ ताई अम्मी शेर की तरह उस पर झपटी।

“आपको क्या हो गया है? आप ये कह रही हैं? आप ही ने तो मुझे यहाँ बिस्तर देखने के लिए भेजा था।“ सबा ने एकदम चिल्ला कर कहा।

“आवारा! चुड़ैल! हरफ़ा! मैंने तुम्हें यहाँ बिस्तर देखने के लिए भेजा था? मेरा दिमाग खराब था? मैं यहाँ आफ़रीन के कमरे में किसी के लिए बिस्तर लगवाऊंगी। बेगैरत! बेहया! तुम्हें शर्म नहीं आयी, मेरे बेटे के कमरे में मुँह कला करते हुए? हाय मेरा आफ़रीन! उसे क्या पता था, वो किस बेहया को ब्याहने की बात कर रहा है।“

ताई अम्मी ने दुहाई देते हुए अपना सीना पीट लिया।

“आप झूठ बोल रही हैं ताई अम्मी। आप तोहमत लगा रही हैं।“ सबा ने सफ़ेद पड़ते चेहरे के साथ कहा। 

“होश करें ताई अम्मी! ख़ुदा के लिए होश करें। ऐसी बातें ना करें। आपने तो मुझे बल्ब होल्डर ठीक करने भेजा था।“ आदिल ने भर्रायी हुई आवाज़ में ताई अम्मी के आगे हाथ जोड़ लिये।“

“मैं होश करूं? मैं होश करूं? तुम लोगों की करतूत लोगों को न बताऊं? तुम लोगों के कारनामों पर पर्दा डाल दूं? आफ़रीन तुम्हें भाई की तरह समझता था। तुमने भाई की पुश्त में खंज़र घोंप दिया है। या अल्लाह मैं ये दिन देखने से पहले मर क्यों ना गयी।“

ताई अम्मी ने हाथ मलते हुए बुलंद आवाज़ में रोना शुरू कर दिया। सबा ने एक नज़र अपनी अम्मी की तरफ़ देखा, जो गुमसुम एक तरफ़ खड़ी थी। उसकी छोटी बहन रो रही थी।“

“ताई अम्मी! मैंने कुछ नहीं किया। अल्लाह जानता है कि मैं बेगुनाह हूँ। मैं आफ़रीन की बीवी हूँ। मैं उसे धोखा कैसे….”

ताई अम्मी ने उसके चेहरे पर थप्पड़ खींच मारा था. “नाम मत ले बेगैरत! आफ़रीन का नाम मत ले। तू आफ़रीन के लिए मर गई है। क्या तेरे जैसी बदकिरदार को इस घर में लायेंगे। अरे जाओ जाकर घर के मर्दों को बुला कर लाओ। उनसे कहो, देखें इस घर पर क़यामात टूट पड़ी है।“ ताई अम्मी ने हाथ लहराने शुरू कर दिये।

“ख़ुदा का खौफ़ करें ताई अम्मी! ख़ुदा का खौफ़ करें।” आदिल एक बार फिर उनके सामने गिड़गिड़ाया।

“तुम लोगों को ख़ुदा का खौफ़ क्यों नहीं आया? मैं तो तुम दोनों के टुकड़े करके कुत्तों के सामने डलवा दूंगी। बख्शूंगी नहीं।“ उन्होंने ज़हरीले लहज़े में कहा.

आदिल के दिल में पता नहीं क्या आयी कि उसने कहा, “तुम एक ज़लील औरत हो। तुमने जानबूझकर हम दोनों को फंसाया है। तुम्हारा क्या ख़याल है, मैं तुम्हारे हाथों मरने के लिए यहाँ बैठा रहूंगा? लेकिन तुम याद रखना, मैं जब  भी वापस आऊंगा, तुम्हें ज़िन्दा नहीं छोडूंगा।“

