चैप्टर 2 : मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशान नॉवेल | Chapter 2 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Urdu Novel In Hindi Translation

Chapter 2 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel 

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उसने एक गहरी साँस लेकर गेट पर नज़र जमा दी. गेट के दूसरी तरफ एकदम कदमों की आवाजें उभरी. कोई दरवाज़े की तरफ़ आ रहा था. वो दीवार से हटकर खड़ी हो गयी. गेट में मौज़ूद छोटे दरवाज़े को खोलने के बजाय किसी ने बड़ी तेज़ी से पूरे गेट को खोल दिया था. पचास-पचपन साल का एक दराज़-क़द (लंबा) आदमी थ्री-पीस सूट में सामने मौज़ूद था.

“सारा?” वो उस शख्स के मुँह से अपना नाम सुनकर हैरान रह गई थी. कुछ नर्वस होकर उसने अपना सिर हिलाया था.

“अंदर आ जाओ.” वो उस शख्स के लहज़े की नरमी पर हैरान होते हुए गेट से अंदर आ गयी थी.

“तुम्हारा सामान कहाँ है?” उस शख्स ने अंदर आते ही पूछा.

“सामान तो घर पर है.” उसने धीमी आवाज़ में कहा. घर को बाहर से देखने पर वो सस्पेंस में थी. अंदर आकर इज़्तिराब (बेचैनी) में मुब्तला (गिरफ़्तार होना, फंसना, उलझना) हो गयी.

“मैं यहाँ कैसे रहूंगी?” बार-बार एक ही सवाल उसके ज़ेहन में उभर रहा था.

“ठीक है. आओ फिर सामान ले आते हैं.” वो उसका जवाब सुनकर बगैर किसी तामील के पोर्च में खड़ी गाड़ी की तरफ़ बढ़ गए थे. वो कुछ झिझकती हुई पीछे आई. 

“पाता नहीं इनको वहाँ ले जाना ठीक होगा या नहीं.” उसने सोचा, मगर कोई फैसला करने से पहले ही वो गाड़ी का दरवाज़ा खोल चुके थे. ड्राइविंग सीट पर बैठने के बाद उन्होंने फ्रंट सीट का दरवाज़ा खोल दिया. वो कुछ तज़ब्जुब (असमंजस, दुविधा, उहापोह) के आलम में अंदर बैठ गयी.

“आप आफ़रीन अब्बास हैं?” उसने अंदर बैठते ही पूछा. एक हल्की सी मुस्कराहट उनके चेहरे पर उभरी.

“हाँ मैं आफ़रीन अब्बास हूँ.” गाड़ी स्टार्ट करते हुए उन्होंने जवाब दिया. “सबा कैसी है?” उन्होंने गाड़ी रिवर्स करते हुए पूछा था.

“सबा!” कुछ गायब-दिमागी (absent mind) के आलम में उसने नाम दोहराया. फिर एक झमके (चमक) के साथ उसके दिमाग की स्क्रीन पर माँ का चेहरा उभरा. “अम्मी” बे-इख़्तियार (एकाएक, अचानक) उसके ज़ुबान से निकला.

“हाँ कैसी है वो?” आफ़रीन अब्बास की गाड़ी गेट से बाहर निकाल चुके थे. वो चंद लम्हों तक चुप रही. गाड़ी सड़क पर बढ़ते हुए उन्होंने एक बार फिर से वही सवाल किया.

“अम्मी मर चुकी है.” बेहद धीमी आवाज़ में आँसुओं पर काबू पाते हुए उसने जवाब दिया. गाड़ी एक झटके से रुक गयी.

“सबा मर चुकी है.” आफ़रीन के लहज़े में बेयकीनी थी.

“हाँ” उसने सिर हिलाते हुए जवाब दिया. वो उनके चेहरे को देखना नहीं चाहती थी. गाड़ी में कुछ देर तक ख़ामोशी रही.

“कब?” आवाज़ अब पहले की तरह मुस्तहकम (स्थिर) नहीं थी.

“पाँच दिन पहले.” आफ़रीन अब्बास ने स्टीयरिंग पर माथा टिका दिया. उसने सिर उठाकर भी उन्हें देखा. वो रो नहीं रहे थे. बस उनकी आँखें बंद थी और होंठ भींचे हुए थे. वो ख़ामोशी से उन्हें देखती रही. फ्रेंच लिखी हुई वो तहरीर (लिखाई, ख़त) उसकी नज़रों के सामने आ गयी.

आफ़रीन!

सारा को अपने पास रख लेना, उसे मेरे खानदान के पास मत भेजना. माज़ी (अतीत) दोहराने की ज़रूरत नहीं है, बस इसका ख़याल रखना.

सबा

अम्मी का माज़ी क्या हो सकता है, जिसे वो मुझसे छुपाना चाहती थी. अपनी मर्ज़ी की शादी, खानदान का शादी का कबूल करने से इंकार, उनका घर से चले जाना, अब्बू की मौत, अम्मी का वापस ना जाना, ना खानदान से कोई राब्ता (रिश्ता) रखना’ उसे  हमेशा की तरह कड़ी से कड़ी मिलायी थी. वो पहेलियाँ बूझने में हमेशा से ही अच्छी थी.

‘लेकिन अम्मी को जान लेना चाहिए था कि मैं कभी भी बेवकूफ नहीं रही.’ उसने सोचा. ‘और ये शख्स जो इस खबर पर इस कदर निढाल है, ये कौन हो सकता है? यकीनन अम्मी को पसंद करता होगा और अम्मी ने इससे शादी नहीं की होगी. मेरे अब्बू की वजह से इसे ठुकरा दिया होगा’ उसने आफ़रीन अब्बास की गुत्थी भी सुलझा ली थी. ’और अगर अम्मी इससे शादी कर लेती, तो हम कितनी अच्छी ज़िन्दगी गुज़ार सकते थे. लेकिन पता नहीं ये मुहब्बत नाम का अज़ाब (मुसीबत, बला, जंजाल) क्यों चिमट जाता है, जो कुछ सोचने नहीं देता.