आदिल एकदम अदब-आदाब (good manners) बलाए-ताक़ (एक तरफ़) रखते हुये ताई पर दहाड़ा और फिर इससे पह्ले की कोई उसे पकड़ने की कोशिश करता, वो भागता हुआ नीचे चला गया। ताई अम्मी ने उसके भागने पर कोई शोर-ओ-गौगा (चीख-ओ-पुकार) बुलंद नहीं किया।

“अगर एय बेगुनाह होता, तो यहाँ से भागता क्यों? देखो तो आलिया अपनी बेटी के करतूत। तुम्हें कितना समझाया था कि उसे रोको। तुमने  एक नहीं सुनी थी। अब सारी उम्र अपना मुँह छुपती फिरना।“

ताई अम्मी ने सबा की अम्मी को मुखातिब करते हुए कहा था, जो अब हिचकियाँ से रो रही थीं। सबा ने दीवार के साथ टेक लगा ली। हुज़ूम उसके इर्द-गिर्द घेरा डाले खड़ा था। वो आदिल की तरह वहाँ से भाग नहीं सकती थी। वो भागना चाहती ही नहीं थी। जो कुछ हो रहा था, वो समझ नहीं पा रही थी। हाँ, गर कुछ समझ में आ रहा था, तो वह सामने खड़े लोगों की नज़रें थीं, जो नेज़े (सरकंडा) की तरह उसके जिस्म को छेड़ रही थीं. वो अब इंतज़ार में थी कि ताया और दूसरे लोग ऊपर आयें और वो उन्हें अपनी बात समझाये। उसे तवक्को (उम्मीद) थी कि वो उसकी बात समझ लेंगे और तवक्को हमेशा सिर्फ तवक्को ही रहती है।

आफ़रीन की बड़ी बहन ने नीचे जाकर अपने बाप को सब कुछ इस तरह बताया, जिस तरह ताई अम्मी कह रही थी। वो आगबबूला होकर ऊपर आये। ताई ने उन्हें देखते ही अपनी दुहाईयों का सिलसिला दोहराना शुरू कर दिया।

सबा को देखते ही वो आपे से बाहर हो गये। उन्होंने सबा की बातें नहीं सुनी। कोई भी अब उसकी बात नहीं सुन रहा था। उसे लग रहा था, जैसे वो गूंगी हो गयी है या बाकी सब बहरे हो चुके हैं।

“मैं इसे नहीं छोडूंगा। मैं इसे गोली मार दूंगा, ताकि आइंदा ऐसी हरकत करने की किसी में ज़ुर्रत ना हो सके।“

उन्होंने एकदम से फ़ैसला किया और लपकते हुए नीचे चले गये। ताई को अचानक सूरत-ए-हाल की संगीनी का एहसास हुआ, वो भी भागती हुई उनके पीछे चली गयीं।

“बेगैरत! जाओ अपने घर और क्या तमाशा करवाना चाहती हो यहाँ? चाहती हो कि मेरा बाप तुम्हें गोली मारकर ख़ुद फांसी चढ़ जाये, हमारा घर तबाह हो जाये, निकलो यहाँ से, दफ़ा हो जाओ यहाँ से।“

एकदम आफ़रीन की सबसे बड़ी बहन उसकी तरफ़ आयी और उसका बाज़ू खींचकर उन्होंने उसे सीढ़ियों की तरफ़ धकेलना शुरू कर दिया। उसका दुपट्टा नीचे गिर पड़ा। आपा ने उसे दुपट्टा उठाने की मोहलत नहीं दी। वो होंठ काटते, आँसू को ज़ब्त करते दुपट्टे के बगैर ही नीचे उतरने लगी।

नीचे हंगामा बरपा हुआ था। ताया अब्बू अपना पिस्तौल निकाल रहे थे और उनके दोनों छोटे भाई उन्हें पकड़ रहे थे। सरमद के अब्बू ने उनसे पिस्तौल छीन लिया था। सबा अंधों की तरह चलती हुई बाहर सेहन (बरामदे) में निकल आयी।

“मेरे लिए तुम मर गयी हो। मेरे घर आने की ज़रूरत नहीं है। जहाँ दिल चाहे चली जाओ, लेकिन अपने गंदे क़दम मेरे घर में मत लाना।“