उसने रंजीदगी (कष्ट से) से सोचा. आफ़रीन अब्बास ने अब स्टीयरिंग से सिर उठा लिया था. उन्होंने दोबारा उस पर नज़रें नहीं डाली. सारा को उन पर बेतहाशा तरस आया. आफ़रीन अब्बास ने उससे पता पूछा. उनका चेहरा देखते हुए उसने पता बता दिया.

“आप अम्मी के क्या लगते थे?” उसने पता बताते ही उनके चेहरे पर नज़र जमाये सवाल किया.

“वो मेरी चाचाजाद थी” आवाज़ में शिकस्तगी थी.

‘अम्मी के अब्बू ज़िन्दा हैं?” उसने अगला सवाल किया.

“अम्मी फ़ौत (मौत) हो चुकी हैं. अब्बू अमेरिका में हैं.”

“अम्मी के कोई बहन भाई हैं?” उसकी बेताबी में इज़ाफ़ा हो गया था.

“तुम्हारी एक खाला और एक मामू हैं. वो दोनों भी अमरीका में ही होते हैं.” वो सड़क पर नज़रें जमाये उसके सवालों के जवाब दे रहे थे.

“मेरे अब्बू के बारे में कुछ आते हैं आप?” उसने जी कड़ा कके पूछ लिया था.

“तुम्हारी अम्मी ने तुम्हें उनके बारे में कुछ नहीं बताया” आफ़रीन ने इस बार भी उसे देखे बगैर कहा था.

“बस इतना पता है कि उनकी डेथ हो चुकी है.”

इस बार आफ़रीन अब्बास ने उसक चेहरा देखा था.

“हाँ उनकी डेथ हो चुकी है.” बेहद अजीब लहज़े में उन्होंने कहा था. इससे पहले कि वो कुछ और सवाल पूछती, उन्होंने पूछा, “तुम पढ़ती हो.”

“नहीं, ग्रेजुएशन करने के बाद पढ़ना छोड़ दिया. एक फैक्ट्री में’ काम करती हूँ.”

“क्या काम करती हो?”

“सुपरवाइजर हूँ.” गाड़ी में ख़ामोशी छा गयी. उसके फ्लैट तक पहुँचने तक ये ख़ामोशी क़ायम रही. गाड़ी से उतरकर इस पुरानी तंग व तरीक़ (डगर. रास्ता) इमारत की सीढ़ियाँ तय करते वो खामोशी से उसकी पैरवी करते हुए तीसरी मंज़िल  पर पहुँच गए थे. सारा ने अपने बैग से चाबी निकाली और दरवाज़े पर लगाकर ताला खोलकर अंदर दाखिल हो गई. आफ़रीन अब्बास भी अंदर चले गए. सीलन-ज़दा एक कमरे का फ्लैट अपने मकानाई (resident) की माली हालत चीख-चीख कर बता रहा था.

 “आप बैठ जाइये.” सारा ने एक कुर्सी खींचकर उनके सामने रख दी. आफ़रीन अब्बास ख़ामोशी से कुर्सी पर बैठ गया.

“क्या आप मुझे अपने पास रख सकेंगे?” वो सवाल, जो पूरा रास्ता वो उनसे करना चाह रही थी, मगर कर नहीं पायी थी, उसकी ज़ुबान पर आ गया. आफ़रीन अब्बास उसकी बात पर चौंक उठे थे.

’”ये सवाल क्यों किया तुमने?”

“मेरा मतलब है, आपकी फैमिली को तो कोई एतराज़ नहीं होगा?” उसने अपनी बात वज्ज़ा (गढ़ी थी) की थी.

“मेरी कोई फैमिली नहीं है, सिर्फ एक बेटा है और उसे कोई एतराज़ नहीं होगा.”

वो खड़े हो गए थे. वो कुछ दीगर बैग्स में कपड़े और चीज़ें भरने में मशरूफ़ रही. सामान पैक करने के बाद उसने कमरे पर एक नज़र दौड़ाई. उसका बस चलता तो वो हर चीज़ उठा कर साथ ले जाती, लेकिन वो जानती थी कि उस कमरे की हर चीज़ उस घर में काठ-कबाड़ से ज्यादा अहमियत नहीं पा सकेगी. इसलिए उसने सिर्फ़ अपने कपड़े और अम्मी की कुछ चीज़ें साथ ली थी. आफ़रीन अब्बास अब खिड़की में खड़े बाहर झांक रहे थे.

“कब से रह रहे हो तुम लोग यहाँ?’ बाहर देखते हुए उन्होंने उससे पूछा था.

“हमेशा से“ उन्होंने उसके ज़वाब पर मुड़ कर अंदर देखा था. वो बैग्स उठाने लगे, तो उसने उन्हें रोकने की कोशिश की थी.

“आप रहने दे. मैं ख़ुद उठा लूंगी.”

“तुम नहीं उठा सकती.” उन्होंने बैग्स उसके हाथ से ले लिए थे.

“मैं आपको क्या कह कर पुकारूं?” उसने उन्हें दरवाज़े की तरफ़ जाते हुए रोका था. आफ़रीन अब्बास ख़ामोशी से उसका चेहरा देखते रहे. “जो कहने में आसानी हो, कह सकती हो. चाहो तो…पापा कह सकती हो.” वो उनकी बात पर गुमसुम हो गयी थी. आफ़रीन अब्बास कमरे से चले गए थे.

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