सेहन (बरामदा) में निकलते ही उसने पीछे अपनी माँ की आवाज़ सुनी। उन्होंने अक्सा का हाथ पकड़ा था और तक़रीबन भागते हुए अपने हिस्से की तरफ़ चली गयी थीं। वो वहीँ साकित हो गयी। कोई चीज़ उसके चेहरे को भिगोने आगी।

“उसके हिस्से के अलावा बाकी हर हिस्से के बरामदों में लोग जमा थे। कुछ को वो जानती थी, कुछ को नहीं जानती थी। मगर आज के बाद सारी उम्र उसका चेहरा उन्हें यद् रहना था। वो फ़र्श पर बैठ गई और उसने अपना सिर घुटनों में छुपा लिया। खतरे के सामने आँखें मूंद लेना कबूतर को क्यों इस कदर पसंद है, उसे आज पता चला। फिर अचानक उसे ताया की दहाड़ सुनाई दी। उसने सिर उठाकर ताया के घर की तरफ़ देखा। वो सेहन में निकल आये थे और उसकी तरफ़ आ रहे थे. वो बे-इख्त्तियार उठ कर खड़ी हो गयी।

मैं उनसे कहूंगी मेरे साथ क्या हुआ है। मैं उन्हें बताऊंगी उसने सोचा. वो अब भी उसे गालियाँ दे रहे थे। उनका चेहरा आग की तरह सुर्ख था।

“ताया अब्बू! मेरी बात सुनें।” उसने उनके क़रीब आने पर बुलंद आवाज़ से कहा, लेकिन वो बात सुनने नहीं आये थे। उन्होंने उसके क़रीब आते ही दोनों हाथों से उसके बाल पकड़ लिये।

“ये न करें ताया अब्बू! ये ना करें।“ वो खौफ़ से चिल्लाई।

बरामदे लोगों से भर गये थे। बच्चे इश्तियाक़ (उत्कंठा) की वजह से सेहन में निकल आये थे। उन्होंने बाल खींचते हुए गालियाँ देते हुए उसे फर्श पर धक्का दिया। फिर पांवों से जूता उतार लिया। उसने खौफ़ के आलम में उन्हें देखा।

 “ताया…!” उसकी आवाज़ हलक में हघुट कर रह गयी। वो पूरी ताकत से उसके सिर पर जूते बरसा रहे थे। सबा ने उनका हाथ पकड़ने की कोशिश की। उनके इश्ति’आल (उत्तेजना) में और इज़ाफ़ा हो गया। उन्होंने एक हाथ से उसके बाल पकड़ लिये। पता नहीं सबा के दिल में क्या आया, उसने दोनों हाथ उनके सामने जोड़ दिये।

“नहीं ताया अब्बू! यहाँ सेहन में लोगों के सामने इस तरह ना मारें। मारना चाहते हैं तो मुझे गोली मार दें या फिर मुझे पिस्तौल दें, मैं ख़ुद अपने आपको गोली मार लेती हूँ।“

उन्होंने उसने सिर पर जूते मारने का सिलसिला जारी रखा। उसने आखिरी बार सिर उठाकर कर दूर बरामदे में खड़े लोगों को देखा, फिर उसने अपने घुटनों के गिर्द बाज़ू लपेट कर सिर झुका लिया।

ताया अब्बू उस पर जूते बरसते रहे। वो किसी हरक़त शोर के बगैर ख़ामोशी से पिटती रही। दूर कहीं से उसे अक्सा के रोने और चीखने की आवाजें आ रही थी।

“ये क्यों किया आपी? ये क्यों किया?” वो जवाब देना चाहती थी, मगर वो बोल नहीं सकती थी।

दर्द का एहसास बढ़ता जा रहा था। वो सिर उठा कर एक बार अक्सा को देखना चाहती थी। वो सिर नहीं उठा सकती थी। आज यौम-ए-हिसाब (judgement day) था।  

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